Monday, December 5, 2016

नोटबंदी दूसरे नजरिये से








70 के दशक में जब कुकिंग गैस का परिचय ग्रहणियों को मिला तो हर घर में एक बहस चल पड़ी कि इस गैस के चूल्हे पर खाना बनाना चाहिए या नहीं।बहुमत इसके पक्ष में था कि दाल-सब्जी तो भले ही पका लो, पर रोटी मत सेंकना। क्योंकि रोटी में जहरीली गैस चली जायेगी। पर बाद में जब ग्रहणियों को गैस पर खाना बनाने में सुविधा महसूस हुई तो इसे हर घर ने इसे अपना लिया । यह बात दूसरी है कि चूल्हे पर या तंदूर में सिकी रोटी का स्वाद गैस पर सिकी रोटी से  बेहतर होता है। पर शहरों में चूल्हे जलाना संभव नहीं होता।

1980 में जब रिचर्ड एटनबरो महात्मा गांधी पर फिल्म बनाने भारत आए तो गांधीवादियों ने सड़कों पर उनके खिलाफ प्रदर्शन किए। उनका सवाल था कि कोई अंग्रेज ये काम क्यों करे ? बाद में उसी फिल्म ने विश्वभर की नयी पीढी को गांधी जी से परिचित करवाया। फिल्म की खूब तारीफ हुई।

1985 में जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कम्प्यूटर क्रांति लाकर 21 वीं सदी में जाने की बात की तो भाजपा सहित सारे विपक्ष ने देशभर में तूफान मचा दिया और राजीव गांधी का खूब मजाक उड़ाया। आज गांव -गांव में हर नौजवान को कम्प्यूटर हासिल करने की ललक रहती है। कम्प्यूटर के आने से बहुत से क्षेत्रों में कार्यकुशलता सैकड़ों गुना बढ़ गयी है। इसी तरह जब संजय गांधी मारूति कार का विचार लेकर आये तो उनका भी खूब मजाक उड़ाया गया। बाद में उसी कार ने आटोमोबाईल्स उद्योग में क्रांति कर दी।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नोटबंदी को भी इसी परिपेक्ष में देखा जाना चाहिए। जो लोग आज विरोध कर रहे है, बहुत संभव है कि वही लोग कल इसका गुणगान करें। नोटबंदी के आर्थिक पहलुओं और बैंको के मायाजाल पर पिछले दो हफ्तों में इसी कालम में मैं दो लेख लिख चुका हूं। पर आज बात दूसरे नजरिये से कर रहा हूँ । मान लें कि मोदी जी का सपना सच हो जाए और भारत के लोग नकद पैसे का इस्तेमाल 92 फीसदी से घटाकर 20 फीसदी तक भी ले आयें, तो कितना बड़ा फायदा होगा, इस पर भी विचार कर लिया जाए।

आज जब मजदूर महानगरों से अपनी मेहनत की कमाई अंटी में खोसकर गांव जाते हैं, तो रेल गाड़ियों में लूट लिए जाते हैं। पर कल जब वे डिजिटल सुविधाओं का प्रयोग करना सीख जायेंगे तो महानगरों से खाली हाथ गांव जायेगें और अपने गांव के बैंकों से पैसा निकाल कर घरवालों को दे आयेंगे। हम शहरी लोगों को तो इससे बहुत सुविधा होगी जब बिना पैसा जेब में रखे हर काम कर सकेंगे। चाहे कहीं खाना हो, आना-जाना हो और चाहे कुछ खरीदना हो, सब कुछ बिना नकद के लेनदेन के हो जायेगा। हिसाब हर वक्त उपलब्ध रहेगा। मोदी जी ठीक कह रहे हैं कि इससे कारोबार में सबको ही बहुत सुविधा हो जायेगी। ग्रामीण अंचलों को छोड़कर।

12 वर्ष पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने मुझ पर वृंदावन के सुप्रसिद्ध बांकेबिहारी मंदिर और गोवर्धन के दानघाटी मंदिर के रिसीवर की मानद जिम्मेदारी सौंपी। उन दिनों मुझे यह जानकर बहुत अचम्भा हुआ कि मथुरा जनपद में ज्यादातर व्यापार कच्ची पर्ची से होता है। इससे मुझे बहुत परेशानी हुई और मैने जोर देकर कहा कि हमारे मंदिरों में जो सप्लाई आयेगी वह उन्हीं दुकानों से आयेगी जो पक्का बिल देंगे और चैक से भुगतान लेंगे। शुरू में मुझे अपने ही प्रबंधको का विरोध सहना पड़ा। पर सख्ती करने पर यह व्यवस्था जम गयी। वहां एक मंदिर में तो कर्मचारियों को वेतन तक नकद में मिलता था। उन्होंने मुझसे शिकायत की कि वेतन देने वाला कुछ कमीशन काट लेता है। मुझे आश्चर्य हुआ कि जिस मंदिर के प्रांगण में ही स्टेट बैंक आफ इण्डिया की शाखा मौजूद है, उसमें कर्मचारियों के बैक अकाउंट आज तक क्यों नहीं खुले? 2003 में ही मैंने सबके अकाउंट खुलवाये और उनका वेतन सीधा उनके खाते में जमा होने लगा।

