पिछले दिनों भारत के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया। उन्होंने सभी प्रमुख दलों के नेताओं से बात करके सांसद निधि के इस्तेमाल में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की जरूरत पर जोर दिया था। सैद्धांतिक रूप से उनसे सहमति जताने के बावजूद किसी भी दल ने इस मामले में पहल नहीं की। देश के अलग-अलग हिस्सों में सांसद निधि के आवंटन और इस्तेमाल को लेकर अलग अलग तरह की रिपोर्ट आ रही हैं। जहां कुछ इलाकों में इस निधि से वाकई जन उपयोगी काम हुए हैं वहीं ज्यादातर इलाकों में इसके आवंटन और इस्तेमाल को लेकर तमाम तरह की निराशाजनक बातें सामने आ रही हैं। आज देश की राजधानी दिल्ली के अलावा अन्य हिस्सों में भी ऐसे दलाल विकसित हो गये हैं जो किसी भी योजना के लिये सांसद निधि से धन आवंटन करवाने का ठेका लेेते हैं। ये लोग सांसदों के इस कोष पर सतर्क निगाह रखते हैं। इन्हें पता होता है कि किस इलाके के कौन से सांसद का कोष इस्तेमाल नहीं हुआ। इन्हें ये भी पता होता है कि कौन से सांसद से सरलता से किसी भी प्रोजेक्ट के लिये धनराशि का आवंटन करवाया जा सकता है। ये लोग बाकायदा एक मोटे कमीशन के एवज में इस काम को करवाने के लिये तत्पर रहते हैं। चूंकि इस तरह की कमीशनबाजी का लेन-देन काले धन से गुपचुप तरीके से होता है इसलिये इसका कोई लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। वैसे भी इस मामले में किसी भी पक्ष के शोर मचाने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह पूरी प्रक्रिया बहुत सरल है। यदि किसी कोलोनाइजर को अपनी कालोनी में सांसद निधि से सड़क बनवानी है तो वह ऐसे दलालों को संपर्क करता है जो उस कोलोनाइजर के लिये तमाम कागजी खानापूरी करते हैं। कमीशन की रकम तय होती है और कोलोनाइजर को वांछित राशि आवंटित कराने में सफलता मिल जाती है। जिस कालोनी में सड़क, बिजली, सीवर आदि की व्यवस्था न होने से उसके प्लाॅटों की खास कीमत नहीं मिलती वही कालोनी इस तरह के अनुदान आ जाने के बाद चमक जाती है। और तब वह अपने प्लाॅट को अच्छे दामों पर बेच सकते हैं। सांसद निधि से धन आवंटन कराने वाले जानते हैं कि कोलोनाइजर के लिये यह कितने बड़े फायदे का सौदा हैं इसलिये बाकायदा मोल तोल करके कमीशन की मोटी रकम तय की जाती है। आम जानकारी की बात है कि यदि किसी छोटे समूह के निहित स्वार्थ के लिये यह धनराशि आवंटित करायी जानी है तो कमीशन की रकम 35 से 40 फीसदी तक होती है। यदि यह आवंटन वास्तव में सार्वजनिक हित के काम के लिये किया जाता है तो भी कमीशन की राशि 10 फीसदी तक मांग ली जाती है।
