Monday, May 4, 2015

भारत क्यों चीन के मायाजाल में फंस रहा है?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी चीन जा रहे हैं। हो सकता है कुछ बड़े समझौते हों। जिनका जश्न मनाया जायगा। पर हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते। रक्षा, आंतरिक सुरक्षा, विदेश नीति और सामरिक विषयों के जानकारों का कहना है कि भारत धीरे-धीरे चीन के मायाजाल में फंसता जा रहा है। आज से 15 वर्ष पहले वांशिगटन के एक विचारक ने दक्षिण एशिया के भविष्य को लेकर तीन संभावनाएँ व्यक्त की थीं। पहली अपने गृह युद्धों के कारण पाकिस्तान का विघटन हो जाएगा और उसके पड़ोसी देश उसे बांट लेंगे। दूसरी भारत अपनी व्यवस्थाओं को इतना मजबूत कर लेगा कि चीन और भारत बराबर की ताकत बन कर अपने-अपने प्रभाव के क्षेत्र बांट लेंगे। तीसरी चीन धीरे-धीरे चारों तरफ से भारत को घेर कर उसकी आंतरिक व्यवस्थाओं पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेगा और धीरे-धीरे भारत की अर्थव्यवस्था को सोख लेगा। 

आज यह तीसरी संभावना साकार होती दिख रही है। चीन का नेतृत्व एकजुट, केन्द्रीयकृत, विपक्षविहीन व दूर दृष्टि वाला है। उसने भारत को जकड़ने की दूरगामी योजना बना रखी है। अरूणाचल की जमीन पर 1962 से कब्जा जमाये रखने के बावजूद चीन को किसी भी मौके पर इस इलाके को भारत को वापिस करने में गुरेज नहीं होगा। उसने इसके लिए भारत में एक लाॅबी पाल रखी है। जो इस मुद्दे को गर्माए रहती है। ऐसा करके वह भारत के प्रधानमंत्री को खुश करने का एक बड़ा मौका देगा लेकिन उसके बदले में हमसे बहुत कुछ ले लेगा। ऐसा इसलिए कि उसे सामरिक दृष्टि से इस क्षेत्र में कोई रूचि नहीं है। यह कब्जा तो उसने सौदेबाजी के लिए कर रखा है। उसका असली खेल तो तिब्बत, पाक अधिकृत कश्मीर और पाकिस्तान में है। जहाँ उसने रेल और हाइवे बनाकर अपनी सामरिक स्थिति भारत के विरूद्ध काफी मजबूत कर ली है। उसके लड़ाकू विमान हमारी सीमा से मात्र 50 किमी दूर तैनात है। युद्ध की स्थिति में सड़क और रेल से रसद पहुंचाना उसके लिए बांये हाथ का खेल होगा। जबकि ऐसी किसी भी व्यवस्था के अभाव में हम उसके सामने हल्के पड़ेंगे। 

पिछले 10 वर्षों में ऊर्जा, संचार और पैट्रोलियम जैसे संवेदनशील और अत्यन्त महत्वपूर्ण क्षेत्र में चीन ने भारत में लगभग सारे अंतर्राष्ट्रीय ठेके जीते हैं। इससे हमारी धमनियों पर अब उसका शिकंजा कस चुका है। चीन से बने बनाएं टेलीफोन एंक्सचेन्ज भारत में लगाएं गये हैं। जिसकी देखभाल भी चीन रिमोट कन्ट्रोल से करता है। क्योंकि ठेके की यही शर्त थी। अब वो हमारी सारी बातचीत पर निगाह रख सकता है। यहां तक कि हमारी खुफिया जानकारी भी अब उससे बची नहीं है। वो जब चाहे हमारी संचार व्यवस्था ठप्प कर सकता है। जिस समय चीन ये ठेके लगातार जीत रहा था उस समय हमारे गृह और रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों ने लिखकर चिंता व्यक्त की थी। पर सरकार ने अनदेखी कर दी। 

सब जानते हैं कि उद्योगपतियों के लिए मुनाफा देशभक्ति से बड़ा होता है। चीन ने अपने यहाँ आधारभूत सुविधाओं का लुभावना तंत्र खड़ा करके भारत के उद्योगपतियों को विनियोग के लिए खीचना शुरू कर दिया है। उत्पादन के क्षेत्र में तो वह पहले ही भारत के लघु उद्योगों को खा चुका है। उधर भारत का हर बाजार चीन के माल से पटा पड़ा है। जाहिरन इससे देश में भारी बेरोजगारी फैल रही है। जो भविष्य में भयावह रूप ले सकती है। प्रधानमंत्री का ‘मेक इन इंडिया‘ अभियान बहुत सामयिक और सार्थक है। उसके लिए प्रधानमंत्री दुनियाभर जा-जाकर मशक्कत भी खूब कर रहें हैं। पर जब तब देश की आंतरिक व्यवस्थाएँ, कार्य संस्कृति और आधारभूत ढ़ाचा नहीं सुधरता, तब तक ‘मेक इन इंडिया‘ अभियान सफल नहीं होगा। इन क्षेत्रों में अभी सुधार के कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहे हैं। जिनपर प्रधानमंत्री को गंभीरता से ध्यान देना होगा। 


