सर्वोच्च न्यायालय की एक संवैधानिक पीठ ने वकीलों की हड़ताल पर पाबंदी लगा दी है। उन्हें किसी भी कीमत पर हड़ताल करने नहीं दी जाएगी। अपरिहार्य परिस्थितियों में जब ऐसा करना जरूरी हो तो वे जिला जज या मुख्य न्यायधीश की अनुमति से एक दिन की हड़ताल पर जा सकते हैं। 16 दिसंबर 2002 को आए इस निर्णय के बावजूद ‘बाॅर काउंसिल आफ इंडिया’ के आह्वाहन पर 17 दिसंबर, 2002 को वकीलों ने देशव्यापी हड़ताल की।
सर्वोच्च न्यायलय का मानना है कि कानून की सेवा अनिवार्य सेवाओं के अतंर्गत आती है इसलिए इस सेवा में लगे लोगों को हड़ताल पर नहीं जाना चाहिए। बल्कि आधी रात भी लोगों को न्याय दिलाने के लिए तत्पर रहना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से यह बात सही है कि वकील, डाक्टर, पुलिस, बिजली, पानी, टेलीफोन, सफाई जैसे विभागों को हड़ताल पर जाने की छूट नहीं होनी चाहिए। क्योंकि इससे जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। अराजकता फैलती है और आम आदमी को भारी तकलीफ का सामना करना पड़ता है। चूंकि हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है और राष्ट्रपिता ही हमको सत्याग्रह, हड़ताल और धरने देना सिखा गए हैं इसलिए हर हिंदुस्तानी हड़ताल को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। पूरे देश में हजारों जगह हड़ताल धरने और सत्याग्रह चलते रहते हैं। बंगाल इस मामले में सबसे आगे है। जिसका नतीजा है आज बंगाल आर्थिक प्रगति में काफी पिछड़ गया है। अपने काम की दशा से संतुष्ट न होने पर विरोध कराना तो एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है जिसे नकारा नहीं जा सकता। पर हमारे देश में हड़ताल कामचोरों का कवच बन गई है। अक्सर बेतुके मुद्दों पर भी हड़ताल हो जाती है और कई दिन चलती रहती है। अंत में इससे किसी को लाभ नहीं होता सिवाए मुट्ठी भर नेताओं के। पर ये नेता ही मजबूर कर देते हैं हड़ताल करने पर। हड़ताल करने का नायाब तरीका खोजा है जापान के लोगों ने। जापान के मेहनती और देशभक्त लोग भी हड़ताल करते हैं, पर सड़कों पर उतर कर नहीं। काम छोड़कर नहीं। बल्कि अपने काम को अजीब ढंग से अंजाम देकर। मसलन, अगर एक जूता बनाने वाली फैक्ट्री में हड़ताल होनी है तो उसके कर्मचारी तय कर लेंगे कि वे काम तो पूरे टाइम करेंगे और उसी तन्मयता से करेंगे पर दो पैर की जगह एक ही पैर के जूते का निर्माण करेंगे। जरा सोचिए कि अगर किसी कारखाने में एक पैर के जूते का ढेर लगता जाए तो क्या माल पैक करके बाजार में भेजा जा सकता है ? आमतौर पर जापान के कर्मचारी हाथ में विरोध स्वरूप एक फीता बांध कर हड़ताल करते हैं और वहां की व्यवस्था भी इतनी संवेदनशील है कि विरोध के इस सभ्य तरीकों को गंभीरता से लेती है और विवाद सुलझाने की कोशिश करती है।
हर आर्थिक मोर्चे पर पूरी तरह पिट रहे भारत में क्या हम जापान के उदाहारण का अनुसरण नहीं कर सकते? मसलन, अगर डाक्टरों को हड़ताल करनी हो तो वे अपने सफेद कोट की जगह पाजामा कुर्ता पहन कर अस्पताल चले आएं। वकीलों को हड़ताल करनी हो तो वे हड़ताल के दिन विरोध स्वरूप अपना ‘काॅलर बैंड’ न पहने या काला कोट उतार कर न्यायधीश के सामने जाएं। हर न्यायधीश को पता चल जाएगा कि वकील हड़ताल पर हैं। विश्वविद्यालय, कालेज या स्कूल के शिक्षकों को हड़ताल करनी हो तो वे क्लास में तो जाएं पर विषय न पढ़ाकर छात्रों की व्यक्तिगत समस्याएं सुने और उनका निपटारा करें। जब तक उनकी सुनी न जाए विरोध का यही तरीका अपनाते रहें। इससे छात्रों का उनके प्रति आकर्षण बढ़ेगा और प्रशासन व अभिभावकों को बेचैनी। यदि पुलिस वालों को हड़ताल करनी हो तो वे हड़ताल के दिन अपनी टोपी उल्टी करके पहन लें।
