Sunday, July 18, 2010

दलित मुख्यमंत्री के राज में निषाद दुखी क्यों?

भगवान राम को सरयू पार कराने वाले निषाद राज केवट ने राम राज में तो सुख भोगा पर यह कभी नहीं सोचा होगा कि कलियुग में जब दलितों का राज आयेगा तो निषादों की संतानों पर अत्याचार होंगे और उनसे उनके जीने के साधन छीन लिये जायेंगे। प्रयागराज इलाहाबाद में यमुना, गंगा व सरस्वती का मिलन स्थल है। यहां लगभग 300 किमी0 यमुना का कछार बहुत बढि़या यमुना रेत से पटा पड़ा है। जिसे खोद कर बेचने का पारंपरिक कानूनी हक स्थानीय समुदाय को होता है, जो इस इलाके में निषाद है। पर स्थानीय खनन माफिया के चलते आज यह निषाद समुदाय दर-दर की ठोकरे खा रहा है। दुर्भाग्यवश भाजपा, बसपा व सपा के स्थानीय विधायक और नेता भी या तो खनन माफिया के साथ हैं या सीधे लूट में शामिल हैं।

इतना ही नहीं उनके पारंपरिक रोजगारों पर भी इसी माफिया का नियंत्रण है। नदी के किनारे गैर मानसूनी महीनों में खेती करना या नाव पार कराना या मछली पकड़ना स्थानीय समुदाय के नैसर्गिक अधिकार हैं। पर यह सब करने के लिए भी उन्हें स्थानीय माफियाओं को टैक्स देना पड़ता है। जैसे खादर में लगने वाले तरबूज के हर पौधे पर पांच रू0, मछली पकड़ने पर हर किलो 50 रु0। इतना ही नहीं नाव चलाने का ठेका भी किसी निषाद के नाम पर लेकर उसे कोई माफिया ही चलाता है और खुद लाखों कमाता है जबकि निषाद भूखे मरते हैं। इलाहाबाद की बारह, कर्चना तहसील, कोशाम्बी की छैल व मंझनपुर तहसील और चित्रकूट की मउ तहसील के निषादों को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से पढ़े डाॅ. आषीश मित्तल व उनके साथियों ने आल इंडिया किसान मजदूर सभाके झंडे तले संगठित कर इस शोषण के विरुद्ध लगतार बार-बार प्रर्दशन किये। जिला प्रशासन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सन् 2008 के आदेश व प्रदेश सरकार के सन् 2000 के आदेशों का हवाला दिया। पर कोई सुनवाई नहीं हुई। बल्कि इन सबके विरुद्ध पुलिस और गुंडों का आतंक बढ़ता गया। बार-बार संघर्ष हुये। जिनमें मजदूर घायल हुये और मारे भी गये। पर पुलिस और प्रशासन का रवैया खनन माफियाओं की तरफदारी वाला रहा और माफिया द्वारा सताये जा रहे निषादों के खिलाफ दर्जनों फर्जी मुकदमें कायम कर दिये गये। बावजूद इसके इन जुझारू निषादों का मनोबल नहीं टूटा और यह आज भी अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। क्या यह संभव है कि दलितों के लिए दबंगाई से आवाज उठाने वाली सुश्री मायावती, जोकि प्रदेश की पहली बहुमत वाली दलित सरकार की नेता हैं, को इस दमन चक्र का पता ही न हो?

