Friday, December 27, 2002

न्यायपालिका और वकील

सर्वोच्च न्यायालय की एक संवैधानिक पीठ ने वकीलों की हड़ताल पर पाबंदी लगा दी है। उन्हें किसी भी कीमत पर हड़ताल करने नहीं दी जाएगी। अपरिहार्य परिस्थितियों में जब ऐसा करना जरूरी हो तो वे जिला जज या मुख्य    न्यायधीश की अनुमति से एक दिन की हड़ताल पर जा सकते हैं। 16 दिसंबर 2002 को आए इस निर्णय के बावजूद बाॅर काउंसिल आफ इंडियाके आह्वाहन पर 17 दिसंबर, 2002 को वकीलों ने देशव्यापी हड़ताल की।

सर्वोच्च न्यायलय का मानना है कि कानून की सेवा अनिवार्य सेवाओं के अतंर्गत आती है इसलिए इस सेवा में लगे लोगों को हड़ताल पर नहीं जाना चाहिए। बल्कि आधी रात भी लोगों को न्याय दिलाने के लिए तत्पर रहना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से यह बात सही है कि वकील, डाक्टर, पुलिस, बिजली, पानी, टेलीफोन, सफाई जैसे विभागों को हड़ताल पर जाने की छूट नहीं होनी चाहिए। क्योंकि इससे जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। अराजकता फैलती है और आम आदमी को भारी तकलीफ का सामना करना पड़ता है। चूंकि हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है और राष्ट्रपिता ही हमको सत्याग्रह, हड़ताल और धरने देना सिखा गए हैं इसलिए हर हिंदुस्तानी हड़ताल को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। पूरे देश में हजारों जगह हड़ताल धरने और सत्याग्रह चलते रहते हैं। बंगाल इस मामले में सबसे आगे है। जिसका नतीजा है आज बंगाल आर्थिक प्रगति में काफी पिछड़ गया है। अपने काम की दशा से संतुष्ट न होने पर विरोध कराना तो एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है जिसे नकारा नहीं जा सकता। पर हमारे देश में हड़ताल कामचोरों का कवच बन गई है। अक्सर बेतुके मुद्दों पर भी हड़ताल हो जाती है और कई दिन चलती रहती है। अंत में इससे किसी को लाभ नहीं होता सिवाए मुट्ठी भर नेताओं के। पर ये नेता ही मजबूर कर देते हैं हड़ताल करने पर। हड़ताल करने का नायाब तरीका खोजा है जापान के लोगों ने। जापान के मेहनती और देशभक्त लोग भी हड़ताल करते हैं, पर सड़कों पर उतर कर नहीं। काम छोड़कर नहीं। बल्कि अपने काम को अजीब ढंग से अंजाम देकर। मसलन, अगर एक जूता बनाने वाली फैक्ट्री में हड़ताल होनी है तो उसके कर्मचारी तय कर लेंगे कि वे काम तो पूरे टाइम करेंगे और उसी तन्मयता से करेंगे पर दो पैर की जगह एक ही पैर के जूते का निर्माण करेंगे। जरा सोचिए कि अगर किसी कारखाने में एक पैर के जूते का ढेर लगता जाए तो क्या माल पैक करके बाजार में भेजा जा सकता है ? आमतौर पर जापान के कर्मचारी हाथ में विरोध स्वरूप एक फीता बांध कर हड़ताल करते हैं और वहां की व्यवस्था भी इतनी संवेदनशील है कि विरोध के इस सभ्य तरीकों को गंभीरता से लेती है और विवाद सुलझाने की कोशिश करती है।

हर आर्थिक मोर्चे पर पूरी तरह पिट रहे भारत में क्या हम जापान के उदाहारण का अनुसरण नहीं कर सकते? मसलन, अगर डाक्टरों को हड़ताल करनी हो तो वे अपने सफेद कोट की जगह पाजामा कुर्ता पहन कर अस्पताल चले आएं। वकीलों को हड़ताल करनी हो तो वे हड़ताल के दिन विरोध स्वरूप अपना काॅलर बैंडन पहने या काला कोट उतार कर न्यायधीश के सामने जाएं। हर न्यायधीश को पता चल जाएगा कि वकील हड़ताल पर हैं। विश्वविद्यालय, कालेज या स्कूल के शिक्षकों को हड़ताल करनी हो तो वे क्लास में तो जाएं पर विषय न पढ़ाकर छात्रों की व्यक्तिगत समस्याएं सुने और उनका निपटारा करें। जब तक उनकी सुनी न जाए विरोध का यही तरीका अपनाते रहें। इससे छात्रों का उनके प्रति आकर्षण बढ़ेगा और प्रशासन व अभिभावकों को बेचैनी। यदि पुलिस वालों को हड़ताल करनी हो तो वे हड़ताल के दिन अपनी टोपी उल्टी करके पहन लें।

कहने का मतलब ये कि अगर आपको व्यवस्था से नाराजगी है और आप उसके विरूद्ध हड़ताल करना चाहते हैं तो उसका तरीका ऐसा होना चाहिए जिससे अनिवार्य सेवाओं में कोई व्यवधान न पड़े पर साथ ही आपके विरोध पर सबका ध्यान सहज खिंचा चला जाए। इस विषय पर देश में सभी कर्मचारियों और विभागों के लोगों को गंभीरता से सोचना चाहिए इससे उन्हें जनता के आक्रोश और तानों का शिकार भी नहीं होना पड़ेगा और उनके विरोध का कारण सहज ही लोगों तक पहुंच जाएगा।

जहां तक बात वकीलों के हड़ताल करने की है तो यह वाकई एक गंभीर सवाल हैं। इसलिए कि न्यायव्यवसथा इस देश के लोकतंत्र का एक अहम् खंभा है और सौ करोड जनता न्यायपालिका से न्याय मिलने की उम्मीद करती है। पर अगर उसे आए दिन वकीलों के हड़ताल के कारण न्याय मिलने में देरी हो, समय और पैसा बर्बाद हो तो जनता के लिए बहुत कष्टदाई स्थिति होगी।

सवाल उठता है कि  न्यायव्यवसथा दिनोदिन असामान्य परिथतियां क्यों पैदा होती जा रही हैं? कभी उच्च न्यायलय के जज सैक्स स्कैंडल में फंस जाते हैं। कभी जमीन घोटाले में। कभी अपने बच्चों को रिश्वत देकर नौकरी दिलवाने में और कभी छूठे बिल देकर सरकार से फायदा उठाने में। यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर के महत्वपूर्ण  मुकदमों में यह कह कर देश को सकते में डाल देते हैं कि उन पर इस मामले को दबाने के लिए भारी दबाव पड़ रहा है और कोई व्यक्ति उनसे लगातार मिलता रहा है। आश्चर्यजनक रूप से न तो वे उस व्यक्ति का नाम देश को बताते हैं और न उसके खिलाफ अदालत की अवमानना की कार्रवाही करते हैं। जब वहीं व्यक्ति उन्हीं जजों से अपने अवैध संबंधों की जानकारी मीडिया को देता है तो  भी ये जज उसके खिलाफ मानहानी का मुकदमा नहीं चलाते क्यों ? इससे भी खौफनाक बात यह है कि भारत के मुख्य न्यायधीश ने खुल कर स्वीकारा है कि न्यायपालिका के उच्च स्तरों पर भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है और मौजूदा कानून उससे निपटने में नाकाफी हैं। हाल ही में बने भारत के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति वी. एन. खरे का भी एक बयान पिछले दिनों अखबार में छपा था। जिसके अनुसार उन्होंने माना था कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार इसलिए हैं कि न्यायपालिका में लोग वकालत के पेशे से आते हैं।  जब तक वकीलों में भ्रष्टाचार रहेगा तब तक न्यायपालिका में भी रहेगा। यह बात जितनी सरलता से कही गई है उतनी ही गंभीर है और खतरनाक भी। क्या यह सही नहीं है कि हर वकील अपने मुंशी की मार्फत अपने मुवक्किलों से कचहरी के कर्मचारियों को रोज रिश्वत दिलवाता है। यानी वह रिश्वत देने का जुर्म करता है। वकालत से न्यायपालिका में आया कोई भी व्यक्ति क्या ईमानदारी से यह कह सकता है कि उसनें इस तरह से रिश्वत देने में कोई भूमिका नहीं निभाई है ? अगर उत्तर हां में है तो न्यायपालिका के ऐसे सभी सदस्य अतीत में रिश्वत देने का जुर्म तो किए ही बैठे हैं। जो व्यक्ति थोड़ी सी तकलीफ न सह कर रिश्वत देकर काम जल्दी करवाने में विश्वास करता हो उससे ये कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह किसी बड़े प्रलोभन को छोड़कर पूर्ण ईमानदारी और नैतिकता से निर्णय देगा ? शायद यही कारण है कि न्यायपालिका लगातार जनता कि आलोचना का शिकार बनती जा रही है। यह गंभीर स्थिति है।
लोकतंत्र की बुनियाद न्यायपालिका पर टिकी है। उच्च न्यायपालिका को स्वायतत्ता देने के अनेक संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं। उम्मीद ये की गई थी कि न्यायपालिका के सदस्य मानवीय स्तर से ऊपर उठ कर पंच-परमेश्वर की भावना से काम करेंगे। पर जो देखने में आ रहा है वह बहुत निराशाजनक है। ऐसा नहीं है कि सभी न्यायधीश भ्रष्ट हैं पर जैसाकि स्वयं भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश ने माना है कि न्यायपालिका के उच्च स्तर पर भी भ्रष्टाचार है। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि वकीलों और जजों के बीच जो छोटी-मोटी टकराहट होती है उसका कारण कुछ इसी तरह का अनैतिक लेन-देन होता हो। क्योंकि वकील भी इस बात का दावा नहीं करेंगे कि सब निर्णय केवल तथ्यों और कानून के आधार पर ही दिए जाते हैं। ऐसे तमाम प्रमाण प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि तथ्यों को अनदेखा करके निर्णय दिए गए और वो भी राष्ट्रहित के महत्वपूर्ण मामलों पर। ऐसे में न्यायपालिका के सुधार की भी सबसे ज्यादा जरूरत है। वकीलों की हड़ताल पर प्रतिबंध लगाने से ही काम नहीं चलेगा। न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही की जरूरत आज पहले से कहीं ज्यादा महसूस की जा रही है। अदालत की अवमानना कानून को ढाल बना कर अगर न्यायपालिका अपने भ्रष्ट और अनैतिक आचरण का बचाव करती रहेगी तो इसके गंभीर परिणाम सामने आ सकते हैं। न्यायपालिका का सीधा संबंध आम आदमी से है। आम आदमी का अभी भी न्यायपालिका में विश्वास बना हुआ है। उसके मन में न्यायपालिका के प्रति सम्मान भी है। पर उसे भी तब निराशा होती है जब वह देखता है कि गरीब को न्याय नहीं मिलता और अमीर अपराध करके भी छूट जाते हैं। यदि देश के आम लोगों को न्यायपालिका के गिरते आचरण की जानकारी मिलने लगी तो उसकी आस्था इस तंत्र में नहीं बचेगी और फिर वो अपने आक्रोश को अपने तरीके से अभिव्यक्त करने को मजबूर होगा। बिहार की जातिगत सेनाएं हो या नक्सलवादी, ये पुलिस व्यवस्था के निकम्मेपन का परिणाम हैं। पुलिस ने जब गरीब की परवाह नहीं की और पैसे वालों का साथ दिया तो शोषित युवाओं ने कानून अपने हाथ में ले लिया और बंदूक उठा ली। सरकार लाख कोशिश करे पर इन जुनूनी नौजवानों से जीत नहीं पाती है। जिसने सिर पर कफन बांध लिया उसे कौन रोक पाएगा ? न्यायपालिका को इन सवालों पर सोचना चाहिए।

अदालत की अवमानना कानून को केवल अदालत की प्रतिष्ठा के लिए ही इस्तेमाल करना चाहिए। इस कानून से किसी न्यायधीश के व्यक्तिगत दुराचरण की रक्षा करना अपनी इज्जत अपने हाथ खोना है। अवश्यकता इस बात की है कि वकील और जज मिल कर इसमें बदलाव की सोंचे और कुछ पहल करें।

Friday, December 20, 2002

राजनीति में धर्म हो: धर्म में राजनीति नहीं

धर्म और राजनीति के संबंध को लेकर भारत में बहुत भ्रांति चल रही है। मुट्ठी भर लोग हैं जो धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहते हैं । वे अपने को अनेक नामों से पुकारते हैं। मसलन धर्मनिरपेक्ष। दूसरा विशाल समूह मानता है कि धर्मविहीन जो भी सत्ता होगी वो दानवी होगी। इसमें भी दो श्रेणी के लोग हैं। एक तो वो जो स्वयं अधर्म का आचरण करते हैं और धर्म के नाम पर द्वेष और अशांति पैदा करते हैं। इसी श्रेणी में दूसरे वे लोग हैं जो ईमानदारी से एक आध्यात्मिक समाज की स्थापना करना चाहते हैं जैसी पांच सौ वर्ष पूर्व भक्ति युग के महान् संतों ने कोशिश की थी। जिनमें श्रीचैतन्य महाप्रभु, कबीर, नानक, तुकाराम और सूफी संत प्रमुख हैं। तबके हालात में इनसे समाज को बहुत शंाति व सुख मिला। क्योंकि तब भी भ्रष्ट शासकों ने आज जैसे ही हालात पैदा कर दिए थे।

