Friday, March 3, 2000

राम भरोसे स्वास्थ्य सेवाएँ

आजादी के बाद नियोजित कार्यक्रम के तहत देश भर में जो कार्यक्रम शुरू किए गए थे, उनमें ग्रामीण इलाकों के लिए स्वास्थ्य परियोजनाएं भी थीं । मकसद था देश के देहातों में स्वास्थ्य सेवाओं का जाल बिछाना ताकि गरीब लोगों की सेहत सुधर सके। आज पचास वर्ष बाद हालत यह है कि गरीब की सेहत सुधरना तो दूर स्वास्थ्य सेवाओं की ही सेहत खराब हो गई है। बावजूद इसके नए नए नारों से, नए नए वायदों से, नई नई योजनाओं के सपने दिखाकर देश का पैसा बर्बाद किया जा रहा है। स्वास्थ्य आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसलिए उसकी चिंता जितनी आम आदमी को होती है उतनी ही सरकार को भी होनी चाहिए। केन्द्र की मौजूदा सरकार ने कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के लिए विशेष रूचि दिखाई है। एक मंत्राी इसी काम के लिण् तैनात कर दिया है। जाहिर है कि सभी चालू सरकारी योजनाओं की गुणवत्ता में सुधार आना चाहिए। इसलिए जरूरी है कि अब तक चले कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का मूल्यांकन किया जाए। उत्तर प्रदेश में भाजपा की ही सरकार है। अगर कोई सुधार लागू हो सकता है तो वह यहां ज्यादा सरलता से होगा बजाय उन राज्यों के जहां केन्द्र सरकार के विरोधी दल सत्ता में हैं। देश की संसद को सातवां हिस्सा सांसद देनेवाला सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में बुरी तरह विफल रहा है। पिछले कई वर्षों की भाजपा सरकार के बावजूद इसके हालात सुधर नहीं रहे हैं। विकास के नाम पर विनाश की यह बर्बादी पांच दशक पुरानी है। जिसका बड़ा गहरा अध्ययन वाॅलन्ट्री हेल्थ ऐसोसिएशन की उत्तर प्रदेश टीम ने किया है। जिससे सारी तस्वीर साफ हो जाती है। बिना संकोच के यह माना जा सकता है कि जो तस्वीर उत्तर प्रदेश की है कमोवेश वही तस्वीर देश के बाकी प्रान्तों की भी है।

