एक गांव में एक ग्वाला रोज पहाड़ी पर गाय चराने ले जाता था। एक दिन उसे मजाक सूझा। उसने शोर मचा दिया ‘ बचाओ-बचाओ शेर आ गया।’ उसका शोर सुनकर गांव वाले लाठी-भाले लेकर पहाड़ी की तरफ दौड़ पड़े। जब उन्हें वहां कोई शेर नहीं मिला तो उन्होंने ग्वाले को तलब किया। ग्वाला हंस कर बोला मैं तो यूं ही मजाक कर रहा था। ऐस्ी हरकत उस ग्वाले ने एक दो बार फिर की। हर बार गांव वालों को यही जवाब मिला कि ये एक मजाक था। एक दिन वाकई शेर ने ग्वाले की गायों पर हमला बोल दिया। वो मदद के लिए जोर-जोर से चिल्लाने लगा, पर गांव वालों ने सोचा कि यह भी मजाक ही होगा। कोई मदद को नहीं आया। शेर उसकी गाय उठा कर ले गया।
हमारे देश के प्रधानमंत्री भी पिछले कुछ महीनों से उसी ग्वाले की तरह व्यवहार कर रहे हैं। ‘हम निर्णायक लड़ाई लड़ेंगे।’ ‘आर पार की लड़ाई होगी।‘ ‘पाकिस्तान हमारे धैर्य की परीक्षा न लें।’ हमारा धैर्य अब खत्म होता जा रहा है।’ ऐसे तमाम जुमलों से प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी लोगों का समर्थन खोते जा रहे हैं। बार-बार लड़ाई की घोषाणा करना। बार-बार उत्तेजना फैलाना। बार-बार लोगों को उत्साहित करना। बार-बार फौजों को सतर्क करना और फिर दुम समेट कर बैठ जाना, कहां की अक्लमंदी है ? सेना और जनता दोनों की ही भावना यह है कि या तो आर पार की लड़ाई लड़ ली जाए। जो होगा वो देखा जाएगा। अगर नहीं लड़ना है तो ये झूठमूठ का उन्माद क्यों ? इस तरह की गैर जिम्मेदाराना बयानबाजी से भाजपा के विरोधियों को यह कहने का मौका मिल रहा है कि दरअसल वाजपेयी सरकार युद्ध करने की स्थिति में नहीं हैं, केवल गीदड़ भभकी दे रही है। इंकाई याद दिलाते हैं कि किस तरह उनकी दबंग नेता श्रीमती इंदिरा गांधी ने आनन-फानन में पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश बनवा दिया और सिक्किम को भारत में मिला लिया। किसी के दबाव और आलोचना की कोई परवाह नहीं की। अगर वाजपेयी जी यह समझते हैं कि युद्ध लड़ना जरूरी नहीं केवल दबाव बनाए रखना जरूरी है तो यह शायद ठीक नीति नहीं। इससे कुछ भी हासल नहीं हो रहा न तो आकंतकवाद कम हो रहा है और न पाकिस्तान काबू में आ रहा है। सोचने वाली बात यह है कि क्या वाकई भारत को पाकिस्तान के साथ युद्ध करना चाहिए ? यह युद्ध दस-बीस दिन से ज्यादा नहीं चलेगा। क्या इतने दिनों में इस युद्ध से निर्णायक फैसले हो सकेंगे ? क्या इस युद्ध से कश्मीर समस्या का हल निकल आएगा और क्या इस युद्ध से कश्मीर की घाटी में शांति स्थापित होगी ? इन प्रश्नों के उत्तर यूं ही नहीं दिए जा सकते। पर एक बात साफ है कि भारत पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति में कोई दखल नहीं देना चाहता। भारत की रूचि तो पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को समाप्त करने में है। इस दिशा में अगर भारत सरकार कोई भी कड़ा कदम उठाती है तो उसी सभी दलों का पूरा समर्थन मिलेगा। ऐसा स्वयं विपक्ष की नेता श्रीमती सोनिया गांधी संसद में कह चुकी हैं। 11 सितंबर 2001 के बाद से आतंकवाद के विरूद्ध अंतर्राष्ट्रीय माहौल बना है। हर प्रमुख देश आतंकवाद के दानव से मुक्ति पाना चाहता है। ऐसे माहौल में भी अगर भारत आतंकवाद के खिलाफ कड़ी कार्रवाही नहीं कर रहा तो उसके लिए बार-बार पाकिस्तान को दोषी ठहराने से क्या लाभ? माना कि देश में सक्रिय आतंकवादियों को समर्थन पाकिस्तान से मिल रहा है। पर ये आतंकवादी सक्रिय तो हमारी ही भूमि पर हैं। अपने घर की रक्षा तो हम मुस्तैदी से करें नहीं और पड़ौसी पर आरोप लगाते रहें, इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं।
कश्मीर की मौजूदा आबादी को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक तो वे लोग जिनमें मुसलमान, बौद्ध और हिंदू शामिल हैं जो हर कीमत पर घाटी में शांति, विकास और व्यापार चाहते है। क्योंकि उन्हें पता है कि चाहे ज्यादा स्वायत्तता की बात हो या पूरी आजादी की, कश्मीर के लोगों को कुछ नया मिलने वाला नहीं है। असलियत तो यह है कि जो फायदे उन्हें आज मिल रहे हैं उनसे ज्यादा किसी भी हालत में उन्हें मिलने वाले नहीं है। अगर वे पाकिस्तान के साथ जाना भी चाहे तो उनकी हैसियत मुजाहिरों से ज्यादा बेहतर नहीं होगी। इसलिए उन्हें इस आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी तरफ वो भाड़े के टट्टू हैं जो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ऐसे ही दूसरे जेहादी मुल्कों से आतंकवाद का प्रशिक्षण