पहली श्रेणी में जो भी लोग हैं यानी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग उन्होंने अपने कारनामों से सिद्ध किया है कि उनकी धर्मनिरपेक्षता तो वास्तव में अपने विरोधियों को सत्ता से दूर रखने के लिए एक औजार मात्रा है। इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों में जितनी साम्प्रदायिकता, जातीयता, क्षेत्राीयता है उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। क्या वजह है कि पिछले 50 वर्षों में धर्मनिरपेक्षता का ढि़ंढोरा पीटने वाले बुद्धिजीवियों, नेताओं और अफसरों के रहते देश में धर्मांधता व साम्प्रदायिक हिंसा इतनी तेजी से बढ़ी कि पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए। मजेदार बात ये है कि धर्मनिरपेक्षता का बैनर लेकर चलने वाले बहुत से लोग खुलेआम अपनी धार्मिक भावनाओं का भी प्रदर्शन करते आए हैं । यहां तक कि कम्युनिस्ट सरकारों के मंत्री व मुख्यमंत्री तक भी चुनावी अभियान की शुरूआत किसी मंदिर में सार्वजनिक पूजा करने के बाद ही करते हैं । क्यों ? इसलिए कि धार्मिक भावनाएं भारत के लोगों में बहुत गहरी व्याप्त है। किंतु राजाश्रय या उचित मार्ग दर्शन के अभाव में हीरे और कंकड़ आपस में मिल गए हैं। ये हीरे हंै जिन्होंने इतनी उठा-पटक, दानवी राज शक्तियों, वीभत्स भ्रष्टाचार, व्यापक शोषण और लूट के बावजूद आज तक भारतीय समाज को टिकाए रखा है। ये कंकड़ हैं जो समाज को अनचाहे ही स्वार्थी व सत्ता-लोलुप नेताओं के भड़काने पर अवांछित संघर्ष की आग में झांेक देते हैं। अंत में समाज का बहुसंख्यक हिस्सा इन नेताओं द्वारा बार-बार ठगे जाने के कारण घाटे में रहता है। इसलिए अब राजनीति में धर्म की भूमिका की और उपेक्षा करना देश और समाज के लिए घातक ही होगा।

यदि ऐसा नहीं किया गया तो राष्ट्र घाटे में रहेगा। क्योंकि जो दूसरा वर्ग है, जो उन लोगों का है, जो लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़का कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकते हैं। समाज में अंधविश्वास, जातिवाद और साम्प्रदायिकता व संकीर्णता फैलाने के काम में जुटें हैं। इनके कारण कुछ लोगों में यह भ्रम पैदा हो रहा है कि धर्म पर आधारित राजनीति से देश का नुकसान होता है।

दरअसल आज जरूरत इस बात की है कि आम आदमी की धर्म के बारे में भ्रांतियों को दूर किया जाए। उसमें हर धर्म के प्रति या कम से कम अपने धर्म के प्रति गहरी समझ पैदा की जाए। सरकार में बैठे स्वार्थी तत्व ये कभी नहीं करेंगे। क्योंकि इससे उनकी ‘बांटो और राज करो’ की साजिश को खतरा पैदा हो जाएगा। यह काम तो जागरूक नागरिकों को ही करना होगा। इस काम के लिए पहले हर धर्म के ऐसे लोग चुने जाएं जिनमें अपने धर्म की गहरी समझ हो। जिनका जीवन उनके प्रवचनों से मेल खाता हो। आज देश में धर्म की दुकानदारी करने वालों की भी एक लंबी जमात पैदा हो गई है। इसलिए सही-गलत की पहचान भी मुश्किल काम है। पर निर्मल हृदय और आध्यात्मिक समझ वाले लोगों की पारखी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं। ऐसे आध्यात्मिक संत जनों को ढूंढा जाए जिनकी शिक्षाओं से उनके अनुयायिओं के जीवन में प्रशंसनीय बदलाव आया है। ऐसे सभी संत जनों से फिर राष्ट्र की रक्षा के लिए समाज का मार्ग निर्देशन करने की याचना की जाए। उनके मार्ग निर्देशन में देश के सभी धार्मिक स्थलों के जीर्णोद्धार का काम शुरू किया जाए। मसलन सामूहिक प्रयास से इन स्थानों की साज-सफाई की व्यवस्था की जाए। हर धार्मिक स्थान में समाज के गरीब वर्ग के लोगों के लिए दोनों वक्त मुफ्त भोजन की व्यवस्था की जाए। जिसके खर्चे का भार उस धर्म के धनी लोग वहन करें। यह असंभव नहीं है। सारे देश के गुरूद्वारों में यह होता ही है। इस प्रकार समाज के लोगों में पारस्परिक सद्भाव तो बढ़ेगा ही, सामूहिक समस्याओं पर सामूहिक समझ भी पैदा होगी।

शास्त्रों में कहा गया है कि जिस राष्ट्र में शासक अधर्मी होता है, वो राष्ट्र अपनी प्रजा समेत नष्ट हो जाता है।

यत्र त्वेते परिधासाज्यन्ते वर्णदूषकाः।
राष्ट्रिके तदराष्ट्रं क्षिप्रमेव विनाशयति।।

गीता का सांख्ययोग भी जिस धर्म की परिभाषा देता है वो समाज और व्यक्ति को व आत्मा और परमात्मा को आपस में जोड़ता है। विज्ञान से तकनीक पाई जा सकती है, भौतिक उपलब्धियां हो सकती हैं मगर समाज की गति नहीं बदलती। विज्ञान को भी इसीलिए धर्म की बहुत जरूरत है। अल्बर्ट आइंस्टीन और एल्फ्रेड नोबल जैसे वैज्ञानिक तक इसे स्वीकार करते है।

धर्म और समाज दोनों आदि काल से एक दूसरे से संबद्ध चले आ रहे हैं। इनमें से किसी को अलग नहीं कर सकते। हमारे यहां प्राचीन काल से आज तक जितने भी नीति के ग्रंथ और शास्त्र लिखे गए हैं, सब में समान रूप से धर्मगत और समाजगत आचार की मान्यता और प्रमाणिकता बताई गई है। हमारे देश में धर्म ने समाज को और समाज ने धर्म को बहुत गहराई और व्यापक रूप में प्रभावित किया है। धर्म और समाज के बीच यह आपसी निर्भरता भारत में अन्य देशों की अपेक्षा अधिक मिलेगी।

आमतौर पर किसी भी देश अथवा समाज का इतिहास कुछ विशिष्ट चुने हुए व्यक्तियों के कार्यकलाप, उनकी सफलता अथवा असफलता का वर्णन ही होता है। इसमें प्रायः शेष समाज की गतिविधियों का चित्रण अप्रत्यक्ष रूप से ही होता है। इसलिए पूरे समाज के जीवन को आंदोलित करने वाली बलवती शक्तियां हमारी आंखों से ओझल हो जाती हैं। जिनके कारण व्यक्तित्व का निर्माण होता है, नए मूल्य बनते हैं, पुराने रूढ़ और जर्जर मूल्य ध्वस्त होते हैं। पर इनसे यह बात तो साफ होती ही है कि यदि समाज में सभी लोग अपने-अपने धर्म का पालन करें, तो सारा समाज सुखी और समृद्ध बन जाएगा। ऐसा पूर्ण रूप से कभी न हो पाया और आज भी ऐसा नहीं हो रहा है। पर जब कभी समाज के बहुसंख्यक लोग धार्मिक व आध्यात्मिक हुए तो समाज ने, राष्ट्र ने आर्थिक, सांस्कृतिक व तकनीकी उन्नति की है। उसे उस समाज का स्वर्ण युग माना गया। आज धर्म का स्थान गौणातिगौण हो गया है। इसलिए सुख और समृद्धि भी गूलर का फूल हो गई है। समाज में कुछ स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ के लिए सभी साधन सामग्री का संचयन करके अपने गोदाम में रख देते हैं। अपना धर्म निभाते नहीं। वे सबल बन जाते हैं। निर्बलों पर उनका दबाव रहता है। वे मनमाने दाम बढ़ाते हैं। मनमाने कर लगाते हैं। सज्जनों तथा सदाचारी लोगों के मार्ग में हर कदम पर रोड़े अटकाते हैं। ऐसा न हो इसलिए धर्म पर आधारित बुद्धि के विकास की आवश्यकता है। तभी समाज की व्यवस्था में सुधार होने की संभावना है।

समाज के सामने आत्मज्ञान और अभेद दर्शन का आदर्श रहे। वैयक्तिक और सामूहिक जीवन का मूल मंत्र संघर्ष की जगह सहयोग हो। सबको अपनी योग्यताओं के अनुसार विकास का अवसर मिले। यदि ऐसी व्यवस्था हो, तो धर्म को स्वतः प्रोत्साहन और सुरक्षा का वातावरण मिल जाएगा। इसके साथ ही यह भी आप ही होगा कि जिन लोगों की बुद्धि फिलहाल धर्म पर आधारित नहींे है। यानी अभी सद्बुद्धि नहीं है, वे समाज की बहुत क्षति न कर सकेंगे।

समाज में न्याय और सत्य का आचरण सामूहिक रूप में कार्यान्वित हो जाना चाहिए। तभी समाज श्रेष्ठ होगा। इससे धर्म की रक्षा होगी। कबीर का कहना था कि जीवन धर्म और अधर्म के बीच एक समझौता है। धर्म संपूर्ण जीवन पद्धति है। धर्म जीवन का स्वभाव है। धर्म ज्ञान और विश्वास में नहीं, आचरण में बसता है। यदि हम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं तो इस विश्वास का सबूत हमारे आचरणों में मिलना ही चाहिए। पूजा और अनुष्ठान की विधियां धर्म के बाह्यरूप है। मंदिर और मस्जिद, तीर्थव्रत, रोजे और पंडे तथा पुरोहित की प्रथा, ये धर्म के ढकोसले हैं, यदि ये मानव की वृत्ति न बदल सकंे। सच पूछो तो सभी धर्म एक है। धर्म की साधना का स्थान मंदिर या मस्जिद में ही नहीं, बल्कि वे सारी जगहें भी हैं, जहां मनुष्य स्वच्छ हृदय से निस्वार्थ हो कोई काम करता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि मध्यकालीन समाज मोक्ष और मुक्ति के पीछे दौड़ रहा था।

आधुनिक समाज मनुष्य की महिमा पर जोर दे रहा है। अगला कदम सामूहिक मुक्ति का है- सब प्रकार के शोषणों से मुक्ति का। अगली मानवीय संस्कृति मनुष्य की समता और सामूहिक मुक्ति की भूमिका पर खड़ी होगी। इतिहास के अनुभव इस सिद्धि के साधन बन कर कल्याणकारी और प्रेरणाप्रद हो सकते हैं।समाज का संघठन धर्ममूलक होना अनिवार्य है। समय के साथ धर्म के ऊपरी रूप बदलते रहते हैं। परंतु उसके मूलतत्व अटल रहते हैं। जो काम ईश्वर को कंेद्र में रखकर हो, पारस्परिक सहयोग वर्धक हो, वह धर्म है। जो काम अपनी संकुचित ‘‘स्व’’ पर केंद्रित रहता है, वह अधर्म है। जिस समाज में कोई जन्म के कारण ऊंचा, कोई जन्म के कारण नीचा न माना जाएगा और अयोग्य व्यक्ति कुल के आधार पर ऊंचे पद से न जाएगा, जिस समाज में तप, त्याग, आदर्श, मूल्यों और विद्या का स्थान सर्वोपरि होगा, वह समाज धर्म की नींव पर खड़ा है। वहां फिर प्रजा दुखी नहीं होगी।

Friday, December 13, 2002

गुजरात चुनाव से कांग्रेस को सबक

हार जीत तो  हर चुनाव में ही होती है पर गुजरात के चुनाव में कई बाते सामने आई। गोधरा काण्ड के बाद हाशिए पर पहँुच चुकी कांग्रेस (ई) बड़े दमखम के साथ उठ खड़ी हुई। भाजपा की तमाम कोशिशांे के बावजूद गोधरा और आतंकवाद इस चुनाव प्रचार का मुख्य मुद्दा नहीं बन सके। श्रीमती सोनिया गाँधी के तेवरों, हिन्दी पर पकड़ और जनता के बीच लोकप्रियता में उफान आया। गुजरात प्रभारी श्री कमल नाथ ने एक मंजे हुए कमांडर की तरह अपनी सेना का सफल संचालन करके कांग्रेस के उज्जवल भविष्य का संकेत दिया। जनता के मन में आतंक पैदा करके वोट मांगने की राजनीति करने के कारण भाजपा के नेतृत्व का कद देश की नजर में काफी बौना हो गया है।



जो मीडिया कल तक कांग्रेस को गुजरात चुनाव में एक फिसड्डी खिलाड़ी मानकर चल रहा था उसे अचानक यह कहना पड़ा की गुजरात में बराबर की टक्कर है। उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की प्रभावशाली चुनावी विजय के लम्बे चौडे़ दावे कर चुके मीडिया सर्वेक्षणों को मुंह की खानी पड़ी थी। इसलिए इस बार मीडिया ज्यादा सचेत रहा। जहां वो अभी तक भाजपा की बढ़त बताता रहा वहीं यह कहने से नहीं चूका कि 29 फीसदी मतदाता चुनाव के दिन निर्णय करेंगे और वही अन्तिम निर्णायक समय होगा। आज से 6 महीने पहले जब मैं सौराष्ट्र में एक सार्वजनिक व्याख्यान देने गया था तो सारे रास्ते आम लोगो से गुजरात के बारे में सवाल पुछता रहा। कांग्रेस का कोई नाम तक नहीं ले रहा था। पर इस चुनाव में जब 10 दिन गुजरात में घूमा तो हर व्यक्ति कह रहा था कि मुकाबला बराबरी का है। यह कैसे हुआ ?