नियोजित विकास के तहत प्रदेश के देहातों में सामुदायिक विकास खण्डों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना की गई। मूल सोच यह थी कि ग्रामवासियों के लिए चिकित्सा, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण सेवाएं एकीकृत रूप में उपलब्ध कराई जायेंगी। जिनमें उपचार, वातावरण स्वच्छता (सुरक्षित पेय जय आपूर्ति व कूड़ा-मलमूत्रा निपटाना), मातृ शिशु स्वास्थ्य, विद्यालय स्वास्थ्य, संक्रामक रोगों की रोकथाम, स्वास्थ्य शिक्षा व जन्म-मृत्यु आंकड़ों का संकलन जैसी सेवाएं शामिल थीं। दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर उत्तर प्रदेश में 907 प्राथमिक स्वास्थ केन्द्र स्थापित हो चुके थे। मैदानी क्षेत्रों में 5000 व बुन्देलखण्ड व पर्वतीय क्षेत्रों में 3000 की आबादी पर एक मातृ शिशु स्वास्थ्य उपकेन्द्र भी खोले गए। इन उपकेन्द्रों पर प्रसवपूर्व, प्रसव के दौरान व प्रसवोपरान्त स्वास्थ सेवाओं के साथ प्रतिरक्षण, निर्जलीकरण उपचार के लिए घोल वितरण और खून की कमी दूर करने के लिए आयरन या फोलिक एसिड की गोलियां बांटना व अन्धेपन व नेत्रारोग से बचाव हेतु विटामिन घोल बांटना शामिल था। कालान्तर में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में परिवर्तित होना था। इसलिए पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान इन केन्द्रों में जहां शल्य क्रिया, बाल रोग विशेषज्ञ, महिला रोग विशेषज्ञ व पैथालाॅजी सेवाएं और बढ़ाई गईं वहीं प्रत्येक केंद्र में मरीजों के लिए उपलब्ध बिस्तरों की संख्या 6 से 30 कर दी गई। जाहिर है इस पूरे तामझाम पर जनता का अरबों रूपया खर्च हो रहा है। पर क्या जो कुछ कागजों पर दिखाया जा रहा है वह जमीन पर भी हो रहा है ? उत्तर प्रदेश के किसी भी गांव में जाकर असलीयत जानी जा सकती है। इतना ही नहीं आबादी के तेजी से बढ़ते आकार के बावजूद 1988-89 से पूरे प्रदेश में जनसंख्या पर आधारित सेवा केन्द्रों व कर्मचारियों को बढ़ाने का काम ठप्प पड़ा है। प्रदेश के 48 ए.एन.एम. प्रशिक्षण केन्द्रों में डल्लू बोल रहे हैं। यहां से आखिरी बैच 1986-87 में निकला था। जिसमें 2000 स्वास्थ्यकर्मि पास हुए थे। पर उनकी भी आज तक न तो नियुक्ति की गई और न ही उपकेन्द्र ही खेले जा सके। इन केन्द्रों के हाल इतने बुरे हैं कि सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में कोई भी विशेषज्ञ अपनी नियुक्ति नहीं चाहता। सब जानते हैं कि ए.एन.एम. गांव में नहीं रहती। प्रशिक्षण केन्द्रों का पूरा स्टाफ व साज सज्जा 10 साल से बेकार पड़ी है। पिछले 10 वर्षों से जो स्टाफ रिटायर हो चुका है उनकी जगह रिक्त हुए पदों पर कोई प्रतिनियुक्ति नहीं हुई। अतः हजारों की संख्या में महिला व पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के पद खाली पड़े हैं। दिवालिया सरकार और कर भी क्या सकती है ?

