Monday, October 25, 2021

कैसे सफल हो नई कश्मीर नीति ?


धारा 370 और 35 ए हटने के बाद कश्मीर घाटी में जो हुआ उसके सकारात्मक परिणाम आने लगे थे। विकास की तमाम योजनाएँ चालू हो गई थीं। आईआईटी, आईआईएम व एम्स जैसे नए नए संस्थान बनने लगे थे। इन निर्माण कार्यों में लाखों मज़दूर उत्तर प्रदेश और बिहार से कश्मीर पहुँच गए थे। प्रधान मंत्री मोदी की कश्मीर नीति के तहत देश के कई उद्योगपति कश्मीर में विनियोग की संभावनाएँ खोजने में उत्साह दिखा रहे थे। सीमा पर बीएसएफ़ और फ़ौज की सख़्ती के कारण हथियारों और आतंकवादियों का कश्मीर में घुसना मुश्किल हो गया था। स्थानीय निकायों के चुनावों की सफलता ने आतंकवादियों के हौंसले पस्त कर दिए थे। पत्थरबाज़ी की घटनाएँ और आए दिन होने वाले बंद नदारद हो गए थे। हुरियत जैसे संगठनों पर कसे गए शिकंजे से अलगाववादी राजनीति ठंडी पड़ गयी थी। राज्यपाल मनोज सिन्हा के आने से भी घाटी में कई सकारात्मक काम हुए, जिनका अच्छा असर पड़ने लगा था। इस सबका नतीजा यह हुआ कि घाटी में पर्यटन में भी तेज़ी से उछल आया। कोविड काल में तो पूरी दुनिया में ही पर्यटन ठप्प हो गया था। पर इस जुलाई से अब तक घाटी में 35 लख पर्यटक आया जो की एक रिकॉर्ड है। ज़ाहिर है इससे घाटीकी अर्थव्यवस्था को भी नई ऊर्जा प्राप्त हुई है। यह कहना है जम्मू कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे डॉ शेष पाल वैद का। इस सबकी वजह से आतंकवादियों ने अपनी रणनीति बदली है।


अफगानिस्तान में तालिबान की सफलता से आतंकवादियों के हौंसले दुनिया भर में बुलंद हुए हैं। उन्हें लगता है कि जब उन्होंने अमरीका जैसे सुपर पावर को हरा दिया तो वे दुनिया में किसी भी सरकार को नाकों चने चबवा सकते हैं। उधर पाकिस्तान भी तालिबान के साथ मिलकर दक्षिण एशिया में अपनी नई भूमिका को लेकर बहुत उत्साहित है। जग-ज़ाहिर है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के कारख़ाने चल रहे हैं और इसी के सहारे वहाँ की राजनीति चल रही है। ताज़ा उदाहरण आईएसआई का है, जिसके चीफ़ को पाकिस्तान की फ़ौज ने प्रधान मंत्री इमरान खान की बिना जानकारी के रातों-रात बदल दिया। आईएसआई के नए चीफ़ ने अपनी कश्मीर नीति में फ़ौरन बदलाव किया। क्योंकि पुरानी नीति आब कामयाब नहीं हो रही थी। पुरानी नीति के तहत आतंकवादियों को और हथियारों को कश्मीर की सीमाओं में घुसा कर बड़ी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा था। पर नई व्यवस्थाओं ने जब ऐसा करना मुश्किल कर दिया तो आईएसआई ने अपनी रणनीति बदल दी। 


नई रणनीति में खर्च भी कम है और जान गंवाने का ख़तरा भी कम है। इस नीति के तहत बजाय बड़े हमले करने के दो-दो आतंकवादियों के अनेक समूह बनाकर और उन्हें साधारण हथियार देकर घाटी में फैला दिया गया है। जो फ़ौज, पुलिस या सरकारी प्रतिष्ठानों पर बड़े हमले करने के बजाय ‘सॉफ़्ट टार्गेटस’ जैसे मज़दूरों, अध्यापकों, दुकानदारों या रेहड़ी वालों पर हमले कर रहे हैं। इन हमलों में एक-एक, दो-दो लोग ही मारे जा रहे हैं। दिखने में ये हमले छोटे लगते हैं। पर इनका असर गहरा पड़ा है। इन हमलों से मजदूरों और साधारण लोगों में अचानक भय व्याप्त हो गया है और एक बार फ़िर 90 के दशक की तरह अल्पसंख्यकों में घाटी से पलायन करने की होड़ लग गयी है। इसका सीधा असर विकास प्रक्रिया पर पड़ेगा। क्योंकि सारा निर्माण कार्य इन्हीं लोगों के द्वारा किया जा रहा है। स्थानीय कश्मीरी तो अपने बगीचों से सेब तुड़वाने को भी बिहार, यूपी से मज़दूर मंगाते रहे हैं। 