कहने का मतलब ये कि अगर आपको व्यवस्था से नाराजगी है और आप उसके विरूद्ध हड़ताल करना चाहते हैं तो उसका तरीका ऐसा होना चाहिए जिससे अनिवार्य सेवाओं में कोई व्यवधान न पड़े पर साथ ही आपके विरोध पर सबका ध्यान सहज खिंचा चला जाए। इस विषय पर देश में सभी कर्मचारियों और विभागों के लोगों को गंभीरता से सोचना चाहिए इससे उन्हें जनता के आक्रोश और तानों का शिकार भी नहीं होना पड़ेगा और उनके विरोध का कारण सहज ही लोगों तक पहुंच जाएगा।
जहां तक बात वकीलों के हड़ताल करने की है तो यह वाकई एक गंभीर सवाल हैं। इसलिए कि न्यायव्यवसथा इस देश के लोकतंत्र का एक अहम् खंभा है और सौ करोड जनता न्यायपालिका से न्याय मिलने की उम्मीद करती है। पर अगर उसे आए दिन वकीलों के हड़ताल के कारण न्याय मिलने में देरी हो, समय और पैसा बर्बाद हो तो जनता के लिए बहुत कष्टदाई स्थिति होगी।
सवाल उठता है कि न्यायव्यवसथा दिनोदिन असामान्य परिथतियां क्यों पैदा होती जा रही हैं? कभी उच्च न्यायलय के जज सैक्स स्कैंडल में फंस जाते हैं। कभी जमीन घोटाले में। कभी अपने बच्चों को रिश्वत देकर नौकरी दिलवाने में और कभी छूठे बिल देकर सरकार से फायदा उठाने में। यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर के महत्वपूर्ण मुकदमों में यह कह कर देश को सकते में डाल देते हैं कि उन पर इस मामले को दबाने के लिए भारी दबाव पड़ रहा है और कोई व्यक्ति उनसे लगातार मिलता रहा है। आश्चर्यजनक रूप से न तो वे उस व्यक्ति का नाम देश को बताते हैं और न उसके खिलाफ अदालत की अवमानना की कार्रवाही करते हैं। जब वहीं व्यक्ति उन्हीं जजों से अपने अवैध संबंधों की जानकारी मीडिया को देता है तो भी ये जज उसके खिलाफ मानहानी का मुकदमा नहीं चलाते क्यों ? इससे भी खौफनाक बात यह है कि भारत के मुख्य न्यायधीश ने खुल कर स्वीकारा है कि न्यायपालिका के उच्च स्तरों पर भी बीस फीसदी भ्रष्टाचार है और मौजूदा कानून उससे निपटने में नाकाफी हैं। हाल ही में बने भारत के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति वी. एन. खरे का भी एक बयान पिछले दिनों अखबार में छपा था। जिसके अनुसार उन्होंने माना था कि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार इसलिए हैं कि न्यायपालिका में लोग वकालत के पेशे से आते हैं। जब तक वकीलों में भ्रष्टाचार रहेगा तब तक न्यायपालिका में भी रहेगा। यह बात जितनी सरलता से कही गई है उतनी ही गंभीर है और खतरनाक भी। क्या यह सही नहीं है कि हर वकील अपने मुंशी की मार्फत अपने मुवक्किलों से कचहरी के कर्मचारियों को रोज रिश्वत दिलवाता है। यानी वह रिश्वत देने का जुर्म करता है। वकालत से न्यायपालिका में आया कोई भी व्यक्ति क्या ईमानदारी से यह कह सकता है कि उसनें इस तरह से रिश्वत देने में कोई भूमिका नहीं निभाई है ? अगर उत्तर ‘ हां ‘ में है तो न्यायपालिका के ऐसे सभी सदस्य अतीत में रिश्वत देने का जुर्म तो किए ही बैठे हैं। जो व्यक्ति थोड़ी सी तकलीफ न सह कर रिश्वत देकर काम जल्दी करवाने में विश्वास करता हो उससे ये कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह किसी बड़े प्रलोभन को छोड़कर पूर्ण ईमानदारी और नैतिकता से निर्णय देगा ? शायद यही कारण है कि न्यायपालिका लगातार जनता कि आलोचना का शिकार बनती जा रही है। यह गंभीर स्थिति है।