पिछले कुछ वर्षों से हर राजनैतिक दल अपने सांसदों को मजबूर करके ऐसी परियोजनाओं में सांसद निधि लगवा रहे हैं जिनका आम जनता को कोई लाभ मिले न मिले, उनके दल के स्वार्थ जरूर पूरे होते हैं। इस तरह अक्सर यह देखने में आ रहा है कि अनुत्पादक और महत्वहीन परियोजनाओं में सांसद निधि का एक बहुत बड़ा हिस्सा बरबाद किया जा रहा है। क्योंकि इन परियोजनाओं को चलाने में सम्बन्धित राजनैतिक दल के हित छिपे होते हैंै। यह बताना कठिन है कि कौन सा काम जनहित की श्रेणी में आता है और कौन सा नहीं। पर फिर भी मोटे तौर पर यह माना जाना चाहिये कि जिस काम से समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों का फायदा होता हो, उसे जनहित का कार्य मान लेना चाहिये। सांसद निधि के संदर्भ में इस मापदण्ड को भुला दिया गया है। छुटभैैये नेता और दलाल अपने फायदे के लिये अपने सांसदों की इस निधि को निरर्थक परियोजनाओं में लगवा रहे हैं। बिना यह सोचे कि इससे उस क्षेत्र का कुछ भी फायदा नहीं होगा।
सोचने वाली बात यह है कि सांसद निधि से धन स्वीकृत करते समय क्या सम्बन्धित सांसद को यह अहसास होता है कि जो धन वह आवंटित करने जा रहे हैं वह किसी व्यक्ति या उनकी निजी जायदाद नहीं है। किसी देश की करोड़ों गरीब जनता के खून पसीने की कमाई पर कर लगाकर जो राजकोष बनता है उसी में से सांसद निधि के लिये भी धन दिया जाता है। फिर भी ऐसा व्यवहार किया जाता है मानो कोई राजा अपने निजी राजकोष से जनता को धन लुटा रहा हो। विकास के जिन कामों को इस निधि से पूरा करके दिखाने के दावे किये जाते हैं और कई बार उस कार्य को पूरा किया भी जाता है दरअसल ये वो काम हैं जो पहले ही सरकार को कर देने चाहिये थे। चूंकि सरकारें अपनी दायित्व के निर्वहन में असफल रही हैं इसलिये जनता को कुएं और शौचालय जैसे छोटे छोटे कामों के लिये भी सांसद निधि की तरफ देखना पड़ता है। चूंकि सांसद निधि का इस्तेमाल प्रायः जिला प्रशासन की मार्फत होता है इसलिये स्थानीय प्रशासन को इस निधि में से धन खींचने की पूरी गुंजाइश रहती है। इस तरह यह भ्रष्टाचार का एक नया मोर्चा खुल गया। प्रायः सांसद और जिला प्रशासन के बीच विवाद भी हो जाते हैं और बात बाहर निकल जाती है। तब यह सुनने में आता है कि फलां प्रशासक ने फलां सांसद को उसकी अपेक्षा के अनुरूप प्रसन्न नहीं किया इसलिये यह टकराहट पैदा हुई।
सोचने वाली बात यह है कि जिस देश की आधी से अधिक आबादी बेहद गरीबी और बदहाली में जी रही है उस देश में जनता के सीमित संसाधनों का फालतू के कामों में दुरुपयोग करना कहां की बुद्धिमानी है। इसलिये इस व्यवस्था का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। तब प्रश्न यह भी उठेगा कि क्या सांसद का काम सार्वजनिक निर्माण करवाना है या कुछ और ? उत्तर ये होगा कि सांसद का काम या यूं कहें कि विधायिका का काम कानून बनाना, और उसे लागू करने वाली सरकारी एजेंसियों के काम काज पर निगरानी रखना होता है। जबकि सांसद निधि आ जाने से यहां सांसद का ‘रोल कौन्फ्लिक्ट’ हो गया है। जब वह अपनी निधि से खर्चा करेगा और तत्सम्बन्धी वित्तीय निर्णय लेगा तब वह कैसे अपने ही निर्णयों का निष्पक्ष मूल्यांकन कर पाएगा जो एक सांसद के नाते उसका कर्तव्य है ?