इसी तरह आजकल भगवान की लीलास्थलियों के जीर्णोद्धार का जो काम ब्रज में हम बड़े स्तर पर कर रहे हैं, उसमें भी यही दिक्कत आ रही है। सीमेंट की आपूर्ति करने वाला किसी और आईटम के नाम से बिल देना चाहता है। कारण यह बताता है कि वो उस वस्तु के विक्रय का अधिकृत डीलर नहीं है इसलिए दूसरी वस्तु के नाम से बिल  देता है। मैने इसे स्वीकार नहीं किया। क्योंकि साईट पर जरूरत है 100 ईटों की पर बिल में लिखा है 1000 ईंट। क्योंकि 900 ईंट की जगह तो सीमेंट आया है। तो हम अपने खाते में कैसें इस बात को सिद्ध करेंगे कि हमने 100 की जगह 1000 ईंट लगाई। सारा घालमेल हो जायेगा। पक्के बिलों और चैक के भुगतान से इस समस्या का हल हो जायेगा। जो खरीदो बेचो उसी का बिल बनाओ। इसी तरह टोल बैरियर हो या रोजमर्रा की खरीददारी, हमारी आधी उर्जा तो फुटकर मांगने और देने में निकल जाती है। अगर आनलाइन ट्रांस्फर होगा तो चिल्लर की जरूरत ही नही पड़ेगी।

तुर्की के राष्ट्रपति मुस्तफा कमाल पाशा ने जब दकियानुसी तुर्क समाज को आधुनिक बनाने की कोशिश की तो उनका भारी विरोध हुआ। वे चाहते थे कि उनके कबिलाई समाज अरबी- फारसी की लिपि को छोड़कर अंग्रेजी सीख जायें और दुनिया से जुड़ जाये। लड़कियां लड़के साथ-साथ पढ़ें। उनके शिक्षा मंत्री ने कहा कि यह असंभव है कि निरक्षर जनता, खासकर महिलाएं बुर्के के बाहर आकर शिक्षा ग्रहण करें। मंत्री महोदय का आंकलन था कि इस काम में कई दशक लग जायेंगे। पर कमाल पाशा कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने खुद ही गांव-गांव जाकर साक्षरता की क्लास लेना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि 2 वर्ष में ही तुर्की के लोग अंग्रेजी लिखने, पढ़ने और बोलने लगे। अगर सरकार समाज में  जरूरी 8 लाख करोड़ रूपये के नोट जल्दी जारी कर पाई, तभी यह योजना सफल हो पायेगी। इसके अलावा भी मोदी जी को जनता के बीच जाकर कमाल पाशा की तरह कुछ करना पड़ेगा। पुरानी कहावत है न कि ‘बिना मरे स्वर्ग नहीं दीखता।’ फिर चाहे स्वच्छता अभियान हो या बैंकिग प्रणाली का विस्तार, मोदी जी को इसे एक सतत आंदोलन के रूप में चलाना होगा। तभी देश बदलेगा।

Monday, November 28, 2016

नोटबंदी का आगा पीछा सोचकर रखने की जरूरत



नोटबंदी से पूरे देश में मची अफरातफरी की बात बार-बार दोहराने की जरूरत अब नहीं है। यह बात भी उजागर हो चुकी है कि कालेधन, आतंकवाद और भ्रष्टाचार का खात्मा करने का उद्देश्य लेकर जो नोटबंदी की गई है उसका क्या असर हो रहा है, यह काम अभी प्रक्रिया में है सो अभी कोई अच्छा या बुरा असर कहना मुश्किल है। इसे काफी देर तक देखते रहना पड़ेगा। तब इसका पता चार-छह महीने बाद ही चल पाएगा। हां, नोटबंदी की इस कार्रवाई का आगा पीछा जरूर सोचा जा सकता है। खासतौर पर यह बात कि पहले हमने क्या देखा है, क्या किया है और उसका क्या असर हुआ?
 
जिन उद्देश्यों को लेकर यह काम किया जा रहा है, उनमें कालेधन को उजागर करके अर्थव्यवस्था में शामिल किया जाना तो बहुत ही जटिल विषय है। इसके खात्मे के लिए कोई कार्रवाई तो क्या, किसी निरापद और निर्विवाद योजना को दुनिया में अभी तक कोई नहीं सोच पाया। सब कुछ भूल सुधार पद्धति से ही होता आया है और यह वैश्विक समस्या आज भी बनी हुई है। नोटबंदी का जो साहसी तीर मोदी जी ने चलाया है अगर वह थोड़ा बहुत भी निशाने पर लग गया तो उसका अनुभव अर्थशास्त्र में नया शोध होगा।

अब रही आतंकवाद और भ्रष्टाचार की बात, तो आतंकवाद पर चोट करने के लिए 23 साल पहले हवाला कारोबार के खिलाफ मैंने जो मुहिम छेड़ी थी उसके अनुभव देश के पास हैं। हवाला की मुहिम से देश दुनिया मे उठे तूफान के बावजूद देश की कोई भी सरकार आज तक हवाला के खिलाफ कोई व्यवस्था नहीं बना सकी। यह तथ्य ये निष्कर्ष निकालने के लिए काफी है कि नीयत का होना, नीति का बनाना और नीति का कार्यान्वयन होना, तीनों ही एक साथ चाहिए। नोटबंदी की मौजूदा कार्रवाई का क्रियान्वयन भी हमें यह अनुभव दे रहा है कि नीयत और नीति जरूरी तो होते हैं लेकिन काफी नहीं होते। क्रियान्वयन का भी तरीका माकूल होना चाहिए। तभी बात बन पाएगी।

