पिछले दिनों तीन प्रमुख घटनाएं हुई जिन्होंने देश को झकझोरा। एक तो मौलाना आजाद मेडिकल कालेज की छात्रा के साथ राहुल नाम के एक किशोर ने बलात्कार किया, जोकि झुग्गी-झोपड़ी का रहने वाला है। दूसरा, सिरसा में एक पत्रकार की हत्या की गई जो वहां के डेरा सच्चा सौदा नाम के ‘आश्रम’ में हो रहे कथित व्यभिचार और भ्रष्टाचार की खबरें छापता रहा था। तीसरा, तहलका कांड की जांच कर रहे न्यायमूति श्री वेंकटस्वामी के मामले में उठे विवाद पर भाजपा के पूर्व कानून मंत्री अरूण जेटली का यह बयान कि न्यायपालिका से जुडे़ व्यक्तियों के बारे टिप्पणी करते समय विपक्ष संयम बरते। यूं तो देखने में ये तीनों ही घटनाएं अलग-अलग दिखाई देती है पर इनमें भारी समानता है। ये घटनाएं भारतीय समाज में तेजी से आ रहे नैतिक पतन और चारित्रिक दोहरेपन की परिचायक है। इन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
किसी भी महिला के साथ बलात्कार करना या उसकी अस्मिता पर हमला करना घृणित कार्य है। इसलिए मौलाना आजाद मेडिकल कालेज दिल्ली की छात्रा के साथ बलात्कार के सवाल पर राजधानी में जो बवंडर मचा वो जायज है। ऐसे बलात्कारियों को देश के कानून के मुताबिक सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। पर यहां कई प्रश्न पैदा होते हैं। क्या देश का मीडिया, सांसद और बुद्धिजीवी देश में हर दिन हो रहे सैंकड़ों बलात्कारों के संदर्भ में इतनी ही तत्परता से शोर मचाते हैं, अगर नहीं तो क्यों नहीं ? अगर ऐसा ही शोर हर बलात्कार पर मचाते तो शायद ऐसे अपराधों की संख्या में कमी आ सकती थी। इस देश में करोड़ों आम महिलाओं की अस्मिता से हर रोज खिलवाड़ होता है। जिसकी खबर तक नहीं छपती, जब तक कि ऐसे हादसे की शिकार कोई महिला बागी बन कर बंदूक न उठा ले या फिर उस हादसे से किसी राजनैतिक दल को फायदा न होता हो। दूसरी तरफ देश का मीडिया उस पांच सितारा संस्कृति को करोड़ों देशवासियों को परोसने में जुटा है जिसमें अश्लीलता, व्यभिचार और उपभोक्तावादी जीवनशैली उच्च वर्ग का हिस्सा बन चुके हैं। जहां रइसों के फार्म हाउसों में आए दिन अश्लीलता का खुला नाॅच होता है और उसकी रंगीन फोटो राजधानी के बड़े अखबारों में प्रमुखता से छपती है या फिर कभी-कभी जेसिका लाल जैसे कांड भी हो जाते हैं।
राहुल को तो सजा मिलनी ही चाहिए पर जरा उस किशोर की मनःस्थिति के बारे में भी सोचिए जो अपनी 100 वर्ग फुट की झुग्गी में गंदगी और बीमारियों के समुद्र के बीच अभावों में पल रहा है। जिसे न शिक्षा मिली न रोजगार। जो रोज वर्दीधारी पुलिस वालों के अनैतिक आचरण का साक्षी है। जिसके आगे सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा है। जो ये देखता है कि बड़े अपराध करने वाले सफेदपोश न तो कानून के गिरफ्त में आते हैं और न ही न्यायपालिका उन्हं सजा ही देती है। जो ये देखता है कि जितने बड़े अपराध उतना ज्यादा ऐशो-आराम। ऐसा किशोर बलात्कार तक ही सीमित नहीं रहेगा। वो चाकू भी मारेगा। डाके भी डालेगा और हत्या भी करेगा। इसमें नया क्या है ? अपराध विज्ञान के विशेषज्ञ ऐसे अपराधियों की मानसिकता पर सैकड़ों शोधग्रंथ लिख चुके हैं। झुग्गियों में रहने वाले भूखे-नंगे इन किशोरों की आपराधिक प्रवृत्ति पर पांच सितारा होटलों में आए दिन सेमिनार किए जाते है। पर उससे बदलता क्या है? बदल सकता भी नहीं, क्योंकि समस्या ये किशोर नहीं, समस्या वह व्यवस्था है जो इन्हें सामान्य जीवन जीने से वंचित कर रही है। जब तक हम रोग की जड़ में नहीं जाएंगे उसके लक्षणों के निदान से कुछ भी नहीं होने वाला है।