इस तरह यह सभी सेवा केन्द्र चिकित्सकीय व स्वास्थ्य सेवाएं तो न मुहैया करा पाये, अलबत्ता नसबन्दी कराने के केन्द्र जरूर हो गए। 1970-71 से 1991-92 तक नसबंदी के अलावा यहां कुछ भी नहीं हुआ। बीस सूत्राीय कार्यक्रमों के दौरान जो फर्जी नसबंदी का दौर चला था, वह अभी थमा नहीं है। नसबंदी की उपलब्धियां फर्जी तौर पर बढ़ा चढ़ाकर बताई जाती रहीं और इन्हीं ‘उपलब्धियों’ की एवज में नौकरशाह करोड़ों रूपए के पुरस्कार लेते रहे। इस तरह प्रदेश की बेबस जनता पर दुहरी मार पड़ी है। 1994 में काहिरा के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में तय हुआ कि लक्ष्य निर्धारण बजाए ऊपर से नीचे की तरफ होने के, नीचे से ऊपर की ओर होगा। इससे तो स्वास्थ्य कर्मियों की मौज आ गई। काम तो वो पहले भी कागजों पर ज्यादा करते थे, अब तो उसकी भी जरूरत नहीं रही क्योंकि लक्ष्य मुक्त कार्यविधि 1995-96 से लागू कर दी गई। इस तरह सब कार्यमुक्त हो गए व नसबंदी भी नहीं हुई। इस घोटाले से उबरने के लिए भारत सरकार ने मजबूर होकर दुबारा लक्ष्य मुक्त पद्धति के स्थान पर सामुदायिक परख पद्धति 1997 में लागू की। मकसद था कि समुदाय की आकांक्षाओं के अनुरूप सेवाएं दी जाएं। सबसे बड़ी बात यह हुई कि नीति व पद्धतिगत इस मौलिक बदलाव के लिए कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण बाद में हो रहा है, यानी घोड़ांे के आगे गाड़ी खड़ी है। फिर ये गाड़ी चलेगी कैसे ?
1970-71 से प्रदेश में अन्तर्राष्ट्रीय दाताओं का बड़े पैमाने पर प्रादुर्भाव हुआ। विश्व बैंक द्वारा इसी वर्ष प्रदेश के 6 पूर्वी जिलों में ‘भारत जनसंख्या परियोजना’ लागू हुई। योजना का मूल उद्देश्य सेवा संगठनों को मजबूत करना था। फलतः एक ओर नव निर्माण शुरू हुआ दूसरी ओर नए चिकित्सकीय सेवा केन्द्र खोले गए। आजमगढ़, गाजीपुर, बलिया में तमाम उपकेन्द्र गांव से दूर बनाए गए, जो कभी इस्तेमाल नहीं हुए। आज ये केंद्र वीराने में खण्डहर बन चुके हैं। इसी तरह लखनऊ में खोले गए 8 मैटरनिटी होम में विभाग के अन्य कार्यालय खुल गए हैं। सेवा के नाम पर यहां सब कुछ शून्य हैं। इसी परियोजना में लखनऊ में एक जनसंख्या केन्द्र भी खोला गया था। 1979-80 से पुनः विश्व बैंक संपोषित ‘भारत जनसंख्या परियोजना-2’ लागू हुई। जिसका मूल उद्देश्य सूचना, शिक्षा संचार व प्रशिक्षण था। इस योजना के नाम पर तमाम ब्यूरोक्रेट-टेक्नोक्रेट अमरीका, थाईलैण्ड, इंग्लैण्ड आदि से प्रशिक्षण लेकर आए। पर जहां से प्रशिक्षण ले गए थे, वहां वापिस लौटकर नहीं आए। उन्हें उनकी नियुक्ति दूसरी जगह कर दी गई, आखिर क्यों ? जब यही करना था तो लाखों रुपया प्रशिक्षण पर बर्बाद करने की क्या जरूरत थी ? इसी तरह सूचना शिक्षा संचार के नाम पर प्राइवेट छपाई भी लाखों रूपए खर्च करके करवाई गई। जनचेतना फैलाने के नाम पर छपवाई गई यह स्टेशनरी कभी काम नहीं आई। न जाने कितने फार्म छपे व रद्दी में बिक गए।

इस पूरे कार्यक्रम के नतीजे असन्तोषजनक थे। ऐसा विश्व बैंक द्वारा कराए गए मूल्यांकन से पता चला। नतीजतन उत्तर प्रदेश को ‘भारत जनसंख्या परियोजना 3,4,5’ नहीं दी गई। पर इसके कुछ अन्तराल के बाद 1989-90 में ‘भारत जनसंख्या परियोजना-6’ उत्तर प्रदेश को मिल गई। जिसका मूल उद्देश्य श्रम संसाधनों का विकास करना था। इस योजना के तहत ऊपर के अधिकारी तो विदेशी सैेरगाहों में घूम आए पर नीचे का स्टाफ भी पीछे नहीं रहा। वे भी अहमदाबाद, गांधीग्राम, मुंबई में सैर सपाटे करता रहा। फिर आया सूचना क्रांति का दौर। स्वास्थ्य सेवा भले ही लोगों को न मिले पर सूचना के आधुनिक उपकरणों को खरीदनें में संकोच क्यों किया जाए ? सूचना नहीं तो कमीशन की आमदनी तो होगी ही। इसलिए प्रौद्योगिकी से तालमेल बिठाए रखने के नाम पर कराड़ों रूपये के सैकड़ों कंप्यूटर व व बाकी का साजो सामान खरीद लिया गया। जनजागरण के नाम पर हजारों रंगीन टी.वी. व वी.सी.आर. भी खरीदे गए, जो स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकारियों के बंगलों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इतना ही काफी नहीं था और भी घोटाले हुए। प्रथम पंचवर्षीय योजना के दौरान खोलेे गए जनसंख्या केन्द्रों के ही साइन बोर्ड रातोंरात बदलकर उन्हें स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण प्रशिक्षण केन्द्र में तबदील कर दिया गया। केन्द्र की जमीन की पुनः खरीद दिखाई गई। बने भवनों में थोड़ा परिवर्तन करके पूरे भवन निर्माण की राशि वसूल कर ली गई। परिवार प्रशिक्षण के लिए पहले 7 क्षेत्राीय प्रशिक्षण केन्द्र थे जिनके स्थान पर 18 केन्द्र खोल दिए गए। जिनका भवन निर्माण हुआ, साज-सज्जा के लिए भारी खरीदारियां की गईं, पर योजनाबद्ध तरीके से कभी कोई प्रशिक्षण नहीं हुआ। दरअसल तो इन केन्द्रों में पहुंचवालों की बारातें टिकती रहती हैं। गरीब जनता के पैसे से खरीदे गए कंप्यूटर व साज सज्जा अपनी मूल पैकिंग में रखे रखे ही आउटडेटेड हो गए।