अब बचती है भ्रष्टाचार की बात। यह भी जटिल विषय है। भ्रष्टाचार खासतौर पर अपनी-अपनी सत्ताओं का दुरूपयोग करके घूस खाना, टैक्स चोरी के लिए झूठे खाते बनाना, अपने मुनाफे के लिए मजदूर यानी श्रम का शोषण करना जैसे कई रूप हैं जिन्हें हम भ्रष्टाचार के ही रूप मान चुके हैं। इसके खात्मे के लिए हम तरह तरह की राजनीतिक प्रणालियां और राजनेता आजमा चुके हैं। लेकिन आज तक यह समझ में नहीं आया कि भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए कारगर तरीका है कौन सा? पांच साल पहले की ही बात है कि देश में कानूनी उपाय से भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए तूफान मचा दिया गया था। कहां तो वह तूफान गया और कहां गए वे 125 करोड़ लोग जो भ्रष्टाचार के लिए उठ बैठे बताए जा रहे ? नोटबंदी के इस गर्म महौल में हमें वे पुराने अनुभव भी क्या याद नहीं करने चाहिए? यह बात किसी निराशा के कारण नहीं बल्कि पुरानी बातों से सीख लेकर आगे बढ़ने के इरादे से कही जा रही है। चाहे इसे आज मान लें और चाहे आठ साल बाद मानें, लेकिन इसे देखना तो पड़ेगा ही।

अब एक बात और है, नोटबंदी को अपनी अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखने की। एक शिक्षित अर्थशास्त्री होने के नाते मेरी इच्छा है कि भारतीय समाज की एक सुंदर प्रवृत्ति का जिक्र कर दूं। वह ये कि भारतीय समाज की सबसे मजबूत इकाई भारतीय परिवार में महिला आज भी खर्च और आमदनी का हिसाब रखने में सबसे बड़ी भूमिका निभाती है। परिवार के अर्थशास्त्र में सरप्लस या बचत पर नजर रखने वाली वह एक अकेली ताकत है। परिवार की आमदनी में से कुछ छुपा के या दबा के वह जो बूंद-बूंद धन या सोना जमा करती है, उस पर उसे बड़ी आफत आ गई जान पड़ रही है। यह धन ठोस धन है। भावना के लिहाज से इस धन की पवित्रता पर चोट होने लगे तो यह सिर्फ भावनात्मक मुददा ही नहीं समझा जाना चाहिए। क्योंकि आड़े वक्त में यह धन ही अर्थव्यवस्था को सांस लेने लायक बनाय रखता  है। इसीलिए जब-जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं ने गोता खाया तो भारत डूबने से बच गया। आज हमारी सरकार को रोज-रोज नए-नए उपायों का एलान करना पड़ रहा है तो क्या भारतीय गृहस्वामिनी के इस धन के बारे में कोई उपाय नहीं सोचना चाहिए?

गौरतलब है कि यह वैश्विक मंदी का दौर है। आठ साल पहले की भयावह वैश्विक मंदी में उस समय के प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह ने देशवासियों से किफायत की बात कह दी थी। जबकि मंदी से निपटने के लिए सरकारों को खर्च बढ़ाने पर जोर देना होता है। उस मंदी को हम सिर्फ झेल ही नहीं ले गए थे बल्कि हमने पूरी दुनिया में अपना झंडा उंचा कर दिया था। वह चमत्कार कैसे हुआ? इसे आज तक विस्तार से समझा नहीं गया। लेकिन आठ साल बाद पूरी दुनिया में एक बार फिर से मंडराई मंदी में उस चमत्कार को समझने की जरूरत पड़ने वाली है। 

जागरूकता की बात करने वाले अर्थशास्त्र के विद्वानों को खासतौर पर यह बताने और समझाने की जरूरत है कि देश का सारा धन बाजार में ला देने से आर्थिक विकास का पहिया थोड़ी देर के लिए तेजी से तो घूम सकता है लेकिन आड़े वक्त को लेकर निश्चितता नहीं पाई जा सकती। हां अगर देश की अर्थव्यवस्था किसी भारी संकट में फंस चुकी हो और उसके बारे में हमें बताया न जा रहा हो तो बात और है। कुल मिला कर मोदी जी के इस साहसी कदम के निष्पक्ष मुल्यांकन की जरूरत है।

Monday, November 14, 2016

क्या बैंकों में जमा धन सुरक्षित है ?

 500 व 1000 के नोट निरस्त करके प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कई मोर्चो पर विजय हसिल की है। जिसकी चर्चा टीवी चैनलों और अखबारों में खूब हो रही है। नकली मुद्रा, तस्करी, आतंकवाद और कालेधन पर प्रहार करके मोदी जी ने बडे़ साहस का परिचय दिया है। अब आम लोगों से यह अपेक्षा की जा रही है कि वे अपनी सारी आमदनी बैकों में जमा करें। पर इसमें एक खतरा है। फिलहाल इस बात को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें कि देश जे 20-30 औद्योगिक घराने बैकों से लगभग 1.14 लाख करोड़ रूपये कर्ज लिये बैठे हैं, जिसे लौटाने का नाम नहीं लेते। विजय माल्या जैसे कुछ तो आम जनता की मेहनत की कमाई हड़पकर देश छोड़कर ही भाग गये। जबकि छोटा किसान थोड़ा सा भी कर्जा न दे पाने पर आत्महत्या कर लेता है। तो प्रश्न उठता है कि क्या बैंकों में जमा करने से हमारा धन सुरक्षित है?

