कश्मीर में आज 1989 से भी बदतर हालात हैं। अगर घाटी के लोगों की मानें तो इस बर्बादी के लिए जिम्मेदार हैं उमर अब्दुल्ला। जो अपने नौसिखियापन, अहंकारी स्वभाव और आवाम से संवाद न होने के कारण शांति की ओर बढ़ते हुए कश्मीर को इस हालत में ले आये हैं कि किसी को रास्ता नहीं सूझ रहा। जो नौजवान और महिलाएं कश्मीर की घाटी में जगह-जगह पुलिस और सेना पर पत्थर फेंक रहे हैं, कफर्यु का उल्लंघन कर रहे हैं और आजादी की मांग कर रहे हैं वो पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादी नहीं हैं। उनके हाथों में एक.के. 47 नहीं है। उनका कोई एक नेता नहीं है। वो किसी आतंकवादी संगठन या अलगावादी संगठन से सीधे-सीधे नियंत्रित नहीं हो रहे। यह वह पीढ़ी है जो इंटरनेट देखती है। इन्हें पता है कि पाकिस्तान के हालात कितने नाजुक हैं। पाकिस्तान से मिलकर इन्हें रोटी भी नसीब नहीं होगी। रोजगार तो दूर की बात है। इसलिए ये पाकिस्तान से मिलना नहीं चाहते पर इनका नेतृत्व इस वक्त गुण्डे और मवालियों के हाथों में है। जिनसे कोई बात नहीं की जा सकती।
पिछले 11 जून से घाटी में जो कुछ हो रहा है वह न होता अगर पिछले महीने उमर अब्दुल्ला के मंत्री अली मोहम्मद सागर ने सी.आर.पी.एफ. के खिलाफ भड़काऊ बयान न दिया होता। आक्रामक भीड़ को नियन्त्रित करने के दौरान सी.आर.पी.एफ. की गोली से एक नौजवान क्या मरा, मंत्री महोदय ने सभी टी.वी. चैनलों पर बयान दे डाला कि सी.आर.पी.एफ. बेकाबू हो गयी है। ऐसे गैर जिम्मेदाराना बयान देने वाले मंत्री को मुख्यमंत्री से फौरन फटकार मिलनी चाहिए थी। पर हुआ उल्टा। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सेवानिवृत्त जस्टिस बशीर खान को राज्य मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बनाकर पुलिस के खिलाफ जाँच शुरू करवा दी। जिससे उसका रहा सहा हौसला भी जाता रहा। नतीज़तन जम्मू कश्मीर पुलिस की रीढ़ बनकर खड़ी सी.आर.पी.एफ. पीछे हट गयी। केन्द्रीय सशस्त्र बल किसी राज्य में भेजा ही तब जाता है जब वहाँ का मुख्यमंत्री यह महसूस करे कि उसकी पुलिस हालात से निपटने में नाकाफी है। उमर अब्दुल्ला ने अपनी राज्य पुलिस के भी जो अधिकारी उपद्रवियों के विरूद्ध सख्त कार्यवाही कर रहे थे, उनके खिलाफ प्रशासनिक कार्यवाही और तबादले करने शुरू कर दिये। इस सबसे गुण्डे और मवालियों के हौसले बुलन्द हो गये। उन्होंने सात थाने जला दिये और जनता को भड़काने में जुट गये।