विकास की प्रक्रिया बड़ी मात्रा में रोज़गार का सृजन करती। जबकि उसके रुक जाने से कश्मीर के युवाओं के भविष्य में मिलने वाले रोज़गार की संभावनाएँ धूमिल हो जाएँगी। जो अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवाद के विस्तार में मददगार होगी। क्योंकि इन बेरोज़गार युवाओं को ही फुसला कर आतंकवादी बनाया जाता रहा है। ये जग ज़ाहिर है कि चीन और पाकिस्तान मिल कर भारत को कमजोर करने की साज़िश कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को कई कड़े कदम उठाने होंगे। वैसे ये कदम पिछले 3 वर्ष में उठाने चाहिए थे, जिनकी ओर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया। जिसके कारण आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सका है। 


सबसे पहले तो देश भर में चल रहे मदरसों पर शिकंजा कसने की ज़रूरत है। इन्हें कहाँ से और कैसा पैसा आता है इस पर कड़ी नज़र ज़रूरी है। इन मदरसों में क्या शिक्षा के नाम पर आतंकवाद का ज़हर तो नहीं पिलाया जा रहा? ये काम कश्मीर में अविलंब  हो चाहिए। जिससे जिहादी मानसिकता को पनपने से पहले ही रोका जा सकेगा। 


दूसरा काम जो नहीं किया गया वो था कश्मीर के युवाओं को आतंकवादियों के चंगुल में फँसने से बचाना। जहां एक तरफ़ विकास के कई काम घाटी में शुरू किए गए वहीं इस बात पर निगाह नहीं रखी गयी कि घाटी के बेरोज़गार नौजवानों को आतंकवादी संगठन किस तरह से फुसला कर प्रशिक्षित कर रहे हैं। इसको बहुत सख़्ती से रोकने की ज़रूरत है। जिससे इन नौजवानों की ऊर्जा रचनात्मक काम में लगे और ये आत्मघाती हमलों में अपनी जान न गँवाएँ। 


तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण काम जो नहीं किया गया, जिसे आईबी और मिलिटरी इंटेल्लीजेंस को करना चाहिए था, वो ये कि कश्मीर में सरकारी नौकरियों में जमाती मानसिकता के जो लोग घुस गए हैं, उन्हें पहचान कर नौकरी से अलग करना। जैसा हाल ही में गिलानी के पोते को हटाया गया है, जिसे बिना लोक सेवा आयोग की प्रक्रिया के सीधी भर्ती करके अफ़सर बना दिया गया था। कश्मीर में शिक्षा, प्रशासन, पुलिस, चिकित्सा आदि विभागों में काफ़ी तादाद में जमायती मानसिकता के लोगों की है, जो वेतन तो सरकार से लेते हैं और अलगाववादी ताक़तों को पालते पोसते हैं। इनकी छटनी किए बिना आतंकवाद पर क़ाबू नहीं पाया जा सकेगा। कश्मीर मामलों के कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि प्रधान मंत्री को फ़्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की तरह कट्टरपंथियों और आतंकवादियों के विरूद्ध कुछ कड़ी नीतियाँ अपनानी होंगी। 


ये दावा तो कोई भी नहीं कर सकता कि हर नीति सफल होगी और आतंकवाद पर पूरी तरह क़ाबू पा लिया जाएगा पर जिस तरह तालिबान का अफगानिस्तान में उदय हुआ और उसके बाद उनकी हुकूमत अपने ही धर्म के मानने वाले पुरुष, स्त्रियों और बच्चों पर वहशियाना नीतियाँ थोप रही है उससे पूरी दुनिया में आतंकवाद को लेकर जो डर था वो और ज़्यादा बढ़ गया है। यहाँ यह कहना भी ज़रूरी है कि चाहे स्वरूप में अंतर हो पर आतंकवाद, अतिवाद और धर्मांदता हर धर्म के लिए घातक होती है, केवल इस्लाम के लिए ही नहीं। 

