किसी भी प्राकृतिक विपदा पर इंसान का बस नहीं है। इन आपदाओं को ना तो हम नियंत्रित कर सकते हैं और ना ही किसी को दोष दिया जा सकता है। हां विज्ञान और तकनीक का प्रयोग करके कई बार थोड़ा बहुत पूर्वानुमान कई विकसित देशों में लगा लिया जाता है। इससे जान व माल दोनों की सुरक्षा करने में आसानी हो जाती है। हालांकि भारत को बाढ़, भूकंप, तूफान, सूखा जैसी प्राकृतिक विपदाओं का सामना लगभग हर वर्ष ही करना पड़ता है फिर भी राहत कार्य नियोजित ढंग से नहीं हो पाते। ऐसी आपात स्थिति पैदा होते ही अफरा-तफरी सी मच जाती है। जैसा आज गुजरात में हो रहा है या पहले उड़ीसा में आए समुद्री तूफान के बाद हुआ था।
यूं तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, गृहमंत्री आदि भूचाल के आने के बाद से ही लगातार सक्रिय हैं और राहत कार्यों को अपनी निगरानी में करवा रहे हैं। सेना के जवान और अफसर रातदिन जुट कर राहत कार्य पूरा करने में लगे हैं। उधर गुजरात के आम नागरिक भारी तादाद में राहत कार्य में हाथ बंटाने सड़कों पर उतर आए हैं। विदेशों से भी मदद पहुंचनी शुरू हो गई है फिर भी यह जरूरत से बहुत कम है। इतने बड़े क्षेत्र में इतने सारे भवन अगर अचानक भूचाल से ध्वस्त हो जाएं तो कोई भी सरकारी मशीनरी एकदम राहत नहीं पहुंचा सकती। इसलिए तीन दिन बाद तक भी हजारों लोग जिंदा या मुर्दा मलबे के नीचे दबे रहे। अस्पतालों में डाक्टरी सेवाओं की भारी कमी महससू की जाती रही। जो डाक्टर वहां मौजूद है वे रातदिन घायलांे की तीमारदारी में जुटे हैं। पर अब वे भी थकने लगे हैं। श्मशानघाटों में चिता के लिए लाइनें लगी हैं। अपने प्रियजनों को कई-कई के ढेर में भी जलाने को लोग मजबूर हुए। पीने के पानी की भारी किल्लत भी महससू की गई। यह सारी स्थिति भयावह तो है ही पर कुछ सोचने पर मजबूर करती है। एक तरफ तो हम सूचना क्रांति और आईटी जैसे न जाने कितने लंबे-चैड़े दावे करते हैं और दूसरी तरफ आपात स्थिति में फंसते ही हमारे हाथ-पांव फूल जाते हैं। ‘डिजास्टर मैनेजमेंट’ या आपदा प्रबंधन एक विशिष्ट क्षेत्र है जिसकी तरफ हमारे देश में कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। इस क्षेत्र के विशेषज्ञ पिछले 25-30 वर्षो से सरकार के पीछे पड़े हैं कि भारत आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में गंभीरता से रूचि ले। इसलिए कि भारत पर प्राकृतिक आपदा की मार अक्सर पड़ती रहती है और इसलिए भी कि भारत में आज भी आधी आबादी अशिक्षित है व नितांत गरीबी में जी रही है। ऐसे में प्राकृतिक आपदा की मार उन पर और ज्यादा पड़ती है।
जिनके घर और कारोबार ही नहीं बच्चे और परिवारजन भी गुजरात के भूचाल की बलि चढ़ गए, वे करें तो क्या करें ? जाएं तो कहां जाएं ? कैसे करें नई जिंदगी की शुरूआत ? ऐसे तमाम सवाल उनके मन में हैं जिनके समाधन देने वाले लोग उनके ईर्द-गिर्द नहीं है। यह बड़ी दुख की बात है कि सौ करोड़ की आबादी वाले मुल्क में जहां चालीस करोड़ नौजवान हैं और उनमें भी ज्यादातार बेरोजगार, फिर क्यों ऐसी आपदा के समय हम इस नौजवान सेना की मदद नहीं ले पाते ? उत्तर साफ है कि आज तक इस युवा ऊर्जा को ठीक दिशा में प्रशिक्षित करने का कोई प्रयास ही नहीं किया गया। न तो समाज की तरफ से न तो सरकार की तरफ से। जो थोड़े-बहुत सरकारी या निजी स्तर पर प्रयास हुए भी हैं, उनसे इतने बड़े देश के हर हिस्से की सेवा करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए यह और भी जरूरी है कि व्यापक स्तर पर आपात प्रबंधन के प्रशिक्षण की मुहिम चलाई जाए। मसलन, हर शहर में नौकरी या निजी प्रेक्टिस करने वाले डाक्टरों में से उन डाक्टरों की सूची तैयार की जा सकती