इसमें सबसे प्रमुख भूमिका तो श्रीमती सोनिया गाँधी की रही जिन्होने भाजपा से निकल कर आये श्री शंकर सिह वाघेला पर विश्वास किया और उन्हे गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया। यह एक जोखिम भरा निर्णय था, जो उन्होंने लिया। श्रीमती गाँधी के इस निर्णय से कई संदेश गये। एक तो गुजरात की कांग्रेस में उत्साह की लहर दौड़ गयी। कार्यकर्ताओं के हौसले बढ़ गये। श्री शंकर सिंह वाघेला की जमीन से जुड़ी छवि और लडा़कू  तेवरों को देख कर लोगों को लगा कि श्री नरेन्द्र मोदी से अब बराबर का जोड़ीदार भिड़ गया है। श्री वाघेला ने भी गुजरात को भथने में कसर नहीं छोड़ी। अध्यक्ष पद सम्भालते ही वे मैदान में कूद पड़े और गुजरात के चप्पे-चप्पे पर अपनी नजर डाली। उनके जोशीले भाषणों नें समां बांध दिया। शुरू में इंका की गुट बाजी का खतरा था। पर श्री अमर सिंह       चैधरी व श्री माधव सिंह सोलंकी ने भी बड़ी परिपक्वता  का परिचय देते हुए एक टीम की भावना से काम किया, जिसका कांग्रेस को भारी लाभ मिलना चाहिए। श्रीमती गाँधी के इस अप्रत्याशित निर्णय से देश के गैर इंकाई लोगों को भी यह संदेश गया कि कांग्रेस का हृदय विशाल है और जो लोग इसके बेनर तले राजनीति करना चाहते हैं उनका इस दल में स्वागत है। जहां राम मन्दिर आन्दोलन के बाद भाजपा से आकर्षित हुए महत्वपूर्ण लोगों को भाजपा सम्भाल नहीं पायी और निराश कर दिया, वहीं श्रीमती सोनिया गाँधी ने परिपक्व नेतृत्व का परिचय देते हुए कांग्रेस के लिए आगे बढ़ने के नये द्वार खोल दिये।

भाजपा गुजरात में अलोकप्रियता के शिखर पर थी, जब गोधरा काण्ड हुआ। पहले तो उत्तर प्रदेश में उसकी करारी पराजय और फिर दिल्ली निगम चुनावों में पराजय उसका मनोबल तोड़ने के लिए काफी न थी कि गुजरात में हुए लगभग सभी उप-चुनावों में उसकी भारी दुर्गति हुई। अपने शासन में साम्प्रदायिक हिंसा पर कड़ा नियन्त्रण रखने का दावा करने वाली भाजपा इस बात का उत्तर देने में विफल है कि ऐसे समय में ही गोधरा काण्ड क्यों हुआ ? अभी तक गोधरा के नृशंस हत्या काण्ड की ईमानदारी से जाँच नहीं हुई है। अगर हो तो बहुत चैकानें वाले तथ्य सामने आ सकते हैं। कई विशेषज्ञों का मानना है कि गोधरा काण्ड में जो बताया जा रहा है वह सही नहीं है । जो सही है वह बताया नहीं जा रहा। सच्चाई जो भी हो पर जिस तरह से भाजपा, संघ और विहिप ने बार - बार गोधरा को भुनाने की कोशिश की उससे दाल में कुछ काला जरूर नजर आता है। बिना तथ्य सामने आये कुछ नहीं कहा जा सकता पर इतना जरूर है कि केन्द्र और राज्य की भाजपा सरकार और संघ से जुडे़ संगठनों ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया कि गोधरा इस चुनाव का मुख्य मुद्दा बन जाए। पर इस बचकाने प्रयास को इंका ने करारा झटका दिया

गुजरात चुनाव में इंका के प्रभारी श्री कमलनाथ ने दो काम किए । एक तो गुजरात के कुछ सन्तों को उठाकर भाजपा के छद्म हिन्दूवाद के खिलाफ प्रचार में झोंक दिया। दूसरा गोधरा और आतंकवाद कि बात ना करके गुजरात के आर्थिक विकास की बात इतनी जोरदार तरीके से रखी कि भाजपा का नेतृत्व हक्का-बक्का रह गया। श्री कमलनाथ ने तमाम तरह के सुयोग्य लोगों को अपने साथ जोड़कर भाजपा के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। हर एक की योग्यता के अनुरूप उससे काम भी लिया और उसका सम्मान भी किया। इस तरह इंका का प्रचार अभियान बहुत प्रभावशाली बन गया। आज सारा मीडिया श्री कमलनाथ को उनकी कुशल रणनीति के लिए श्रेय दे रहा है। यूं गुट बाजी तो हर दल में होती है। इंका में भी खूब है। पर इंका के वरिष्ठ नेता हों या श्री कमलनाथ के हमजोली, सब में एक खास बात है, चुनौती का मुकाबला सब मिलकर करते है। इंका के सभी नेताओं ने श्री कमलनाथ के साथ पूरा सहयोग किया।  आखिर के दिनों में तो गुजरात के आसमान पर इंका के एक से बढ़कर एक वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं के जगमगाने से भाजपा का नेतृत्व बहुत फीका नजर आने लगा। जहां इंका ने चुनाव प्रचार में विकास के मुद्दे पर ध्यान दिया वहीं भाजपा के विज्ञापन जनता में भय और आतंक पैदा करने वाले थे। मसलन एक विज्ञापन में नरेन्द्र मोदी की फोटो के साथ मतदाताओ से पूछा गया ’’क्या आप चाहते है कि आपका बच्चा स्कूल से घर लौटकर ना आये ?’’ इस स्तर तक नीचे गिर कर भाजपा ने मतदाताओं को डराने की कोशिश की। नतीजे ही बतायेंगे कि वह अपने मकसद में सफल हुई या नहीं। पर इससे भाजपा नेतृत्व के छोटेपन का परिचय मिला।

दूसरी तरफ श्रीमती सोनिया गाँधी की सभाओं में जुड़ी भारी भीड़ उनकी बढ़ती हुई लोकप्रियता का परिचय दे रहीं थी। भाजपा के नेताओं की उनके बारे में दी गईं तमाम छिछली टिप्पणियों के बावजूद गुजरात की जनता ने श्रीमती गाँधी को उत्साह से सुना। अब की बार उनकी हिन्दी पर पकड़ पहले से कहीं बेहतर थी। आत्मविश्वास उनके चेहरे पर झलक रहा था और एक राष्ट्रीय दल के नेता होने की गरिमा भी साफ दिख रही थी। श्रीमती गाँधी के तूफानी दौरों ने इंका कार्यकर्ताओं में नये रक्त का संचार किया।

आज के माहौल में जब जनता का सभी राजनैतिक दलों से मोह भंग हो चुका है तो यह प्रश्न उठता है कि क्या इंका वो सब दे पायेगी जिसके सपने वे मतदाताओं को दिखा रही है ? इस प्रश्न का उत्तर अगर पूरी तरह से हां में ना हो तो भी आज एक बात साफ हो चुकी है कि लोकतंत्र रहना है तो राजनैतिक दल भी रहेंगे। दल हैं तो कुछ दलदल भी होगी। पर इस सब दलदल के बीच इंका हर मायने में सबसे श्रेष्ठ राजनैतिक दल के रूप में जनता के मन में उभर कर आ रही है। इसके पास अनुभवी नेताओं की फौज है। इसके नेताओं के हृदय खुले हैं। वे नये लोगों को आगे बढने का मौका देते हैं। जहां भाजपा हर राज्य में एक-एक दौर में चार-चार मुख्यमंत्री बदलती है वही इंका की नेता एक ही मुख्यमंत्री को रख कर उसके काम का नियमित जायजा लेती हैं।  प्रशासनिक योग्यता और भविष्य की योजना इंका के पास दूसरे से कहीं बेहतर है। इतना ही नहीं इस बार तो इंका के चुनाव प्रचार से यह साफ हो गया कि वह सभी धर्मों के प्रति सम्मान का भाव रखती है और भाजपा उसके विरूद्ध झूठा प्रचार करके उसे छद्म धर्मनिरपेक्ष बताती आई है, जबकि ऐसे तमाम प्रमाण हैं जिनसे भाजपा के छद्म हिन्दूवादी होने का आरोप सिद्ध होता है।

दरअसल अकुशल प्रशासक, सतही नेतृत्व, अफवाहों पर जीने वाले, भावनाऐं भड़कानें वाले और परीक्षा की घड़ी में हमेशा असफल सिद्ध हुए भाजपा नेतृत्व को काफी आत्म-मंथन की जरूरत है। बार-बार बयान बदल कर भाजपा ने सिद्ध कर दिया है कि किसी भी मुद्दे पर ना तो उनकी दृष्टि साफ है और ना ही कोई कार्यक्रम उनके पास है। ऐसे में इंका के सामने ना सिर्फ एक बड़ा मैदान खाली पड़ा है बल्कि भारी चुनौती भी हैं। इस शून्य को भरने में कहीं पहले की तरह अगर इंका सफल नहीं हुई तो क्षेत्रीय दल आगे आ जायेंगे। वे क्षेत्रवाद और जातिवाद की राजनीति का जहर घोलकर भारत को राजनैतिक अस्थिरता की ओर धकेलते जायेंगे। इसलिए इंका को जरूरत है अपने घर को संवारने की । इंका के योग्य लोग जहां उन राज्यों में इंका को खड़ा करने का काम करें जहां इंका कमजोर है, तो वरिष्ठ नेतागण पिछली गलतियां का मूल्यांकन करके, अनुभवों को ध्यान में रखकर , नई कार्यशैली विकसित करें। जो जनता को केन्द्र में रखकर बनायी जाय। प्रभावी संचार के इस युग में जनता केवल आशवासनों से चुप बैठने वाली नहीं है। उसकी बुनियादी समस्याऐं ईमानदारी से हल होनी चाहिए। भारत के संसाधनों का उचित इस्तेमाल कर लोगों में आ रहीं निराशा दूर होनी चाहिए। दो वर्ष का समय है यदि इंका केन्द्र में बहुमत के साथ एक मजबूत सरकार और देश को नई दिशा देना चाहती है तो उसे अपनी कमर अभी से कसनी होगी। श्रीमती सोनिया गाँधी और उनकी सक्षम टीम इसके लिए तैयार है तो कोई उसकी विजय को रोक नहीं पायेगा। गुजरात का चुनाव इस मायने में काफी महत्वपूर्ण है।

Friday, December 6, 2002

क्या सेना नागरिकों को सजा दे सकती है ?

अगर सैनिकों और नागरिकों के के बीच कोई अप्रिय घटना हो जाए तो किसका कानून चलेगा ? नागरिक प्रशासनिक व्यवस्था का या सेना का ? लोकतंत्र में कौन सर्वोच्च है ? जनता प्रशासन या फिर सेना ? क्या सैनिक अधिकारी को यह हक है कि वे नागरिकों को अपने कार्यालय में तलब करे ? उनसे सवाल-जवाब करे ? उनसे सजा भुगतने को तैयार रहने की चेतावनी दे या उन्हें डराएं धमकाएं ? सेना की जहां-जहां छावनियां है वहां ऐसी घटनाएं अक्सर होती रहती है। जब सेना के जवान या अधिकारियों की स्थानीय नागरिकों से या स्थानीय प्रशासन से तकरार हो जाती हैै। प्रायः यह तकरार अति महत्वहीन कारणों से होती हैै। मसलन, सिनेमा या रेल के टिकट की लाइन में खड़े लोगों के बीच धक्का-मुक्की या महिलाओं पर फिकराकशी या सड़क पर वाहनों की भिडंत या पड़ौसियों की रोजमर्रा के मामलों पर कहासुनी। ऐसे सब मामलों में अक्सर देखने को आता है कि सेना के पृष्ठभूमि वाले लोग नागरिकों को आतंकित करते हैं या दबाते हैं, यह एक चिंतनीय स्थिति है।

ताजा घटनाक्रम के अनुसार एक नगर में संभ्रांत परिवारों के सात किशोर एक रेस्टोरेंट से भोजन करके निकले। न ये शोहदे थे न शराबी-जुआरी। अच्छे स्कूल कालेजों में पढ़ने वाले नौजवान थे। उसी रेस्टोरेंट से उन्हीं की सी उम्र का एक और नौजवान अपने साथ एक महिला को लेकर निकला। चश्मदीद गवाह बताते हैं कि अनेक बार मोटरसाइकिल की किक मारने के बावजूद जब उस नौजवान की मोटर साइकिल स्टार्ट नहीं हुई तो ये सात किशोर ठहाका लगा कर हंस दिए और इनमें से एक दो ने फिकरा कसा, ‘लोग लड़की लेकर आते हैं और मोटर साइकिल स्टार्ट नहीं कर पाते।’ वह नौजवान इस फिकरे से तिलमिला गया। सौभाग्य से मोटरसाइकिल स्टार्ट हुई। कुछ ही गज गई होगी कि फिर फुस्स हो गई। सातो किशोर फिर ठहाका लगा कर हंसे और कुछ और फिकरे कसे। इस पर वह नौजवान नाराज हो गया और आवेश में इन सातों किशोर की तरफ आया और इन्हें धमका कर खामोश करना चाहा। कहासुनी हुई। नौजवान ने अपना परिचय पत्र दिखाते हुए बताया कि वह फौज का कैप्टन है। पर इन सात में से दो नौजवानों ने संयम खो दिया और उस कैप्टन से भिड़ गए। उसके बाद कुछ मिनट गुथ्मगुथा हुई पर बाकी साथियों के रोकने पर मामला थम गया। ये सातों किशोर मामले की गंभीरता को समझते हुई वहां से खिसक गए। यह सही है कि कैप्टन का परिचय पत्र देखने के बावजूद जिन दो किशोरों ने लड़ाई की उन्होंने घोर निंदनीय कार्य किया और इसकी जो भी सजा कानून में हो उन्हें मिलनी ही चाहिए थी। पर उस शहर में सेना का यह इतिहास रहा है कि जब कभी भी उनके किसी साथी की स्थानीय नागरिक या प्रशासन से तकरार हुई तो उन्होंने जम कर नागरिकों की पिटाई की। 10-15 वर्ष पहले तो कहते हैं कि पूरी बिग्रेड ही शहर में निकल आई थी और उसने सारे शहर में ढूंढ-ढूंढ कर पुलिसवालों की धुनाई की। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों तक को नहीं बक्शा था, बहुत बड़ा विवाद खड़ा हुआ।