चीन भारत को चारों तरफ से घेर चुका है। नेपाल, वर्मा, दक्षिण पूर्व एशियाई देश, श्रीलंका और पाकिस्तान पर तो उसकी पकड़ पहले ही मजबूत हो चुकी थी। अब उसने मालदीव में भारत के जी.एम.आर. ग्रुप से हवाई अड्डा छीन लिया। इस तरह भारत पर चारों तरफ से हमला करने की उसने पूरी तैयारी कर ली है। इसका अर्थ यह नहीं कि वह हमला करेगा, बल्कि इस तरह दबाव बना कर वो अपने फायदे के लिए भारत सरकार को ब्लैकमेल तो कर ही सकता है। 

इस पूरे परिदृश्य में केवल दो ही संभावनाएँ बची है। एक यह कि भारत आंतरिक दशा मजबूत करें और चीन के बढ़ते प्रभाव को रोके। दूसरा यह कि चीन में आंतरिक विस्फोट हो, जैसा कभी रूस में हुआ था और चीन की केन्द्रीयकृत सत्ता कमजोर पड़ जाएँ। ऐसे में फिर चीन भारत पर हावी नहीं हो पाएगा। जिसकी निकट भविष्य में कोई संभावना नहीं दिखती। ऐसे में चीन से किसी भी सहयोग या लाभ लेने की अपेक्षा रखना हमारे लिए बहुत बुद्धिमानी का कार्य नहीं होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दूर दृष्टि वाले व्यक्ति हैं इसलिए आशा कि जानी चाहिए कि चीन से संबंध बनाने कि प्रक्रिया में वे इन गंभीर मुद्दों को अनदेखा नहीं करेंगे।

Monday, April 13, 2015

मंदिरों की सम्पत्ति का धर्म व समाज के लिए हो सदुपयोग

मंदिरों की विशाल सम्पत्ति को लेकर प्रधानमंत्री की योजना सफल होती दिख रही है। इस योजना में मंदिरों से अपना सोना ब्याज पर बैकों में जमा कराने को आह्वान किया गया था। जिससे सोने का आयात कम करना पड़े और लोगों की सोने की मांग भी पूरी हो सके। केेरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में दो लाख करोड़ से भी ज्यादा की सम्पत्ति है। ऐसा ही तमाम दूसरे मंदिर के साथ है। पर इस धन का सदुपयोग न तो धर्म के विस्तार के लिए होता है और न ही समाज के लिए। उदाहरण के तौर पर ओलावृष्टि से मथुरा जिले के किसानों की फसल बुरी तरह बर्बाद हो गई। कितने ही किसान आत्महत्या कर बैठे।

उल्लेखनीय है कि ब्रज में, विशेषकर वृन्दावन में एक से एक बड़े मंदिर और मठ हैं। जिनके पास अरबों रूपये की सम्पत्ति हैं। क्या इस सम्पत्ति का एक हिस्सा इन बृजवासी किसानों को नहीं बांटा जा सकता ? भगवान श्रीकृष्ण की कोई लीला किसी मंदिर या आश्रम में नहीं हुई थी। वो तो ब्रज के कुण्डों, वनों, पर्वतों व यमुना तट पर हुई थी। ये मंदिर और आश्रम तो विगत 500 वर्षों में बने, और इतने लोकप्रिय हो गए कि भक्त और तीर्थयात्री भगवान की असली लीला स्थलियों को भूल गए। मंदिरों में तो करोड़ो रूपये का चढ़ावा आता है पर भगवान की लीला स्थलियों के जीर्णोंद्धार के लिए कोई मंदिर या आश्रम सामने नहीं आता।

जबकि इनमें से कितने ही मंदिर तो ऐसे लोगों ने बनाए हैं जिनका ब्रज से कोई पुराना नाता नहीं था। पर आज ये सब ब्रज के नाम पर वैभव का आनंद ले रहे हैं। जबकि ब्रज के किसान हजारों साल से ब्रजभूमि पर अपना खून-पसीना बहाकर अन्न उपजाते है। हजारों साधु-सन्तों को मधुकरी देते हैं। अपने गांव से गुजरने वाली ब्रज चैरासी कोस यात्राओं को छाछ, रोटी और तमाम व्यंजन देते हैं। यहीं तो है असली ब्रजवासी जिन्होंने कान्हा के साथ गाय चराई थी, वन बिहार किया था, उन्हें अपने छाछ और रोटी पर नचाया था। इन्हीं के घर कान्हा माखन की चोरी किया करते थे। आज जब ये किसान कुदरत की मार झेल रहे हैं, तो क्या वृन्दावन के धनाढ्य मंदिरों और मठों का यह दायित्व नहीं कि वे अपनी जमा सम्पत्ति का कम से कम आधा भाग इन ब्रजवासियों में वितरित करें।

यहीं हाल देश के बाकी हिस्सों के मंदिरों का भी है। जो न तो भक्तों की सुविधा की चिन्ता करते है और न ही स्थानीय लोगों की। अपवाद बहुत कम हैं। ऊपर से तुर्रा यह कि ये मंदिर हमारी निज सम्पत्ति हैं। जबकि यह सरासर गलत है। हिमाचल उच्च न्यायालय से लेकर कितने ही फैसले है जो यह स्थापित करते हैं कि जिस मंदिर को एक बार जनता के दर्शनार्थ खोेल दिया जाय, वहां जनता भेंट पूजा करने लगे, तो वह निजी सम्पत्ति नहीं मानी जा सकती। वह सार्वजनिक सम्पत्ति बन जाती हैं। चाहे उसकी मिल्कियत निजी भी रही हो। ऐसे सभी मंदिरों की व्यवस्था में दर्शनार्थियों का पूरा दखल होना चाहिए। क्योंकि उनके ही पैसे से ये मंदिर चलते है। प्रधानमंत्री को चाहिए कि इस बारे में एक स्पष्ट नीति तैयार करवाएं जो देश भर के मंदिरों पर ही नहीं बल्कि हर धर्म के स्थानों पर लागू हो। इस नीति के अनुसार उस धर्म स्थान की आय का निश्चित फीसदी बंटवारा जमापूंजी, रखरखाव, दर्शनार्थी सुविधा, क्षेत्रीय विकास व समाजसेवा के कार्यों में हो। आज की तरह नहीं कि इन सार्वजनिक धर्म स्थलों से होने वाली अरबों रूपये की आय चंद हाथों में सिमट कर रह जाती है। जिसका धर्म और समाज को कोई लाभ नहीं मिलता।