है जो हर आपदा के समय अपनी सेवाएं देने को तैयार हैं। यदि ऐसा हुआ होता तो गुजरात का भूचाल आने के कुछ घंटों के भीतर ही देश के कोने-कोने से योग्य डाक्टरों को वायुयानों में बैठाकर गुजरात ले जाया जा सकता था। इसी तरह स्वयं सेवी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं का भी प्रशिक्षित करने की जरूरत है। ताकि विपदा के समय वे कुशलता से राहत कार्य को अंजाम दे सकें। अभी हाल में गुजरात में क्या हुआ ? स्वयंसेवी तो हजारों की तादाद में सड़कों पर राहत कार्य करने उतर आए पर किसी प्रशिक्षण के अभाव में वे घायलों की सही देखभाल नहीं कर पाए। ऐसे में उत्साह से ज्यादा जरूरत संगठन और प्रशिक्षण की जरूरत होती है। मलबों के ढेर से घायलों को खींचकर बाहर निकालने वाले प्रशिक्षण के अभाव में यह नहीं समझ सके कि उनके इस सद्प्रयास से उन घायलों को कितना कष्ट हो रहा था ? जिसका प्रमाण उनकी लगातार बढ़ती चीखें थी। अंदर फंसा व्यक्ति किसी अवस्था में है ? उसे कितनी चोट आई है ? उसकी आयु क्या है ? यह सब जाने बिना एक ही लाठी से सब भैंसे नहीं हाॅकी जा सकती। लोग यह देखकर आश्चर्य चकित रह गए कि विदेश से आई एक राहत टीम ने किस तरह खोजी कुत्तों का और सेंसर उपकरणों का प्रयोग करके यह बताना शुरू कर दिया कि किस मलवे के नीचे जिंदा लोग दबे पड़े हैं। क्या इस तरह कुत्तों को भारत में प्रशिक्षित नहीं किया जा सकता ? अगर देश भर के अनुभवी लोग, विशेषज्ञ और युवा आपात प्रबंधन के मामले में एक राष्ट्रीय स्तर का नेटवर्क तैयार कर लें तो हर ऐसी प्राकृत विपदा से जूझने वालों की एक बड़ी फौज देश में हर समय उपलब्ध रहेगी और देश के किसी भी हिस्से में आपदा आने पर इस फौज के जवान तुरंत राहत कार्य करने पहुंच सकते हैं।
इसके साथ ही कुछ बुनियादी सवाल भी खड़े हो गए हैं। सबसे अहम सवाल है कि भवन निर्माण में पूरी सावधानी का न बरता जाना। गढ़वाल के भूचाल के बाद कुछ वास्तुकारों ने वहां जाकर जब अध्ययन किया तो उन्हें इस बात पर भारी अचरज हुआ कि भूचाल में ध्वस्त होने वाले ज्यादातर भवन वे थे जिनका निर्माण पिछले बीस-तीस वर्षों में हुआ था और ये भवन आधुनिक तकनीकी से बने थे। जबकि गारे, पत्थर और लकड़ी के संयोग से बने पारंपरिक मकान यथावत खड़े रहे। अगर गिरे भी तो इस भयावह तरीके से नहीं कि जानोमाल की भारी तबाही हो। जबकि गुजरात में बनी आधुनिक बहुखंड़ी इमारतें ताश के घारों की तरह चरमरा कर गिर पड़ी। जाहिरन इनमें न सिर्फ सही मात्रा में लोहा व अन्य भवन निर्माण सामग्री लगाई गई थी और ना ही इनका बनाते वक्त भूचाल से निपटने के लिए समुचित सावधानियां बरती गई। जहां भूचाल की गति असामान्य रूप से तेज होती है वहां तो न अमीर का महल बचता है और न गरीब की झोपड़ी। पर जहां बचाव हो सकता था वहां भी नहीं हुआ, यह चिंता की बात है। जापान जैसे तमाम देश जो भूकंप के नियमित झटके झेलने के आदि हैं उन देशों ने भूचाल रोधी भवनों का निर्माण किया है। दिल्ली में हुए उपहार सिनेमा के अग्नि कांड से यह बात खुल कर सामने आई कि भवन निर्माता बिना पूरी सावधानी बर्ते ही स्थानीय प्रशासन से ‘नोआबजेक्शन’ प्रमाण पत्र प्राप्त कर लेते हैं। जिसका खामियाजा भुगतना पड़ता है निरीह जनता को। गुजरात के इस भूचाल के साथ ही बड़े बांधों का विरोध करने वाले भी फिर सक्रिय हो गए हैं। वे यह आगाह कर देना चाहते हैं कि अगर समय रहते चेता नहीं गया तो कभी ये बड़े बांध भूचाल का शिकार होकर भारी तबाही मचाएंगे। इस सब जद्दोजहद के बीच फिलहाल गुजरात के लोगों को सिर्फ राहत की जरूरत है। जिसे अपनी क्षमतानुसार वहां पहुंचाना हम सबका राष्ट्रधर्म है।
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