नेशनल कांफ्रेस के विधायक बताते हैं कि उमर अब्दुल्ला का रवैया एक घमण्डी मुख्यमंत्री का रहा है। जो जनता से मिलना तो दूर रहा, अपने विधायकों और अधिकारियों तक से आसानी से नहीं मिलते। इससे पूरे प्रशासन में उमर अब्दुल्ला के प्रति काफी आक्रोश है। वे जनता के बीच जाने में कतराते हैं और उनसे कोई संवाद नहीं करते। इसलिए आज कश्मीर की जनता पर उनकी पकड़ खत्म हो गयी है, जो कभी थी भी नहीं। उधर विपक्ष की नेता महबूबा मुफ्ती आग को हवा देने का काम कर रही हैं। वह तो चाहती ही हैं कि ये सरकार विफल हो और वे अगली सरकार बनायें। ऐसी हालात में जरूरत है फारूख अब्दुल्ला की, जो परिपक्व भी हैं और जनता से संवाद कायम करने में सक्षम भी। लोगों का उन पर भरोसा भी है। मौजूदा हालात में जैसे भी हो फारूख अब्दुल्ला को फौरन मुख्यमंत्री बनाना चाहिए। बनते तो वे शुरू में भी क्योंकि यह चुनाव उनकी लोकप्रियता पर जीता गया था। पर इंका के दबाव में उन्हें अपने बेटे के लिए कुर्सी छोड़नी पड़ी। फारूख भी मानते हैं कि कश्मीर के हालात को अब सुधारना सरल काम नहीं है। पर लंबे राजनैतिक अनुभव के कारण वे समाधान ढूंढने में सहायक हो सकते हैं।
दरअसल 9 अगस्त 1953 को शेख अब्दुल्ला को गिरफ्तार कर केन्द्रीय सरकार ने बहुत बड़ी भूल की थी। उसके बाद कश्मीर के साथ जिन शर्तों पर विलय हुआ था उन्हें धीरे-धीरे दरकिनार किये जाने लगा। आपातकाल में फारूख अब्दुल्ला के साथ इंदिरा गांधी ने 1975 में जो समझौता किया उसने तो विलय के समय की शर्तों की पूरी तरह अवहेलना कर दी। जिससे घाटी में आक्रोष बढ़ता चला गया। अब हालात इतने बेकाबू हैं कि लगता है कश्मीर के मामले मेें सरकार को 1953 से पहले की शर्तों पर लौटना पड़ेगा, वरना ये युवा पीढ़ी आसानी से चुप बैठने वाली नहीं है। इन्हें आजादी चाहिए। पर यह स्वायत्ता पाकर भी उतने ही संतुष्ट होंगे। बंदूक के जोर से आम जनता के आंदोलन को कुचला नहीं जा सकता। उसके लिए तो राजनैतिक समाधान ही निकाले जाने चाहिए। ये बात दीगर है कि पिछले 50 वर्षों में केन्द्र सरकार ने कश्मीर की सरकार को कठपुतली बना कर रखा और सेना के जांबाज़ सिपाहियों को अपनी ढुलमुल नीतियों के कारण जनता के विरोध का सबब बनाया। सेना के जवान इस दोहरी नीति के चलते भारी मात्रा में शहीद हुए, अपमानित हुए और मानसिक यातना से गुजरे। आज भी उनके काम की दशा बहुत खतरनाक और तकलीफदेह है। सेना मानती है कि उसे सीधे कारवाही करने की अनुमति मिले तो वह हल निकाल सकती है। लेकिन फिर कश्मीर में लोकतंत्र की स्थापना करना और भी दुर्लभ हो जायेगा।
इसमें शक नहीं कि पाकिस्तान और उसकी खुफिया ऐजेंसी आईएसआई ने मौजूदा हालात की भूमिका तैयार करने में अपनी ताकत झोंकी है। पाकिस्तान कश्मीर को हड़पना चाहता है। पर यह सम्भव नहीं है। इसलिए उसे कश्मीर की आजादी में भी उतनी ही रूचि है। क्योंकि उसे मालूम है कि एक स्वतंत्र कश्मीर को नियंत्रित करना अधिक सरल होगा। ये बात दूसरी है कि तब संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं की दखलअंदाजी से अमरीका कश्मीर पर काबिज हो जायेगा। इसलिए मौजूदा संकट को इस परिपेक्ष में भी देखने की जरूरत है ताकि इसकी गम्भीरता को कम करके न आंका जाए। इसलिए केन्द्रीय सरकार के लिए कश्मीर का फौरी समाधान ढूंढ़ना पहली प्राथमिकता है।