इस मामले में तिरूपति बालाजी का मंदिर एक आदर्श स्थापित करता है। हालांकि वहां भी जितनी आय है उतना समाज पर खर्च नहीं किया जाता। फिर भी भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल जैसी अनेक सेवाओं से एक बड़े क्षेत्र को लाभान्वित किया जा रहा है। धर्म को संवेदनशील मुद्दा बताकर यूपीए की सरकार तो हाथ खड़े कर सकती थी पर एनडीए की सरकार तो धर्म में खुलेआम आस्था रखने वालों की सरकार हैं, इसलिए सरकार को बेहिचक धर्म स्थलों के प्रबन्धन और आय-व्यय के पारदर्शी नियम बनाने चाहिए और उन्हें कड़ाई से लागू करना चाहिए वरना आशाराम बापू और रामलाल जैसे गुरू पनप कर समाज को गुमराह करते रहेंगे। और धर्म का पैसा अधर्म के कामों में बर्बाद होता रहेगा।

Monday, April 6, 2015

किसान और फसलों की तबाही

बेमौसम बारिश ने देश के बड़े भू-भाग में खड़ी फसल तबाह कर दी। आमतौर पर संकट में रहने वाले किसानों की गरीबी में आटा गीला हो गया। फसल बीमा का चलन अपने यहां अभी हो नहीं पाया है। अब तक इन किसानों के लिए मुआवजे या राहत का इंतजाम होता रहा है। लेकिन इस बार का संकट इतना गहरा है कि हालात उनकी अपनी-अपनी राज्य सरकारों के बूते के बाहर बताए जा रहे हैं।

कुछ राज्य सरकारों ने फौरी तौर पर दो-चार सौ करोड़ के मुआवजे का ऐलान तो किया है, लेकिन जहां ओलों और बेमौसम बारिश से चैतरफा तबाही हुई हो, उससे कोई भी अंदाजा लगा सकता है कि दसियों हजार करोड़ रूपये भी कम पड़ेंगे। किसान किस कदर रो रहे हैं, इस बात का अंदाजा बुदेंलखंड और मथुरा में किसानों की आत्महत्याओं से लगाया जा सकता है। पिछले दो हफ्तों से हर रोज 8-10 परेशान किसानों की मौत की खबरें आ रही हैं। वहां कर्ज में डूबे किसानों ने जब अपनी फसलों का दो तिहाई से ज्यादा हिस्सा तबाह पाया तो कई किसानों तो सदमे से मर गए।

हैरत की बात तो यह है कि इस बार किसानों के हुए नुकसान का आंकलन करने का काम भी ठीक से नहीं हो पाया। आंकलन नहीं हो पाने के तरह-तरह के कारण भले ही बताए जाते हैं, पर यह कोई भी समझ सकता है कि प्रशासन वास्तविक स्थिति को बताकर खुद ही मुश्किल में क्यों पड़ना चाहेगा ? जहां चारों तरफ तबाही का मंजर हो, वहां जिला प्रशासन के हाथ-पैर तो वैसे ही फूल जाते हैं। तबाही वाले इलाकों में परगना अधिकारी दिन-रात किसानों के ज्ञापन लेते-लेते परेशान हैं। फसल की तबाही के आकलन में दूसरी बड़ी मुश्किल यह है कि चैतरफा तबाही का आंकलन नमूने लेकर नहीं किया जा सकता। लाखों हैक्टेयर फसल की तबाही के आंकलन के लिए प्रशासन का जितना बड़ा अमला चाहिए, वह किसी भी जगह मौजूद नहीं हैं। उधर सामाजिक संगठन हों या किसान नेता हों वे ऐसे तकनीकि काम में सक्षम नहीं हैं कि वास्तविक स्थिति का विश्वसनीय आंकलन कर सकें। उनके पास सिर्फ किसानों की आत्महत्याओं के बढ़ते आंकड़ों के अलावा बोलने को ज्यादा कुछ नहीं है।

सन् 2015 की इस आसमानी आफत का दूरगामी असर भी हमें सोच लेना चाहिए। वैसे तात्कालिक समस्या के तौर पर देखा जाए तो अनाज की इस तबाही से फिलहाल कोई बड़ा संकट पैदा होता नहीं दिखता। क्योंकि पिछले दशकों में अनाज का भारी भरकम स्टाक रखने में हम सक्षम हो गए हैं। पिछले दशकों में अनाज के मामले में अतिरिक्त उत्पादन का लक्ष्य हम हासिल कर चुके हैं। यह उपलब्धि प्राकृतिक विपदा के कारण अनाज के दाम बढ़ने को भी रोकती है। यानि किसान अपनी आमदनी कम होने की भरपाई दाम बढ़ाकर भी नहीं कर सकता। कुल मिलाकर किसान के पास बाजार के प्रचलित उपायों से भी दाम बढ़ाने का विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। उसके पास एक ही विकल्प बचता है कि अपने घाटे का या इस जोखिम का कोई विकल्प ढूढ़े। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक से एक बड़े औद्योगिक और विकसित देश खाद्यान उत्पादन में हमेशा सचेत रहते हैं। अपनी औद्योगिक प्रकृति और व्यापारिक विकास में वे इतनी गुंजाइश निकालकर रखते हैं कि खेती से किसान का मोहभंग न होने पाए। इस बात को हमें अपने सामने रखने की आज ज्यादा जरूरत है। खासतौर पर यह तब तो और भी ज्यादा जरूरी है, जब अपने लोकतांत्रिक देश की दो तिहाई आबादी आज भी खेती पर निर्भर है - भले ही वह मजबूरी में खेती पर निर्भर हो। लेकिन यह एक दार्शनिक तथ्य भी है कि मजबूरी की भी एक सीमा होती है। बेमौसम बारिश से हुई किसानी की भारी तबाही उस सीमा को छूती लग रही है।