आईआईटी दिल्ली के मेधावी छात्र रवि कोहाड़ ने गहन शोध के बाद एक सरल हिंदी पुस्तक प्रकाशित की है, जिसका शीर्षक है ‘बैंकों का मायाजाल’। इस पुस्तक में बड़े रोचक और तार्किक तरीके से यह सिद्ध किया गया है कि दुनियाभर में महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा के लिए आधुनिक बैकिंग प्रणाली ही जिम्मेदार है। इन बैंकों का मायाजाल लगभग हर देश में फैला है। पर, उसकी असली बागडोर अमेरिका के 13 शीर्ष लोगों के हाथ में है और ये शीर्ष लोग भी मात्र 2 परिवारों से हैं। सुनने में यह अटपटा लगेगा, पर ये हिला देने वाली जानकारी है, जिसकी पड़ताल जरूरी है।

सीधा सवाल यह है कि भारत के जितने भी लोगों ने अपना पैसा भारतीय या विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है, अगर वे कल सुबह इसे मांगने बैंक पहुंच जाएं, तो क्या ये बैंक 10 फीसदी लोगों को भी उनका जमा पैसा लौटा पाएंगे। जवाब है ‘नहीं’, क्योंकि इस बैंकिंग प्रणाली में जब भी सरकार या जनता को कर्ज लेने के लिए पैसे की आवश्यकता पड़ती है, तो वे ब्याज समेत पैसा लौटाने का वायदा लिखकर बैंक के पास जाते हैं। बदले में बैंक उतनी ही रकम आपके खातों में लिख देते हैं। इस तरह से देश का 95 फीसदी पैसा व्यवसायिक बैंकों ने खाली खातों में लिखकर पैदा किया है, जो सिर्फ खातों में ही बनता है और लिखा रहता है। भारतीय रिजर्व बैंक मात्र 5 प्रतिशत पैसे ही बनाता है, जो कि कागज के नोट के रूप में हमें दिखाई पड़ते हैं। इसलिए बैंकों ने 1933 में गोल्ड स्टैडर्ड खत्म कराकर आपके रूपए की ताकत खत्म कर दी। अब आप जिसे रूपया समझते हैं, दरअसल वह एक रूक्का है। जिसकी कीमत कागज के ढ़ेर से ज्यादा कुछ भी नहीं। इस रूक्के पर क्या लिखा है, ‘मैं धारक को एक हजार रूपए अदा करने का वचन देता हूं’, यह कहता है भारत का रिजर्व बैंक। जिसकी गारंटी भारत सरकार लेती है। इसलिए आपने देखा होगा कि सिर्फ एक के नोट पर भारत सरकार लिखा होता है और बाकी सभी नोटों पर रिजर्व बैंक लिखा होता है। इस तरह से लगभग सभी पैसा बैंक बनाते हैं। पर रिजर्व बैंक के पास जितना सोना जमा है, उससे कई दर्जन गुना ज्यादा कागज के नोट छापकर रिजर्व बैंक देश की अर्थव्यवस्था को झूठे वायदों पर चला रहा है।

जबकि 1933 से पहले हर नागरिक को इस बात की तसल्ली थी कि जो कागज का नोट उसके हाथ में है, उसे लेकर वो अगर बैंक जाएगा, तो उसे उसी मूल्य का सोना या चांदी मिल जाएगा। कागज के नोटों के प्रचलन से पहले चांदी या सोने के सिक्के चला करते थे। उनका मूल्य उतना ही होता था, जितना उस पर अंकित रहता था, यानि कोई जोखिम नहीं था।

पर, अब आप बैंक में अपना एक लाख रूपया जमा करते हैं, तो बैंक अपने अनुभव के आधार पर उसका मात्र 10 फीसदी रोक कर 90 फीसदी कर्जे पर दे देता है और उस पर ब्याज कमाता है। अब जो लोग ये कर्जा लेते हैं, वे भी इसे आगे सामान खरीदने में खर्च कर देते हैं, जो उस बिक्री से कमाता है, वो सारा पैसा फिर बैंक में जमा कर देता है, यानि 90 हजार रूपए बाजार में घूमकर फिर बैंक में ही आ गए। अब फिर बैंक इसका 10 फीसदी रोककर 81 हजार रूपया कर्ज पर दे देता है और उस पर फिर ब्याज कमाता है। फिर वो 81 हजार रूपया बाजार में घूमकर बैंकों में वापिस आ जाता है। फिर बैंक उसका 10 फीसदी रोककर बाकी को बाजार में दे देता है और इस तरह से बार-बार कर्ज देकर और हर बार ब्याज कमाकर जल्द ही वो स्थिति आ जाती है कि बैंक आप ही के पैसे का मूल्य चुराकर बिना किसी लागत के 100 गुनी संपत्ति अर्जित कर लेता है। इस प्रक्रिया में हमारे रूपए की कीमत लगाकर गिर रही है। आप इस भ्रम में रहते हैं कि आपका पैसा बैंक में सुरक्षित है। दरअसल, वो पैसा नहीं, केवल एक वायदा है, जो नोट पर छपा है। पर, उस वायदे के बदले (नोट के) अगर आप जमीन, अनाज, सोना या चांदी मांगना चाहें, तो देश के कुल 10 फीसदी लोगों को ही बैंक ये सब दे पाएंगे। 90 फीसदी के आगे हाथ खड़े कर देंगे कि न तो हमारे पास सोना/चांदी है, न संपत्ति है और न ही अनाज, यानि पूरा समाज वायदों पर खेल रहा है और जिसे आप नोट समझते हैं, उसकी कीमत रद्दी से ज्यादा कुछ नहीं है।