फिर एक नया नारा दिया गया कि ‘सन् 2000 ई. तक सबके लिए स्वास्थ्य’ की गारन्टी होगी। 1978-79 में अल्माआटा, रूस में विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन हुआ जिसमें शताब्दी के शेष दो दशकों में स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ करने व सन् 2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य उपलब्ध करा देने के लक्ष्यों की घोषणा की गई। औरों की क्या कहें खुद भारत सरकार का ही मानना है कि उत्तर प्रदेश में ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ का लक्ष्य पूरा करने में अभी 100 साल और लगेंगे।
वैश्वीकरण व उदारीकरण के दौर में जो हो रहा है वह भी कम रोचक नहीं। कुछ समय पूर्व तक ग्रामवासी पूरी तरह आत्मनिर्भर होते थे। हजारों साल से हमारे गांव में रहने वाले हर व्यक्ति की जरूरतें गांव में ही पूरी हो जाती थी। पशुधन प्रचुर मात्रा में था। प्रौद्योगिकी विकास से परिवर्तन तो जरूर आया, पर कैसा ? साठ के दशक में हम गेहूं बाहर से मंगाते थे। हरितक्रांति के फलस्वरूप आज देश में रेकार्डतोड़ खाद्यान्न उत्पादन होता है। पर इसके बावजूद हमारे देश में 0-14 आयुवर्ग में 60 फीसदी बच्चे भयंकर कुपोषण के शिकार हैं। महिलाओं में 80 फीसदी गर्भवती महिलाएं खून की कमी से पीडि़त हैं। 35 फीसदी गर्भ जोखिम भरे होते हैं। पौष्टिक आहार की कमी इसका प्रमुख कारण है। हरित क्रांति के बावजूद ऐसा क्यों हो रहा है ?
बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्रा में हुई खोजों व शोध के कारण उपचार के क्षेत्रा में अत्यधिक सुविधाएं आज सुलभ हैं। हृदय के साथ ही अन्य अंगों का प्रत्यारोपण भी आज हो रहा है। परन्तु वैश्वीकरण व उदारीकरण के फलस्वरूप इस दिशा में जितना भी विकास हुआ व सेवा सुविधाएं उपलब्ध हुईं उन तक पहुंच समाज के धनाढ्य व नव-धनाढ्य वर्ग की ही है। आम जनता को इससे कुछ लेना देना नहीं है। अपोलो अस्पताल, एस्कोर्ट अस्पताल या ऐसे तमाम दूसरे बड़े सरकारी संस्थान या प्राइवेट अस्पताल या क्लीनिक की सेवाएं केवल विशिष्ट वर्ग के लिए ही सुरक्षित व सुलभ हैं। दूसरी त्रासदी यह है कि कुछ गिनेचुने विशेषज्ञ जिनकी सेवाएं सामान्य जनता को सरकारी अस्पतालों में मिल भी जाती थीं, वह भी अब इन्हीं पांच सितारा अस्पतालों में चले गए हैं।