Monday, October 18, 2021

टाटा के हुए ‘महाराजा’


डूबते हुए एयर इंडिया के ‘महाराजा’ का हाथ टाटा समूह ने 68 सालों बाद फिर से थाम लिया है। एवीएशन विशेषज्ञों की मानें तो टाटा के मालिक बनते ही ‘महाराजा’ को बचाने और दोबारा ऊँची उड़ान भरने के काबिल बनाने के लिए कई ऐसे फ़ैसले लेने होंगे जिससे एयर इंडिया एक बार फिर से भारत की एवीएशन का महाराजा बन जाए। टाटा ने देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कई डूबती हुई कम्पनियों को ख़रीदा है। इनमें से कई कम्पनियों को फ़ायदे का सौदा भी बना दिया है। अब देखना यह है कि अफ़सरशाही में क़ैद एयर इंडिया को उसकी खोई हुई गरिमा कैसे वापिस मिलती है।
 


मीडिया रिपोर्ट की मानें तो अब तक एअर इंडिया के विमानों पर किराए या लीज़ के तौर पर बहुत ज्यादा पैसा खर्च कर रहा था। इसके साथ ही इन पुराने हवाई जहाज़ों का कई वर्षों से सही रख रखाव भी नहीं हुआ है। यात्रियों के हित में टाटा को केबिन अपग्रेडेशन, इंजन अपग्रेडेशन समेत कई महत्वपूर्ण बदलाव लाने होंगे। विशेषज्ञों के अनुसार टाटा समूह को एअर इंडिया मौजूदा विमानों को अपग्रेड करने के लिए कम से कम 2 से 5 मिलियन डॉलर की मोटी रक़म खर्च करनी पड़ सकती है। गौरतलब है कि जब नरेश गोयल की जेट एयरवेज को ख़रीदने के लिए टाटा के बोर्ड में चर्चा हुई तो कहा गया था कि डूबती हुई एयरलाइन को ख़रीदने से अच्छा होता है कि ऐसी एयरलाइन के बंद होने पर रिक्त स्थानों पर नए विमानों से भरा जाए।

जिस तरह अफ़सरशाही ने सरकारी एयरलाइन में अनुभवहीन लोगों को अहम पदों पर तैनात किया था उससे भी एयर इंडिया को नुक़सान हुआ। किसी भी एयरलाइन को सुचारु रूप से चलाने के लिए प्रोफेशनल टीम की ज़रूरत होती है। भाई-भतीजेवाद या सिफ़ारिशी भर्तियों की एयरलाइन जैसे  संवेदनशील सेक्टर में कोई जगह नहीं होती। टाटा जैसे समूह से आप केवल प्रोफेशनल कार्य की ही कल्पना कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर टाटा समूह द्वारा भारतीय नागरिकों को पासपोर्ट जारी करने में जो योगदान दिखाई दे रहा है वो एक अतुलनीय योगदान है। जिन दिनों पासपोर्ट सेवा लाल फ़ीताशाही में क़ैद थी तब लोगों को पासपोर्ट बनवाने के लिए महीनों का इंतेज़ार करना पड़ता था। वही काम अब कुछ ही दिनों में हो जाता है। आजकल के सोशल मीडिया और आईटी युग में हर ग्राहक जागरूक हो चुका है। यदि वो निराश होता है तो कम्पनी की साख को कुछ ही मिनटों में अर्श से फ़र्श पर पहुँचा सकता है। इसलिए ग्राहक संतुष्टि की प्रतिस्पर्धा के दबाव के चलते हर कम्पनी को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना पड़ता है। 