खैर ताजा घटना के बाद लड़ने वाले लड़के की कार का नंबर उस कैप्टन ने नोट कर लिया। बस उसके बाद शुरू हो गया सेना के आतंक का एक लंबा सिलसिला। इन सातों बच्चों के मां-बाप को कई बार सेना के कार्यालय में अनौपचारिक रुप से तलब किया। बड़े अफसरों ने कूटनीति से और छोटे अफसरों ने बाकायदा धमका कर इन मां-बापों से कहा कि अपने बच्चे हमें सौप दो, हम उन्हें सजा देंगे। चूंकि फौज का आतंक नागरिकों में व्याप्त है इसलिए कोई भी मां-बाप अपने बच्चों को इस तरह खतरनाक परिस्थिति में फेंकने को तैयार नहीं था। वे जानना चाहते थे कि सजा का स्वरूप क्या होगा और उसके निर्धारण का मापदंड क्या होगा। साथ ही उनकी शर्त यह भी थी कि उनके बच्चों को जो भी सजा दी जाए वह उनकी मौजूदगी में दी जाए। जबकि बिग्रेडियर महोदय का कहना था कि सजा देने के लिए बच्चों को मां-बाप से दूर ले जाया जाएगा। सेना के अधिकारी कोई बात सुनने को तैयार नहीं। इन बच्चों के मां-बापों ने बार-बार अनुनय-विनय की कि आप जो भी आरोप लगाने हैं लगा कर थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दें और बच्चों को देश के कानून के अनुसार सजा मिलने दें। पर सैन्य अधिकारी टस से मस नहीं हुए। इन मां-बापों ने अपने-अपने उन संबंधियों से संपर्क किया जो फौज में उच्च पदों पर आसीन हैं। बिग्रेडिर से भी कहीं ऊंचे सेना अधिकारियों ने देश के कोने-कोने से फोन करके इस बिग्रेड को समझाने की कोशिश की कि उन्हें इस गलती के लिए नागरिकों को इस तरह तलब करने का या उनके बच्चों को सजा देने का कोई कानूनी हक नहीं है। उन्हें कानून के मुताबिक कदम उठाने चाहिए। पर इसके बावजूद बात नहीं बनी। भयभीत माता-पिता ने अपने बच्चे छिपा दिए। इतना ही नहीं वे खुद भी रात को अपने घरों से बाहर मित्रों के यहां जाकर सोने लगे क्योंकि उन्हें सेना के छोटे अधिकारियों ने काफी डराया-धकमकाया। उन्हें ऐसे संकेत दिए गए कि अगर उन्होंने अपने बच्चे नहीं सौपे तो सेना के जवान सादीवर्दी में, रात को आकर उनको घर से उठा ले जाएंगे। आखिर एक बच्चें के रिश्तेदार बिग्रेडियर खुद वहां पहुंचे और उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि सजा के तौर पर बच्चों को मारा-पीटा नहीं जाएगा। उनके हाथ-पैर नहीं तोड़े जाएंगे। सजा मां-बाप की मौजूदगी में दी जाएगी और वे बिगे्रडियर मौके पर मौजूद रहेंगे। समझौता हुआ। सातों बच्चों के मां-बाप अपने बच्चों के साथ वहां पहुंचे बड़े आत्मीय वातावरण में सेना में उनका स्वागत हुआ और बच्चों को पचास गढ्ढे खोदने व पेड़ लगाने की सजा दी गई। जिसके बाद इस तनावपूर्ण स्थिति का सुखांत हुआ। पर यहां कई सवाल खड़े होते हैं। जिस तरह सेना ने नागरिकों को तलब किया उन्हें दो हफ्ते तक भय और आतंक में जीने के लिए मजबूर किया और अंततः एक रचनात्मक सजा ही सही पर सजा तो दी , क्या यह सब कानूनी रूप से वैध है ? क्या नागरिकों के प्रति सेना का ऐसा व्यवहार एक लोकतांत्रिक देश में बर्दाश्त किया जा सकता है ? सेनावालों का सम्मान होना चाहिए, ये हर समझदार आदमी मानता है। सेना कठिन परिस्थितियों में जानजोखिम में डालकर, देश के लिए काम करती है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि उसका व्यवहार मानवीय मूल्यों से हटकर हो या देश के कानून के विरूद्ध हो।

आत्म प्रशंसा की बात नहीं है। पर एक उदाहारण के तौर पर कहना चाहता हूं कि जब मैंने देश के तमाम ताकतवर नेताओं और मंत्रियों के विरूद्ध जैन हवाला कांड का पर्दाफाश कर एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी तो मेरे जान पर बेहद खतरा था। कई बार मेरी हत्या के भी प्रयास हुए। सेना की तरह मेेरे पास लड़ने को हथियार नहीं थे। फौजी साथी भी नहीं थे। कोई सुरक्षा व्यवस्था भी नहीं थी और मेरे परिवार को जिन अभद्र गालियों और धमकियों को रात-दिन फोन पर झेलना पड़ता था उसकी शिकायत सुनने वाला भी देश में कोई नहीं। केवल प्रभु के नाम का सहारा था। पर इस संघर्ष के लिए जो जोखिम, जो तकलीफ और अपमान, मैंने या मेरे परिवार ने देशहीत में सहे क्या उसकी एवज मे अब मैं कानून हाथ में लेने का अधिकारी बन गया ? क्या मुझे यह हक है कि मैं किसी भी ऐसी दुर्घटना के लिए किसी को भी तलब कर धमकाऊं या सजा दूं और तुर्रा ये हो कि मैं तो जानजोखिम में डालकर देशहित में पत्रकारिता करता हूं इसलिए हर नागरिक को मुझसे या मेरे परिवार से तमीज से पेश आना चाहिए ? यदि मैं ऐसी अपेक्षा करता हंू तो ये मेरी मूर्खता होगी। समाज सेना के कानूनों से नहीं चला करता। किशोर अवस्था में एक-दूसरे पर फिकरे कसना आम बात है। सेना के नौजवान भी कभी ऐसा कर बैठते हैं। यह सारे देश में होता है। हां कोई अभद्रता करे, अशलीलता दिखाए, शारीरिक छेड़छाड़ करे या उसकी बद्दतमीजी हद से ज्यादा बढ़ रही हो तो उससे निपटने के लिए पुलिस और कानून का रास्ता है। वह कैप्टन महोदय यह तर्क दे सकते हैं कि पुलिस और कानून व्यवस्था इतनी लचर है कि उससे उन्हें कोई उम्मीद नहीं इसलिए उन्होंने खुद ही सजा देना मुनासिब समझा। अगर उनका यह तर्क सही भी है तो सेना क्या संदेश देना चाहती है कि देश की 100 करोड़ जनता पुलिस और कानून पर विश्वास न करे और हर मामले का फैसला अपने बाहुबल के अनुसार खुद की हर लें। यदि ऐसा होने लगे तो देश में अराजकता फैल जाएगी। सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। सेना की गोलियां भी फिर समाज में शांति स्थापित नहीं कर पाएंगी। संभ्रांत परिवार के वे मां-बाप तो अपना अपमान सह कर, 15 दिन आतंक और मानसिक तनाव में जी कर और अपने बच्चों को सजा दिलवाकर खामोेश हो गए। न शिकायत करना चाहते हैं न इस विषय में बात करना चाहते हैं पर उनकी ये खामोशी सेना के चेहरे पर एक बदनुमा दाग है। देश के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और रक्षामंत्री श्री जार्ज फर्नाडिज का यह कर्तव्य है कि वे ऐसे कांडों की निष्पक्ष जांच करवाएं और ऐसे कदम उठाएं जिससे नागरिकों के मन में सेना के प्रति सम्मान बढ़े। जिस प्रकार वहां के सैन्य अधिकारियों ने अनाधिकृत रूप से कानून हाथ में लेकर नागरिकों को सजा देने का दुष्प्रयास किया है उसके लिए उन्हें सेना के कानून के अनुसार जो भी उचित सजा हो वह मिलनी ही चाहिए।

देश और समाज के लिए लड़ने वाले लोग हर क्षेत्र में होते हैं। समाज के लिए जान जोखिम में डालने वाले लोग भी हर क्षेत्र में होते हैं। जो सफाई कर्मचारी सीवर के मैनहोल में उतर कर उसकी सफाई करते हैं वे भी अक्सर जहरीली गैस में घुट कर मर जाते हैं। जो बिजली कर्मचारी खम्भों पर चढ़कर बिजली के तार ठीक करते हैं वे भी अक्सर चिपक कर मर जाते हैं। जो पुलिस के सिपाही अपराधियों को पकड़ते हैं वे भी कई बार मुठभेड़ में मारे जाते हैं। समाज के लिए जानजोखिम में डालने का मतलब ये कतई नहीं कि हम अपनी नागरिक दायित्वों को भूल कर तानाशाहीपूर्ण व्यवहार करने लगे। मेरे मन में सेना के प्रति बहुत आदर रहा है। खोजी पत्रकार होने के नाते सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार और बुराइयों से मैं अनभिज्ञ नहीं हूं। पर मैं मानता हूं कि सेना के जाबांज सिपाही जिन दुष्कर परिस्थतियों में देश की रक्षा करते हैं उसके लिए वे सम्मान के पात्र हैं। कुछ समय पहले इसी कालम में जब मैंने एक लेख लिखा था, ‘वीआईपीयों’ के साहबजादे सेना में क्यों नहीं जाते ?‘ तो उसकी काफी अच्छी प्रतिक्रिया हुई थी। उस दौरान देश में जहां भी मैं व्याख्यान देने गया लोगों ने इस लेख की चर्चा की। तब मैंने सेना के गौरव में प्रशस्तिगान किया था और धिक्कारा था उन लोगों को जो सेना की वाहवाही तो करते हैं पर खुद जानजोखिम में नहीं डालना चाहते। आज इस लेख में सेना के एक ऐसे कृत्य का वर्णन करते हुए दुख भी हो रहा है और चिंता भी। क्योंकि हर देशभक्त अपनी सेना का मस्तक गर्व से उठा देखना चाहता है। उसके दामन में किचड़ के दाग कोई नहीं देखना चाहता। इन घटनाओं से सबक सीखकर देश के सैन्य अधिकारी और रक्षा मंत्री क्या कुछ ऐसा ठोस करेंगे जिससे इनकी पुनरावृत्ति न हो ?

Friday, November 29, 2002

राहुल सिरसा व न्यायपालिका

पिछले दिनों तीन प्रमुख घटनाएं हुई जिन्होंने देश को झकझोरा। एक तो मौलाना आजाद मेडिकल कालेज की छात्रा के साथ राहुल नाम के एक किशोर ने बलात्कार किया, जोकि झुग्गी-झोपड़ी का रहने वाला है। दूसरा, सिरसा में एक पत्रकार की हत्या की गई जो वहां के डेरा सच्चा सौदा नाम के आश्रममें हो रहे कथित व्यभिचार और भ्रष्टाचार की खबरें छापता रहा था। तीसरातहलका कांड की जांच कर रहे न्यायमूति श्री वेंकटस्वामी के मामले में उठे विवाद पर भाजपा के पूर्व कानून मंत्री अरूण जेटली का यह बयान कि न्यायपालिका से जुडे़ व्यक्तियों के बारे टिप्पणी करते समय विपक्ष संयम बरते। यूं तो देखने में ये तीनों ही घटनाएं अलग-अलग दिखाई देती है पर इनमें भारी समानता है। ये घटनाएं भारतीय समाज में तेजी से आ रहे नैतिक पतन और चारित्रिक दोहरेपन की परिचायक है। इन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

किसी भी महिला के साथ बलात्कार करना या उसकी अस्मिता पर हमला करना घृणित कार्य है। इसलिए मौलाना आजाद मेडिकल कालेज दिल्ली की छात्रा के साथ बलात्कार के सवाल पर राजधानी में जो बवंडर मचा वो जायज है। ऐसे बलात्कारियों को देश के कानून के मुताबिक सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। पर यहां कई प्रश्न पैदा होते हैं। क्या देश का मीडिया, सांसद और बुद्धिजीवी देश में हर दिन हो रहे सैंकड़ों बलात्कारों के संदर्भ में इतनी ही तत्परता से शोर मचाते हैं, अगर नहीं तो क्यों नहीं ? अगर ऐसा ही शोर हर बलात्कार पर मचाते तो शायद ऐसे अपराधों की संख्या में कमी आ सकती थी। इस देश में करोड़ों आम महिलाओं की अस्मिता से हर रोज खिलवाड़ होता है। जिसकी खबर तक नहीं छपती, जब तक कि ऐसे हादसे की शिकार कोई महिला बागी बन कर बंदूक न उठा ले या फिर उस हादसे से किसी राजनैतिक दल को फायदा न होता हो। दूसरी तरफ देश का मीडिया उस पांच सितारा संस्कृति को करोड़ों देशवासियों को परोसने में जुटा है जिसमें अश्लीलता, व्यभिचार और उपभोक्तावादी जीवनशैली उच्च वर्ग का हिस्सा बन चुके हैं। जहां रइसों के फार्म हाउसों में आए दिन अश्लीलता का खुला नाॅच होता है और उसकी रंगीन फोटो राजधानी के बड़े अखबारों में प्रमुखता से छपती है या फिर कभी-कभी जेसिका लाल जैसे कांड भी हो जाते हैं।

राहुल को तो सजा मिलनी ही चाहिए पर जरा उस किशोर की मनःस्थिति के बारे में भी सोचिए जो अपनी 100 वर्ग फुट की झुग्गी में गंदगी  और बीमारियों के समुद्र के बीच अभावों में पल रहा है। जिसे न शिक्षा मिली न रोजगार। जो रोज वर्दीधारी पुलिस वालों के अनैतिक आचरण का साक्षी है। जिसके आगे सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा है। जो ये देखता है कि बड़े अपराध करने वाले सफेदपोश न तो कानून के गिरफ्त में आते हैं और न ही न्यायपालिका उन्हं सजा ही देती है। जो ये देखता है कि जितने बड़े अपराध उतना ज्यादा ऐशो-आराम। ऐसा किशोर बलात्कार तक ही सीमित नहीं रहेगा। वो चाकू भी मारेगा। डाके भी डालेगा और हत्या भी करेगा। इसमें नया क्या है ? अपराध विज्ञान के विशेषज्ञ ऐसे अपराधियों की मानसिकता पर सैकड़ों शोधग्रंथ लिख चुके हैं। झुग्गियों में रहने वाले भूखे-नंगे इन किशोरों की आपराधिक प्रवृत्ति पर पांच सितारा होटलों में आए दिन सेमिनार किए जाते है। पर उससे बदलता क्या हैबदल सकता भी नहीं, क्योंकि समस्या ये किशोर नहीं, समस्या वह व्यवस्था है जो इन्हें सामान्य जीवन जीने से वंचित कर रही है। जब तक हम रोग की जड़ में नहीं जाएंगे उसके लक्षणों के निदान से कुछ भी नहीं होने वाला है।