 यह सारा भ्रमजाल इस तरह फैलाया गया है कि एकाएक कोई अर्थशास्त्री, विद्वान, वकील, पत्रकार, अफसर या नेता आपकी इस बात से सहमत नहीं होगा और आपकी हंसी उड़ाएगा। पर, हकीकत ये है कि बैंकों की इस रहस्यमयी माया को हर देश के हुक्मरान एक खरीदे गुलाम की तरह छिपाकर रखते हैं और बैंकों के इस जाल में एक कठपुतली की तरह भूमिका निभाते हैं। पिछले 70 साल का इतिहास गवाह है कि जिस-जिस राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ने बैंकों के इस फरेब का खुलासा करना चाहा या अपनी जनता को कागज के नोट के बदले संपत्ति देने का आश्वासन चरितार्थ करना चाहा, उस-उस राष्ट्राध्यक्ष की इन अंतर्राष्ट्रीय बैंकों के मालिकों ने हत्या करवा दी। इसमें खुद अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन व जाॅन. एफ. कैनेडी, जर्मनी का चांसलर हिटलर, ईरान (1953) के राष्ट्रपति, ग्वाटेमाला (1954) के राष्ट्रपति, चिले (1973) के राष्ट्रपति, इक्वाडोर (1981) के राष्ट्रपति, पनामा (1981) के राष्ट्रपति, वैनेजुएला (2002) के राष्ट्रपति, ईराक (2003) के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन, लीबिया (2011) का राष्ट्रपति गद्दाफी शामिल है। जिन मुस्लिम देशों में वहां के हुक्मरान पश्चिम की इस बैकिंग व्यवस्था को नहीं चलने देना चाहते, उन-उन देशों में लोकतंत्र बहाली के नाम पर हिंसक आंदोलन चलाए जा रहे हैं, ताकि ऐसे शासकों का तख्तापलट कर पश्चिम की इस लहूपिपासु बैकिंग व्यवस्था को लागू किया जा सके। खुद उद्योगपति हेनरी फोर्ड ने एक बार कहा था कि ‘अगर अमेरिका की जनता को हमारी बैकिंग व्यवस्था की असलियत पता चल जाए, तो कल ही सुबह हमारे यहां क्रांति हो जाएगी।’

 जब देशों को रूपए की जरूरत होती है, तो ये आईएमएफ या विश्व बैंक से भारी कर्जा ले लेते हैं और फिर उसे न चुका पाने की हालत में नोट छाप लेते हैं। जबकि इन नए छपे नोटों के पीछे सरकार के झूठे वायदों के अलावा कोई ठोस संपत्ति नहीं होती। नतीजतन, बाजार में नोट तो आ गए, पर सामान नहीं है, तो महंगाई बढ़ेगी। यानि महंगाई बढ़ाने के लिए किसान या व्यापारी जिम्मेदार नहीं है, बल्कि ये बैकिंग व्यवस्था जिम्मेदार है। ये जब चाहें महंगाई बढ़ा लें और जब चाहें उसे रातों-रात घटा लें। सदियों से सभी देशों में वस्तु विनिमय होता आया था। आपने अनाज दिया, बदले में मसाला ले लिया। आपने सोना या चांदी दिया बदले में कपड़ा खरीद लिया। मतलब ये कि बाजार में जितना माल उपलब्ध होता था, उतने ही उसके खरीददारों की हैसियत भी होती थी। उनके पास जो पैसा होता था, उसकी ताकत सोने के बराबर होती थी। आज आपके पास करोड़ों रूपया है और उसके बदले में आपको सोना या संपत्ति न मिले और केवल कागज के नोटों पर छपा वायदा मिले, तो उस रूपए का क्या महत्व है ? यह बड़ा पेचीदा मामला है। बिना इस लघु पुस्तिका को पढ़े, समझ में नहीं आएगा। पर, अगर ये पढ़ ली जाए, तो एक बड़ी बहस देश में उठ सकती है, जो लोगों को बैकिंग के मायाजाल की असलियत जानने पर मजबूर करेगी।

Monday, November 7, 2016

जहरीली धुंध का चैंबर बन गया एनसीआर

राष्टीय राजधानी क्षेत्र में जहरीली धुंध ने होश उड़ा दिए हैं। दिल्ली और उसके नजदीकी दूसरे शहरों में हाहाकार मचा है। आंखों को उंगली से रगड़ते और खांसते लोगों की तदाद बढ़ती जा रही है। केंद्र और दिल्ली सरकार किम कर्तव्य विमूढ़ हो गई है। वैसे यह कोई पहली बार नहीं है। सत्रह साल पहले ऐसी ही हालत दिखी थी।  तब  क्या सोचा गया था? और अब क्या सोचा जाना है? इसकी जरूरत आन पड़ी है।

पर्यावरण विशेषज्ञ और संबंधित सरकारी विभागों के अफसर पिछले 48 घंटों से सिर खपा रहे हैं। उन्होंने अब तक के अपने सोचविचार का नतीजा यह बताया है कि खेतों में फसल कटने के बाद जो ठूंठ बचते हैं उन्हें खेत में जलाए जाने के कारण ये धुंआ बना है जो एनसीआर के उपर छा गया है। लेकिन जब सवाल यह उठता है कि यह तो हर साल ही होता है तो नए जवाबों की तलाश हो रही है।

दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण को हम दो तीन साल से सुनते आ रहे थे। एक से एक सनसनीखेज वैज्ञानिक रिपोर्टो की बातों हमें भूलना नहीं चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दिल्ली से निकलने वाले गंदे कचरे, कूड़ा करकट को ठिकाने लगाने का पुख्ता इंतजाम अब तक नहीं हो पाया। सरकार यही सोचने में लगी है कि पूरा का पूरा यह कूड़ा कहां फिंकवाया जाए या इस कूड़े का निस्तार यानी ठोस कचरा प्रबंधन कैसे किया जाए। जाहिर है इस गुत्थी को सुलझाए बगैर जलाए जाने लायक कूड़े को चोरी छुपे जलाने के अलावा चारा क्या बचता होगा। इस गैरकानूनी हरकत से उपजे धुंए और जहरीली गैसों की मात्रा कितनी है? इसका कोई हिसाब किसी भी स्तर पर नहीं लगाया जा रहा है।