विश्वभर में पिछले दो सालों में कोरोना की सबसे ज़्यादा मार पर्यटन क्षेत्र को पड़ी है। एवीएशन सेक्टर इसका एक अहम हिस्सा है। एक अनुमान के तहत इन दो सालों में इस महामारी के चलते एवीएशन सेक्टर को 200 बिलियन डॉलर से अधिक का नुक़सान हुआ है। माना जा रहा है कि अगर सब कुछ सही रहता है और कोविड की तीसरी लहर नहीं आती है तो 2023 से एवीएशन सेक्टर की गाड़ी फिर से पटरी पर आ जाएगी। 


एयर इंडिया का निजीकरण कर टाटा को दिए जाने के फ़ैसले को ज़्यादातर लोगों द्वारा एक अच्छा कदम ही माना गया है। टाटा को इसे एक सर्वश्रेष्ठ एयरलाइन बनाने के लिए कुछ बुनियादी बदलाव लाने होंगे। जैसा कि सभी जानते हैं टाटा समूह के पास पहले से ही दो एयरलाइन हैं ‘विस्तारा’ और ‘एयर एशिया’ और अब एयर इंडिया और ‘एयर इंडिया एक्सप्रेस’। टाटा को इन चारों एयरलाइन के पाइलट और स्टाफ़ की ट्रेनिंग के लिए अपनी ही एक अकैडमी बना देनी चाहिए। जिसमें ट्रेनिंग अंतरराष्ट्रीय मानक के आधार पर हो। इससे पैसा भी बचेगा और ट्रेनिंग के मानक भी उच्च कोटि के होंगे। 

चार-चार एयरलाइन के स्वामी बनने के बाद टाटा समूह की सीधी टक्कर मध्यपूर्व की ‘क़तर एयरलाइन’ से होना तय है। मध्यपूर्व जैसे महत्वपूर्ण स्थान पर होने के चलते, इस समय क़तर एयर के पास एवीएशन सेक्टर के व्यापार का सबसे अधिक हिस्सा है। कोविड काल में सिंगापुर एयर के 60 प्रतिशत विमान ग्राउंड हो चुके हैं। सिंगापुर एयरलाइन में टाटा समूह की साझेदारी होने के कारण, टाटा को सिंगापुर एयर के विमानों को अपने साथ जोड़ कर एयर इंडिया को दुनिया के हर कोने में पहुँचाने का प्रयास करना चाहिए। इससे क़र्ज़ में डूबी एयर इंडिया के आय के नए स्रोत भी खुलेंगे। 

टाटा को अपनी चारों विमानन कम्पनियों को अलग ही रखना चाहिए। जिस तरह टाटा समूह के अलग-अलग प्रकार के होटल हैं जैसे ‘ताज’ ‘विवांता’ व ‘जिंजर’ आदि उसी तरह बजट एयरलाइन और मुख्यधारा की हवाई सेवा को भी अलग-अलग रखना बेहतर होगा। अलग कम्पनी होने से टाटा समूह की ही दोनों कम्पनियों को बेहतर परफ़ॉर्म करना होगा और आपस की प्रतिस्पर्धा से ग्राहक का फ़ायदा होना निश्चित है। इनमें दो कम्पनी ‘एयर एशिया’ और ‘एयर इंडिया एक्सप्रेस’ सस्ती यानी ‘बजट एयरलाइन’ रहें जो मौजूदा बजट एयरलाइन व आने वाले समय में राकेश झुनझुनवाला की ‘आकासा’ को सीधी टक्कर देंगी। मौजूदा ‘विस्तारा’ को भी मध्यवर्गीय एयरलाइन के साथ प्रतिस्पर्धा में रहते हुए पड़ोसी देशों में अपने पंख फैलाने होंगे। एयर इंडिया में नए विमान जोड़ कर इसे एवीएशन की दुनिया का महाराजा बनने की ओर कदम तेज़ी से दौड़ाने होंगे। 

बीते कई वर्षों से नुकसान उठा रही एयर इंडिया की देरी और खराब सेवा को लेकर नकारात्मक छवि बनी है। इस चुनौती को भी टाटा को गम्भीरता से लेना होगा और सेवाओं की बेहतरी की दिशा में कुछ सक्रिय कदम उठाने होंगे। यह इतना आसान नहीं होगा, परंतु टाटा समूह में विषम परिस्थितियों में टिके रहने और लम्बी अवधि तक खेलने की क्षमता किसी से छुपी नहीं है। टाटा को इस चुनौतीपूर्ण कार्य के लिए एवीएशन सेक्टर के अनुभवी लोगों की टीम बनानी होगी और यह सिद्ध करना होगा कि एयर इंडिया को वापस लेकर टाटा ने कोई गलती नहीं की।    