उधर, सिरसा में पत्रकार की हत्या में पुलिस ने जिन लोगों को पकड़ा है, उनका कहना है कि इस हत्या के लिए हथियार उन्हें डेरा सच्चा सौदा के आदमियों ने मुहैया कराए थे। स्थानीय नागरिकों का कहना है कि यह पत्रकार लगातार डेरा सच्चा सौदा के खिलाफ खबरें छापता रहा था। उसकी हत्या किसने करवाई इसकी सच्चाई तो जांच के बाद ही सामने आएगी। इसलिए डेरा सच्चा सौदा के खिलाफ कोई भी आरोप लगाना अभी उचित नहीं होगा। इस घटना को फिलहाल भूल भी जाए तो भी एक अहम सवाल सामने आता है और वह यह कि ऐसा क्यों है कि भगवत भक्ति, सदाचार, सादगी, नैतिकता, त्याग, तप, सच का उपदेश देने वाले आत्मघोषित संत परम वैभव में जीवन यापन करते हैं ? उनका आचरण किसी राजा-महाराजा से कम नहीं होता। बिना आयकर दिए वे अकूत दौलत के स्वामी होते हैं। मर्सीडीज गाडि़यों के काफिले में चलते हैं। हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश, विधि हाथका उपदेश देने वाले ये संतअपने शिष्यों से  तो कहते हैं कि निर्भय बनों। ईश्वर की इच्छा के बिना कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। पर खुद बंदूकधारी अंगरक्षकों के साए में चलते हैं। शायद उनके मन में डर होता है कोई ईष्यावश उनकी हत्या करके उनकी गद्दी और दौलत न हथिया ले। ऐसे मठांे में विशेष प्रयास करके करके बड़े नेताओंअफसरों व मशहूर लोगों को अमंत्रित किया जाता है, उनका  भारी सत्कार किया जाता है। ऐसे महंतोंकी इच्छा रहती है  कि वीवीआईपी उनके चरण छुएं। जिसकी फोटो खंींच कर चेले उनका प्रचार कर सकें ताकि उनका कारोबार फलफूल सके। नए-नए लोग उनके मोहजाल में फंसते जाएं। सच तो यह है कि आध्यात्मिकता की पहली शर्त है भौतिकता से विरक्ति। ज्यों-ज्यों मनुष्य आध्यात्मिकता की ओर बढ़ेगा त्यों-त्यों उसे नाम, पद, परिवार, वैभव और प्रतिष्ठा के प्रति अरूचि होती जाएगी। सच्चे संत की पहचान है जिसका मन केवल प्रभु चरणों में लीन हो। उसके लिए न तो संप्रदाय की दीवारें शेष रह जाती हैं न शिष्यों का आकर्षण। मान, वैभव और सुख-सुविधा तो उसे कांटों की शैया लगने लगता है। प्रभु भी ऐसे ही भक्त को अपनाते हैं। पर आज उल्टा हो रहा है। इसके लिए जनता भी जिम्मेदार है। वह सच्चे संतों की तलाश नहीं करती। जिसका होर्डिंग जितना बड़ा होता है। जो जितने ज्यादा पैसे खर्च करके अपने रंगीन पोस्टर शहर में चिपकवा लेता है। जो खुद पैसे खर्च करके धार्मिक टीवी चैनलों पर रोजाना अपने प्रवचन करवाता है। जो वैभव में डूबा रहता है। जो प्रभावशाली प्रवचन करके जनता को प्रभावित करने की कोशिश करता है। चाहे उसकी कथनी और करनी में कितना ही भेद क्यों न हो। जो महलनुमा भवनों मे सब ऐश्वर्यों से परिपूर्ण होकर रहता है। ऐसे ढोंगी संतोको ही आज समाज में मान, सम्मान मिल रहा है। सच्चे संत तो मीरा जैसे होते हैं जिन्हें जब प्रभु की लगन लगती है तो महलों का ऐश्वर्य भी रोक नहीं पाता। ध्रुव महाराज जैसे होते हैं। जो बचपन में ही महल छोड़कर जंगल में तप करने निकल जाते हैं। संत नानक, कबीर और रैदास जैसे होते हैं जो आम जनता के बीच उसकी तरह ही रह कर उत्पादन भी करते हैं और पूरे समाज का आध्यात्मिक उत्थान भी करते हैं। जिनके दिव्य वचनों की ज्योति सदियों तक लोगों के हृदय में प्रकाशित रहती है। ऐसे संत आज भी हैं पर उन्हें खोजना पड़ता है। उन्हें पाने के लिए अपना जीवन शुद्ध और सात्विक करना होता है। ऐसे संत चाहें तो हमारी भौतिक स्थिति को एक दृष्टिपात से कहीं का कहीं पहुंचा दें। पर वे हमारा आध्यात्मिक कल्याण चाहते हैं। इसलिए वे हमें पुत्र, धन, यश या पद की प्राप्ति का आशीर्वाद नहीं देते बल्कि हम पर कृपा करके हमारी कमजोरियों का शोधन करते हैं। कहते हैं जिसका जैसा स्तर होता है उसे वैसा ही गुरू मिलता है। जिसे भौतिक सुख-सुविधाओं की कामना है उसे महलों में रहने वाले आत्मघोषित गुरू मिलेंगे और जिसे प्रभु की प्राप्ति की कामना है उसे विरक्त संत मिलेंगे। यह भी कहते हैं जहां भी धन और शक्ति का केंद्रीयकरण होगा वहां अपराध और व्यभिचार होगा ही। दुर्भाग्य से आज देश में धर्म के नाम पर लोगों को मूर्ख बना कर व्यभिचार के अड्डे बड़ी तेजी से पनप रहे हैं पर जनता इनती भोली है कि जब तक खुद धोखा नहीं खाती उसकी समझ में नहीं आता।

तीसरी, घटना न्यायमूर्ति वेंकटस्वामी के इस्तीफे से जुड़ी है, जो उन्होंने विपक्ष के दबाव में दिया। न्यायमूर्ति वेंकटस्वामी की नियुक्ति सरकारी पद पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की संस्तुति पर हुई यह सही है। पर न्यायपालिका के आचरण पर टिप्पणी न करने की श्री जेटली के सलाह का कोई नैतिक आधार नहीं है। श्री जेटली ने कानून मंत्री के पद पर रहते हुए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश के अनैतिक आचरण पर पर्दा डालने का काम किया था। खुद बाद के मुख्य न्यायघीश एसपी भरूचा ने माना कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है यानी उच्च न्यायपालिका के भी कुछ सदस्यों का आचरण संदेह से परे नहीं है। ऐसे में न्यायपालिका पर टिप्पणी न करने की सलाह देकर श्री जेटली समाज में कौन से मूल्यों की स्थापना करना चाहते है ? सच्चाई तो यह है कि न्याय व्यवस्था के लचरपन के कारण आज समाज में हताशा बढ़ती जा रही है। न्याय पालिका के सदस्य कोई आध्यात्मिक जगत से अवतरित हुए देव पुरूष तो है नहीं, वे भी सामान्य मनुष्य हैं। उनका चयन किसी पारदर्शी परीक्षा प्रणाली से तो होता नहीं । उनसे पूरी तरह पारदर्शी आचरण की अपेक्षा करना मूर्खता होगा। इसलिए आज सबसे ज्यादा जरूरत न्यायपालिका की गुणवत्ता सुधारने की है। कहावत है, ‘एक के साधे सब सधे।अगर बीएमडब्ल्यू कार से सड़क पर आम लोगों को कुचलने वाला रईसजादा इस न्याय व्यवस्था में सजा पा लेगा, आतंकवादियों के आर्थिक स्रोतों को छिपाने वाले पुलिस अधिकारी अगर तरक्की की जगह दंड भोगेंगे, अपराधी राजनीति में सफल नहीं होंगे, राजनीति समाज और राष्ट्र के निर्माण के लिए समर्पित होगी और न्यायपालिका वास्तव में पंच परमेश्वर जैसा आचरण करेगी तभी इस बात की संभावना होगी कि राहुल बलात्कार करने की हिम्मत न करे। समाज की कुरीतियों पर प्रहार करने वाले पत्रकार की हत्या न हो। संसद का समय फालतू में बर्बाद न होकर असली मुद्दों पर केंद्रित हो और लोग न्यायपालिका पर टिप्पणी करने से बचें।

लोकतंत्र की संस्थाओं का जिस तेजी से नैतिक पतन हो रहा है उसके चलते जो कुछ सामने आ रहा है वह तो अभी ट्रेलर मात्र है। अगर हमारे गिरने की गति इतनी ही तीव्र रही तो घोर कलयुग के लक्षण हर गली मोहल्ले में दीखने लगेंगे। सब ओर अराजकता का साम्राज्य होगा और तब नक्सलियों व आतंकवादियों की बंदूके व्यवस्था को नियंत्रित करेंगी।

Friday, November 22, 2002

अमर सिंह की बयानबाजी

समाजवादी पार्टी (सपा) के वरिष्ठ नेता कहे जाने वाले श्री अमर सिंह बहुत नाराज हैं। पिछले दिनों उन्होंने उत्तर प्रदेश में विधान परिषद के उप चुनाव में कांग्रेस की भूमिका को लेकर कड़ी टिप्पणियां कीं। उन्होंने कांग्रेस और भाजपा पर मिलीभगत का भी आरोप लगाया और कांग्रेस को गुजरात में सबक सिखाने का ऐलान किया। जाहिर है कि इंका ने इस उप चुनाव में वोट न डालकर सत्तारूढ़ संगठन बसपा और भाजपा के प्रत्याशी को जीतने का मौका दिया। यदि इंका सत्तारूढ़ संगठन के प्रत्याशी के विरुद्ध मतदान करती तो न सिर्फ विपक्ष का प्रत्याशी विजयी होता बल्कि उत्तर प्रदेश सरकार के ऊपर भी संकट आ जाता क्योंकि इससे यह साफ सिद्ध हो जाता कि सरकार अल्पमत में है। पिछले दिनों जिस तरह के प्रयास सपा ने उत्तर प्रदेश की सरकार को गिराने के लिये किये उससे ऐसे संकेत दिये गये मानो सपा और इंका में निकटता बढ़ रही है। पर, दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। लगता है इंका लोकसभा में 1999 में हुए अपने उस अपमान को भूली नहीं है जो उसे सपा के रुख के कारण झेलना पड़ा था। जब इसी तरह सपा ने विश्वास मत में हिस्सा न लेकर वाजपेई सरकार को बचा लिया। इस घटना के बाद अमर सिंह की निकटता प्रधानमंत्री कार्यालय से इतनी ज्यादा बढ़ गयी कि पिछले कुछ वर्षों में भाजपा तक के वरिष्ठ नेता यह कहते पाये जाते थे कि राजग की सरकार में श्री अमर सिंह के काम फौरन हो जाते हैं जबकि भाजपा के वरिष्ठ नेता भी महीनों धक्के खाते रहते हैं। यह दूसरी बात है कि वही अमर सिंह अब भाजपा और इंका पर मिलीभगत का आरोप लगा रहे हैं। सब समय की बात है। कभी नाव पानी में और कभी पानी नाव में।

पिछले विधानसभाई चुनाव में सपा ने उत्तर प्रदेश में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। जानकार बताते हैं कि इस चुनाव में सपा को अपनी जीत का काफी भरोसा था। सपा के निकट के लोग कहते हैं कि शायद यही वजह थी जो श्री अमर सिंह ने मुम्बई के एक मशहूर औद्योगिक घराने से इस चुनाव में अच्छी खासी मदद जुटा ली। पर अपेक्षित कामयाबी फिर भी नहीं मिली और तब श्री अमर सिंह और श्री मुलायम सिंह यादव की समझ में आया कि उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने के लिये उन्हें इंका की मदद लेनी ही पड़ेगी। तब से ही अपनी गलती पर प्रायश्चित करते हुए दोनों ने श्रीमती सोनिया गांधी से सम्पर्क जोड़ने की भरसक कोशिश की और हर तरह की मध्यस्थता भी करवाई। बावजूद इसके इंका ने सपा को कोई ज्यादा घास नहीं डाली। ना भी नहीं किया और हां भी नहीं की। पशोपेश में रखा। पिछले दिनों जब श्री अमर सिंह ने लखनऊ में यह घोषणा की कि वे चैबीस घंटे में सरकार गिरा देंगे तो उन्हें विश्वास था कि इंका उनका साथ देगी। पर इंका ने सपा को फिर रास्ता दिखा दिया। यह कहकर कि पहले अंकगणित ठीक करो।

दरअसल इंका पूरे आत्मविश्वास में है। वह मानती है कि अगले लोकसभा चुनाव में उसे जनता का व्यापक समर्थन मिलेगा। इसलिये वह राजग सरकार को कहीं भी अस्थिर करके अपने सिर पाप नहीं लेना चाहती। वह मानती है कि सरकार की नीतियों से जनता खुश नहीं है और इसलिये उसे इंका की झोली में आना पड़ेगा। केन्द्र में सरकार बनाने के लिये उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में मजबूत हुए बिना ऐसा संभव नहीं होगा। जब तक सपा उत्तर प्रदेश में मजबूत रहेगी तब तक इंका का वोट बैंक उसे वापस नहीं मिलेगा। इसलिये उसकी नीति उत्तर प्रदेश में सपा को मदद न करने की ही रही है। इंका चाहती है कि सपा अपने विरोधाभासों के कारण उत्तर प्रदेश की राजनीति में खुद ही हाशिये पर चली जाए ताकि इंका का जनाधार बढ़ सके। ऐसे में लगता नहीं है कि किसी भी कीमत पर इंका सपा के साथ खड़ी होना पसंद करेगी। जहां तक श्री अमर सिंह का यह दावा है कि सपा इंका को गुजरात में चुनौती देगी तो इस धमकी में कोई खास दम नजर नहीं आता। गुजरात में सपा का आधार नगण्य है। पिछले दिनों सपा ने गुजरात में एक ऐसे व्यक्ति को खड़ा किया जिसका लगातार चार चुनाव जीतने का रिकार्ड था। जसपाल सिंह जो बड़ौदा के पुलिस कमिश्नर भी रह चुके थे, वे भाजपा के मंत्रिमंडल में मंत्री थे। अमर सिंह ने उन्हें बड़े मान सम्मान के साथ सपा में शामिल करवाया और गुजरात में चुनाव लड़वाया। पर सपा का बिल्ला लगते ही जसपाल सिंह की ऐसी दुर्गति हुई कि जमानत तक जब्त हो गयी।

अगर श्री अमर सिंह इंका पर भाजपा से मिलीभगत की राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं तो इससे बड़ा मजाक कोई नहीं हो सकता। इस समय देश में भाजपा को अगर किसी से चुनौती है तो वह सिर्फ इंका से है और उसकी भावी चुनावी रणनीति इंका और सोनिया गांधी को केन्द्र में रखकर बन रही है। इन दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों के निकट आने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