ऐसा नहीं है कि बेमौसम बारिश या मौसम में बारिश नहीं होने की विपत्ति सिर्फ प्राकृतिक आपदा ही है। वैज्ञानिकों का एक तबका जलवायु परिवर्तन को लेकर पिछले दो दशकों से बड़ी शिद्दत से आगाह कर रहा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में पर्यावरणीय शोध अध्ययन हमें ऐसी आपदाओं के प्रति आगाह करते आए हैं। पिछले एक दशक में इन्हीं वैज्ञानिकों ने हमें बेकाबू औद्योगिक विकास में लगे रहने से रोका है। लगता है कि इस साल के मौसम विज्ञान संबंधी तथ्यों पर हमें और भी ज्यादा गंभीरता से गौर करना पड़ेगा। सरकारी तौर पर जो विमर्श होता है, वह तो है ही अब सामाजिक स्तर पर यानि स्वयंसेवी संगठनों के स्तर पर वैज्ञानिक सोच-विचार की जरूरत भी बढ़ गई है।

अपने विकास या समस्याओं के समाधान के लिए सरकारी विमर्श आमतौर पर एकांगी होते हैं। उनकी अपनी सीमाएं हैं। इस कारण से उनमें एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालने की प्रवृत्ति पनप ही जाती है। इसी कारण सामाजिक स्तर पर होने वाले विमर्शों से हम ज्यादा उम्मीद कर सकते हैं। लेकिन पर्यावरण के मुद्दों पर और प्राकृतिक विपदाओं के बहुआयामी पहलुओं पर विमर्श के लिए ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक साथ बैठने की जरूरत है। तभी हम ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे कि किसानों को आश्वस्त कैसे रखा जाए ? प्राकृतिक विपदाओं के पूर्व की तैयारियां कैसे की जाएं ? अनाज और अनाज से इतर दूसरी वस्तुओं के उत्पादन में संतुलन कैसे बैठाया जाए ? लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसानों को सक्षम बनाने के लिए उद्योग व्यापार के क्षेत्र से कितनी गुंजाइश निकाली जाए ?

Monday, March 23, 2015

कैसे आए नदियों में साफ जल

    पूरा ब्रज क्षेत्र यमुना में यमुना की अविरल धारा की मांग लेकर आंदोलित है। सभी संप्रदाय, साधु-संत, किसान और आम नागरिक चाहते हैं कि ब्रज में बहने वाली यमुना देश की राजधानी दिल्ली का सीवर न ढोए, बल्कि उसमें यमुनोत्री से निकला शुद्ध यमुना जल प्रवाहित हो। क्योंकि यही जल देवालयों में अभिषेक के लिए प्रयोग किया जाता है। भक्तों की यमुना के प्रति गहरी आस्था है। इस आंदोलन को चलते हुए आज कई वर्ष हो गए। कई बार पदयात्राएं दिल्ली के जंतर-मंतर तक पहुंची और मायूस होकर खाली हाथ लौट आयीं। भावुक भक्त यह समझ नहीं पाते कि उनकी इतनी सहज-सी मांग को पूरा करने में किसी भी सरकार को क्या दिक्कत हो सकती है। विशेषकर हिंदू मानसिकता वाली भाजपा सरकार को। पर यह काम जितना सरल दिखता है, उतना है नहीं।

    यह प्रश्न केवल यमुना का नहीं है। देश के ज्यादातर शहरीकृत भू-भाग पर बहने वाली नदियों का है। पिछले दिनों वाराणसी के ऐतिहासिक घाटों के जीर्णोद्धार की रूपरेखा तैयार करने मैं अपनी तकनीकि टीम के साथ कई बार वाराणसी गया। आप जानते ही होंगे कि वाराणसी का नामकरण उन दो नदियों के नाम पर हुआ है, जो सदियों से अपना जल गंगा में अर्पित करती थीं। इनके नाम हैं वरूणा और असी। पर शहरीकरण की मार में इन नदियों को सुखा दिया। अब यहां केवल गंदा नाला बहता है। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रामगंगा नदी लगभग सूख चुकी है। इसमें गिरने वाली गागन और काली नदी जैसी सभी सहायक नदियां आज शहरों का दूषित जल, कारखानों की गंदगी और सीवर लाइन का मैला ढो रही हैं। पुणे शहर की मूला और मूथा नदियों का भी यही हाल है। मेरे बचपन का एक चित्र है, जब में लगभग 3 वर्ष का पुणे की मूला नदी के तट पर अपनी मां के साथ बैठा हूं। पीछे से नदी का प्रवाह, उसके प्रपात और बड़े-बड़े पत्थरों से टकराती उसकी लहरें ऐसा दृश्य उत्पन्न कर रही थीं, मानो यह किसी पहाड़ की वेगवती नदी हो। पर अभी पिछले दिनों मैं दोबारा जब पुणे गया, तो देखकर धक्क रह गया कि ये नदियां अब शहर का एक गंदा नाला भर रह गई हैं।

