कृषि और देहाती जीवन पर भारत की निर्भरता बहुत ज्यादा है और आने वाले दस-बीस वर्षों में भी यह घटने वाली नहीं है। उधर उदारीकरण और वैश्वीकरण के दौर के बावजूद ग्रामीण बेरोजगारी घटना तो दूर बढ़ रही है। पर तमाम वायदों और दावों के बावजूद कोई भी सरकार इस गंभीर समस्या का हल नहीं ढूंढ पा रही है। कुलीन वर्ग का सत्ताधीशों पर इतना ज्यादा दबाव रहता है कि सरकार की सभी नीतियां इसी वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। जिससे देश के देहाती क्षेत्रों में हताशा बढ़ती जा रही है। लालू यादव जैसे राजनेताओं ने देश के बहुसंख्यक देहाती समाज की इस दुखती रग को पहचान लिया है। इसलिए अपना हुलिया ऐसा बना रखा है मानों देश के दुखियारे गरीबों और किसान-मजदूरों के हितों की सबसे ज्यादा चिंता उन्हें ही है। पर बिहार में भी देहात की बेराजगारी को दूर करने का कोई भी ठोस काम लालू यादव दंपत्ति कार्यकाल में नहीं हुआ है। कुल मिला कर देहात के लोगों के दुखों को दूर करने का गंभीर प्रयास कहीं हो ही नहीं रहा। देहाती की अर्थ व्यवस्था, जमीन, जंगल, पशु, पानी और मानव श्रम से जुड़ी है। इनके ही इस्तेमाल के प्रबंध को सुधार कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में वांछित बदलाव लाया जा सकता है। गरीबी दूर की जा सकती है। रोजगार बढ़ाया जा सकता है। यही बापू कहा करते थे। पर उनकी सुनी नहीं गई। यही तमाम समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता कहते आएं हैं। पर कोई परवाह नहीं करता। लोकतांत्रिक व्यवस्था आम आदमी के वोटों पर टिकी होतीे है। कुलीन वर्ग तो वोट देने ही नहीं जाता। अपने ड्राइंगरूम में देश की हालात की चर्चा करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। फिर भी उसकी ही चलती है। विडंबना देखिए कि जिनके वोटों से प्रांतों और देश की सरकार चलती है उनकी किसी को चिंता नहीं। शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की बात कब से की जा रही है। पर कुछ भी नहीं बदला।
शहरी शिक्षा प्राप्त करके गांवों की हालत सुधार पाना बहुत मुश्किल होता है। शहर का पढ़ा नौजवान गांवों के काम का नहीं रहता। कुलीन पृष्ठभूमि न होने के कारण कायदे का काम उसे शहर में भी नहीं मिलता। चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें। इस तरह देहात के नौजवान दोनों तरफ से मारे जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि गांवों की अर्थव्यवस्था में लगे प्राकृतिक संसाधनों और मानवीय श्रम और कौशल का विवेकपूर्ण समन्वय करके ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनाई जाए जो देहात के करोड़ों नौजवानों को देहात के प्रति संवेदनशील बनाए। उनमें अपने परिवेश के प्रति गहरी समझ विकसित करे और उनके चारों तरफ उपलब्ध संसाधनों का सही इस्तेमाल करने की क्षमता विकसित करे ताकि बेरोजगारी के कारण उनकी ऊर्जा का जो अपव्यय हो रहा है वह न हो और वह सकारात्मक काम में लग सके। देश में अनेक गांधीवादी लोगों ने ऐसे प्रयास अतीत में किए हैं। कुछ ने अनौपचारिक शिक्षा के माध्यम से, तो कुछ ने शिक्षा के नए माॅडल विकसित करके। पर उनका व्यापक प्रभाव कहीं दिखाई नहीं पड़ा।
देश के ग्रामीण नौजवानों की बेकारी दूर करने की इच्छा से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक ग्रामीण महाविद्यालय ने ऐसे गैर पारंपरिक दिशा में एक नई पहल की है। इसके तहत ‘ग्रामीण संसाधन प्रबंधन’ का एक नया स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम शुरू किया गया है। संपूर्ण देश में शायद रूहेलखंड विश्विविद्यालय, बरेली ही वह पहला विश्विविद्यालय है जिसने इस पाठ्यक्रम को स्वीकृति प्रादान की है। उधर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद और चंदौसी के बीच ग्रामीण परिवेश में अमरपुरकाशी ग्रामोदय महाविद्यालय एवं शोध संस्थान, अमरपुरकाशी, ही देश का वह पहला कालेज है जहां यह पाठ्यक्रम आगामी सत्र से चलाया जाएगा। इस कोर्स को विकसित करने वाले श्री मुकुट सिंह का कहना है कि, ‘भारत गांवों का देश है और यहां के सभी संसाधन देहातों में हैं। किंतु अभी तक गांवों के इन संसाधनों का वैज्ञानिक अध्ययन और उनका प्रबंधन करने का कोई पाठ्यक्रम देश के किसी विश्विविद्यालय में नहीं चलाया जाता है। यह एक विडंबना है कि ब्रिटेन के बीस से उपर विश्विविद्यालयों में इस तरह के कोर्स कई वर्षों से चलाए जाते हैं।