लेकर कश्मीर और शेष भारत में घुस आए हैं। इनसे निपटना मुश्किल हो सकता है पर असंभव नहीं। तकलीफ इस बात कीे है कि कश्मीर को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय की जो नीति चल रही है उसके कारण घाटी में आतंकवादी खत्म नहीं हो पा रहा। कश्मीर मामलों को लेकर प्रधानमंत्री की सलाहकार टीम सही काम नहीं कर रही। आज वहां गद्दारों को प्रोत्साहन मिल रहा है जबकि देशभक्त सैनिक और पुलिस वाले नाहक शहीद हो रहें हैं। एक उदाहरण से बात साफ होगी। पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर पुलिस में से दो हजार पुलिसकर्मियों को इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि ये लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवादियों की मदद कर रहे थे। इसका असर यह हुआ कि जम्मू-कश्मीर पुलिस के लोगों को संदेश गया कि उन्हें आतंकवादियों से डट कर निबटना है। वे आज फौज के साथ कंधे-से-कधा मिला कर आतंकवादियों के खिलाफ लड़ रहे हैं। यह एक ठीक कदम था। पर दूसरी तरफ जम्मू-कश्मीर प्रशासन में चार हजार लोग ऐसे हैं जो या तो चोरी से पाकिस्तान जाकर आतंकवाद को समर्थन देने का प्रशिक्षण लेकर आए हैं या फिर आतंकवादियों को प्राश्रय देते हैं। इतना ही नहीं जम्मू-कश्मीर सरकार के प्रशासन में संवेदनशील विभागों में ये इस तरह जमे हुए है कि सारी गोपनीय सूचनाएं आतंकवादियों को पहुंचाते रहते हैं। इन्हें नौकरी से बहुत पहले ही बर्खास्त कर देना चाहिए था। पर ऐसा नहीं किया गया। इतना ही नहीं यह भी पता चला है कि जम्मू-कश्मीर के मौजूदा मुख्यमंत्री श्री फारूख अबदुल्ला अपनी कुर्सी पर टिकते ही नहीं हैं। साल में आधे से ज्यादा दिन वे देश या विदेश के दौरे पर रहते हैं। प्रशासन पर उनकी पकड़ बिलकुल नहीं है। इन हालातों में जम्मू-कश्मीर की सरकार को खुद ही इस्तीफा देकर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करनी चाहिए।
जम्मू-कश्मीर राज्य को आतंकवाद से जूझने के लिए एक सक्षम, अनुभवी और फौलादी इरादे वाले उप-राज्यपाल की जरूरत हैं, जो कड़े निर्णय ले सके और जम्मू-कश्मीर की बहुसंख्यक शांतिप्रिय जनता के हितों का संरक्षण करते हुए आतंकवादियों को सबक सिखा सके। अबोध औरतों और बच्चों को रसोई घरों में घुस कर मारने वाले आतंकवादियों को कोई भी रियायत देने का प्रश्न ही नहीं उठता। पिछले दिनो मैंने खुद गुजरात जाकर श्री केपीएस गिल के काम करने के तरीके और उसके वहां की जनता पर पड़े प्रभाव का अध्ययन किया। बहुत कम दिनों में श्री गिल ने सिर्फ गुजरात में शांति की स्थापना कर दी बल्कि अल्पसंख्यकों का भी विश्वास जीत लिया है। उनका मानना है कि कश्मीर के आतंकावाद को कानून और व्यवस्था की समस्या मान कर हल करने की जरूरत है। इसमें किसी किस्म की राजनैतिक दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। जहां तक कश्मीर के भविष्य का प्रश्न है उस पर कोई भी चर्चा तभी संभव है जब कश्मीर के नागरिकों को आतंकवाद के साए और खौफ से मुक्त कर दिया जाए। आतंकवादियों के संगीनों के साए में रहने वाले कश्मीर के मेहनतकश और हुनरमंद लोग न तो खुले दिमाग से सोच ही सकते हैं और ना ही सही फैसला कर सकते हैं।
उपराज्यपाल बना कर श्री गिल भेजे जाए या श्री जगमोहन बात एक ही है। हां यह जरूर है कि अब श्री जगमोहन पर भाजपा का ठप्पा लग चुका है इसलिए शायद उनकी तैनाती स्थानीय लोगों को स्वीकार्य न हो। जबकि ऐसी स्थिति में जिस किस्म की निष्पक्षता की आवश्यकता होती है उसकी श्री गिल के पास कोई कमी नहीं है। वे न तो हिंदू हैं और न मुसलमान। एक सिक्ख होते हुए भी सिक्खों के आतंकवाद से जूझ कर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि अपने काम के आगे दूसरी बातों पर ध्यान नहीं देते। खैर जो भी फैसला हो यह ध्यान में रखना जरूरी है कि घाटी में आतंकवादियों के बढ़ते हौसलों के लिए जम्मू-कश्मीर का ढीला प्रशासन ही जिम्मेदार है। जिसे चुस्त-दुरूस्त बनाए बगैर आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सकता। समय की मांग है कि इस मामले में अब और देरी न की जाए। कहीं ऐसा न हो कि अरबों रूपया कश्मीर पर खर्च कर चुकने के बाद भारत को कश्मीर में कुछ भी हासिल न हो। इसलिए आतंकवाद की समस्या से कश्मीर घाटी में प्रभावशाली तरीके से खुद ही निपटना है। जिसके लिए साम, दाम, दंड और भेद चारों तरीके अपनाने होंगे वरना पानी सिर के उपर से गुजर जाएगा।
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