सांख्यिकी की एक अवधारणा है कि कोई भी प्रभाव किसी एक कारण से पैदा नहीं होता। कई कारण अपना अपना प्रभाव डालते हैं और वे जब एक साथ जुड़कर प्रभाव दिखने लायक मात्रा में हो जाते हैं तो वह असर अचानक दिखने लगता है। दिल्ली में अचानक 17 साल का रिकार्ड तोड़ती जहरीली धुंध इसी संचयी प्रभाव का नतीजा हो सकती है। खेतों में ठूंठ जलाने का बड़ा प्रभाव तो है ही लेकिन चोरी छुपे घरों से निकला कूड़ा जलाना, दिल्ली में चकरडंड घूम रहे वाहनों का धुंआ उड़ना, हर जगह पुरानी इमारतों को तोड़कर नई नई इमारते बनते समय धूल उड़ना, घास और हिरयाली का दिन पर दिन कम होते जाना और ऐसे दसियों छोटे बड़े कारणों को जोड़कर यह प्राणांतक धुंध तो बनेगी ही बनेगी।

इस आपात बैठक के सोच विचार का बड़ा रोचक नतीजा निकला है। खासतौर पर लोगों को यह सुझाव कि ज्यादा जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें। इस सुझाव की सार्थकता को विद्वान लोग ही समझ और समझा सकते हैं। वे ही बता पाएंगे कि क्या यह सुझाव किसी समाधान की श्रेणी में रखा जा सकता है। एक कार्रवाई सरकार ने यह की है कि पांच दिनों के लिए निर्माण कार्य पर रोक लगा दी है। सिर्फ निर्माण कार्य का धूल धक्कड़ ही तो भारी होता है जो बहुत दूर तक ज्यादा असर नहीं डाल पाता। कारों पर आड ईवन की पाबंदी फौरन लग सकती थी लेकिन हाल का अनुभव है कि यह कुछ अलोकप्रिय हो गई थी। सो इसे फौरन फिर से चालू करने की बजाए आगे के ससोच विचार के लिए छोड़ दिया गया। हां कूड़े कचरे को जलाने पर कानूनी रोक को सख्ती से लागू करने पर सोच विचार हो सकताा था लेकिन इससे यह पोल खुलने का अंदेशा रहता हे कि यह कानून शायद सख्ती से लागू हो नहीं पा रहा है। साथ ही यह पोल खुल सकती थी कि ठोस कचरा प्रबंधन का ठोस काम दूसरे प्रचारात्मक कामों की तुलना में ज्यादा खर्चीले हैं।

बहरहाल व्यवस्था के किसी भी विभाग या स्वतंत्र कार्यकर्ताओं की तरफ से कोई भी ऐसा सुझाव सामने नहीं आया है जो जहरीले धुंध का समाधान देता हो। वैसे भी भाग्य निर्भर होते जा रहे भारतीय समाज में हमेशा से भी कुदरत का ही आसरा रहा है। उम्मीद लगाई जा सकती है कि हवा चल पड़ेगी और सारा धुंआ और जहरीलरी धुंध उड़ा कर कहीं और ले जाएगी। यानी अभी जो अपने कारनामों के कारण राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्रों में जहरीला धुंआ उठाया जा रहा है उसे शेष भारत से आने वाली हवाएं हल्का कर देंगी। और आगे भी करती रहेंगी।

वक्त के साथ हर समस्या का समाधान खुद ब खुद हो ही जाता है यह सोचने से हमेशा ही काम नहीं चलता। जल जंगल और जमीन का बर्बाद होना शुरू हो ही गया है अब हवा की बर्बादी का शुरू होना एक गंभीर चेतावनी है। ये ऐसी बर्बादी है कि यह अमीर गरीब का फर्क नहीं करेगी। महंगा पानी और महंगा आर्गनिक फूड धनवान लोग खरीद सकते हैं। लेकिन साफ हवा के सिलेंडर या मास्क या एअर प्यूरीफायर वायु प्रदूषण का समाधान दे नहीं सकते। इसीलिए सुझाव है कि विद्वानों और विशेषज्ञों को समुचित सम्मान देते हुए उन्हें विचार के लिए आमंत्रित कर लिया जाए। खासतौर पर फोरेंसिक साइंस की विशेष शाखा यानी विष विज्ञान के विशेषज्ञों का समागम तो फौरन ही आयोजित करवा लेना चाहिए। यह समय इस बात से डरने का नहीं है कि वे व्यवस्था की खामियां गिनाना शुरू कर देंगे। जब खामियां जानने से बचेंगे तो समाधान ढूंढेंगे कैसे?

Tuesday, November 1, 2016

ग्लोबल टेंडर से निकल सकता है अंडेमान और निकोबार का क्रूड आयल और नेचुरल गैस

अंडमान और निकोबार क्षेत्र में 7,43,419 वर्ग किलोमीटर में तेल और गैस के 16 डीप वाटर ब्लॉक्स हैं। जिनमे 22 से ज्यादा कुँए खोदने पर गैस मिल चुकी है।  ओ.एन.जी.सी ने 11 डीप वाटर ब्लॉक्स को कम तेल मिलने की आशंका के मद्देनजर वहां से तेल निकलने का इरादा छोड़ दिया। इसके विपरीत शैव्रोन, ऐक्सोन मोबिल, इन्पेक्स, बीपी, स्टैटआयल, टोटल ई-पी, कोनोको फिलिप्स आदि कम्पनियां इंडोनेशिया में प्रतिदिन 10 लाख बैरल क्रूड आयल और अत्याधिक मात्रा में प्राकृतिक गैस निकालकर इंडोनेशिया को मालामाल कर रही हैं। प्रधानमंत्री जी से आग्रह है कि वह इन सक्षम कम्पनियों को आमंत्रित कर के अंडमान और निकोबार के 16 डीप वाटर ब्लॉक्स से तेल और गैस निकालने का मौका प्रदान करें। क्योकि हमें प्रतिवर्ष तेल और गैस की आयात में खर्च होने वाली 10 लाख करोड़ रूपए की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा बचानी है।

