Friday, December 20, 2002

राजनीति में धर्म हो: धर्म में राजनीति नहीं

धर्म और राजनीति के संबंध को लेकर भारत में बहुत भ्रांति चल रही है। मुट्ठी भर लोग हैं जो धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहते हैं । वे अपने को अनेक नामों से पुकारते हैं। मसलन धर्मनिरपेक्ष। दूसरा विशाल समूह मानता है कि धर्मविहीन जो भी सत्ता होगी वो दानवी होगी। इसमें भी दो श्रेणी के लोग हैं। एक तो वो जो स्वयं अधर्म का आचरण करते हैं और धर्म के नाम पर द्वेष और अशांति पैदा करते हैं। इसी श्रेणी में दूसरे वे लोग हैं जो ईमानदारी से एक आध्यात्मिक समाज की स्थापना करना चाहते हैं जैसी पांच सौ वर्ष पूर्व भक्ति युग के महान् संतों ने कोशिश की थी। जिनमें श्रीचैतन्य महाप्रभु, कबीर, नानक, तुकाराम और सूफी संत प्रमुख हैं। तबके हालात में इनसे समाज को बहुत शंाति व सुख मिला। क्योंकि तब भी भ्रष्ट शासकों ने आज जैसे ही हालात पैदा कर दिए थे।

पहली श्रेणी में जो भी लोग हैं यानी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग उन्होंने अपने कारनामों से सिद्ध किया है कि उनकी धर्मनिरपेक्षता तो वास्तव में अपने विरोधियों को सत्ता से दूर रखने के लिए एक औजार मात्रा है। इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों में जितनी साम्प्रदायिकता, जातीयता, क्षेत्राीयता है उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। क्या वजह है कि पिछले 50 वर्षों में धर्मनिरपेक्षता का ढि़ंढोरा पीटने वाले बुद्धिजीवियों, नेताओं और अफसरों के रहते देश में धर्मांधता व साम्प्रदायिक हिंसा इतनी तेजी से बढ़ी कि पिछले सारे रिकार्ड तोड़ दिए। मजेदार बात ये है कि धर्मनिरपेक्षता का बैनर लेकर चलने वाले बहुत से लोग खुलेआम अपनी धार्मिक भावनाओं का भी प्रदर्शन करते आए हैं । यहां तक कि कम्युनिस्ट सरकारों के मंत्री व मुख्यमंत्री तक भी चुनावी अभियान की शुरूआत किसी मंदिर में सार्वजनिक पूजा करने के बाद ही करते हैं । क्यों ? इसलिए कि धार्मिक भावनाएं भारत के लोगों में बहुत गहरी व्याप्त है। किंतु राजाश्रय या उचित मार्ग दर्शन के अभाव में हीरे और कंकड़ आपस में मिल गए हैं। ये हीरे हंै जिन्होंने इतनी उठा-पटक, दानवी राज शक्तियों, वीभत्स भ्रष्टाचार, व्यापक शोषण और लूट के बावजूद आज तक भारतीय समाज को टिकाए रखा है। ये कंकड़ हैं जो समाज को अनचाहे ही स्वार्थी व सत्ता-लोलुप नेताओं के भड़काने पर अवांछित संघर्ष की आग में झांेक देते हैं। अंत में समाज का बहुसंख्यक हिस्सा इन नेताओं द्वारा बार-बार ठगे जाने के कारण घाटे में रहता है। इसलिए अब राजनीति में धर्म की भूमिका की और उपेक्षा करना देश और समाज के लिए घातक ही होगा।

यदि ऐसा नहीं किया गया तो राष्ट्र घाटे में रहेगा। क्योंकि जो दूसरा वर्ग है, जो उन लोगों का है, जो लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़का कर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकते हैं। समाज में अंधविश्वास, जातिवाद और साम्प्रदायिकता व संकीर्णता फैलाने के काम में जुटें हैं। इनके कारण कुछ लोगों में यह भ्रम पैदा हो रहा है कि धर्म पर आधारित राजनीति से देश का नुकसान होता है।