Monday, October 11, 2021

शाहरुख़ खान तुमने ठीक नहीं किया


आज कल सोशल मीडिया पर एक विडीओ वायरल हो रहा है। इसमें शाहरुख़ खान सिमि गरेवाल को गर्व से कह रहे हैं कि उनका बेटा दो बरस की आयु से ही अगर ड्रग्स ले या सेक्स करे तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। अगर यह विडीओ सही है, तो मज़ाक़ में भी एक पिता का अपने बेटे के विषय में ऐसा सोचना बहुत चिंताजनक है। हाल में शाहरुख़ खान के बेटे आर्यन खान को क्रूज़ की ‘रेव पार्टी’ से एनसीबी ने गिरफ़्तार किया है। जिस पर टीवी ऐंकर कई दिनों से भरतनाट्यम कर रहे हैं। जबकि देश की अन्य कई महत्वपूर्ण दुर्घटनाओं की तरफ़ उनका ध्यान भी नहीं है। यह कोई अजूबा नहीं है। पिछले सात वर्षों में ज़्यादातर मीडिया ने अपनी हालत चारण और भाटों जैसी कर ली है। देशवासी तो उन्हें देख सुनकर ऐसा कह ही रहे हैं, पर मेरी चिंता का विषय इससे ज़्यादा गम्भीर है। उस पर मैं बाद में आऊँगा। पहले ड्रग कार्टल को लेकर एक पुरानी बात बता दूँ।
 


34 वर्ष पहले की बात है ‘न्यू यॉर्क टाइम्ज़’ की एक अमरीकी महिला संवाददाता मुझे दिल्ली में किसी मित्र के घर लंच पर मिली। उन दिनों न्यू यॉर्क में ड्रग्स के भारी चलन की चर्चा पूरी दुनिया में हो रही थी। मैंने उत्सुकतावश उससे पूछा कि तुम्हारे यहाँ भी क्या पुलिस महकमें में इतना भ्रष्टाचार है कि न्यू यॉर्क जैसे बड़े शहरों में ड्रग्स का प्रचलन सरेआम हो रहा है? उसने बहुत चौंकाने वाला जवाब दिया। वो बोलीं, न्यू यॉर्क में साल भर में ड्रग्स के मामले में जितने लोगों को न्यू यॉर्क की पुलिस पकड़ती है अगर वो सब जेल में बंद रहें तो साल भर में आधा न्यू यॉर्क ख़ाली हो जाए। उसके इस वक्तव्य में अतिशयोक्ति हो सकती है, पर उसका भाव यह था कि पुलिस में फैले भारी भ्रष्टाचार के कारण ही वहाँ ड्रग्स का कारोबार इतना फल फूल रहा है। 

यह कोई अपवाद नहीं है। जिस देश में भी ड्रग्स का धंधा फल-फूल रहा है उसे निश्चित तौर पर वहाँ की पुलिस और सरकार का परोक्ष संरक्षण प्राप्त होता है। वरना हर देश की सीमाओं पर कड़ी सुरक्षा और देश में आने वाले हवाई जहाज़ों, पानी के जहाज़ों और सड़क वाहनों की कस्टम तलाशी के बावजूद ड्रग्स कैसे अंदर आ पाते हैं? ये उन देशों के नागरिकों के लिए बहुत ही चिंता का विषय है क्योंकि इस तरह पूरे देश की धमनियों में फैलने वाली ड्रग्स का प्रभाव न सिर्फ़ युवा पीढ़ी को बर्बाद करता है, बल्कि लाखों औरतों को विधवा और करोड़ों बच्चों को अनाथ बना देता है। 