याद रहे कि अंडेमान और निकोबार के उत्तर में स्थित म्यांमार (बर्मा) भी 26 डीप वाटर ब्लॉक्स में से, तेल और गैस निकालने में अपनी राष्ट्रीय कम्पनियों के साथ साथ अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियां जैसे कि टोटल एस ऐ, साइनो पेक, पेट्रोनास आदि का सहयोग ले रहा है। हमें यह काम युद्ध स्तर पर करने की आवश्यकता है, क्योंकि देश का आधा जीडीपी जो तेल और गैस के आयात में प्रतिवर्ष खर्च होता है, उसको हर हाल में बचाना है। भारत सरकार काला धन निकालने में जितना हो हल्ला मचा रही है, अगर उससे आधा प्रयास भी इस भारी भरकम विदेशी मुद्रा को बचाने में करें तो देश के वारे न्यारे हो सकते हैं। देश की जनता को अत्याधिक करों के बोझ और महंगाई की मार से मुक्ति मिल सकती है। अन्तराष्ट्रीय विनमय दर भारत के पक्ष में आ सकता है। भारतीय रूपए की स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है। भारत की प्रगति को पंख लग सकते हैं। पेट्रोल पानी के भाव और गैस हवा के भाव बिकने लग सकती है।

भारत के 26 सैडीमैंनेटरी बेसिन में से सिर्फ 13 बेसिनों में से तेल और गैस प्राप्त हुई है। इसका यह कारण था कि आधुनिक विज्ञान की एक मूलभूत भूल में वैदिक विज्ञान की सहायता से सुधार आया है। याद रहे कि अथर्व वेद के गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मुनि वेद व्यास जी ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि भूलोक का स्वामी अग्नि है। वेदों में सक्रिय ज्वालामुखी के मुख से निकलने वाले लावा (मैग्मा) को अग्नि कहते हैं। विज्ञान की भाषा में इसे जियोथर्मल एनर्जी कहते हैं।

वैज्ञानिक सूर्यप्रकाश कपूर का कहना है कि जिस बेसिन में हीटफ्लोवैल्यू 67.4 मिलीवाट प्रतिवर्गमीटर प्रति सेकण्ड से ज्यादा होती है, सिर्फ उसी बेसिन में ऑरगैनिक सैडिमेंट्स पककर तेल या गैस में परिवर्तित होते हैं। चूंकि भारत के सिर्फ 13 बेसिनों में हीट फ्लो वैल्यू 67.4 मिलीवाट प्रति वर्गमीटर प्रति सेकण्ड से ज्यादा थी, इसलिए सिर्फ उन्हीं 13 बेसिनों में से तेल और प्राकृतिक गैस प्राप्त हुई है। इस प्राकृतिक गैस को वेदों में ‘पुरीष्य अग्नि‘ कहा गया है। आदरणीय अथर्वन ऋषि ने सर्वप्रथम इस गैस को खानों से खोदकर वैदिक काल में जनता के उपयोग के लिए निकाला था। यजुर्ववेद और ऋग्वेद में पुरीष्य अग्नि के ऊपर बहुत सारे मंत्र उपलब्ध हैं। पुरीष्य शब्द का अर्थ होता है मल-मूत्र। समुद्रों के अंदर तैरने वाली मछलियों और दूसरे प्राणियों के मल-मूत्र और अस्थिपंजर जब समुद्र के तल पर गिरते हैं, तो परतदार चट्टान बन जाती है। जिसके अंदर भूतापीय ऊर्जा की किरणों के प्रवेश से क्रूड आयल और प्राकृतिक गैस का निर्माण होता है। इसके अतिरिक्त धरती माता की गहरी सतह से आने वाली हाइड्रो कार्बन से विश्व का आधे से ज्यादा तेल और गैस बनता है।

विश्व में भूतापीय ऊर्जा का सघन रूप संबडक्शन जोन्स, सी-संप्रेडिंग सेंटरर्स, हाट्-स्पाट्स, रिफट्स में देखने को मिलता है। इसलिए विश्व के सबसे बड़े क्रूड आयल और प्राकृतिक गैस के भंडार इन्हीं क्षेत्रों में प्राप्त हुए हैं। इसके विपरीत जो आॅन लैंड ब्लाक्स हैं, उनमें क्रूड आयल और प्राकृतिक गैस के भंडारों में हाइड्रो कार्बन सीमित मात्रा में ही बन पाता है और तेल और गैस के कुंए जल्दी खाली हो जाते हैं। जबकि तेल और गैस के कुंए, जो संबडक्शन जोन्स, सी-संप्रेडिंग सेंटरर्स, हाट्-स्पाट्स और रिफट्स के पास खोदे जाते हैं, उनमें तेल और गैस अनंतकाल तक उपलब्ध होता रहता है। भारत के विध्यांचल पर्वत में भी एक रिफट् है, इसलिए सोन नर्मदा तापी भूतापीय क्षेत्र में तेल, गैस, कोयला की खानें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। सोनाटा भूतापीय क्षेत्र गुजरात से शुरू होकर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार और पश्चिमी बंगाल तक फैला हुआ है। दूसरी तरफ संबडक्शन जोन जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल, नेपाल, नार्थ ईस्ट के सातों राज्यों को पार करता हुआ म्यांमार, अंडमान निकोबार से गुजरता हुआ इंडोनेशिया तक जाता है। जो आन लैंड ब्लाक्स हैं, उनमें क्रूड आयल और गैस के साथ-साथ ठोस अवस्था में शैल के रूप में भी हाइड्रो कार्बन खानों में उपलब्ध है। जबकि समुद्र में पानी और भूतापीय ऊर्जा ज्यादा होने की वजह से ठोस अवस्था से यह तरल अवस्था में परिवर्तित हो जाता है।