    यही हाल जीवनदायिनी मां स्वरूप गंगा का भी है। जिसके प्रदूषण को दूर करने के लिए अरबों रूपया सरकारें खर्च कर चुकी हैं। पर कानपुर हो या वाराणसी या फिर आगे के शहर गंगा के प्रदूषण को लेकर वर्षों से आंदोलित हैं। पर कोई समाधान नहीं निकल रहा है। कारण सबके वही हैं - अंधाधुंध वनों की कटाई, शहरीकरण का विकराल रूप, अनियंत्रित उद्योगों का विस्तार, प्रदूषण कानूनों की खुलेआम उड़ती धज्जियां और हमारी जीवनशैली में आया भारी बदलाव। इस सबने देश की नदियों की कमरतोड़ दी है।

शुद्ध जल का प्रवाह तो दूर अब ये नदियां कहलाने लायक भी नहीं बची। सबकी सब नाला बन चुकी हैं। अब यमुना को लेकर जो मांग आंदोलनकारी कर रहे हैं, अगर उसका हल प्रधानमंत्री केे पास होता तो धर्मपारायण प्रधानमंत्री उसे अपनाने में देर नहीं लगाते। पर हकीकत ये है कि सर्वोच्च न्यायालय, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं ग्रीन ट्यूबनल, सबके सब चाहें जितने आदेश पारित करते रहें, उन्हें व्यवहारिक धरातल पर उतारने में तमाम झंझट हैं। जब पहले ही दिल्ली अपनी आवश्यकता से 70 फीसदी कम जल से काम चला रही हो, जब हरियाणा के किसान सिंचाई के लिए यमुना की एक-एक बूंद खींच लेना चाहते हों, तो कहां से बहेगी अविरल यमुना धारा ? हथिनीकुंड के फाटक खोलने की मांग भावुक ज्यादा है, व्यवहारिक कम। ये शब्द आंदोलनकारियों को कड़वे लगेंगे। पर हम इसी काॅलम में यमुना को लेकर बार-बार बुनियादी तथ्यों की ओर ध्यान दिलाते रहे हैं। पर ऐसा लगता है कि आंदोलन का पिछला नेतृत्व करने वाला नेता तो फर्जी संत बनने के चक्कर में और ब्रजवासियों को टोपी पहनाने के चक्कर में लगा रहा मगर अब उसका असली रूप सामने आ गया। उसे ब्रजवासियों ने नकार दिया। अब दोबारा जब आन्दोलन फिर खड़ा हुआ है तो ज्यादातर लोग तो क्षेत्र में अपनी नेतागिरि चमकाने के चक्कर में लगे हुए हैं। करोड़ों रूपया बर्बाद कर चुके हैं। भक्तों और साधारण ब्रजवासियों को बार-बार निराश कर चुके हैं और झूठे सपने दिखाकर लोगों को गुमराह करते रहे हैं। पर कुछ लोग ऐसे है जो रात दिन अग्नि में तप कर इस आंदोलन को चला रहे हैं।

सरकार के मौजूदा रवैये से अब एक बार फिर उनकी गाड़ी एक ऐसे मोड़ पर फंस गई है, जहां आगे कुंआ और पीछे खाई है। आगे बढ़ते हैं, तो कुछ मिलने की संभावना नहीं दिखती। विफल होकर लौटते हैं, तो जनता सवाल करेगी, करें तो क्या करें। मौजूदा हालातों में तो कोई हल नजर आता नहीं। पर भौतिक जगत के सिद्धांत आध्यात्मिक जगत पर लागू नहीं होते। इसलिए हमें अब भी विश्वास है कि अगर कभी यमुना में जल आएगा तो केवल रमेश बाबा जैसे विरक्त संतों की संकल्पशक्ति से आएगा, किसी की नेतागिरी चमकाने से नहीं। संत तो असंभव को भी संभव कर सकते हैंै, इसी उम्मीद में हम भी बैठे हैं कि काश एक दिन वृंदावन के घाटों पर यमुना के शुद्ध जल में स्नान कर सकें।

Monday, March 16, 2015

विरासत बचाने की नई पहल

जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के ऐतिहासिक नगरों की विरासत बचाने के लिए विशेष पहल की है, तब से ऐसे शहरों में नए-नए प्रोजेक्ट बनाने के लिए नौकरशाही अति उत्साहित हो गई है। जबकि हकीकत यह है कि इन ऐतिहासिक नगरों के पतन का कारण प्रशासनिक लापरवाही और नासमझी रही है। पूरे देश में यही देखने में आता है कि जो भी अधिकारी ऐसे शहरों में तैनात किया जाता है, वह बिना किसी सलाह के अपनी सीमित बुद्धि से विकास या सौंदर्यीकरण के कारण शुरू करा देता है। अक्सर देखने में आया है कि ये सब कार्य काफी निम्नस्तर के होते हैं। इनमें कलात्मकता का नितांत अभाव होता है। इनका अपने परिवेश से कोई सामंजस्य नहीं होता। अजीब किस्म का विद्रूप विकास देखने में आता है। चाहे फिर वह भवन निर्माण हो, बगीचों की बाउंड्रीवाॅल हो, बिजली के खंभे हों या साइनेंज हो, किसी में भी स्थानीय संस्कृति की झलक दिखाई नहीं देती। इससे कलाप्रेमियों को भारी चोट लगती है। उन्हें लगता है कि विकास के नाम पर गौरवशाली परंपराओं का विनाश किया जा रहा है। 