आर्यन खान के मामले में या उससे पहले रिया चक्रवर्ती के मामले में हमारे मीडिया ने जितनी आँधी काटी उसका एक अंश ऊर्जा भी इस बात को जानने में खर्च नहीं की कि गरीब से अमीर तक के हाथ में, पूरे देश में ड्रग्स पहुँचती कैसे है? अभी हाल ही में एनसीबी ने गुजरात में अडानी के प्रबंधन में चल रहे बंदरगाह से 3000 किलो ड्रग्स पकड़ी, जो अफगानिस्तान से ‘टेल्कम पाउडर’ बता कर आयात की गई थी। इस पकड़ के बाद एनसीबी ने जाँच को किस तरह आगे बढ़ाया ये हर पत्रकार की रुचि का विषय होना चाहिए था। पर इस पूरे मामले पर चारण और भाट मीडिया ने चुप्पी साध ली। ये बहुत ख़ौफ़नाक है। ये हमारे मीडिया के पतन की पराकाष्ठा का प्रमाण है। 

इससे भी बड़ी घटना एक और हुई जिसे मीडिया ने बहुत बेशर्मी से नज़रअन्दाज़ कर दिया। जबकि ड्रग्स के मामले में वो खबर भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के इतिहास की शायद सबसे बड़ी खबर होनी चाहिए थी। अभी दो हफ़्ते पहले 20 सितम्बर को हैदराबाद से छ्पने वाले अंग्रेज़ी अख़बार ‘डेक्कन क्रानिकल’ ने एक खोजी खबर छापी कि अडानी के ही बंदरगाह के रास्ते जून 2021 में देश में 25 टन ड्रग्स जिसे भी सेमी कट टेल्क्म पाउडर ब्लॉक बताया जा रहा है, भारत में आई। जिसकी क़ीमत खुले बाज़ार में 72 हज़ार करोड़ रुपए है। पहला प्रश्न तो यह है कि टीवी चैनलों पर उछल-कूद मचाने वाले मशहूर ऐंकरों ने इस खबर का संज्ञान क्यों नहीं लिया? दूसरी बात, भारत जैसे औद्योगिक रूप से काफ़ी विकसित देश में अफगानिस्तान से ‘टेल्कम पाउडर’ आयात करने की क्या ज़रूरत आन पड़ी? दुनिया जानती है अफगानिस्तान पूरी दुनिया में ड्रग्स बेचने का एक बड़ा केंद्र है और ड्रग्स और ‘टेल्क्म पाउडर’ दिखने में एक से होते हैं। इसलिए अफगानिस्तान से अगर कोई ‘टेल्क्म पाउडर’ का आयात कर रहा है तो उसकी जाँच पड़ताल में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए। 

संदेह की सुई इसलिए भी हैरान करने वाली है कि अडानी पोर्ट से राजस्थान की ट्रांसपोर्ट कम्पनी के जिस ट्रक नम्बर RJ 01 GB 8328 में ये 25 टन माल रवाना किया गया, उसने एक भी टोल बैरियर पार नहीं किया। मतलब दस्तावेज़ों में ट्रक का नाम, नम्बर फ़र्ज़ी तरीक़े से लिखा गया। इस 25 टन के खेप का आयात करने वाला व्यक्ति माछेवरापु सुधाकर चेन्नई का रहने वाला है। इसने अपनी पत्नी वैशाली के नाम ‘आशि ट्रेडिंग कम्पनी’ के बैनर तले ये माल आयात किया। इस कम्पनी को जीएसटी, विजयवाड़ा के एक रिहायशी पते के आधार पर दिया गया है, जिसे दस्तावेज़ों में कम्पनी का मुख्यालय बताया गया है। जब ‘डेक्कन क्रानिकल’ के संवाददाता, एन वंशी श्रीनिवास ने विजयवाड़ा के सत्यनारायणा पुरम जाकर तहक़ीक़ात की तो पता चला कि वह पता वैशाली की माँ के घर का है, जहां किसी भी कम्पनी का कोई कार्यालय नहीं है। आगे तहक़ीक़ात करने पर पता चला कि पिछले वर्ष ही पंजीकृत हुई इस कम्पनी का घोषित उद्देश्य काकीनाडा बंदरगाह से चावल का निर्यात करना था। पर पिछले पूरे एक वर्ष में अडानी के बंदरगाह से जून 2021 में आयात किए गए इस 25 टन तथाकथित ‘टेल्क्म पाउडर’ के सिवाय इस कम्पनी ने कोई और कारोबार नहीं किया। 

इतने स्पष्ट प्रमाणों और इतनी संदेहास्पद गतिविधियों पर देश का मीडिया कैसे ख़ामोश बैठा है? आर्यन खान ने जो किया उसकी सज़ा उसे क़ानून देगा। पर आर्यन जैसे देश के करोड़ों युवाओं के हाथों में ड्रग पहुँचने का काम कौन कर रहा है, इसकी भी खोज खबर लेना क्या देश के नामी मीडिया वालों की नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं है? 

