Sunday, March 8, 2009

पाकिस्तान की जम्हूरियत खतरे में

श्रीलंका की क्रिकेट टीम पर लाहौर में हुए फिदायीन हमले ने पाकिस्तान के अन्दरूनी हालात की कलई खोलकर रख दी है। खुफिया एजेंसियाँ पिछले कुछ दिनों से ये बताने में जुटी थीं कि कट्टरपंथी अब पाकिस्तान के अन्दरूनी इलाकों तक फैल चुके हैं। इस हद तक कि भारत की सीमा पर भी खतरा पैदा हो गया है। उधर अमरीका की खुफिया एजेंसियाँ इस बात से खौफजदा हैं कि तालिबान की निगाह पाकिस्तान के परमाणु अस्त्र पर है। किसी भी कीमत पर वे इसे हासिल करना चाहते हैं। चाहें इसके लिए उन्हें पाकिस्तान की हुकूमत पर ही कब्जा क्यों न करना पड़े। नेपाल के माओवादी संगठनों की तरह पाकिस्तान के तालिबान भी अब हुकूमत का मजा चखना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि इस तरह उनके अपने कारनामों के लिए एक कानूनी मोहर मिल जायेगी।

जिस तेजी से और जिस व्यापकता से तालिबान पिछले कुछ महीनों में पाकिस्तान में फैले हैं, उससे दो बातें साफ होती हैं। एक तो ये कि पाकिस्तान की मौजूदा हुकूमत की मुल्क के निजाम पर कोई पकड़ नहीं है। दूसरा ये कि फौज जानबूझकर मौजूदा हुकूमत को कमजोर करने में जुटी है। फौज और आई.एस.आई. पाकिस्तान में जम्हूरियत देखना नहीं चाहती। उनकी कोशिश जरदारी को नाकारा सिद्ध करने की है। जिससे वे हालात का तकाजा बताते हुए पाकिस्तान के निजाम पर काबिज हो जायें और दुनिया को ये बता दें कि उनके बिना पाकिस्तान को सम्हाला नहीं जा सकता। इसलिए पाकिस्तान में पिछले कुछ महीनों में तालिबान ज्यादा हावी होते जा रहे हैं। साफ है कि फौज जरदारी को हटाकर ही दम लेगी।

ये पाकिस्तान की बद्किस्मती है कि वहाँ जम्हूरियत या लोकतंत्र कभी चल नहीं पाया। पाकिस्तान और भारत दोनों 1947 में एक ही दिन आजाद हुए थे। 1958 तक 11 सालों में भारत में एक ही प्रधानमंत्री रहे: पं0 जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान में इस दौरान 7 प्रधानमंत्री बदल गये। लियाकत अली खाँ, ख्वाजा निजामुद्दीन, मौ0 अली बोगरा, चैधरी मोहम्मद अली, एस.एस.सुहारवर्दी, आई.आई. चंदीगार व मलिक फिरोज खान। फिर आ गयी फौजी हुकूमत। जिसका लम्बा दौर चला। बीच-बीच में थोड़ी-थोड़ी देर के लिए जुल्फिकार अली भुट्टो, बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ जैसे प्रधानमंत्री बने। पर इन्हें अपना कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया। जुल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी चढ़ा दिया। बेनजीर को भ्रष्टाचार में फंसकर हटना पड़ा और नवाज शरीफ का तख्ता पलट कर दिया गया। अगर कोई हुकूमत लम्बे दौर तक चली तो वह थी फौजी हुक्मरानों की। चाहे वो जनरल अयूब हों या जनरल याहिया खान या जनरल जिया-उल-हक या जनरल परवेज मुशर्रफ। जबकि भारत में लगातार लोकतंत्र चल रहा है और बिना खून-खराबे के सत्ता परिवर्तन होते रहे हैं। नेहरू, इंदिरा गाँधी ने तो लम्बी हुकूमत की। पर बीच-बीच में शास्त्री, देसाई, वाजपेयी या मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री भी आये जो अनुभवी और असरदार लोग थे। इसलिए हमारा लोकतंत्र सफलता से चल रहा है। अगर आपके पड़ोस के घर या पड़ोस के मुल्क अशांति हो तो आप भी चैन से जी नहीं सकते। हमारी चिंता का यही विषय है। पाकिस्तान की अशांति हमारी अशांति का कारण बनती है। भारत में कोई आतंकवाद नहीं है। जो है वो पाकिस्तान की जमीन पर पैदा होता है।