श्री अमर सिंह ने इंका पर छद्म धर्मनिरपेक्षता का आरोप भी लगाया है। यूं राजनीति में एक दूसरे पर आरोप लगाना सामान्य बात है पर यह भी सच है कि कोई भी दल किसी विचारधारा पर ईमानदारी से नहीं चलता। इंका धर्मनिरपेक्ष है या छद्म धर्मनिरपेक्ष यह तो सारा देश जानता है। पर सपा का जो चरित्र परिवर्तन हुआ है उसे लेकर देश के प्रमुख समाजवादियों को तो तकलीफ है ही खुद सपा के तमाम छोटे नेता और कार्यकर्ता भी खुश नहीं हैं। चूंकि अब किसी भी दल ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन तो होता नहीं इसलिये कार्यकर्ताओं को अपनी बात शिखर तक पहंुचाने में बहुत तकलीफ होती है। अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर पार्टी से निकाले जाने का भय हमेशा बना रहता है। यही बात सपा पर भी लागू होती है। पर निजी चर्चाओं में ऐसे तमाम सपाई मिलेंगे जो मानते हैं कि श्री अमर सिंह के आने से सपा ने अपनी पहचान खो दी है। अब वह औद्योगिक घरानों का एक मुखौटा बनकर रह गयी है। जिन श्री राम मनोहर लोहिया के विचारों पर चलने का सपा दावा करती आई थी उनके विचार और सपा के कृत्यों में अब उत्तर दक्षिण का रिश्ता बन चुका है। सपा के तमाम नेता इस बात को स्वीकार करते हैं कि श्री अमर सिंह के आने से सपा में धन और साधनों की आमद तो बढ़ी है पर पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं की हैसियत दरबारी कारिन्दों से ज्यादा नहीं बची। यहां तक कि श्री मुलायम सिंह यादव तक का व्यक्तित्व श्री अमर सिंह की मौजूदगी में बौना होता जा रहा है। यह छोटे नेता और कार्यकर्ता इस परिवर्तन को देखकर परेशान भी हैं और हैरान भी। परेशान इसलिये कि उनकी कोई सुनता नहीं और हैरान इसलिये कि श्री मुलायम सिंह यादव जैसा जमीन से उठा नेता कैसे अपने व्यक्तित्व पर इस तरह दूसरे को हावी होने दे रहा है। आखिर वजह क्या है ? इसमें शक नहीं कि श्री अमर सिंह सही मौके पर सही सम्पर्क साधने में कुशल हैं। दोस्तों के दोस्त हैं। जिसकी चाहते हैं जमकर मदद करते हैं। खासकर बड़े औद्योगिक घरानों की। पर उनके जीवन और व्यवहार में समाजवादी विचारधारा का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता। ऐसे में श्री अमर सिंह का यह कहना कि इंका छद्म धर्मनिरपेक्षता कर रही है, कोई खास मायने नहीं रखता। पर जैसा सभी जानते हैं कि राजनीति में जो बयानबाजी की जाती है उसके पीछे प्रायः कोई गंभीरता नहीं होती। सपा वही करेगी जो उसके हित में हो। चाहे जनता का हित उसमें निहित हो या न हो। इंका भी वही करेगी जो उसके हित में होगा। इसलिये उत्तर प्रदेश में बार बार अपने सपने टूटते देख सपा की निराशा स्वाभाविक है। पर इससे इंका अपनी रणनीति बदलने नहीं जा रही। सपा इंका को गुजरात में कितनी चोट दे पाएगी यह तो विधानसभा चुनाव के बाद ही पता चलेगा। पर यह स्पष्ट है कि राजग के विरुद्ध धर्म निरपेक्षता के परचम तले एक होने की जो मुहिम बार बार छेड़ी जाती है वह परवान नहीं चढ़ पा रही। हर दल की अपनी क्षेत्रीय सीमायें और अपनी प्राथमिकतायें उसे दूसरे दलों के पास आने से रोकती हैं। अगर धर्म निरपेक्षता की ही बात होती तो फिर तेलगूदेशम, डीएमके व समता जैसे दल भाजपा के साथ न होकर इंका, साम्यवादियों व सपा जैसे दलों के साथ खड़े होते। पर सुविधा की राजनीति में विचारधारा तो मात्र एक हथियार है सत्ता हथियाने का। इसलिये श्री अमर सिंह इंका की ‘‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’’ से परेशान न हों और जो कुछ अपने दल को मजबूत बनाने के लिये करना है, करते जायें। कहते हैं समय से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता।

सपा के नेता श्री मुलायम सिंह यादव गुणी व्यक्ति हैं। बहुत छोटे स्तर से शुरू करके राष्ट्रीय स्तर तक अपने बलबूते पर पहंुचे हैं। अपने ही पुरुषार्थ से मुख्यमंत्री भी बन चुके हैं। उन्हें अपनी शक्ति, साधन और अनुभव का प्रयोग देहात के लोगों की समस्याओं को हल करने में लगाना चाहिये। इससे उनका जनाधार भी बढ़ेगा और उनकी जमीन से जुड़े होने की छवि भी फिर से उभर कर सामने आएगी। जिस पर फिलहाल कुछ बादल छाये हैं। राजनैतिक दल चलाने के लिये हर किस्म के गुण वाले लोगों की जरूरत पड़ती है। पर वे अकबर के दरबार में नवरत्न की तरह होते हैं। आज सपा का नाम सामने आते ही श्री मुलायम सिंह यादव का नहीं श्री अमर सिंह का चेहरा सामने आता है। इसमें कोई बुराई नहीं बशर्ते कि श्री मुलायम सिंह यादव श्री अमर सिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाकर वानप्रस्थ आश्रम की सोच रहे हों तो। पर यदि उन्हें सक्रिय राजनीति में रहना है तो अपनी इस छवि से उबरना होगा। श्री अमर सिंह बहुत विश्वसनीय सहयोगी हैं। इसलिये उन पर श्री यादव की निर्भरता तो बनी ही रहेगी पर एक सहयोगी से अत्यधिक निकटता कहीं बाकी सहयोगियों का मन न तोड़ दे इसकी चिंता भी उन्हें करनी होगी। चाटुकारिता के दौर में ऐसी खरी बातें सुनना लोग पसंद नहीं करते। पर नीति कहती है कि ‘‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छबाय’’। बुद्धिमान लोग स्वस्थ आलोचना का स्वागत करते हैं। फिर वह चाहे श्री मुलायम सिंह यादव हों या श्री अमर सिंह। आखिर दोनों ही देश के महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। उनकी कार्यशैली पर जनता और मीडिया को अपनी बात कहने का हक है। सुनना या न सुनना ये उनकी मर्जी।

Friday, November 15, 2002

क्या सेना नागरिकों को सजा दे सकती है ?


अगर सैनिकों और नागरिकों के के बीच कोई अप्रिय घटना हो जाए तो किसका कानून चलेगा ? नागरिक प्रशासनिक व्यवस्था का या सेना का ? लोकतंत्र में कौन सर्वोच्च है ? जनता या प्रशासन या फिर सेना ? क्या सैनिक अधिकारी को यह हक है कि वे नागरिकों को अपने कार्यालय में तलब करे ? उनसे सवाल-जवाब करे ? उनसे सजा भुगतने को तैयार रहने की चेतावनी दे या उन्हें डराएं धमकाएं ? सेना की जहां-जहां छावनियां है वहां ऐसी घटनाएं अक्सर होती रहती है। जब सेना के जवान या अधिकारियों की स्थानीय नागरिकों से या स्थानीय प्रशासन से तकरार हो जाती हैै। प्रायः यह तकरार अतिमहत्वहीन कारणों से होती हैै। मसलन, सिनेमा या रेल के टिकट की लाइन में खड़े लोगों के बीच धक्का-मुक्की या महिलाओं पर फिकराकशी या सड़क पर वाहनों की भिडंत या पड़ौसियों की रोजमर्रा के मामलों पर कहासुनी। ऐसे सब मामलों में अक्सर देखने को आता है कि सेना के पृष्ठभूमि वाले लोग नागरिकों को आतंकित करते हैं या दबाते हैं, यह एक चिंतनीय स्थिति है।

ताजा घटनाक्रम के अनुसार आगरा में संभ्रांत परिवारों के सात किशोर एक रेस्टोरेंट से भोजन करके निकले। न ये शोहदे थे न शराबी-जुआरी। अच्छे स्कूल कालेजों में पढ़ने वाले नौजवान थे। उसी रेस्टोरेंट से उन्हीं की सी उम्र का एक और नौजवान अपने साथ एक महिला को लेकर निकला। चश्मदीद गवाह बताते हैं कि अनेक बार मोटरसाइकिल की किक मारने के बावजूद जब उस नौजवान की मोटर साइकिल स्टार्ट नहीं हुई तो ये सात किशोर ठहाका लगा कर हंस दिए और इनमें से एक दो ने फिकरा कशा, ‘लोग लड़की लेकर आते हैं और मोटर साइकिल स्टार्ट नहीं कर पाते।वह नौजवान इस फिकरे से तिलमिला गया। सौभाग्य से मोटरसाइकिल स्टार्ट हुई। कुछ ही गज गई होगी कि फिर फुस हो गई। सातो किशोर फिर ठहाका लगा कर हंसे और कुछ और फिकरे कशे। इस पर वह नौजवान नाराज हो गया और आवेश में इन सातों किशोर की तरफ आया और इन्हें धमका कर खामोश करना चाहा। कहासुनी हुई। नौजवान ने अपना परिचय पत्र दिखाते हुए बताया कि वह पैरा मिलिट्री फोर्स का कैप्टन है। पर कहासुनी इतनी हो चुकी थी कि इन सात में से दो नौजवानों ने सैयम खो दिया और उस कैप्टन से लड़े पड़े। उसके बाद कुछ मिनट गुथमगुथा हुई और फिर बाकी साथियों के रोकने पर मामला थम गया। ये सातों किशोर मामले की गंभीरता को समझते हुई वहां से खिसक गए। क्योंकि पैरा मिलिट्री फोर्स का आगरा में यह इतिहास रहा है कि जब कभी भी उनके किसी साथी की स्थानीय नागरिक या प्रशासन से तकरार हुई तो उन्होंने जम कर नागरिकों की पीटाई की। 10-15 वर्ष पहले तो कहते हैं कि पूरी बिग्रेड ही आगरा शहर पर निकल आई थी और उसने सारे शहर में ढूंढ-ढूंढ कर पुलिसवालों की धुनाई की। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों तक को नहीं बक्शा, बहुत बड़ा विवाद खड़ा हुआ।

खैर ताजा घटना के बाद लड़ने वाले लड़के की कार का नंबर उस कैप्टन ने नोट कर लिया। बस उसके बाद शुरू हो गया आगरा में सेना के आतंक का एक लंबा सिलसिला। इन सातों बच्चों के मां-बाप को कई बार सेना ने अपने कार्यालय में तलब किया। बड़े अफसरों ने कूटनीति से और छोटे अफसरों ने बाकायदा धमका कर इन मां-बापों से कहा कि अपने बच्चे हमें सौप दो, हम उन्हें सजा देंगे। चूंकि फौज का आतंक नागरिकों में व्याप्त है इसलिए कोई भी मां-बाप अपने बच्चों को इस तरह खतरनाक परिस्थिति में फेंकने को तैयार नहीं था। वे जानना चाहते थे कि सजा का स्वरूप क्या होगा और उसके निर्धारत का मापदंड क्या होगा। साथ ही उनकी शर्त यह भी थी कि उनके बच्चों को जो भी सजा दी जाए वह उनकी मौजूदगी में दी जाए। जबकि बिग्रेडियर महोदय का कहना था कि सजा देने के लिए बच्चों को मां-बाप से दूर ले जाया जाएगा। सेना के अधिकारी कोई बात सुनने को तैयार नहीं। इन बच्चों के मां-बापों ने बार-बार अनुनय-विनय की कि आप जो भी आरोप लगाने हैं लगा कर थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दें और बच्चों कोे देश के कानून के अनुसार सजा मिलने दें। पर सैन्य अधिकारी टस से मस नहीं हुए। इन मां-बापों ने अपने-अपने उन संबंधियों को संपर्क किया जो फौज में उच्च पदों पर आसीन हैं। बिग्रेडिर से कहीं ऊंचे-ऊंचे बड़े अधिकारियों ने देश के कोने-कोने से फोन करके आगरा की इस बिग्रेड को समझाने की कोशिश की कि उन्हें इस छोटी सी गलती के लिए नागरिकों को इस तरह तेलब करने का या उनके बच्चों को सजा देने का कोई कानूनी हक नहीं है। पर इसके बावजूद बात नहीं बनी। भयभीत माता-पिता ने अपने बच्चे छिपा दिए। इतना ही नहीं वे खुद भी रात को अपने घरों से बाहर मित्रों के यहां जाकर सोने लगे क्योंकि उन्हें सेना के छोटे अधिकारियों ने काफी डराया-धकमकाया। उन्हें ऐसे संकेत दिए गए कि अगर उन्होंने अपने बच्चे नहीं सौपे तो सेना के जवान सादीवर्दी में, रात को आकर उनको घर से उठा ले जाएंगे। आखिर एक बच्चें के रिश्तेदार बिग्रेडियर खुद आगरा पहुंचे और उन्होंने यह प्रस्ताव रखा कि सजा के तौर पर बच्चों को मारा-पीटा नहीं जाएगा। उनके हाथ-पैर नहीं तोड़े जाएंगे। सजा मां-बाप की मौजूदगी में दी जाएगी और वे बिगे्रडियर मौके पर मौजूद रहेंगे। समझौता हुआ। सातों बच्चों के मां-बाप अपने बच्चों के साथ वहां पहुंचे बड़े आत्मीय वातावरण में उनका स्वागत हुआ और बच्चों को पचास गढ्ढे खोदने की सजा दी गई। जिसके बाद इस तनावपूर्ण स्थिति का सुखांत हुआ। पर यहां कई सवाल खड़े होते हैं। यह सही है कि कैप्टन का परिचय पत्र देखने के बावजूद जिन दो किशोरों ने लड़ाई की उन्होंने घोर निंदनीय कार्य किया और इसकी जो भी सजा कानून में हो उन्हें मिलनी चाहिए थी। पर जिस तरह सेना ने नागरिकों को तलब किया उन्हें दो हफ्ते तक भय और आतंक में जीने के लिए मजबूर किया और अंततः एक रचनात्मक सजा ही सही पर सजा तो दी। क्या यह सब कानूनी रूप से वैद्य है ? क्या सेना का नागरिकों के प्रति ऐसा व्यवहार एक लोकतांत्रिक देश में बर्दाश्त किया जा सकता है ? सेनावालों का सम्मान होना चाहिए, ये हर समझदार आदमी मानता है। सेना कठिन परिस्थितियों में जानजोखिम में डालकर, देश के लिए काम करती है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि उसका व्यवहार मानवीय मूल्यों से हटकर हो या देश के कानून के विरूद्ध हो।