Monday, October 4, 2021

देश में पारदर्शी सर्वेक्षण की ज़रूरत क्यों?


पिछले सात साल का आर्थिक लेखा-जोखा विवादों में है। जहां एक तरफ़ केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारें अभूतपूर्व आर्थिक प्रगति के दावे कर रहीं हैं और सैंकड़ों करोड़ रुपए के बड़े-बड़े विज्ञापन अख़बारों में छपवा रहीं हैं। वहीं विपक्षी दलों का लगातार यह आरोप है कि पिछले सात वर्षों में भारत की आर्थिक प्रगति होने के बजाए आर्थिक अवनति हुई है। वे भारत की ऋणात्मक वृद्धि दर का तर्क देकर अपनी बात कहते हैं। 



दूसरी तरफ़ भारत के लोग, जिनमें उच्च वर्ग के कुछ घरानों को छोड़ दें, तो शेष घराने, मध्यम वर्गीय परिवार, निम्न वर्गीय परिवार व ग़रीबी की रेखा के नीचे रहने वाले परिवार क्या कहते हैं, ये जानना भी ज़रूरी है। इसका सबसे साधारण तरीक़ा यह है कि हर ज़िले के माध्यमिक व उच्च शिक्षा के संस्थानों में पढ़ने और पढ़ाने वाले अपने-अपने स्तर पर एक व्यापक सर्वेक्षण करें। जैसे ग्राम स्तर पर, ब्लॉक स्तर पर, क़स्बा स्तर पर और नगर के स्तर पर सभी जागरूक शिक्षक व गम्भीर छात्र सार्वजनिक सर्वेक्षण समितियाँ बना लें। इन समितियों में किसी भी राजनैतिक दल के प्रति समर्पित लोग न रखे जाएं, न शिक्षक और न छात्र। तभी निष्पक्ष सर्वेक्षण हो पाएगा। 


ये समितियाँ अपनी-अपनी भाषा में सर्वेक्षण के लिए प्रश्न सूची तैयार कर लें। इन सर्वेक्षण सूचियों में हर वर्ग के, हर नागरिकों से प्रश्न पूछे जाएं। जैसे, किसान से पूछें कि पिछले सात सालों में उनकी आमदनी कितनी बढ़ी या कितनी घटी? युवाओं से पूछें कि इन सात वर्षों में कितने युवाओं को रोज़गार मिला और कितने युवाओं के रोज़गार छूट गए? और वे फिर से बेरोज़गार हो गए? इसी तरह फुटपाथ पर सामान बेचने वालों से पूछें कि इन सात सालों में उनकी आमदनी कितनी बढ़ी या घटी? इस वर्ग के सभी लोगों से यह भी पूछा जाए कि इन सात वर्षों में उन्हें मुफ़्त स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएँ मिली हैं या नहीं?

  

मंझले व्यापारियों और कारखानेदारों से भी पूछें कि उनकी 'बैलेन्स शीट’ यानी आय-व्यय का लेखा-जोखा देख कर बताएँ कि उसमें इन सात सालों में कितने फ़ीसद वृद्धि हुई? इसी वर्ग से यह भी पूछें कि उन्होंने इन सात वर्षों में कितने मूल्य की नई अचल सम्पत्ति ख़रीदी या बेची? उच्च वर्गीय लोगों से भी सवाल किए जाने चाहिए। अडानी और अम्बानी जैसे कुछ केंद्र सरकार के चहेते, जिनकी आमदनी इन सात वर्षों में 30-35 फ़ीसदी से ज़्यादा बढ़ी है, उन्हें छोड़ दें, पर बाक़ी औद्योगिक घरानों की आर्थिक प्रगति कितने फ़ीसदी हुई या नहीं हुई है या कितने फ़ीसदी गिर गई है? 