मुश्किल यह है कि कुर्सी पर बैठा आदमी अपनी बुद्धि को सर्वश्रेष्ठ मानता है। ऐसे सलाहकार नियुक्त कर लेता है कि जिन्हें पीडब्लूडी के क्वाटर और विरासत के भवनों के बीच कोई अंतर ही नजर नहीं आता। न तो उनमें कलात्मकता का बोध होता है और न दुनिया में ऐसी विरासतों को देखने का अनुभव। लिहाजा, जो भी परियोजना वह बनाकर देते हैं, उससे विरासत का संरक्षण होने की बजाए विनाश हो जाता है। 

प्रधानमंत्री ने हृदय योजना की घोषणा की, तो प्रधानमंत्री की सोच यह है कि दकियानूसी दायरों से निकलकर नए तरीके से सोचा जाए और प्रमाणिक लोगों से योजनाएं बनवाई जाएं और काम करवाए जाएं। पर हो क्या रहा है कि वही नौकरशाही और वही सलाहकार देशभर में सक्रिय हो गए हैं, जो आज तक विरासत के विनाश के लिए जिम्मेदार रहे हैं। शहरी विकास मंत्रालय को सचेत रहकर इस प्रवृत्ति को रोकना होगा, जिससे यह नई नीति पल्लवित हो सके। इसकी असमय मृत्यु न हो जाए। 

किसी भी विरासत को बचाने के लिए सबसे पहले जरूरत इस बात की होती है कि उस विरासत का सांस्कृतिक इतिहास जाना जाए। उसकी वास्तुकला को समझा जाए। उसमें से अवैध कब्जे हटाए जाएं। उस पर हो रहे भौड़े नवनिर्माण खत्म किए जाएं। उसकी परिधि को साफ करके हरा-भरा बनाया जाए और ऐसे योग्य लोगों की सलाह ली जाए, जो उस विरासत को उसके मूलरूप में लाने की क्षमता रखते हों। इसके लिए गैरपारंपरिक रवैया अपनाना होगा। पुरानी टेंडर की प्रक्रिया और सरकारी शर्तों का मकड़जाल कभी भी गुणवत्ता वाला कार्य नहीं होने देगा। 

इसके साथ ही जरूरत इस बात की है कि देश में जितने भी आर्किटेक्चर के काॅलेज हैं, उनके शिक्षक और छात्र अपने परिवेश में बिखरी पड़ी सांस्कृतिक विरासतों को सूचीबद्ध करें और उनके विकास की योजनाएं बनाएं। इससे दो लाभ होंगे-एक तो भूमाािफयाओं की लालची निगाहों से विरासत को बचाया जा सकेगा, दूसरा जब उस विरासत पर गहन अध्ययन के बाद पूरी परियोजना तैयार होगी, तो जैसे ही साधन उपलब्ध हों, उसका संरक्षण करना आसान होगा। इसलिए बगैर इस बात का इंतजार किए कि संरक्षण का बजट कब मिलेगा, अध्ययन का काम तुरंत चालू हो जाना चाहिए। 

कोई कितना भी जीर्णोद्धार या संरक्षण कर ले, तब तक विरासत नहीं बच सकती, जब तक स्थानीय युवा और नागरिक यह तय न कर लें कि उन्हें अपनी विरासत सजानी है, संवारनी है। अगर वो विरासत को बचाने के लिए राजी हो जाते हैं, तो उनमें बचपन से ही विरासत के प्रति सम्मान पैदा होगा। तभी हम आने वाली पीढ़ियों को एक विशाल विरासत सौंप पाएंगे। वरना सबकुछ धीरे-धीरे काल के गाल में समाता जा रहा है। 

अक्सर लोग कहते हैं कि सरकार के साथ काम करना मुश्किल होता है। पर ब्रज में जीर्णोद्धार के जो कार्य पिछले 10 वर्षों में हमने किए हैं, उसमें अनेक उत्साही युवा जिलाधिकारियों का हमें भरपूर सहयोग मिला है और इससे हमारी यह धारणा दृढ़ हुई है कि प्रशासन और निजी क्षेत्र यदि एक-सी दृष्टि अपना लें और एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक बन जाएं, तो इलाके की दिशा परिवर्तन तेजी से हो सकती है। विरासत बचाना मात्र इसलिए जरूरी नहीं कि उसमें हमारा इतिहास छिपा है, बल्कि इसलिए भी जरूरी है कि विरासत को देखकर नई पीढ़ी बहुत सा ज्ञान अर्जित करती है। इसके साथ ही विरासत बचने से पर्यटन बढ़ता है और उसके साथ रोजगार बढ़ता है। इसलिए ये केवल कलाप्रेमियों का विषय नहीं, बल्कि आमजनता के लाभ का विषय है। 

Monday, March 2, 2015

किसके फायदे का बजट

देश का आमबजट बिना किसी सनसनी के निकल गया। पहली बार हुआ है कि बजट का विश्लेषण करते समय मीडिया भी अचकचाया सा दिखा। कोई भी ठोककर नहीं कह पाया कि यह बजट उद्योग जगत की ओर झुका हुआ दिखा या खेती किसानी की तरफ। नई सरकार के सहायक अर्थशास्त्री शायद अब इतने पटु हो गए हैं कि राजनीतिक आलोचनाओं से कैसे बचा जाता है, इसकी उन्हें खूब समझ है। पिछले 24 घंटों में इस बजट के विश्लेषण करने वालों पर गौर करें, तो कोई भी विश्लेषक साफतौर पर यह नहीं बता पाया कि बजट का असर किस पर सबसे ज्यादा पड़ेगा। 