ऐसी ही लड़ाई छत्तीसगढ़ क्षेत्र में वर्षोंं से छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा स्थानीय वनवासियों के हक के लिए लड़ रहा है। जिनके जंगल, पहाड़ और खदानों पर बाहरी माफियाओं ने कब्जा कर लिया है। इनके लोकप्रिय नेता शंकर गुहा नियोगी की 90 के दशक में माफियाओं द्वारा हत्या कर दी गयी थी। पर उससे उनका संघर्ष दबा नहीं और तीव्र हो गया। यहां तक की उनके ही मजदूर साथी जनक लाल ठाकुर विधायक भी चुन लिये गये। उल्लेखनीय है कि जनक लाल ठाकुर ने न तो मजदूरों की बस्ती में रहना छोड़ा और ना ही उनकी मां ने खदान में पत्थर तोड़ना छोड़ा। 1994 से मैं कई बार रायपुर, राजनंद गांव, भिलाई, दुर्ग, कांकेड़ के इन इलाकों में इन संघर्षों को देखने जा चुका हूं। आईआईटी और लंदन स्कूल आॅफ इक्नाॅमिक्स से पढ़ी सुधा भारद्वाज या दिल्ली के प्रतिष्ठित सैंट स्टीफेंस काॅलेज से पढ़े अनूप सिंह जैसे युवा जो इन मजदूर बस्तियों में रह कर इन मजदूरों को संगठित करते रहे है, कोई अहमक लोग नहीं हैं। गरीब का दर्द उनसे देखा नहीं गया। इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों की गुलामी और महानगरों की आरामदेह जिंदगी छोड़ इन खदानों में जिंदा शहीद होने चले आये।
तीसरा उदाहरण इन दोनों से अलग है। पर घटनाक्रम एक सा है। राजस्थान के भरतपुर जिले में डीग और काॅमा तहसील के पर्वतों की रक्षा के लिए गत आठ वर्षों से जो संघर्ष चला उसके प्रणेता विरक्त संत रमेश बाबा हैं। जिन पर नक्सलवादी होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। इस संघर्ष में अपनी आध्यात्मिक रूचि के कारण युवा साधु संतों और स्थानीय ग्रामीणों के साथ मैने और मेरे कई साथियों ने अपनी ऊर्जा लगाई। पर अनुभव वैसे ही हुए जैसे नक्सलवादी या प्रगतिशील नेतृत्व वाले संगठनों को होते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि इन पर्वतों का श्रीकृष्ण लीला में भारी महत्व रहा है। उन दिनों राजस्थान में भाजपा की सरकार थी। फिर भी भगवान की लीलास्थली की रक्षा के लिए हमें वर्षों संघर्ष करना पड़ा। बोलखेड़ा के ग्रामवासियों और धरने पर बैठे युवा साधुओं पर झूठे मुकदमें लगाये गये। 7 दिसम्बर 2006 को खान माफियाओं और स्थानीय भाजपा अध्यक्ष ने खुद खड़े होकर ब्रज रक्षक दल की गाड़ी पर हमला किया जिसमें मेरे अलावा भाजपा के राज्य सभा सांसद व उ0 प्र0 के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे बी.पी. सिंघल सहित अन्य लोग भी सवार थे। यह हमें जान से मारने की साजिश थी। पर भगवत् कृृपा से पूरी तरह तोड़ दी गयी गाड़ी में भी जान बचाकर निकल सके। हमारा 32 किमी0 तक पीछा गया। आश्चर्य की बात है कि तमाम चश्मदीद गवाहों के वहां मौजूद होने के बावजूद पुलिस ने इन आक्रमणकारियों के खिलाफ आज तक ईमानदारी से जांच तक नहीं की, कारवाई करना तो दूर की बात रही। इन पर्वतों को आरक्षित वन घोषित करने वाले इंका के मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत को शायद इस घटना की जानकारी नहीं। वरना ये हमलावर अब तक बेखौफ नहीं घूमते।

बसपा, भाजपा व इंका शासित इन तीनों राज्यों की इन घटनाओं के संदर्भ में  सोचना हागा कि अगर नक्सलवाद, केन्द्रीय गृहमंत्री और प्रधानमंत्री के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया है तो दोष किसका है? नक्सलवादियों का या उस पुलिस, शासन व न्यायतंत्र का जो आम लोगों के प्राकृतिक हक को छीन कर, दानवीवृत्ति से उनके परिवेश व जीने के साधनों को बर्बाद करने वाले खनन माफियाओं का साथ देता है?

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