आत्म प्रशंसा की बात नहीं है। पर एक उदाहारण के तौर पर कहना चाहता हूं कि जब मैंने देश के तमाम ताकतवर नेताओं और मंत्रियों के विरूद्ध जैन हवाला कांड का पर्दाफाश कर एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी तो मेरे जान पर बेहद खतरा था। कई बार मेरी हत्या के भी प्रयास हुए। सेना की तरह मेेरे पास लड़ने को हथियार नहीं थे। कोई सुरक्षा व्यवस्था भी नहीं थी और मेरे परिवार को जिन अभद्र गालियों और धमकियों को रात-दिन फोन पर झेलना पड़ता था उसकी शिकायत सुनने वाला भी देश में कोई नहीं। केवल प्रभु के नाम का सहारा था। पर इस संघर्ष के लिए जो जोखिम, जो तकलीफ और अपमान, मैंने या मेरे परिवार ने देशहीत में सहे क्या उसकी एवज मे अब मैं कानून हाथ में लेने का अधिकारी बन गया ? क्या मुझे यह हक है कि मैं ऐसी किसी भी दुर्घटना के लिए किसी को भी तलब कर धमकाऊं या सजा दूं और तुर्रा ये हो कि मैं तो जानजोखिम में डालकर देशहीत में पत्रकारिता करता हूं इसलिए हर नागरिक को मुझसे या मेरे परिवार से तमीज से पेश आना चाहिए ? यदि ऐसा करता हंू तो ये मेरी मूर्खता होगी। समाज सेना के कानूनों से नहीं चला करता। किशोर अवस्था में एक-दूसरे पर फिकरे कसना आम बात है। यह सारे देश में होता है। हां कोई अभद्रता करे, अशलीलता दिखाए, शारीरिक छेड़छाड़ करे या उसकी बद्दतमीजी हद से ज्यादा बढ़ रही हो तो उससे निपटने के लिए पुलिस और कानून का रास्ता है। आगरा के वह कैप्टन महोदय यह तर्क दे सकते हैं कि पुलिस और कानून व्यवस्था इतनी लचर है कि उससे उन्हें कोई उम्मीद नहीं इसलिए उन्होंने खुद ही सजा देना मुनासीब समझा। अगर उनका यह तर्क सही भी है तो सेना क्या संदेश देना चाहती है कि देश की 100 करोड़ जनता पुलिस और कानून पर विश्वास न करे और हर मामले का फैसला अपने बाहुबल के अनुसार खुद की हर लें। यदि ऐसा होने लगे तो देश में अराजकता फैल जाएगी। सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। सेना की गोलियां भी फिर समाज में शांति स्थापित नहीं कर पाएंगी। आगरा के वे संभ्रांत परिवार के मां-बाप तो अपना अपमान सह कर, 15 दिन मानसिक आतंक और मानसिक तनाव में जी कर और अपने बच्चों को सजा दिलवाकर खामोेश हो गए। न शिकायत करना चाहते हैं न इस विषय में बात करना चाहते हैं पर उनकी ये खामोशी सेना के चेहरे पर एक बदनुमा दाग है। देश के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और रक्षामंत्री श्री जार्ज फर्नाडिज का यह कर्तव्य है कि वे आगरा के इस कांड की निष्पक्ष जांच करवाएं और ऐसे कदम उठाएं जिससे नागरिकों के मन में सेना के प्रति सम्मान बढ़े। जिस प्रकार आगरा के सैन्य अधिकारियों ने अनाधिकृत रूप से कानून हाथ में लेकर नागरिकों को सजा देने का दुष्प्रयास किया है उसके लिए उन्हें सेना के कानून के अनुसार जो भी उचित सजा हो वह मिलनी ही चाहिए।

देश और समाज के लिए लड़ने वाले लोग हर क्षेत्र में होते हैं। समाज के लिए जान जोखिम में डालने वाले लोग भी हर क्षेत्र में होते हैं। जो सफाई कर्मचारी सीवर के मेनहोल में उतर कर उसकी सफाई करते हैं वे भी अक्सर जहरीली गैस में घुट कर मर जाते हैं। जो बिजली कर्मचारी खम्भों पर चढ़कर बिजली के तार ठीक करते हैं वे भी अक्सर चिपक कर मर जाते हैं। जो पुलिस के सिपाही अपराधियों को पकड़ते हैं वे भी कई बार मुठभेड़ में मारे जाते हैं। समाज के लिए जानजोखिम में डालने का मतलब ये कतई नहीं कि हम अपनी नागरिक दायित्वों को भूल कर तानाशाहीपूर्ण व्यवहार करने लगे। मेरे मन में सेना के प्रति बहुत आदर रहा है। खोजी पत्रकार होने के नाते सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार और बुराइयों से मैं अनभिग्य नहीं हूं। पर मैं मानता हूं कि सेना के जाबांज सिपाही जिन दुष्कर परिस्थतियों में देश की रक्षा करते हैं उसके लिए वे सम्मान के पात्र हैं। कुछ समय पहले इसी कालम में जब मैंने एक लेख लिखा था, ‘वीआईपीयोंके साहबजादे सेना में क्यों नहीं जाते ?‘ तो उसकी काफी प्रतिक्रिया हुई थी। उस दौरान देश में जहां भी मैं व्याख्यान देने गया लोगों ने इस लेख की चर्चा की। तब मैंने सेना के गौरव में प्रशस्तीगान किया था और धिक्कारा था उन लोगों को जो सेना की वाहवाही तो करते हैं पर खुद जानजोखिम में नहीं डालना चाहते। आज इस लेख में सेना के एक ऐसे कृत्य का वर्णन करते हुए दुख भी हो रहा है और चिंता भी। क्योंकि हर देशभक्त अपनी सेना का मस्तक गर्व से उठा देखना चाहता है। उसके दामन में किचड़ के दाग कोई नहीं देखना चाहता। आगरा जैसी इन घटनाओं से सबक सीखकर देश की सैन्य अधिकारी और रक्षा मंत्री क्या कुछ ऐसा ठोस करेंगे जिससे इन घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो ?

Friday, November 1, 2002

पुलिस सुधार क्यों लागू नहीं होते ?

हाल ही में पुलिस सुधारों को लेकर हुई एक उच्च स्तरीय बहस में केंद्रीय गृहमंत्री व उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी यह सुनकर चैक गए कि भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 संविधान की मूल भावना के विरूद्ध है। भारत का संविधान, भारत की जनता को सर्वोच्च मानता है। उसको ही समर्पित है। भारतीय गणराज्य की समस्त संस्थाएं जनता की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किंतु भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में कहीं भी जनता शब्द का उल्लेख नहीं आता है। जाहिर है कि यह अधिनियम उस समय बनाया गया था जब भारत पर ब्रितानी हुकूमत कायम थी। इस कानून का उद्देश्य ब्रिटिश हितो को साधना था। पुलिस का काम जनता पर नियंत्रण रखना था ताकि कानून और व्यवस्था इस तरह बनी रही कि अंग्रेज हुक्मरानों को भारत का दोहन करने में कोई दिक्कत पेश न आए। स्पष्ट है कि इस कानून से नियंत्रित होने वाली भारतीय पुलिस की मानसिकता इस तरह विकसित की गई है कि वह हुक्मरानों के प्रति ही खुद को जवाबदेह मानती है, जनता के प्रति नहीं। इसलिए जनता की सेवा करना या उसे राहत पहुंचाना भारतीय पुलिस की जहनियत में नहीं है। जनता को रियाया मान कर उस पर रौबदारी के साथ हुक्म चलाना और अगर वह न माने तो डंडे के जोर पर उसे नियंत्रित करना।

दरअसल, 1897 के गदर के बाद जब इंग्लैंड की हुकूमत ने जब ईस्ट इंडिया कंपनी से हिन्दुस्तान की बागडोर ली तब उसे ऐसी ही पुलिस की जरूरत थी। इसलिए ऐसे कानून बनाए गए। पर आश्चर्य की बात है कि 1947 में जब भारत आजाद हुआ या 1950 में जब हमने अपना संविधान लागू किया तब क्यों नहीं इस भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में बुनियादी परिवर्तन किया गया ? क्यांे औपनिवेशिक मानसिकता वाले कानून को एक स्वतंत्र, सार्वभौमिक, लोकतांत्रिक जनता के ऊपर थोपा गया ? जब कानून पुराना ही रहा तो भारतीय पुलिस से ये कैसे उम्मीद की जाती है कि वह सत्ताधीशों को छोड़कर जनता की सेवा करना अपना धर्म माने ? नतीजतन, आजतक भारतीय पुलिस की जो छवि है वो जनसेवी की नहीं अत्याचारी की है। लुटे, पीटे, शोषित लोग अपनी फरियाद लेकर थाने नहीं जाते क्योंकि उन्हें पुलिस से न्याय मिलने की उम्मद ही नहीं होती। आश्चर्य की बात है कि पिछले 55 वर्षों से हम इस दकियानुसी कानून को ढोते चले आ रहे हैं। आज भी पुलिस जनता का विश्वास नहीं जीत पाई है। ऐसा नहीं कि इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। 1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधरों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की पर बड़े दुख की बात है कि 20 बरस बीतने के बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया। इसके बाद भी कई अन्य समितियां बनी जिन्हें यही काम फिर-फिर सौंपा गया।

1997 में तत्कालीन गृहमंत्री श्री इंद्रजीत गुप्ता ने सभी मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों व संघ शासित प्रदेशों के प्रशासकों को एक पत्र लिख कर पुलिस व्यवस्था में सुधार के कुछ सुझाव भेजे। जिनकी उपेक्षा कर दी गई। 1998 में पुलिस सुधारों का अध्ययन करने के लिए महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारी श्री जेएफ रिबैरो की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसने मार्च 1999 तक अपनी अंतिम रिपोर्ट दे दी। पर इसकी सिफारिशें भी आज तक धूल खा रही हैं। इसके बाद पदमनाभइया की अध्यक्षता में एक और समिति का गठन किया गया। जिसने सुधारों की एक लंबी फेहरिश्त केन्द्र सरकार को भेजी, पर रहे वही ढाक के तीन पात।

यह बड़े दुख और चिंता की बात है कि कोई भी राजनैतिक दल पुलिस व्यवस्था के मौजूदा स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहता। इसलिए न सिर्फ इन आयोगों और समितियों की सिफारिशों की उपेक्षा कर दी जाती है बल्कि आजादी के 55 साल बाद भी आज देश औपनिवेशिक मानसिकता वाले संविधान विरोधी पुलिस कानून को ढो रहा है। इसलिए इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन होना परम आवश्यक है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की पुलिस को जनोन्मुख होना ही पड़ेगा। पर राजनेता ऐसा होने दें तब न।

आज हर सत्ताधीश राजनेता पुलिस को अपनी निजी जायदाद समझता है। नेताजी की सुरक्षा, उनके चारो ओर कमांडो फौज का घेरा, उनके पारिपारिक उत्सवों में मेहमानों की गाडि़यों का नियंत्रण, तो ऐसे वाहियात काम है ही जिनमें इस देश की ज्यादातर पुलिस का, ज्यादातर समय जाया होता है। इतना ही नहीं अपने मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए या उन्हंे नियंत्रित करने के लिए पुलिस का दुरूपयोग अपने कार्यकर्ताओं और चमचों के अपराधों को छिपाने में भी किया जाता है। स्थानीय पुलिस को स्थानीय नेताओं से इसलिए भय लगाता है क्योंकि वे जरा सी बात पर नाराज होकर उस पुलिस अधिकारी या पुलिसकर्मी का तबादला करवाने की धमकी देते हैं और इस पर भी सहयोग न करने वाले पुलिस अधिकारी का तबादला करवा देते हैं। इसका नतीजा ये हुआ है कि अब निचले स्तर के पुलिसकर्मियों के बीच तेजी से जातिवाद फैलता जा रहा है। अपनी जाति के लोगों को संरक्षण देना और अपनी जाति के नेताओं के जा-बेजा हुक्मों को मानते जाना आज प्रांतीय पुलिस के लिए आम बात हो गई है। खामियाजा भुगत रही है वह जनता जिसके वोटों से ये राजनेता चुने जाते हैं। किसी शहर के बुजुर्ग और प्रतिष्ठित आदमी को भी इस बात का भरोसा नहीं होता कि अगर नौबत आ जाए तो पुलिस से उनका सामना सम्माननीय स्थिति में हो पाएगा। एक तरफ तो हम आधुनिककरण की बात करते हैं और जरा-जरा बात पर सलाह लेने पश्चिमी देशों की तरफ भागते हैं और दूसरी तरफ हम उनकी पुलिस व्यवस्था से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। वहां पुलिस जनता की रक्षक होती है, भक्षक नहीं। लंदन की भीड़ भरी सड़क पर अक्सर पुलिसकर्मियों को बूढ़े लोगों को सड़क पार करवाते हुए देखा जा सकता है। पश्चिम की पुलिस ने तमाम मानवीय क्रिया कलापो से वहां की जनता का विश्वास जीत रखा है। जबकि हमारे यहां यह स्वप्न जैसा लगेगा।

पुलिस आयोग की सिफारिश से लेकर आज तक बनी समितियों की सिफारिशों को इस तरह समझा जा सकता है; पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह हो। पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। उनके प्रशिक्षण और काम की दशा पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उनका राजनीतिकरण रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हों बल्कि उसमें न्यायपालिका और समाज के प्रतिष्ठित लोगों का भी प्रतिनिधित्व हो। इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि पुलिस में तबादलों कीे व्यवस्था पारदर्शी हो। उसके कामकाज पर नजर रखने के लिए निष्पक्ष लोगों की अलग समितियां हों। पुलिस में भर्ती की प्रक्रिया में व्यापक सुधार किया जाए ताकि योग्य और अनुभवी लोग इसमें आ सकें। आज की तरह नहीं जब सिफारिश करवा कर या रिश्वत देकर अयोग्य लोग भी पुलिस में भर्ती हो जाते हैं। जो सिपाही या इन्सपेक्टर मोटी घुस देकर पुलिस की नौकरी प्राप्त करेगा उससे ईमानदार रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ? पुलिस जनता का विश्वास जीते। उसकी मददगार बनें। अपराधों की जांच बिना राजनैतिक दखलंदाज़ी के और बिना पक्षपात के फुर्ती से करे। लगभग ऐसा कहना हर समिति की रिपोर्ट का रहा है।
पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता। अनुभव बताता है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट है। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। जनता की सेवा को प्राथमिकता मानते हुए नहीं। फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ? जब श्री आडवाणी से यह पूछा गया कि पुलिस आयोग की सिफारिशें क्यों नहीं मानी जा रहीं, तो उनका उत्तर था कि उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक श्री प्रकाश सिंह की एक जनहित याचिका सर्वोच्च अदालत में लंबित पड़ी है। उसके परिणाम देखकर ही कोई सुधार लागू किया जा सकता है। जब उन्हें याद दिलाया गया कि ऐसे अनेक मामले हैं जिनमें सर्वोच्च न्यायालय के वाजिब सुझावों को भी संसद में समर्थन नहीं मिलता, मसलन, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के अधिकारों का मामला, आज तक लटका हुआ है। बिना दांत का सीवीसी भ्रष्टाचार कैसे रोक सकता है ? फिर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से क्या फर्क पड़ेगा ? ऐसे माहौल में पुलिस सुधार कैसे लागू हो सकते हैं ? भारत के मौजूदा उप राष्ट्रपति श्री भैरोसिंह शेखावत ने इस बहस में ठीक ही कहा कि पुलिस सुधार कोई अकेले लागू नहीं हो सकते जब तक ऐसे दूसरे सुधारों को एक समग्र दृष्टि के साथ लागू न किया जाए। नतीजा ये कि पुलिस सुधार लागू होंगे नहीं। पुलिस महानिदेशकों की सालाना बैठकों में बड़बोले ऐलान किए जाते रहेंगे और जनता यूं ही पुलिस से प्रताडि़त होती रहेगी। अगर जनता चाहती है कि पुलिस का रवैया बदले तो उसे अपने क्षेत्र के सांसद को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वह संसद में पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने का अभियान चलाए। क्या हम यह करेंगे ?

