Sunday, January 20, 2008

कथनी और करनी में भेद क्यों ?

Rajasthan Patrika 20-01-2008
आतंकवाद, भ्रष्टाचार, लोकतंत्र, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा और आर्थिक विषमता ये कुछ ऐसे विषय है जिन पर सभी बड़े नेता और कुछ नामी विचारक रात दिन बोलते रहते हैं। चाहें टैलीविजन के कार्यक्रम हों या जनसभाऐं या सम्मेलन या फिर संसद। प्रश्न उठता है कि जब इतने बड़े नेता और इतने मशहूर विचारक इन सभी मुदों को लेकर इतने चिंतित हैं और चाहते हैं कि इनका हल निकल जाए तो फिर क्यों ये समस्याएं हल नहीं होती ?

पिछले दिनों एक लोकप्रिय दैनिक अखबार ने दिल्ली में अन्तर्राष्टीय समस्याओं पर एक अन्तर्राष्टीय सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें देश और दुनिया के तमाम बड़े नेताओं और मशहूर विचारकों ने भाग लिया। देश की राजधानी में ऐसे सम्मेलन करना अब काफी आम बात होती जा रही है। अनेक नामी प्रकाशन समूह बड़े स्तर पर ऐसे सम्मेलनों का आयोजन करने लगे है। इन सम्मेलनों में ऐसी सभी समस्याओं पर काफी आंसू बहाऐ जाते हैै और ऐसी भाव भंगिमा से बात रखी जाती है कि सुनने वाले यही समझे कि अगर इस वक्ता को देश चलाने का मौका मिले तो इन समस्याओं का हल जरूर निकल जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि इन वक्ताओं में से अनेकों को अनेक बार सत्ता में रहने का मौका मिला और ये समस्यायें इनके सामने तब भी वेसे ही खड़ी थी जैसे आज खड़ी हैं। इन नेताओं ने अपने शासन काल में ऐसे कोई क्रान्तिकारी कदम नहीं उठाये जिनसे देशवासियों को लगता कि वो ईमानदारी से इन समस्याओं का हल चाहते है। अगर उनके कार्यकाल के निर्णयों कोे और बिना राग-द्वेष के मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जिन समस्यो पर ये नेता गण आज घडि़याली आंसू बहा रहे है उन समस्याओं की जड़ में इन नेताओं की भी अहम भूमिका रही है। पर इस सच्चाई को बेबाकी से उजागर करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। मजे कि बात यह कि इन गिने चुने लोगेां की बात को भी जनता के सामने रखने वाले दिलदार मीडिया समूह उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। विरोधाभास ये कि प्रकाशन समूह जिन समस्याओं पर अंतर राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करते हैं और दावा करते है कि इन सम्मेलनों में इन समस्याओं के हल खोजे जा रहे है वे प्रकाशन समूह भी इन सम्मेलनों में सच्चाई को ज्यों का त्यों रखने वालों को नहीं बुलाते। इसलिए सरकारी सम्मेलनों की तरह ये अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन भी एक हाई प्रोफाइल जन सम्पर्क महोत्सव से ज्यादा कुछ नहीं होते।

यह बड़ी चिंता की बात है कि ज्यादातर राष्ट्रीय माने जाने वाले मीडिया समूह अब जिम्मेदार पत्रिकारिता से हटकर जन सम्पर्क की पत्रिकारिता करने लगे हैं। इसलिए पत्रिकारिता भी अपनी धार खोती जा रही है और समस्याएं घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। इसलिए क्षेत्रीय मीडिया समूह का प्रभाव और समाज पर पकड़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में देश के सामने जो बड़ी-बड़ी समस्यायें है उनके हल के लिए क्षेत्रीय मीडिया समूहों को एक ठोस पहल करनी चाहिए। अपने संवाददाताओं को एक व्यापक दृष्टि देकर उनसे ऐसी रिपोर्टों की मांग करनी चाहिए जो न सिर्फ समस्याओं का स्वरूप बताती हों बल्कि उनका समाधान भी। चिंता की बात यह कि आज कुछ क्षेत्रीय समाचार पत्र भी बयानों की पत्रकारिता पर ज्यादा जोर दे रहे है। ऐसे अखबारों में विकास और समाधान पर खबरें कम या आधी अधूरी होती है और छुटभैये नेताओं के बयान ज्यादा होते हैं। इससे उन नेताओं का तो सीना फूल जाता है पर समाज को कुछ नहीं मिलता, न तो मौलिक विचार और न हीं उनकी समस्याओं का हल। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब आम आदमी तक हर सूचना पहुचंे और समस्याओं के समाधान तय करने में आम आदमी की भी भावना को तरजीह दी जाए। जो मीडिया समूह इस परिपेक्ष में पत्रकारिता कर रहे हैं उनके प्रकाशनों में गहरायी भी है और वजन भी। पर चिंता की बात यह कि देश के अनेक क्षेत्रों में ऐसे लेाग मीडिया के कारोबार में आ गए है जो आज तक तमाम अवैध धंधे और अनैतिक कृत्य करते आये है। उनका उद्देश्य मीडिया को ब्लैकमेंलिंग का हथियार बनाने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। जिनसे समाज के हम में किसी सार्थक पहल की उम्मीद नहीं की जा सकती।


दरअसल देश की समस्याओं के हल के लिए विदेशी विचारको की नहीं बल्कि स्वयं सिद्ध व मौलिक विचारों के धनी ऐसे देशी लोगों की है जो वास्तव में इन समस्याओं के हल प्रस्तुत कर सकें। चिंता की बात यह कि ऐसे ठोस लोगों की बात सुनने के लिए बहुत कम लोग अपना मंच उपलब्ध कराते है। इससे साफ जाहिए है कि देश की समस्याओं पर अंतर्राष्ट्रीय समेलन कराना उस समूह के लिए महज जन संपर्क का माध्यम है। इन सम्मेलनों से ठोस कुछ भी नहीं निकलता क्योंकि इनमें बोलने वालों की कथनी और करनी एक नहीं होती।

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