Sunday, August 1, 2010

सतर्कता आयोग की दुर्गति क्यों?

 केन्द्र सरकार के महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने और भ्रष्ट अधिकारियों के आचरण की जाँच करने का दायित्व केन्द्रीय सतर्कता आयोग पर है। 1998 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे व्यापक अधिकार देकर सी.बी.आई. व आयकर विभाग जैसी एजेंसियों के हर काम पर निगरानी रखने का जिम्मा भी सौंपा था। पर पारदर्शिता का दावा करने वाली डा¡. मनमोहन सिंह की सरकार केन्द्रीय सतर्कता आयोग को पंगु बनाने पर तुली है। तीन सदस्यीय इस आयोग में एक सदस्य भारतीय प्रशासनिक सेवा, दूसरे सदस्य भारतीय पुलिस सेवा व तीसरे सदस्य भारतीय बैंकिंग सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारियों में से चुने जाते हैं। आयोग पर काम का इतना बोझ है कि ये तीन अधिकारी भी मिलकर काम नहीं संभाल पाते। पर लगता है कि सरकार की इच्छा ही नहीं है कि सतर्कता आयोग मुस्तैदी से काम करे। वरना क्या वजह है कि गत् 2009 के नवम्बर महीने में केन्द्रीय सतर्कता आयोग के सेवानिवृत्त हुए दो सदस्यों, श्रीमती रंजना कुमार व श्री सुधीर कुमार के पद इस जुलाई के अंत नहीं भरे गये। जबकि यह चयन प्रक्रिया इन पदो के रिक्त होने से पहले ही पूरी हो जानी चाहिए थी।

विनीत नारायण बनाम भारत सरकारमामले में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने सतर्कता आयोग के सदस्यों के चयन की जो प्रक्रिया निर्धारित की है, उसमें केवल तीन लोगों को बैठक करनी होती है; प्रधानमंत्री, संसद में प्रतिपक्ष के नेता व केन्द्रीय गृहमंत्री। क्या ये तीनों दिल्ली में रहते हुए इतने भारी व्यस्त हैं कि गत आठ महीने में एक घण्टे का समय भी केन्द्रीय सतर्कता आयोग जैसी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था के सदस्यों के चयन के लिए नहीं निकाल सकते? इस बैठक को बुलाने की जिम्मेदारी गृहमंत्रालय के कार्मिक विभाग देखने वाले राज्यमंत्री पृथ्वीराज चैहान की है। इस कोताही के लिए उनके पास कोई जबाव नहीं है। पत्रकारों द्वारा पिछले एक महीने में जब लगातार दबाव बनाया गया, तब कहीं जाकर 30 जुलाई को यह बैठक बुलाने की कवायद शुरु हुइ है। इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि अब जो नये सदस्य आयेंगे उन्हें वर्तमान मुख्य सतर्कता आयुक्त प्रत्यूष सिन्हा के साथ काम करने का एक महीने का भी समय नहीं मिलेगा। आगामी 6 सितम्बर को सेवानिवृत्त हो रहे श्री सिन्हा कैसे अपने नये साथियों को इस विभाग की संवेदनशील लम्बित फाइलों के बारे में बता पायेंगे? अगर पिछले नवम्बर में समय से यह नियुक्तियाँ हो जातीं तो नये सदस्यों को श्री सिन्हा के साथ 10 महीने तक काम करने का मौका मिलता। अब 6 सितम्बर से आयोग के तीनों ही सदस्य नये होंगे, जिससे आयोग के काम में काफी अड़चन आयsगी।