इस प्रक्रिया का कुप्रभाव दवाइयों के उत्पादन, मूल्यांकन, वितरण व विक्रय पर भी पड़ रहा है। जीवनरक्षक दवाइयों का उत्पादन आवश्यकतानुसार नहीं है। जबकि प्रतिबन्धित बेहूदा, तर्कहीन व प्रभावहीन दवाइयों का उत्पादन ज्यादा हो रहा है। जेनरिक नाम से 400-500 के बीच ही सभी जरूरी दवाइयां आ जाती हैं। जबकि ब्रांड नाम से 30 हजार से ज्यादा दवाइयां बाजार में अटी पड़ी हैं। डाक्टर इन्हें लिख रहे है। मरीज खरीद रहे हैं व विदेशी कंपनियां मालामाल हो रही हैं। नकली व मिलावटी दवाइयों का बाजार समानान्तर चल रहा है। दवाइयों के पेटेण्ट नियम लागू होते ही रही सही कसर भी पूरी हो जायेगी, क्योंकि भारत सरकार डब्ल्यू.टी.ओ. के निर्देशों को मान चुकी है।

उदारीकरण का एक और महत्वपूर्ण परिणाम स्वैच्छिक संस्थाओं को सीधे मिलने वाली फंडिंग के रूप में भी उभर कर आया है। तमाम अन्तर्राष्ट्रीय दाता संगठनों व संस्थाओं ने सरकार के सामने यह शर्त रखनी शुरू की कि वह गैर सरकारी संस्थाओं व स्वैच्छिक संस्थाओं को ही फंडिंग करेंगे। जाहिर है कि यह बदलाव इसलिए आया कि ये संगठन सरकारी तंत्रा की लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, लूट, निकम्मापन व गैरजिम्मेदारी के रवैये से त्रास्त हो चुके थे। सरकार भी खुलकर मानने लगी थी कि विकास के काम सरकारी तंत्रा से उतनी कुशलता व लगन से नहीं हो सकते, जितना स्वैच्छिक संस्थाओं के द्वारा। पर इससे नई किस्म के घोठाले होने लगे। तमाम फर्जी स्वयंसेवी संस्थाएं सामने आ गई। विशेषज्ञों का मानना है कि होना यह चाहिए था कि विभिन्न स्तरों पर जो स्वैच्छिक संस्थाएं अच्छा काम कर रही थीं, उन्हीें को यह फंडिंग होती और वही विकास का काम करतीं। परन्तु सरकार ने इसकी भी काट निकाल ली। जहां विकास व समाज सेवा के नाम पर सरकार के पास पूरी फौज तैनात थी, पूरे पूरे विभाग व पूरा सरकारी अमला व संसाधन मौजूद थे, वहीं सरकार ने ही स्वैच्छिक संस्थाएं बनाकर उन्हें पंजीकृत कराना शुरू कर दिया और सभी फंडिंग इन्हीं के द्वारा हड़पी जाने लगी। इतना ही काफी नहीं था आला अफसरों की बेगमों ने सैकड़ों स्वयंसेवी संस्थाएं बना डालीं और अनुदान राशि की लूट शुरू कर दी। ‘अन्धा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपने को देय’। इस सबसे तो चाणक्य पंडित की वही बात सिद्ध होती है कि ढांचे बदलने से कुछ नहीं बदलता जब तक कि उसमें काम करने वाले लोग नहीं बदलते। स्वास्थ्य के मामले में भारत का पारंपरिक ज्ञान और लोकजीवन का अनुभव इतना समृद्ध है कि हमें बड़े ढांचों, बड़े अस्पतालों और विदेशी अनुदानों की जरूरत नहीं है, जरूरत है अपनी क्षमता और अपने संसाधनों के सही इस्तेमाल की। वरना विकास के नाम पर ऐसे ही विनाश होता रहेगा। हर नई सरकार नए नारों से नए सपने दिखाकर लोगों को यूं ही मूर्ख बनाती रहेगी।