ये सब इतनी सरल जानकारी है जो बिना ज़्यादा मेहनत के जुटाई जा सकती है। एक शिक्षा संस्थान उपरोक्त श्रेणियों में से हर श्रेणी के हर इलाक़े में, 100-100 लोगों का चयन कर ले और इस चयन के बाद उस वर्ग के लोगों से वैसे ही सवाल पूछे जो उस वर्ग से पूछने के लिए यहाँ दिए गए हैं। अगर कोई सर्वेक्षणकर्ता समूह अति-उत्साही हैं तो वह इस प्रश्नावली में अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार और भी सार्थक प्रश्न जोड़ सकते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग अपनी आर्थिक अवनति के लिए पिछले दो साल में फैले कोविड को ज़िम्मेदार ठहराएँ, इसीलिए गत सात वर्षों का सही आँकड़ा जानना ज़रूरी होगा। 


जब इस तरह का ग़ैर-सरकारी, निष्पक्ष और पारदर्शी सर्वेक्षण हो जाता है तो धरातल की सही तस्वीर अपने आप सामने आ जाएगी। क्योंकि सरकार किसी भी दल की क्यों न हो वोट पाने के लिए हमेशा इन आँकड़ों में भारी हेरा-फेरी करती है ताकि अपनी प्रगति के झूठे दावों को आधार दे सके। जबकि धरातलीय सच्चाई उन आँकड़ों के बिलकुल विपरीत होती है। हर वर्ग के 100-100 प्रतिनिधियों का सर्वेक्षण करने से उस गाँव, क़स्बे, नगर व ज़िले की आर्थिक स्थिति का बड़ी सरलता से पता लगाया जा सकता है। जिसका लाभ लेकर सत्ताएँ अपनी नीतियाँ और आचरण बदल सकते हैं। बशर्ते उनमें जनहित में काम करने की भावना और इच्छा हो। झूठे विज्ञापनों से सस्ता प्रचार तो हासिल किया जा सकता है पर इसके परिणाम समाज के लिए बहुत घातक होते हैं। जैसे आम आदमी इस बात पर विश्वास कर ले कि ‘हवाई चप्पल पहनने वाला भी हवाई जहाज़ में उड़ सकेगा।’ इसी उम्मीद में वो अपना मत ऐसा वायदा करने वाले नेता के पक्ष में डाल दे। परंतु जीतने के बाद उसे पता चले कि हवाई जहाज तो दूर वो भर पेट चैन से दो वक्त रोटी भी नहीं खा सकता क्योंकि जो उसका रोज़गार था वो नई नीतियों के कारण, बेरोज़गारी में बदल चुका है। ऐसे में हताशा उसे घेर लेगी और वो आत्महत्या तक कर सकता है, जैसा अक्सर होता भी है या फिर ऐसा व्यक्ति अपराध और हिंसा करने में भी कोई संकोच न करेगा।


सरकारें तो आती-जाती रहती हैं, लोकतंत्र की यही खूबी है। पर हर नया आने वाला पिछली सरकार को भ्रष्ट बताता है और फिर मौक़ा मिलते ही खुद बड़े भ्रष्टाचार में डूब जाता है। इसलिए दलों के बदलने का इंतेज़ार न करें, बल्कि जहां जिसकी सत्ता हो उससे प्रश्न करें और पूछें कि उसकी आमदनी और रोज़गार कब और कैसे बढ़ेगा? उत्तर में आपको केवल कोरे आश्वासन मिलेंगे। अगर आप बेरोज़गारी, ग़रीबी, महंगाई, पुलिस बर्बरता और अन्याय के विरुद्ध ज़्यादा ज़ोर से सवाल पूछेंगे तो हो सकता है कि आपको देशद्रोही बता कर प्रताड़ित किया जाए। क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से कुछ राज्यों में ये ख़तरनाक प्रवृत्ति तेज़ी से पनप रही है। इसलिए सावधानी से सर्वेक्षण करें और बिना राग-द्वेष के ज़मीनी हक़ीक़त को देश के सामने प्रस्तुत करें। जिससे समाज और राष्ट्र दोनों का भला हो सके।