हम इस का¡लम में बहुत पहले जिक्र कर चुके हैं कि केन्द्रीय सतर्कता आयोग को जो अमला दिया गया है, वह भी इसके दायित्वों को देखते हुए नाकाफी हैं। भ्रष्टाचार के मामले में दुनियाभर की सरकारों के आचरण पर निगाह रखने वाली संस्था ट्रांसपेरेंसी इण्टरनेशनलकी रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया के भ्रष्टतम राष्ट्रों में से एक है। जाहिर है जहाँ भ्रष्टाचार इस कदर है वहाँ इस पर नियन्त्रण रखने वाले आयोग के काम का दायरा कितना बड़ जायेगा। आगामी राष्ट्रकुल खेलों को ही ले लीजिए। इनके आयोजन की तैयारी में हजारों करोड़ रूपया रात-दिन पानी की तरह बहाया गया है। पारदर्शिता और जबावदेही की सारी मर्यादाओं को ताक पर रखकर भ्रष्टाचार का नंगा नाच हो रहा है। तमाम मामले केन्द्रीय सतर्कता आयोग के पास पहुँच चुके हैं। ऐसे में एक सदस्यीय आयोग कितना बोझा उठा सकता है?

भारत में जितने भी संवैधानिक पद हैं, उन पर नियुक्त होने वाले व्यक्ति का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया है। जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त, केन्द्रीय सूचना आयुक्त, महालेखाकार आदि। पर केन्द्रीय सतर्कता आयोग के सदस्यों का कार्यकाल मात्र 4 वर्ष रखा गया है। इसके पीछे क्या तर्क है, समझ के बाहर है? इस आयोग को भी अन्य आयोगों की तरह समान कार्यकाल क्यों नहीं दिया जा सकता?

जैन हवाला काण्ड के नाम से मशहूर मुकदमे की सुनवाई करते हुए जब सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि सी.बी.आई. लगातार प्रधानमंत्री कार्यालय से निर्देश लेती है और स्वतन्त्र व्यवहार नहीं कर पाती तो अदालत ने सी.बी.आई. की स्वायत्ता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से उसे केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अधीन किये जाने के निर्देश दिए। साथ ही यह भी निर्देश दिए कि कानून की निगाह में सब बराबरके सिद्धांत का पालन करते हुए किसी भी पद पर बैठे वरिष्ठ अधिकारी या मंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत आने पर सी.बी.आई. को सरकार से अनुमति नहीं लेनी होगी। पर विडम्बना देखिए कि संसदीय समिति ने, इसमें सभी दलों के सांसद सदस्य होते हैं, सर्वोच्च न्यायालय के इस नियम की धज्जियाँ उड़ा दीं। नतीजतन कहने को तो सी.बी.आई. केन्द्रीय सतर्कता आयोग की निगरानी में कार्य करती है, पर वास्तव में उसकी स्थिति आज भी पूर्ववत् है। यानि उच्च पदस्थ अधिकारियों और मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की जाँच करने की उसे छूट नहीं है। ऐसा करने से पहले सी.बी.आई. को प्रधानमंत्री कार्यालय से पूर्वानुमति लेनी होती है। विडम्बना यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय सी.बी.आई. की ऐसी सभी प्रार्थनाओं पर कान बहरे करके बैठा रहता है और सालों अनुमति प्रदान नहीं करता। नतीज़तन उच्च पदस्थ भ्रष्ट अधिकारी न सिर्फ अपने पद पर बैठे रहते हैं, बल्कि प्रधानमंत्री कार्यालय के अघोषित सुरक्षा कवच में अपने अनैतिक कारनामों को डंके की चोट पर अंजाम देते रहते हैं। ऐसा अब तक के हर प्रधानमंत्री के कार्याकाल में होता आया है, चाहे वह यू.पी.ए. का रहा हो या एन.डी.ए. का। इतना ही नहीं पिछले दिनों इस आयोग से सरकार ने वह अधिकार भी छीन लिया जिसके तहत यह सी.बी.आई. को केस रजिस्टर करने का निर्देश देता था। ऐसे तमाम प्रमाण हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि केन्द्र में सरकार में कोई भी दल हो, वो उच्च पदासीन व्यक्तियों के विरूद्ध भ्रष्टाचार की जाँच नहीं होने देना चाहता। इसलिए केन्द्रीय सतर्कता आयोग की लगातार दुर्गति की जा रही है। पर पारदर्शिता के लिए पहचाने जाने वाले डा¡. मनमोहन सिंह को क्या हो गया है जो वे अपनी नाक के नीचे हो रही इस अन्धेर को अनदेखा किए बैठे हुए हैं?

No comments:

Post a Comment