अन्ना एण्ड कम्पनी हो या बाबा रामदेव, सब राजनेताओं को ही भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। इसलिए राजनेताओं को गाली देना, उनका मजाक उड़ाना, उनके गाल पर थप्पड़ मारना, उनके खिलाफ अनशन के मंचों पर चुन्नी ओढ़कर नौटंकी करना, यह सब अब सामान्य बात हो गई है। राजनेताओं को विद्रुप बनाना आत्मघोषित आन्दोलनकारियों और मीडिया का फैशन हो गया है। यह बात दूसरी है कि राजनेताओं के खिलाफ शोर मचाने वाले चाहे जितना उछल लें, चुनावों में जनता वोट उन्ही राजनेताओं को देती है जिनके खिलाफ ऐसे लोग आन्दोलन चलाते हैं। फिर क्या वजह है कि राजनेता इस हमले को लगातार सहते जा रहे हैं और हमलावरों से कुछ नहीं कहते। जनता समझती है कि राजनेता ढीट हो गये हैं। उन्हें अपनी निन्दा से कोई परेशानी नहीं होती बशर्ते कि उनकी कमाई ठीक चलती रहे। इसलिए राजनेता लगातार जनता की निगाहों में गिरते जा रहे हैं। राजनेताओं की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है ?
मैं समझता हूँ कि राजनेता ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। इसके दो कारण हैं । एक तो उनके मन में एक डर बैठा है जिसकी वजह से वे चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करने से बचना चाहते हैं। दूसरा वे समाज को आइना नहीं दिखाते। पिछले दिनों मुम्बई के कुछ अति धनी उद्योगपतियों के साथ देश के भ्रष्टाचार को लेकर चर्चा हुई जो इस सवाल पर काफी उद्वेलित थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या वे हवाला कारोबार, काले धन और 1000 रुपये के बड़े नोटों के चलन को रोकने की पैरोकारी करेंगे। यह सुनकर सभी मुंह बिचकाने लगे। बात साफ है कि भ्रष्टाचार के लिए हम नेताओं को तो गाली देते हैं पर अपने उद्योग, व्यापार, खनन व भवन निर्माण जैसे क्षेत्रों में जम कर काले धन का आदान-प्रदान करते हैं। देश और विदेश में अचल सम्पत्ति में निवेश हो या विलासितापूर्ण जीवन सब में काले धन का जमकर प्रयोग होता है। सरकारी जमीन का आंवटन कराना हो, ठेके कोटे या लाइंसेंस लेने हों या रक्षा मंत्रालय जैसे विभागों को माल की भारी आपूर्ति करनी हो, तो कोई भी सीधे रास्ते नहीं जाना चाहता। सबकी यही मंशा होती है कि ‘‘खर्चा चाहे जो हो जाए काम हमें ही मिलना चाहिए।’’ फिर चाहे हमारी योग्यता हो या न हो। साफ जाहिर है कि भ्रष्टाचार को लेकर अपने ड्राइंगरूमों में राजनेताओं को गाली देने वाले ये व्यवसायी इन्हीं ड्राइंगरूमों में बिठाकर नेताओं और अफसरों की आवभगत करते हैं। उन्हें बक्सों में भरकर नोट देते हैं। चुनाव के पहले बिना मांगे भी इन नेताओं के घर रुपया भेजते हैं। इस उम्मीद में कि अगर वह नेता जीत गया तो आगे 10 गुना लाभ लेंगे।
जब से टेलीविजन चैनलों की बाढ़ आयी है तब से टीआरपी बढ़ाने के लिए टीवी चैनल वाले खोजी पत्रकारिता के नाम पर सनसनीखेज खबरें लाते हैं और उन्हें खूब मिर्च मसाला लगाकर बार-बार इस तरह दिखाते हैं जैसे कोई चोर रंगे हाथों पकड़ लिया हो। अपने चेहरे के भाव क्रान्तिकारी दिखाते हैं और जनता को उत्तेजित करने के लिए भड़काऊ भाषा का प्रयोग करते हैं। देश में राजनेताओं के खिलाफ माहौल बनाने में इन टीवी चैनलों की सबसे बड़ी भूमिका रही है। मजे की बात यह है कि इन चैनलों के मालिक वे लोग हैं जो बिल्डिर्स माफिया से लेकर दूसरे ऐसे ही अवैध धन्धों में अरबों रुपये की काली कमाई कर चुके हैं। टीवी चैनल उनके लिए कोई राष्ट्र निर्माण का माध्यम नहीं बल्कि ब्लैक मेलिंग या अपना दबदबा कायम करने या अपने अपराध छिपाने का माध्यम है। देश के ज्यादातर हिस्सों में जो समाचार चैनल चल रहे हैं उनके पीछे आप खोजने पर यही कहानी पायेंगे। जो बड़े और नामी चैनल भी हैं वे सब घाटे में चल रहे हैं। फिर यह घाटा कैसे पूरा हो रहा है ? कई