श्री सिंह इंग्लैड के मिडिलसैक्स विश्विविद्यालय में अध्यापन कार्य कर चुके है। यह पाठ्यक्रम उन्होंने पहले इसी विश्विविद्यालय के लिए तैयार किया था। मिडिलसैक्स विश्विविद्यालय इस पाठ्यक्रम को अपनी संबद्धता देने को तैयार था पर तब इस पाठ्यक्रम की फीस तीन सौ पौंड (बीस हजार रूपए प्रति छात्र प्रति वर्ष) होती। जो भारतीय परिवेश के देहाती नौजवानों की क्षमता से कहीं अधिक होती। इसलिए श्री मुकुट सिंह ने ब्रिटिश यूनिवर्सिटी की संबद्धता को अस्वीकार कर दिया। तब उन्होंने भारतीय विश्वविद्यालयों से इसकी संबद्धता की कोशिश की और रूहेलखंड विश्विविद्यालय, बरेली इसके लिए राजी हो गया। क्योंकि अमरपुरकाशी गांव उसके अधिकार क्षेत्र के भीतर ही था।
पाठ्यक्रम अंतर्विषयी है और पचास फीसदी व्यावहारिक अनुभव पर आधारित है। यह अनुभव और अध्ययन उस ग्रामीण क्षेत्र के परिवारों की आर्थिक और सामाजिक केस स्टडीज पर आधारित होगा। इलाके में उपलब्ध जल, जंगल, जमीन और जनसंख्या जैसे संसाधनों का गहन अध्ययन करके उनके सदुपयोग के उपयुक्त माॅडल तैयार किए जाएंगे। ताकि क्षेत्र के आर्थिक विकास का प्रारूप तैयार हो सके। ग्रामीण नौजवान आत्मनिर्भर होकर अपना जीविकोपार्जन कर सके। इस पाठ्यक्रम को बीस-बीस सप्ताह के सेमेस्टर और एक-एक वर्षीय शोध पत्रों में बांटा गया है। इस तरह रूरल रिसोर्स मैंनेजमेंट का यह नया कोर्स कई मामलों में अनूठा होगा।
यह कैसी विडंबना है कि कृषि प्रधान देश में मैंनेजमेंट के नाम पर हम केवल एमबीए को ही जानते है। जबकि एमबीए का पाठ्यक्रम बहुत ही सीमित और विशुद्ध शहरी जरूरतों पर आधारित है। उदाहारण के तौर पर सभी उ़द्योगों की स्थापना के लिए प्रचुर भूमि की आवश्यकता होती है। जो गांवो को विस्थापित करके उद्योगपतियों को दी जाती है। एमबीए किए हुए प्रबंधक न तो भूमि संसाधन को जानते हैं और न विस्थापित मानव संसाधन को ही। अन्य प्राकृकि और भौतिक संसाधनों का भी ज्ञान उन्हें नहीं कराया जाता है। ग्रामीण संसाधन प्रबंधन पाठ्यक्रम ऐसी कमियों को पूरा करने का दावा करता है। इस पाट्यक्रम को विकसित करने वाले अनुभवी लोगों का विश्वास है कि इस पाठ्यक्रम में सफल हुए विद्यार्थियों को नौकरी की दिक्कत नहीं आएगी। उनकी इस अनूठी योग्यता की जरूरत मझोले और भारी उद्योगों में, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में, विकास की दिशा में स्वैच्छिक रूप से काम कर रही राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय दानदाता संस्थाओं में, संयुक्त राष्ट्र संद्य की विकास एजेंसियों में, सरकारी प्लानिंग और विकास विभागोें में, स्थानीय निकायों में, जिला और ब्लाॅक स्तरीय पंचायतों में और गैर सरकारी संस्थाओं में जल्दी ही महसूस की जाएगी। यह पाठ्यक्रम कहां तक सफल हो पाता है यह तो समय ही बताएगा। पर इसमें शक नहीं कि यह सही दिशा में उठाया गया एक वांछित कदम है। समय की मांग है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय देहात की समस्याओं का हल निकालने को बनाए गए ऐसे तमाम तरह के पाठ्यक्रमों की एक निदेशिका प्रकाशित करे जो बेहद कम कीमत पर ग्रामीण नौजवानों के लिए उपलब्ध हो। जिसे पढ़कर वे जान सकें कि इस दिशा में उनके लिए क्या-क्या विकल्प मौजूद हैं। इससे कई लाभ होंगे। एक तो ये कि बिना क्षमता, योग्यता या इच्छा के मजबूरी में जिन शहरी पाठ्यक्रमों की ओर ग्रामीण युवा भागते है, उसकी जरूरत नहीं पड़गी। उन्हें यह पता होगा कि उनके लिए क्या उपयुक्त है?
अपने देश की सौ करोड़ आबादी और आर्थिक विपन्नता और असमानता को देखते हुए सच्चाई यह है कि चाहे कोई कितने भी सपने क्यों न दिखा दे, भारत को रातो-रात विकसित देशों की तरह संपन्न नहीं बनाया जा सकता। ऐसी दशा में झूठे आश्वासन युवा आक्रोश को ही बढ़ाएंगे। जो आतंकवादी हिंसा के रूप में प्रकट हो सकता है। इसलिए इस दिशा में सकारात्मक सोच की जरूरत है। अमरपुकाशी का यह प्रयोग इस दिशा में एक सराहनीय कदम है।
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