बजट आने के दो-चार दिन पहले सबसे ज्यादा कौतुहल जिस तबके में दिखाई देता है, वह आयकरदाता वाला तबका होता है। वे ही सीधे-सीधे अपने नफा-नुकसान का अंदाजा साफतौर पर लगा पाते हैं और बजट के बाद खुशी या गम का इजहार करते हैं, लेकिन इस बार जिस तरह से यथास्थिति बनाए रखी गई उससे उन्हें भी महसूस करने को कुछ नहीं मिला। वैसे सोचने की बात यह है कि अपने देश में टैक्स आधार यानि इनकम टैक्स देने वालों की संख्या भी सिर्फ 3 फीसद है। लिहाजा, इनकम टैक्स को बजट के विश्लेषण का आधार मानना उतना महत्वपूर्ण है नहीं। और अगर टैक्स आधार को ही मुद्दा मान लें, तो यह सब जानते हैं कि बड़ी उम्मीद बंधाकर सत्ता में आयी कोई सरकार नए आयकरदाताओं का एक बड़ा तबका अपने साथ खड़ा नहीं करना चाहेगी। टैक्स आधार बढ़ाने का काम अब तक की कोई सरकार नहीं कर पायी, तो इस सरकार के पहले-पहले बजट में ऐसा कुछ किए जाने की उम्मीद या आशंका कैसे की जा सकती थी। अगर कोई दिलचस्प या उल्लेखनीय बात बजट में दिखाई दी तो वह मनरेगा को उसी आकार में चालू रखने की बात है। दरअसल, मनमोहन सरकार को इस विलक्षण योजना के खिलाफ उस समय के विपक्ष ने जिस तरह से विरोध करते हुए घेरा था और इसके अलावा नई सरकार के मिजाज से जैसा अंदाजा था, उससे लगने लगा था कि इस योजना को हतोत्साहित करके कोई नई योजना लायी जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआ। मनरेगा को उसी रूप और आकार में चालू रखा गया। ठीक भी है, क्योंकि लोकतंत्र में लोक का आकार बेशक महत्वपूर्ण होता है और यह इकलौती योजना, जो गांव की 15 फीसद जनसंख्या को राहत देती है। साथ ही देश के सबसे ज्यादा जरूरतमंद तबके के लिए है। 

नई सरकार के बजट में उद्योग व्यापार के लिए कुछ खास किए जाने का अंदाजा था, पर प्रत्यक्षतः वैसा ही दिख नहीं रहा है। अगर सांख्यिकीय नजरिये से देखें, तो वाकई इस बजट में आमदनी बढ़ाने का इंतजाम नहीं हो पाया। आमदनी धनवानों पर टैक्स बढ़ाकर ही बढ़ती। इस लिहाज से हम कह सकते हैं कि उद्योग व्यापार पर ज्यादा दविश नहीं दी गई और उसी बात को उद्योग व्यापार को राहत दिया जाना मान लेना चाहिए। 

जब राजस्व बढ़ाने के उपाय की बात की गई, तो पर्यटन का जिक्र किया गया। अच्छी बात है, लेकिन ऐसा कोई ठोस प्रस्ताव नहीं दिखता, जिससे हम आश्वस्त होते हों कि आने वाले समय में पर्यटन को बढ़ा लेंगे। हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि भारतवर्ष जैसे देश में पर्यटन के क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं, लेकिन इन संभावनाओं का लाभ लेने के लिए जिस तरह के आधारभूत ढ़ांचे की जरूरत है, उस पर होने वाले खर्च का तो हिसाब लगाना ही मुश्किल हो जाता है। जाहिर है कि इस बारे में हम सिर्फ आकांक्षा ही रख सकते हैं, मूर्तरूप में कोई प्रस्ताव देना बड़ा भारी काम है। कुछ भी हो, यह बात कही गई है, तो हम उम्मीद कर सकते हैं कि पर्यटन को प्रोत्साहित करने के लिए नई सरकार कुछ नीतिगत फैसले तो लेगी ही और यह भी सही है कि इस सरकार का यह पहला साल है। इस दौरान अगर हम चीजों को सिल-सिलेवार लगाने का काम ही कर लेते हैं, तो वह कम नहीं होगा। 


Monday, February 2, 2015

जयन्ती नटराजन ने किया कांग्रेस के 'डूबते जहाज़ में एक और छेद'