भारत के साथ अभी तक तेल निकालने वाली विदेशी कंपनियों के भेदभावपूर्ण और सौतेले रवैए की वजह से भारत के 7 भूतापीय क्षेत्रों से पूर्णरूपेण क्रूड आयल और गैस नहीं निकल पाई है। अभी तक जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल, नार्थ ईस्ट के कुछ राज्य, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, पश्चिमी बंगाल, पूरे के पूरे दक्षिण भारत कर्नाटका, केरला, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु से भी क्रूड आयल और गैस का पूर्णरूपेण खनन नहीं हो पाया है। अंडमान निकोबार तो भारत का सुपरमिडिल ईस्ट सिद्ध हो सकता है। इसके लिए प्रधानमंत्री को गंभीर प्रयास करने होंगे।

Monday, October 24, 2016

What stops India in exploiting its Oil Reserves in Andaman & Nicobar

While India imports whopping amounts of crude oil & natural gas to meet her domestic fuel demand by paying thousands of crores to West Asian Nations, Indonesia is benefitting its national economy by extracting the oil & natural gas reserves present in the Andaman & Nicobar region, entirely due to our national apathy & inaction. Does it sound a play of certain vested interests or geo-political actors?

Two US scientists after a long drawn study spanning almost 2 decades have come out with a research paper which observes that the Oil Wells of the Middle-East have been producing 10-20 million barrels of crude every day for the past 70-80 years. Despite this scale of production, each time the crude levels measured in these wells is found to be higher than the previous readings. This seems to be miracle of a never ending supply of crude despite perpetual exploitation. This fact was shared with us by independent scientist Suryaprakash Kapoor. 

This miracle has been explained in this research paper which credits the subduction zone of Middle-East. Subduction is a geological process where one edge of a crustal plate is forced sideways and downward into the mantle below another plate.

When the crustal plate of Saudi Arabia enters below the crustal plate of Iran, into the 1200 degree celsius magma, the Calcium Carbonate deposits over this plate gets disintegrated and Carbon is produced. When the saline water of Gulf of Persia too enters through this fracture into the underlying magma, hydrogen is generated. This subterranean mix of carbon and hydrogen free radicals at magma temperatures give rise to hydrocarbons which in normal parlance is known as crude oil & natural gas.

Scientists are of the firm opinion that a similar subduction is happening in the Bay of Bengal whereby Indo-Australian plate is diving under Eurasian Crustal Plate and leading ride of crude oil & natural gas.

Indonesia is in the possession of the southern part of this subduction zone which enables it to produce over 1 million barrel of crude oil on a daily basis alongside making it the number one producer of natural gas in the Asia-Pacific region. Even Myanmar which lies to the north of this subduction zone produce 30k barrels of crude oil daily. It has even installed offshore oil & gas fields near the Andaman basin for large scale explorations and purification.

The question that arises is that why India splurges its foreign currency reserves while our very neighbours Indonesia and Myanmar are exploiting the very oil reserves right in our backyard in Bay of Bengal. Why we don’t excavate the oil reserves present in the deep water blocks of Andaman & Nicobar? Why we are squandering our forex reserves in boosting the economies of Middle East?

In 2014 alone a whopping sum of Rs 10 lakh crores (~USD 150 billion) got remitted to the Sheikhs of Middle East. Due to the fall in international oil prices this amount got marginally reduced to Rs 8.5 lakh crores (~USD 110 billion). This saving on account of global oil price reduction has been fuelling India’s growth story or else inflationary pressures would have ravaged the economic frontiers and a balance of payment crisis would have arisen forcing India to mortgage its gold reserves as was done in the Chandrashekhar regime.

The government has offered 5 deep water blocks in the Andaman Basin having a total potential of over 1296 billion barrels to the private companies. Nevertheless, the moot question arises as to why the national oil companies like ONGC, OIL, GAIL, GSPC etc don’t take the lead in exploiting the 16 deep water blocks allocated to them?

It would be interesting to note that this entire zone rich in oil & natural gas is spread across an area of 83,419 square km. 22 deep water bores were explored and were found to be rich in oil & natural gas. The 5 deep water blocks for which private companies were invited to exploit the reserves commercially have not been touched upon in the last 2 years. If private companies haven’t shown the inclination what are our national oil companies waiting for?

Is it just because that the officers and ministers concerned are under pressure & influence from the sheikhs of middle-east? The response of Oil Minister Dharmendra Pradhan on August 3rd, 2016 in Rajya Sabha was entirely unsatisfactory, when a question (No. 1944) to this effect was raised by the National Spokesperson of Trinamool Congress Sri Sukhendu Shekhar Roy in the bygone Monsoon Session of the Parliament. The response was nothing more than a royal cover up which certainly presents a substantial case of doubt. The Prime Minister should thereby make a direct intervention in this multi-billion deal concerning national interest. A handful of people should not be extended the privilege of presenting almost a quarter of nation’s GDP on a platter to the Sheikhs of Middle East by retorting to dilly dallying on this count of extracting the oil wealth present in the Andaman basin.

2 years back Narendra Bhai Modi had openly declared that he shall extract oil from the Andaman basin for India’s energy security. What all has been done in this regard need to be brought out in the open. A White Paper to this effect would surely restore the confidence of the nation.