उधर, सिरसा में पत्रकार की हत्या में पुलिस ने जिन लोगों को पकड़ा है, उनका कहना है कि इस हत्या के लिए हथियार उन्हें डेरा सच्चा सौदा के आदमियों ने मुहैया कराए थे। स्थानीय नागरिकों का कहना है कि यह पत्रकार लगातार डेरा सच्चा सौदा के खिलाफ खबरें छापता रहा था। उसकी हत्या किसने करवाई इसकी सच्चाई तो जांच के बाद ही सामने आएगी। इसलिए डेरा सच्चा सौदा के खिलाफ कोई भी आरोप लगाना अभी उचित नहीं होगा। इस घटना को फिलहाल भूल भी जाए तो भी एक अहम सवाल सामने आता है और वह यह कि ऐसा क्यों है कि भगवत भक्ति, सदाचार, सादगी, नैतिकता, त्याग, तप, सच का उपदेश देने वाले आत्मघोषित संत परम वैभव में जीवन यापन करते हैं ? उनका आचरण किसी राजा-महाराजा से कम नहीं होता। बिना आयकर दिए वे अकूत दौलत के स्वामी होते हैं। मर्सीडीज गाडि़यों के काफिले में चलते हैं। ‘हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश, अपयश, विधि हाथ’ का उपदेश देने वाले ये ‘संत’ अपने शिष्यों से तो कहते हैं कि निर्भय बनों। ईश्वर की इच्छा के बिना कोई तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। पर खुद बंदूकधारी अंगरक्षकों के साए में चलते हैं। शायद उनके मन में डर होता है कोई ईष्यावश उनकी हत्या करके उनकी गद्दी और दौलत न हथिया ले। ऐसे मठांे में विशेष प्रयास करके करके बड़े नेताओं, अफसरों व मशहूर लोगों को अमंत्रित किया जाता है, उनका भारी सत्कार किया जाता है। ऐसे ‘महंतों’ की इच्छा रहती है कि वीवीआईपी उनके चरण छुएं। जिसकी फोटो खंींच कर चेले उनका प्रचार कर सकें ताकि उनका कारोबार फलफूल सके। नए-नए लोग उनके मोहजाल में फंसते जाएं। सच तो यह है कि आध्यात्मिकता की पहली शर्त है भौतिकता से विरक्ति। ज्यों-ज्यों मनुष्य आध्यात्मिकता की ओर बढ़ेगा त्यों-त्यों उसे नाम, पद, परिवार, वैभव और प्रतिष्ठा के प्रति अरूचि होती जाएगी। सच्चे संत की पहचान है जिसका मन केवल प्रभु चरणों में लीन हो। उसके लिए न तो संप्रदाय की दीवारें शेष रह जाती हैं न शिष्यों का आकर्षण। मान, वैभव और सुख-सुविधा तो उसे कांटों की शैया लगने लगता है। प्रभु भी ऐसे ही भक्त को अपनाते हैं। पर आज उल्टा हो रहा है। इसके लिए जनता भी जिम्मेदार है। वह सच्चे संतों की तलाश नहीं करती। जिसका होर्डिंग जितना बड़ा होता है। जो जितने ज्यादा पैसे खर्च करके अपने रंगीन पोस्टर शहर में चिपकवा लेता है। जो खुद पैसे खर्च करके धार्मिक टीवी चैनलों पर रोजाना अपने प्रवचन करवाता है। जो वैभव में डूबा रहता है। जो प्रभावशाली प्रवचन करके जनता को प्रभावित करने की कोशिश करता है। चाहे उसकी कथनी और करनी में कितना ही भेद क्यों न हो। जो महलनुमा भवनों मे सब ऐश्वर्यों से परिपूर्ण होकर रहता है। ऐसे ढोंगी ‘संतो’ को ही आज समाज में मान, सम्मान मिल रहा है। सच्चे संत तो मीरा जैसे होते हैं जिन्हें जब प्रभु की लगन लगती है तो महलों का ऐश्वर्य भी रोक नहीं पाता। ध्रुव महाराज जैसे होते हैं। जो बचपन में ही महल छोड़कर जंगल में तप करने निकल जाते हैं। संत नानक, कबीर और रैदास जैसे होते हैं जो आम जनता के बीच उसकी तरह ही रह कर उत्पादन भी करते हैं और पूरे समाज का आध्यात्मिक उत्थान भी करते हैं। जिनके दिव्य वचनों की ज्योति सदियों तक लोगों के हृदय में प्रकाशित रहती है। ऐसे संत आज भी हैं पर उन्हें खोजना पड़ता है। उन्हें