दरअसल लोकतंत्र में इस तरह की सांसद निधि की कोई आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिये। सरकार के लोग विशेषज्ञों की राय से देश के विभिन्न इलाकों की जरूरतों को समझते हुए विकास की जो योजनायें बनाते हैं उनका क्रियान्वयन कैसा हो रहा है यह परखना ही सांसदों का कर्तव्य होता है। पर जब वे खुद ही कार्य पालिका के रूप में कार्य करेंगे तो वे एक निष्पक्ष विधायिका के रूप में कार्य कर पायेंगे। वैसे भी इस निधि के आवंटन का निर्णय लेने की जो शक्ति एक सांसद में केन्द्रित कर दी गयी है वह भी जनतांत्रिक भावनाओं के प्रतिकूल है। सार्वजनिक धन के इस्तेमाल का निर्णय लेने का कोई अधिकार किसी एक व्यक्ति विशेष को नहीं होना चाहिये। इसके लिये एक समूह के निर्णय की आवश्यकता होती है। विशेषज्ञों के सलाहकार मंडल की सलाह पर सांसद निधि से धन आवंटित किया जाना चाहिये। विशेषज्ञों की ऐसी समिति को देश की माली हालत और लोगों की कर देने की क्षमता को ध्यान में रखकर सुझाव देने चाहिये। ऐसी परियोजनाओं में धन लगे जिनका प्रत्यक्ष लाभ जनता को मिले। फिजूलखर्ची और निहित स्वार्थों के कामों पर रोक लगे। इसके लिये हर सांसद के संसदीय क्षेत्र की जागरूक जनता को भी सक्रिय और चैकन्ना रहना होगा। ऐसे लोगों को समूह बनाकर अपने सांसद पर दबाव डालना चाहिये ताकि वह सांसद जन भावनाओं की उपेक्षा करके अपनी निधि को बरबाद न करे या उसे निहित स्वार्थों के हाथ में जाने से रोकंे। हर संसदीय क्षेत्र के जागरूक नागरिक, वकील, शिक्षक, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ताओं को चाहिये कि वे अपने सांसद से इस निधि के इस्तेमाल की विस्तृत आख्या मांगें और उसका अध्ययन करें। ताकि उन्हें पता चल सके कि किस काम के लिये कितने खर्चे की आवश्यकता होती है। इसके अलावा संसदीय सलाहकार समिति अपनी बैठक में ऐसे प्रस्ताव पारित कर सकती है जिनसे सांसद निधि के दुरुपयोग पर रोक लग जाए। उसके आवंटन की निर्णय प्रक्रिया और उसके खर्चे की पूरी निगरानी करना संभव हो। इसके साथ ही प्राथमिकता तय कर दी जाएं जिनकी सूची हर सांसद को दे दी जाए ताकि वे अपनी क्षेत्र में आवश्यकतानुसार इस सूची के आधार पर अपनी रुचि के कामों में धन लगायें।
यह इस देश का दुर्भाग्य ही है कि तमाम संसाधनों को होने के बावजूद हमारा देश इतना गरीब है। दुख की बात यह है कि आज की उपभोक्तावादी संस्कृति ने अब देश की अस्सी फीसदी जनता को दरकिनार कर साधन सम्पन्न लोगों को अपने कब्जे में ले लिया है ऐसे में आम आदमी के दुख दर्द अब हुक्मरानों के सभागारों की चर्चा के विषय नहीं रहे। सांसद निधि की क्या चले जब देश की बड़ी बड़ी नीतियां चंद कंपनियों के मोटे मुनाफों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। लोगों को विकास और नौकरी के सब्जबाग दिखाकर गुमराह किया जाता है। जब तक देश के जागरूक नागरिक सार्वजनिक संसाधनों के आवंटन और इस्तेमाल पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं करेंगे तब तक देश की आम जनता को इन संसाधनों का लाभ नहीं मिल सकेगा। लोकतंत्र के लिये जागरूक जनता के बीच ऐसे संकल्प का होना अनिवार्य है। इस दिशा में पहला कदम यह होगा कि हर संसदीय क्षेत्र के जागरूक नागरिकों का एक संगठन इसी काम के लिये बने जो सांसदों और विधायकों के कोष पर निगरानी रखे और उसकी बरबादी होने से उसे रोके। यह शुरू में कठिन जरूर लगेगा पर इतना कठिन मामला है नहीं। अगर ऐसे संगठन में शामिल होने वाले लोग अपने निज हित को अलग करके सार्वजनिक हित में सांसदों पर एक दबाव समूह बनायेंगे तो मजबूरन उस सांसद को अपने कार्यकलापों में जवाबदेही लानी पड़ेगी। यदि ऐसा हो सके तो यह लोकतंत्र के लिये एक बहुत ही सशक्त शुरूआत होगी। कहते हैं कि बिन्दु बिन्दु से सिन्धु बना है। हर सांसद पर अगर उसके मतदाताओं की ऐसी ही कड़ी नजर लगी रहे तो कोई भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हो पाएगा। चाहे वो विधायिका का सदस्य हो या कार्यपालिका का। व्यवस्था की आलोचना करना और हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना सबसे आसान काम है। मुश्किल है तो हालात को बदलना। जो लोग भी इस देश के निजाम को और अधिक जिम्मेदाराना बनाना चाहते हैं उन्हें इस तरह की ठोस पहल करनी चाहिये। इसी में सभी का कल्याण छिपा है
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