कांग्रेस के डूबते जहाज में जयन्ती नटराजन ने एक और छेद कर दिया। कांग्रेसी इसे नमक हरामी कहेंगे क्योंकि जयन्ती नटराजन बिना लोकसभा चुनाव लड़े आलाकमान की कृपा से राज्यसभा सांसद व मंत्री बनती रही है। इसलिए अब अचानक जागा उनका ये वैराग्य कांग्रेसियों की समझ से परे हैं। उन्हें भी दिख रहा है कि जयन्ती नटराजन ने यह कदम राहुल गांधी से अपने सैद्धांतिक मदभेद के कारण नहीं उठाया बल्कि तमिलनाडू की राजनीति को मद्देनजर रख कर उठाया है। तमिलनाडू में अगले वर्ष विधानसभी के चुनाव होने हैं। कांग्रेस वहाँ अपना बचा खुचा जनाधार भी खो चुकी है। अब कहीं से राज्यसभा की सीट ले पाना कांग्रेस में रहते हुए जयन्ती नटराजन के लिए संभव नहीं है। उधर भाजपा तेजी से अपने पांव तमिलनाडू में बढ़ा रही है। जहाँ 2011 के तमिलनाडू के विधानसभा चुनावों में भाजपा अपना खाता तक नहीं खोल पाई थी वहाँ इस बार अमित शाह तमिलनाडू में भाजपा के पांव जमाना चाहते हैं। द्रमुक और अन्ना द्रमुक के खेमों में बटी तमिलनाडू  की जनता को पकड़ने के लिए उनके पास कोई उल्लेखनीय नेता व कार्यकर्ता नहीं है। संघ का भी कोई बड़ा आधार तमिलनाडू में नहीं है। ऐसे में जाहिर है कि जयन्ती नटराजन जैसे हाशिए पर बैठे नेताओं को भाजपा में जाने से कोई आशा कि किरण नजर आ रही है। इसलिए ये आया राम गया राम का सिलसिला दोहराया जा रहा है।
   
रही बात जयन्ती नटराजन के पत्र में राहुल गांधी के खिलाफ लगाये गये आरोपों की, तो प्रश्न उठता है कि यह आत्मबोधि जयन्ती को तब क्यों हुई जब वे सत्ता से बाहर हो गई। जब वे राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार में  मंत्री थी, तब उनकी आत्मा ने उन्हें क्यों नहीं कचोटा। उनके पर्यावरण मंत्री रहते अगर वास्तव में राहुल गांधी उन्हें स्वतंत्र निर्णय नहीं लेने दे रहे थे तो उन्होंने स्वाभिमानी व्यक्ति की तरह अपना जनतांत्रिक विराध क्यों नहीं व्यक्त किया? क्यों वे राहुल गांधी के फरमान मानती रही? क्यों आज ही तरह तब प्रेस कांफ्रेस बुलाकर राहुल गांधी के कामों का खुलासा क्यों नहीं किया? जाहिर है तब उन्हें कुर्सी से चिपके रहने का लालच था। इसलिए खामोश रही। अब न तो कांग्रेस के झण्डे तले कुर्सी बची है और न निकट भविष्य में इसकी संभावना है। इसलिए जयन्ती नटराजन के उपर राहुल गांधी का यह गाना सटीक बैठेगा -

                                     रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह ।
                                         बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह ।।
                                         सौ रूप भरे जीने के लिए, बैठें है हजारों जहर पिये।
                                       ठोकर न लगाना हम खुद है गिरती हुयी दीवारों की तरह ।।

खैर राजनीति में इस तरह से दिल तोड़ने वाले काम अक्सर मौकापरस्त लोग किया करते हैं। यह भी सही है कि सिंद्धातहीन राजनीति के दौर में ऐसे ही लोग अक्सर पनपते भी हैं। तो जयन्ती नटराजन कोई अपवाद नहीं है।

रही बात पर्यावरण व आर्थिक विकास के मुद्दों की तो चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की, दोनों की कुछ सीमाएँ हैं। दोनों चाहते हैं कि तेजी से आर्थिक विकास हो। औद्योगिकरण हो, राजगार बढ़े और निर्यात बढ़े। इसके लिए पर्यावरण की प्रथमिकताओं को दर किनार करना पड़ता है। फिर चाहे खनन हो या वृक्षों का कटान, जनजातीय जनता का विस्थापन हो या नदियों में औद्योगिक प्रदूषण, सब तरफ से आंखे मूंद ली जाती है। इससे उद्योगपति खुश होते हैं और राजनैतिक दलों को भरपूर चंदा देते हैं। मगर दूसरी तरफ आम जनता में आक्रोश फैलता है और उसके वोट खोने का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए यह दुधारी तलवार है। दोनों के बीच संतुलन लाने की जरूरत है। जिससे पर्यावरण भी बच सकें और औद्योगिक विकास भी हो सकें। अच्छा होगा कि प्रभुख राजनैतिक दल इस संवेदनशील सवाल पर आम सहमति पैदा कर लें। और विकास का ऐसा माॅडल तय कर लें कि सरकारें आएं और जाएं पर इस बुनियादी माॅडल में कोई भारी फेरबदल न हो। ऐसा तभी हो सकता है। जब सद्इच्छा हो, जिसकी राजनीति में बहुत कमी पाई जाती है। मौजूदा प्रधानमंत्री औद्योगिकरण, विदेशी निवेश  और आर्थिक विकास को लेकर बहुत उत्साहित है। उधर उनके गुजरात कार्यकाल के दौरान से ही सिविल सोसायटी वाले उनपर पर्यावरण के प्रति असंवेदनशील होने का आरोप लगाते रहे हैं। पर एक आध्यात्मिक चेतनावाला व्यक्तित्व वेदों की मान्यताओं के विपरीत जाकर प्रकृति का विनाश होते नहीं देख सकता। नरेन्द्र भाई को इस विषय में सामुहिक राय बनाकर धुंध साफ कर लेनी चाहिए।

जहाँ तक जयन्ती नटराजन के आरोपों का सवाल है, उनमें अगर तथ्य भी हो तो इसे कोई राजनैतिक बयानबाजी मानकर उनके अगले राजनैतिक कदम का इंतजार करना चाहिए। जब यह साफ हो जाएगा कि उनकी चिंता किसी मुद्दे को लेकर नहीं बल्कि अपने राजनैतिक भविष्य को लेकर थी।