बड़े चैनलों को हाल है के वर्षों में उद्योगपतियों के आगे घुटने टेकने पड़े। अब उन्हीं उद्योगपतियों के आर्थिक साम्राज्य में जो घोटाले होते हैं उनकी सुध कौन लेगा ? फिर यह आक्रामक तेवर किसके लिए ? इतना ही नहीं अब तो चैनलों की राजनैतिक लाइन भी साफ दिखाई देती है। जो जिस दल से पोषण पा लेता है उसी का भौपूं बजाता है। तो क्या यह स्वतंत्र और नैतिक पत्रकारिता है ? अगर नहीं तो फिर राजनेता ही भ्रष्ट क्यों ? यह बात दूसरी है कि आज ज्यादातर राजनेताओं के अपने टीवी चैनल चल रहे हैं। उनमें काम करने वाले लोग पत्रकार कतई नहीं माने जा सकते। उन्हें ज्यादा से ज्यादा पत्रकारिता के आवरण में उस नेता का जन सम्पर्क अधिकारी माना जाना चाहिए।
न्यायपालिका के सदस्यों को मान-सम्मान, वेतन, सुरक्षा व मनोरंजन सबकी बेहतर सुविधाएं मिली हुई हैं। किसी वादी या प्रतिवादी की हिम्मत नहीं कि उनके घर या चैम्बर में घुस जाये। पर न्यायपालिका के भ्रष्टाचार पर अब किसी को कोई संदेह नहीं बचा है। निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत तक के न्यायधीशों का आचरण सामने आ चुका है। राजनेताओं को तो चुनाव लड़ना होता है । जनता की खैर खबर रखनी होती है। हार जायें तो अगले पांच साल राजनीति में जिन्दा रहना होता है। भविष्य की कोई गारंटी नहीं। इस असुरक्षा की भावना के चलते वे भ्रष्ट हो जाते हैं। पर न्यायधीशों को क्या मजबूरी है? देश की अदालतों में ढेड करोड़ से ज्यादा लंबित मुकदमे न्यायपालिका की कार्यप्रणाली व कार्यक्षमता को दर्शाता है।
इस देश की सबसे ज्यादा मट्टी खराब नौकरशाही ने की है। अंग्रेज अपनी हुकूमत चलाने के लिए अखिल भारतीय सेवाओं का ढांचा बना गये। जिसमें घुसने के लिए एक बार मेहनत करनी होती है। इन्तहान पास होने के बाद सारी जिन्दगी देश को मूर्ख बनाने, लूटने और रौब गांठने का लाइंसेंस मिल जाता है। इस ‘स्टील फ्रेमवर्क’ के सदस्यों को जीवन में कोई असुरक्षा नहीं है फिर ये क्यों भ्रष्टाचार करते हैं ? इनकी सेवाओं के ही ईमानदार अफसर बताते हैं कि अगर ये लोग सहयोग न करें तो राजनेता एक पैसे का भ्रष्टाचार नहीं कर सकते। पर इनका लालच और हवस नेताओं को भयमुक्त कर देता है। फिर दोनों की सांठगांठ से जनता लुटती है, देश बर्बाद होता है । हर बार भोली-भाली जनता की मृगतृष्णा को अन्ना एण्ड कम्पनी जैसे नये-नये कलाकार अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं। हर बार जनता को हताशा हाथ लगती है। क्योंकि ऐसे लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता की भावनाओं को तो भडका लेते हैं पर इनके पास समाधान कोई नहीं है। लोकपाल भी नहीं। क्योंकि इन्हीं लोगों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ देश की सबसे बड़ी लड़ाई को षडयंत्र करके विफल किया और सीवीसी और सूचना आयोग जैसे हवाई किले खड़े करके भ्रष्टाचार से निपटने का दावा किया, जो आज खोखला सिद्ध हो चुका है। ऐसे आन्दोलनकारी भी नैतिकता का आचरण नहीं करते । इनके लिए लक्ष्य महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि सारा खेल अपने छिपे एजेण्डा के लिए किया जाता है। इसीलिए ये लोग अपनी दुकान चमकाने के चक्कर में अपने कद से बडे लोगों को दूर रखते हैं। तो क्या यह भ्रष्टाचार नहीं ? जरुरत भ्रष्टाचार के कारणों को गहराई से समझने की है। राजनेताओं जैसे किसी एक वर्ग को बलि का बकरा न बनाकर इसे राष्ट्रीय समस्या मानना होगा। साझे प्रयास से यथा संभव इस बुराई को दूर करने का संकल्प लेना होगा। पूर्णतः भ्रष्टाचार मुक्त कोई समाज कभी नहीं रहा। चाणक्य पण्डित ने कहा था कि शहद के गोदाम की रखवाली करने वाले के होठों पर शहद लगा होता है। पर इसका मतलब यह नहीं कि हम भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करें।