पाने के लिए अपना जीवन शुद्ध और सात्विक करना होता है। ऐसे संत चाहें तो हमारी भौतिक स्थिति को एक दृष्टिपात से कहीं का कहीं पहुंचा दें। पर वे हमारा आध्यात्मिक कल्याण चाहते हैं। इसलिए वे हमें पुत्र, धन, यश या पद की प्राप्ति का आशीर्वाद नहीं देते बल्कि हम पर कृपा करके हमारी कमजोरियों का शोधन करते हैं। कहते हैं जिसका जैसा स्तर होता है उसे वैसा ही गुरू मिलता है। जिसे भौतिक सुख-सुविधाओं की कामना है उसे महलों में रहने वाले आत्मघोषित गुरू मिलेंगे और जिसे प्रभु की प्राप्ति की कामना है उसे विरक्त संत मिलेंगे। यह भी कहते हैं जहां भी धन और शक्ति का केंद्रीयकरण होगा वहां अपराध और व्यभिचार होगा ही। दुर्भाग्य से आज देश में धर्म के नाम पर लोगों को मूर्ख बना कर व्यभिचार के अड्डे बड़ी तेजी से पनप रहे हैं पर जनता इनती भोली है कि जब तक खुद धोखा नहीं खाती उसकी समझ में नहीं आता।
तीसरी, घटना न्यायमूर्ति वेंकटस्वामी के इस्तीफे से जुड़ी है, जो उन्होंने विपक्ष के दबाव में दिया। न्यायमूर्ति वेंकटस्वामी की नियुक्ति सरकारी पद पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश की संस्तुति पर हुई यह सही है। पर न्यायपालिका के आचरण पर टिप्पणी न करने की श्री जेटली के सलाह का कोई नैतिक आधार नहीं है। श्री जेटली ने कानून मंत्री के पद पर रहते हुए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश के अनैतिक आचरण पर पर्दा डालने का काम किया था। खुद बाद के मुख्य न्यायघीश एसपी भरूचा ने माना कि उच्च न्यायपालिका में भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है यानी उच्च न्यायपालिका के भी कुछ सदस्यों का आचरण संदेह से परे नहीं है। ऐसे में न्यायपालिका पर टिप्पणी न करने की सलाह देकर श्री जेटली समाज में कौन से मूल्यों की स्थापना करना चाहते है ? सच्चाई तो यह है कि न्याय व्यवस्था के लचरपन के कारण आज समाज में हताशा बढ़ती जा रही है। न्याय पालिका के सदस्य कोई आध्यात्मिक जगत से अवतरित हुए देव पुरूष तो है नहीं, वे भी सामान्य मनुष्य हैं। उनका चयन किसी पारदर्शी परीक्षा प्रणाली से तो होता नहीं । उनसे पूरी तरह पारदर्शी आचरण की अपेक्षा करना मूर्खता होगा। इसलिए आज सबसे ज्यादा जरूरत न्यायपालिका की गुणवत्ता सुधारने की है। कहावत है, ‘एक के साधे सब सधे।’ अगर बीएमडब्ल्यू कार से सड़क पर आम लोगों को कुचलने वाला रईसजादा इस न्याय व्यवस्था में सजा पा लेगा, आतंकवादियों के आर्थिक स्रोतों को छिपाने वाले पुलिस अधिकारी अगर तरक्की की जगह दंड भोगेंगे, अपराधी राजनीति में सफल नहीं होंगे, राजनीति समाज और राष्ट्र के निर्माण के लिए समर्पित होगी और न्यायपालिका वास्तव में पंच परमेश्वर जैसा आचरण करेगी तभी इस बात की संभावना होगी कि राहुल बलात्कार करने की हिम्मत न करे। समाज की कुरीतियों पर प्रहार करने वाले पत्रकार की हत्या न हो। संसद का समय फालतू में बर्बाद न होकर असली मुद्दों पर केंद्रित हो और लोग न्यायपालिका पर टिप्पणी करने से बचें।
लोकतंत्र की संस्थाओं का जिस तेजी से नैतिक पतन हो रहा है उसके चलते जो कुछ सामने आ रहा है वह तो अभी ट्रेलर मात्र है। अगर हमारे गिरने की गति इतनी ही तीव्र रही तो घोर कलयुग के लक्षण हर गली मोहल्ले में दीखने लगेंगे। सब ओर अराजकता का साम्राज्य होगा और तब नक्सलियों व आतंकवादियों की बंदूके व्यवस्था को नियंत्रित करेंगी।
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