दरअसल आज जरूरत इस बात की है कि आम आदमी की धर्म के बारे में भ्रांतियों को दूर किया जाए। उसमें हर धर्म के प्रति या कम से कम अपने धर्म के प्रति गहरी समझ पैदा की जाए। सरकार में बैठे स्वार्थी तत्व ये कभी नहीं करेंगे। क्योंकि इससे उनकी ‘बांटो और राज करो’ की साजिश को खतरा पैदा हो जाएगा। यह काम तो जागरूक नागरिकों को ही करना होगा। इस काम के लिए पहले हर धर्म के ऐसे लोग चुने जाएं जिनमें अपने धर्म की गहरी समझ हो। जिनका जीवन उनके प्रवचनों से मेल खाता हो। आज देश में धर्म की दुकानदारी करने वालों की भी एक लंबी जमात पैदा हो गई है। इसलिए सही-गलत की पहचान भी मुश्किल काम है। पर निर्मल हृदय और आध्यात्मिक समझ वाले लोगों की पारखी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं। ऐसे आध्यात्मिक संत जनों को ढूंढा जाए जिनकी शिक्षाओं से उनके अनुयायिओं के जीवन में प्रशंसनीय बदलाव आया है। ऐसे सभी संत जनों से फिर राष्ट्र की रक्षा के लिए समाज का मार्ग निर्देशन करने की याचना की जाए। उनके मार्ग निर्देशन में देश के सभी धार्मिक स्थलों के जीर्णोद्धार का काम शुरू किया जाए। मसलन सामूहिक प्रयास से इन स्थानों की साज-सफाई की व्यवस्था की जाए। हर धार्मिक स्थान में समाज के गरीब वर्ग के लोगों के लिए दोनों वक्त मुफ्त भोजन की व्यवस्था की जाए। जिसके खर्चे का भार उस धर्म के धनी लोग वहन करें। यह असंभव नहीं है। सारे देश के गुरूद्वारों में यह होता ही है। इस प्रकार समाज के लोगों में पारस्परिक सद्भाव तो बढ़ेगा ही, सामूहिक समस्याओं पर सामूहिक समझ भी पैदा होगी।

शास्त्रों में कहा गया है कि जिस राष्ट्र में शासक अधर्मी होता है, वो राष्ट्र अपनी प्रजा समेत नष्ट हो जाता है।

यत्र त्वेते परिधासाज्यन्ते वर्णदूषकाः।
राष्ट्रिके तदराष्ट्रं क्षिप्रमेव विनाशयति।।

गीता का सांख्ययोग भी जिस धर्म की परिभाषा देता है वो समाज और व्यक्ति को व आत्मा और परमात्मा को आपस में जोड़ता है। विज्ञान से तकनीक पाई जा सकती है, भौतिक उपलब्धियां हो सकती हैं मगर समाज की गति नहीं बदलती। विज्ञान को भी इसीलिए धर्म की बहुत जरूरत है। अल्बर्ट आइंस्टीन और एल्फ्रेड नोबल जैसे वैज्ञानिक तक इसे स्वीकार करते है।

धर्म और समाज दोनों आदि काल से एक दूसरे से संबद्ध चले आ रहे हैं। इनमें से किसी को अलग नहीं कर सकते। हमारे यहां प्राचीन काल से आज तक जितने भी नीति के ग्रंथ और शास्त्र लिखे गए हैं, सब में समान रूप से धर्मगत और समाजगत आचार की मान्यता और प्रमाणिकता बताई गई है। हमारे देश में धर्म ने समाज को और समाज ने धर्म को बहुत गहराई और व्यापक रूप में प्रभावित किया है। धर्म और समाज के बीच यह आपसी निर्भरता भारत में अन्य देशों की अपेक्षा अधिक मिलेगी।

आमतौर पर किसी भी देश अथवा समाज का इतिहास कुछ विशिष्ट चुने हुए व्यक्तियों के कार्यकलाप, उनकी सफलता अथवा असफलता का वर्णन ही होता है। इसमें प्रायः शेष समाज की गतिविधियों का चित्रण अप्रत्यक्ष रूप से ही होता है। इसलिए पूरे समाज के जीवन को आंदोलित करने वाली बलवती शक्तियां हमारी आंखों से ओझल हो जाती हैं। जिनके कारण व्यक्तित्व का निर्माण होता है, नए मूल्य बनते हैं, पुराने रूढ़ और जर्जर मूल्य ध्वस्त होते हैं। पर इनसे यह बात तो साफ होती ही है कि यदि समाज में सभी लोग अपने-अपने धर्म का पालन करें, तो सारा समाज सुखी और समृद्ध बन जाएगा। ऐसा पूर्ण रूप से कभी न हो पाया और आज भी ऐसा नहीं हो रहा है। पर जब कभी समाज के बहुसंख्यक लोग धार्मिक व आध्यात्मिक हुए तो समाज ने, राष्ट्र ने आर्थिक, सांस्कृतिक व तकनीकी उन्नति की है। उसे उस समाज का स्वर्ण युग माना गया। आज धर्म का स्थान गौणातिगौण हो गया है। इसलिए सुख और समृद्धि भी गूलर का फूल हो गई है। समाज में कुछ स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ के लिए सभी साधन सामग्री का संचयन करके अपने गोदाम में रख देते हैं। अपना धर्म निभाते नहीं। वे सबल बन जाते हैं। निर्बलों पर उनका दबाव रहता है। वे मनमाने दाम बढ़ाते हैं। मनमाने कर लगाते हैं। सज्जनों तथा सदाचारी लोगों के मार्ग में हर कदम पर रोड़े अटकाते हैं। ऐसा न हो इसलिए धर्म पर आधारित बुद्धि के विकास की आवश्यकता है। तभी समाज की व्यवस्था में सुधार होने की संभावना है।