लोकतंत्र की बुनियाद न्यायपालिका पर टिकी है। उच्च न्यायपालिका को स्वायतत्ता देने के अनेक संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं। उम्मीद ये की गई थी कि न्यायपालिका के सदस्य मानवीय स्तर से ऊपर उठ कर पंच-परमेश्वर की भावना से काम करेंगे। पर जो देखने में आ रहा है वह बहुत निराशाजनक है। ऐसा नहीं है कि सभी न्यायधीश भ्रष्ट हैं पर जैसाकि स्वयं भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश ने माना है कि न्यायपालिका के उच्च स्तर पर भी भ्रष्टाचार है। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि वकीलों और जजों के बीच जो छोटी-मोटी टकराहट होती है उसका कारण कुछ इसी तरह का अनैतिक लेन-देन होता हो। क्योंकि वकील भी इस बात का दावा नहीं करेंगे कि सब निर्णय केवल तथ्यों और कानून के आधार पर ही दिए जाते हैं। ऐसे तमाम प्रमाण प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि तथ्यों को अनदेखा करके निर्णय दिए गए और वो भी राष्ट्रहित के महत्वपूर्ण मामलों पर। ऐसे में न्यायपालिका के सुधार की भी सबसे ज्यादा जरूरत है। वकीलों की हड़ताल पर प्रतिबंध लगाने से ही काम नहीं चलेगा। न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही की जरूरत आज पहले से कहीं ज्यादा महसूस की जा रही है। अदालत की अवमानना कानून को ढाल बना कर अगर न्यायपालिका अपने भ्रष्ट और अनैतिक आचरण का बचाव करती रहेगी तो इसके गंभीर परिणाम सामने आ सकते हैं। न्यायपालिका का सीधा संबंध आम आदमी से है। आम आदमी का अभी भी न्यायपालिका में विश्वास बना हुआ है। उसके मन में न्यायपालिका के प्रति सम्मान भी है। पर उसे भी तब निराशा होती है जब वह देखता है कि गरीब को न्याय नहीं मिलता और अमीर अपराध करके भी छूट जाते हैं। यदि देश के आम लोगों को न्यायपालिका के गिरते आचरण की जानकारी मिलने लगी तो उसकी आस्था इस तंत्र में नहीं बचेगी और फिर वो अपने आक्रोश को अपने तरीके से अभिव्यक्त करने को मजबूर होगा। बिहार की जातिगत सेनाएं हो या नक्सलवादी, ये पुलिस व्यवस्था के निकम्मेपन का परिणाम हैं। पुलिस ने जब गरीब की परवाह नहीं की और पैसे वालों का साथ दिया तो शोषित युवाओं ने कानून अपने हाथ में ले लिया और बंदूक उठा ली। सरकार लाख कोशिश करे पर इन जुनूनी नौजवानों से जीत नहीं पाती है। जिसने सिर पर कफन बांध लिया उसे कौन रोक पाएगा ? न्यायपालिका को इन सवालों पर सोचना चाहिए।
अदालत की अवमानना कानून को केवल अदालत की प्रतिष्ठा के लिए ही इस्तेमाल करना चाहिए। इस कानून से किसी न्यायधीश के व्यक्तिगत दुराचरण की रक्षा करना अपनी इज्जत अपने हाथ खोना है। अवश्यकता इस बात की है कि वकील और जज मिल कर इसमें बदलाव की सोंचे और कुछ पहल करें।
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