Friday, October 25, 2002

नैनीताल से सबक लें


आज जब देश के हर शहर में कूड़ें के अंबार लगते जा रह हैं और नगरपालिकाएं उसे साफ कर पाने में नाकाम स्द्धि हो रही हैं तब यह प्रश्न उठता है कि क्या ये कूड़ा इसी तरह हमारी जि़दगी की हिस्सा बन कर रहा जाएगा ? क्या प्लास्टिक के लिफाफे हमारे परिवेश, प्राकृतिक सौंदर्य और पर्यावरण में एक बदनुमा दाग की तरह सीना तान कर यूं ही लहराते रहेंगे ? क्या नगरपालिका का निकम्मापन और राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी इस विकराल होती समस्या से कभी निपट भी पाएगी ? क्या हम फिर से स्वच्छ पर्यावरण में जी पाएंगे ? इन सभी सवालों का जवाब हां में हैं और वो इसलिए कि हिमालय की चोटियों पर बसे शहर नैनीताल ने यह कर दिखाया है। आश्चर्य होता है यह देख कर कि पर्यटन का इतना बड़ा केंद्र होते हुए भी नैनीताल में प्लास्टिक के लिफाफों का प्रचलन बिलकुल नहीं है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि प्लास्टिक के लिफाफों में सामान रखना ज्यादा सुविधाजन और किफायती होता है। खासकर तरल पदार्थ और गीले फल व सब्जियां। पर नैनीताल में एक भी दुकानदार कोई भी वस्तु प्लास्टिक के थैले में रख कर नहीं बेचता। सब पुराने अखबार के बने लिफाफे प्रयोग करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि नैनीताल का मौसम बारहों महीने बरसात का सा रहता है। चाहे जब बादल घुमड़ आते हैं और जब उनका जी चाहे बरस जाते हैं। ऐसे नमी वाले वातावरण में पुराने अखबारों के लिफाफो में कितना दम होता होगा इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। फिर भी नैनीताल के फल वाले हों या सब्जी वाले, मिठाई वाले हों या किराना वाले, हर वस्तु इन्हीं पुराने अखबारों के लिफाफों में ग्राहकों को देते हैं। इन लिफाफों की कमजोरी जानते हुए नैनीताल के नागरिक खरीदारी करने जब निकलते हैं तो पहले जमाने की तरह घर से कपड़े का बना थैला लेकर निकलते हैं और यह व्यवस्था बड़ें सुचारू ढंग से चल रही हैं। पिछले कई वर्षों से नैनीताल में प्लास्टिक के लिफाफों का प्रयोग बंद हैं। अखबार के लिफाफे इस्तेमाल करने से निर्धन लोगों को रोजगार भी मिला है और चूंकि अखबार पर्यावरण में स्वयं ही घुलमिल जाता इसलिए इससे कोई प्रदूषण भी नहीं होता। यह व्यवस्था इतनी ईमानदारी व शक्ति से लागू की गई है कि प्लास्टिक का लिफाफा इस्तेमाल करने वाले पर फौरन चालान हो जाता है।
नैनीताल के जिलाधिकारी श्री एके घोष बताते हैं कि इस सफल प्रयोग के लिए सबसे ज्यादा श्रेय नैनीताल के जागरूक नागरिकों को है जिन्होंने कई बरस पहले प्लास्टिक के लिफाफों के कारण पर्यावरण पर हो रहे हमले के लिए खतरों को भांप लिया था तभी उन्होंने प्लास्टिक के लिफाफों का प्रयोग स्व-प्रेरणा से ही बंद कर दिया। इसमें नैनीताल के व्यापार मंडल की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण रही, बाद में सारे शहर ने इस अलिखित कानून को स्वीकार कर लिया। इसका सीधा प्रभाव नैनीताल और आसपास की पहाडि़यों पर पड़ा है। नैनीताल के बीचोबीच स्थित मशहूर नैनी झील अब पूरी तरह प्रदूषण से मुक्त है। उसकी सतह पर अब प्लास्टिक के लिफाफे नहीं तैरते। बल्कि पन्ने के जैसे रंग का खूबसूरत हरा-हरा पानी चारों ओर अपनी छटा बिखेरती हैं। नैनीताल के पर्यटन स्थलों के आसपास भी अब गंदगी के घेर नहीं दिखाई देते। यह उन लोगों के लिए आंख खोलने वाली बात हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों में, पर्यटन या तीर्थाटन के लिए प्रसिद्ध शहरों की प्रशासनिक व्यवस्था देखते हैं। नैनीताल के उदााहारण से यह स्पष्ट है कि जनता और प्रशासनिक सहयोग से देश के सभी नगरों की गंदगी साफ की जा सकती है। लोगों को अपने परिवेश की सफाई सुनिश्चित करने के लिए प्रशासन प्रेरित कर सकता है और प्लास्टिक पर सामूहिक राय से प्रतिबंध लगाया जा सकता है। चूंकि नैनीताल वासियों ने ऐसा संभव कर दिखाया है।  इतना ही नहीं उत्तांचल की सरकार ने पर्यावरण के विनाश को रोकने के लिए नैनीताल में भवन निर्माण को काफी हद तक नियंत्रित कर दिया है। यूं नैनीताल के आसपास बसे बनोरम पर्यटक स्थल भीमताल आदि में काॅटेज निर्माण तेजी से जारी है पर इसका वैसा दुष्परिणाम यहां दिखाई नहीं देता जैसा शिमला जैसे शहरों में दिखता है जो कि अब पूरी तरह सीमेंट के जंगल में बदल चुका है। नैनीताल और आसपास के पहाड़ों पर संघन वृक्षों की मौजूदगी इस बात को सिद्ध करती है कि जनता द्वारा शुरू किए गए चिपको आंदोलन जैसे प्रयासों से वनों की अवैध कटाई को रोका जा सकता हैं और देश के पर्यावरण की रक्षा की जा सकती है।
आज जबकि देश के अनेक इलाकों में पहाड़ों पर वनों की अवैध कटाई ने भू-खलन जैसी बड़ी समस्याएं पैदा कर दी हैं वहीं उत्तरांचल राज्य की नागरिकों की जागरूकता ने वनों की अवैध कटाई पर पूरी तरह प्रतिबंध लगवा दिया है। उत्तरांचल राज्य के लोगों को उम्मीद है कि अनुभवी प्रशासक और वरिष्ठ राजनीतिज्ञ श्री नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तरांचल का क्रमशः विकास होगा। स्थानीय नागरिक कहते हैं कि पूरे उत्तर प्रदेश पर कई बार शासन कर चुके तिवारी जी के लिए उत्तरांचल राज्य तो बहुत छोटा है और इसमें कार्य क्षमता दिखाने का बहुत मौका उनके पास है।
कुछ वर्ष पहले जब गुजरात के शहर सूरत में प्लेग फैला था तब पूरे प्रदेश में भगदड़ मच गई थी। तब जाकर  देश को पता चला कि सूरत में वर्षों से कूड़ें के अंबार लगे पड़ें हैं और कोई उसे उठाने वाला नहीं है। उसी समय एक प्रशासनिक अधिकारी श्री राव ने बीड़ा उठाया और सूरत नगरपालिका के झंड़े तले असंभव को संभव कर दिखाया। आज सूरत का साफ-सूरत चेहरा देख कर कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता कि कभी यह शहर इतना गंदा भी रहा होगा। इससे साफ जाहिर है कि प्रशासनिक अधिकारी और स्थानीय जनता मिलकर यदि प्रयास करें तो अपने शहर को साफ कर सकते हैं। इस लेख लिखने का मकसद भी यही है कि जिन-जिन प्रांतों में यह लेख पढ़ा जाता है, उन प्रातों के नगरवासी नैनीताल से प्रेरणा लें कर अपने व्यापार मंडल और नगरपालिका के एक-एक प्रतिनिधि को नैनीताल भेज कर पूरी व्यवस्था को समझें और अपने यहां लागू करें।
ऐसा नहीं है कि नैनीताल में सब कुछ सर्वोच्च कोटि का है। कुछ बातें वहां भी पर्यटकों को अखरती हैं। मसलन, मिनरल वाटर की बोतलें, बिस्कुट, चाॅकलेट व जूस जैसे खाने के सामानों के रंगीन पैकेट और पान मसाले के पाउच, आज भी नैनीताल और उसकी आसपास की पहाडि़यों पर बदनुमा दाग की तरह पड़े दिखाई दे जाते हैं। इस संबंध में नैनीताल की नगरपालिका को भी एक प्रयोग करनी चाहिए जिससे यह समस्या दूर हो सके। उन्हें चाहिए कि वे मिनरल वाटर बेचने वाली कंपनियों को इस बात का नोटिस दें कि वे अपने उत्पादों के कचड़े को उठाने की व्यवस्था स्वयं करें। ये कंपनियां पीने का पानी बेच कर अरबों रूपए कमा रही हैं और देश की पर्यावरण पर भार बनती जा रही हैं। इस संदर्भ में अमरीका का वह उदाहारण सार्थक रहेगा जिससे कोका कोला कंपनी ने ये पहल की थी। वहां कोका कोला कंपनी ने यह विज्ञापन दिए कि जो कोई भी नागरिक या बच्चा कोका कोला के दस खाली कैन (डिब्बे) लाकर वितरक के काउंटर पर देगा उसे एक भरा कैन मुफ्त मिलेगा। इसी तरह  जिन कंपनियों के उत्पादन आज नैनीताल में कचड़ा फैला रहे हैं उनको भी प्रेरित किया जा सकता है कि वे भी कुछ ऐसे ही स्कीम चला कर हिमालय की इन चोटियों को गंदा होने से बचाएं। जो कंपनी सहयोग न करे उसके उत्पादनों की बिक्री को नगरपालिका प्रतिबंधित कर दे या स्थानीय नागरिक उसका बहिष्कार कर दें। इस तरह नगरपालिका बिना अतिरिक्त आर्थिक भार बढ़ाए अपने पर्यावरण को साफ रख सकेगी। ऐसा ही प्रयोग देश के अन्य शहरों में भी किए जा सकते हैं।
दूसरी जो बात नैनीताल में खलती है वो ये कि वहां की लोकप्रिय और सबसे ज्यादा भीड़ वाली माॅल रोड पर 24 घंटे कारों की आवाजाही लगी रहती है। इनमें से ज्यादातर कारें सरकारी हाकिमों की होती हैं।  इससे सैलानियों और स्थानीय नागरिकों को बेहद तकलीफ होती है। अब से कुछ वर्ष पहले तक इस सड़क पर वाहनों का आना-जाना प्रतिबंधित था। इतना ही नहीं आजादी के पहले तो इस सड़क पर भारतीय लोगों का भी चलना प्रतिबंधित था। केवल अंग्रेज इस पर घूमा करते थे और सड़क के शुरू में एक तखती टंगी रहती थी जिस पर लिखा होता था कि भारतीय लोगों और कुत्तों का प्रवेश निषेद।आजादी मिली तो इस अपमानजनक प्रतिबंध से भी छुट्टी मिली पर आजादी का मतलब ये तो नहीं की हमें अपने परिवेश से मनमानी करने की छुट मिल जाए ? ये तो साझी धरोहर है। जो आज हमे सुख दे रहे हैं कल आने वाली पीढि़यों को सुख देगी। बशर्तें की हम इसका समूचित संरक्षण कर सकें।
आज जब चारों ओर निराशा के बादल छाएं हैं राजनैतिक दल जोड़तोड़ में लगे रहते हैं। प्रशासनिक व्यवस्थाएं फिजूलखर्ची की मार से बेदम होती जा रही हैं ऐसे में सूरत और नैनीताल जैसे सफल प्रयोग आशा की किरन बन कर आती है। और वो प्रेरणा देते हैं हम सबको कि अभी भी सब कुछ नहीं लुटा जो बाकी हैं उसे भी अगर बचा लोगे तो खुद तो सुखी होगे ही तुम्हारी आने वाली पीढियां भी सुख पाएगी। व्यवस्था में दोषों का बखान करना सरल हैं पर व्यवस्था बना कर उसे चलाना बहुत दुष्कर। नैनीताल के नागरिक तो बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने अपने शहर की खूबसूरती बढ़ाने में इतना सहयोग किया पर साथ ही यह चुनौती उन सभी शहरों के लिए हैं जो गंदगी के ढेरों के बीच नरकीय जीवन जी रहे हैं, इस उम्मीद में कि कभी कोई मसीहा पैदा होगा और वो उन्हें उनके चारों तरफ की गंदगी से निजात दिलाएगा। ऐसे ख्याली पुलाव पकाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है।