ठीक इसी तरह के हालात बांग्लादेश में भी पैदा हो रहे हैं। 1971 में शेख मुजीबुर्रहमान की लोकप्रियता चरम पर थी। पर पाकिस्तान की फौज को यह गले नहीं उतरा। शेख मुजीबुर्रहमान को कत्ल करवा दिया गया। लम्बे दौर के बाद उनकी बेटी शेख हसीना बांग्लादेश की गद्दी पर काबिज हुई हैं। बांग्लादेश की फौज में जो तत्व उस समय सक्रिय थे, वे खत्म नहीं हुये। पिछले दिनों हुयी बगावत के लिए वही जिम्मेदार हैं। बगावत तो कुचल दी गयी, पर खतरा टला नहीं है। लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयीं शेख हसीना को ये तत्व बर्दाश्त नहीं कर रहे। उन्हें मारकर या हटाकर ही दम लेंगे। बांग्लादेश की यह परिस्थिति भारत के लिए ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि पाकिस्तान से तो भारत को कश्मीर वाले हिस्से की सीमा पर ही खतरा रहता है। जबकि बांग्लादेश के साथ भारत के अनेक राज्यों की सीमा जुड़ी है। सीमा में अनेक छेद हैं। दोनों हिस्सों के लोगों का आवागमन कोई बहुत नियन्त्रित नहीं है। वहाँ भारी आबादी और भारी गरीबी है। बांग्लादेश में पैदा हुयी अशांति भारतीय सीमा और सेनाओं के लिए ज्यादा सिरदर्द पैदा कर सकती है। दोनों तरफ कुंआ और खाई है। इसलिए भारत की चिंता स्वाभाविक है। भारत के हक में तो यही है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में जम्हूरियत बनी रहे और इन मुल्कों की आर्थिक प्रगति हो। जिससे वहाँ खुशहाली आये। क्योंकि जब खुशहाली आती है तो आवाम अमन चैन चाहता है, दंगे-फसाद नहीं। चँूकि इन दोनों मुल्कों में कोई तरक्की नहीं हो रही है इसलिए युवाओं में भारी बेरोजगारी है और हताशा है। आतंकवादी संगठन नौजवानों की इस तकलीफ का फायदा उठाकर उन्हें अपने जाल में फंसा लेते हैं। जब रोजगार होगा तो नौजवान अपने परिवार के साथ आनंद लेंगे, न कि जान हथेली पर लेकर बीहड़ों और बर्फीले दर्रों में भटकेंगे।

जहाँ तक क्रिकेट का प्रश्न है, लाहौर में हुए हमले से यह तो साफ हो गया कि अब कोई भी टीम पाकिस्तान जाने को तैयार नहीं होगी। न्यूजीलैंड ने मना कर ही दिया। भविष्य में भी अब कोई टीम पाकिस्तान की जमीन पर क्रिकेट नहीं खेलेगी। जिसका खामियाजा पाकिस्तान की सरकार, क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और क्रिकेट प्रेमियों को उठाना पड़ेगा। दक्षिण एशिया के क्रिकेट प्रेमियों के लिए भी यह दुःखद समाचार है। क्रिकेट के इतिहास में यह पहली ऐसी घटना है। उम्मीद की जानी चाहिए कि बाकी देशों की सरकार भविष्य में खिलाडि़यों की सुरक्षा को लेकर ज्यादा सतर्क रहेंगी। इससे ज्यादा इसका असर क्रिकेट पर नहीं पड़ेगा। पर पाकिस्तान के लिए यह जरूर खतरे की घंटी है। पहले से ही आतंकवाद से जूझ रहा यह मुल्क इस तरह की घटनाओं से और भी मकड़जाल में फंसता जायेगा। जिसमें से निकलना आसान नहीं होगा।

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