समाज के सामने आत्मज्ञान और अभेद दर्शन का आदर्श रहे। वैयक्तिक और सामूहिक जीवन का मूल मंत्र संघर्ष की जगह सहयोग हो। सबको अपनी योग्यताओं के अनुसार विकास का अवसर मिले। यदि ऐसी व्यवस्था हो, तो धर्म को स्वतः प्रोत्साहन और सुरक्षा का वातावरण मिल जाएगा। इसके साथ ही यह भी आप ही होगा कि जिन लोगों की बुद्धि फिलहाल धर्म पर आधारित नहींे है। यानी अभी सद्बुद्धि नहीं है, वे समाज की बहुत क्षति न कर सकेंगे।

समाज में न्याय और सत्य का आचरण सामूहिक रूप में कार्यान्वित हो जाना चाहिए। तभी समाज श्रेष्ठ होगा। इससे धर्म की रक्षा होगी। कबीर का कहना था कि जीवन धर्म और अधर्म के बीच एक समझौता है। धर्म संपूर्ण जीवन पद्धति है। धर्म जीवन का स्वभाव है। धर्म ज्ञान और विश्वास में नहीं, आचरण में बसता है। यदि हम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं तो इस विश्वास का सबूत हमारे आचरणों में मिलना ही चाहिए। पूजा और अनुष्ठान की विधियां धर्म के बाह्यरूप है। मंदिर और मस्जिद, तीर्थव्रत, रोजे और पंडे तथा पुरोहित की प्रथा, ये धर्म के ढकोसले हैं, यदि ये मानव की वृत्ति न बदल सकंे। सच पूछो तो सभी धर्म एक है। धर्म की साधना का स्थान मंदिर या मस्जिद में ही नहीं, बल्कि वे सारी जगहें भी हैं, जहां मनुष्य स्वच्छ हृदय से निस्वार्थ हो कोई काम करता है। कुछ विद्वानों का कहना है कि मध्यकालीन समाज मोक्ष और मुक्ति के पीछे दौड़ रहा था।

आधुनिक समाज मनुष्य की महिमा पर जोर दे रहा है। अगला कदम सामूहिक मुक्ति का है- सब प्रकार के शोषणों से मुक्ति का। अगली मानवीय संस्कृति मनुष्य की समता और सामूहिक मुक्ति की भूमिका पर खड़ी होगी। इतिहास के अनुभव इस सिद्धि के साधन बन कर कल्याणकारी और प्रेरणाप्रद हो सकते हैं।समाज का संघठन धर्ममूलक होना अनिवार्य है। समय के साथ धर्म के ऊपरी रूप बदलते रहते हैं। परंतु उसके मूलतत्व अटल रहते हैं। जो काम ईश्वर को कंेद्र में रखकर हो, पारस्परिक सहयोग वर्धक हो, वह धर्म है। जो काम अपनी संकुचित ‘‘स्व’’ पर केंद्रित रहता है, वह अधर्म है। जिस समाज में कोई जन्म के कारण ऊंचा, कोई जन्म के कारण नीचा न माना जाएगा और अयोग्य व्यक्ति कुल के आधार पर ऊंचे पद से न जाएगा, जिस समाज में तप, त्याग, आदर्श, मूल्यों और विद्या का स्थान सर्वोपरि होगा, वह समाज धर्म की नींव पर खड़ा है। वहां फिर प्रजा दुखी नहीं होगी।

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