Friday, February 4, 2000

श्री एन. विट्ठल को कुछ ठोस करना होगा


भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त देश से भ्रष्टाचार दूर करने को कमर कस चुके हैं, ऐसा वे हर जनसभाओं में कह रहे हैं। वे यह भी कहते हैं कि जब उनका कार्यकाल समाप्त होगा तो भ्रष्टाचार का जो रूप आज देश में है, वैसा नहीं रहेगा। भ्रष्टाचार से लड़ने की रणनीति के तहत उन्होंने तीन कदमों की घोषणा की है। पहला; सरकारी कामकाज की व्यवस्था को पारदर्शी बनाना। दूसरा; आम जनता को भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए तैयार करना और तीसरा भ्रष्टाचारियों को सजा दिलवाना। अब जरा उनके पिछले 15 महीनों के कामकाज की समीक्षा की जाए। क्योंकि अगर यह सब लक्ष्य उन्हें पांच वर्ष में पूरे करने हैं तो उनका चैथाई वक्त बीत चुका है। पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। जो सवा साल में हुआ है उससे कोई बहुत भिन्न आगे हो पाएगा, इसकी उम्मींद कम ही नजर आती है।
मुख्य सतर्कता आयुक्त का पद संभालते ही श्री विट्ठल ने सबसे पहला आदेश तो यह जारी किया कि अगर किसी विभाग में कोई गुमनाम शिकायत आती है तो उसे रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाए। ऐसा करने के पीछे उनका तर्क है कि इससे फर्जी शिकायतों पर रोक लगेगी और ईमानदार अधिकारियों को परेशान होने से बचाया जा सकेगा। श्री विट्ठल का इरादा नेक हो सकता है पर उनके इस एक कदम से भ्रष्टाचार के मामलों में सूचना मिलने का सबसे सशक्त स्रोत बंद कर दिया गया है। सीबीआई में आज जितने केस दर्ज हैं उनमें से ज्यादातर गुमनाम शिकायतों पर ही आधारित हैं। किसी भी जांच एजेंसी के अनुभवी अधिकारी 90 फीसदी शिकायतों को तो पढ़कर ही समझ जाते हैं कि वे सही है या फर्जी। मसलन, अगर कोई व्यक्ति एक गुमनाम शिकायत भेजता है और उसमें लिखता है कि फलां अधिकारी रिश्वत लेता है या चरित्राहीन है या देशद्रोही है तो ऐसी शिकयतों को अनुभवी जांच अधिकारी खुद ही रद्दी की टोकरी में फेंक देता है। पर अगर कोई ये लिखे कि फलां अधिकारी के फलां-फलां शहरों में फलां-फलां पते पर बंगले हैं, तो इसकी जांच की जानी चाहिए, क्योंकि ऐसा करना संभव है। ठीक ऐसे ही अगर कोई शिकायतकर्ता किसी अधिकारी के बेनामी बैंक खातों का विवरण देता है, तो उसकी भी जांच की जा सकती है। अगर कोई यह बताता है कि फलां अधिकारी अपने वेतन से ज्यादा किराए के पाॅश मकान में रहता है, अपने वेतन से कहीं ज्यादा स्तर के ठाट-बाट से जिंदगी जीता है, मसलन उसकी महंगी कारों के नंबर या महंगे स्कूलों के नाम जहां उसके बच्चे पढ़ते हैं, शिकायत में देता है, तो इसकी भी जांच की जा सकती है। सीबीआई आज तक ऐसा ही करती आई है। जिस देश में नेताओं के गुंडे, असामाजिक किस्म के पुलिस वाले, माफिया या तस्कर आम आदमी को सरेआम गोली से उड़ाने के बाद भी कानून के फंदे से बच निकलते हों, वहां श्री विट्ठल कैसे उम्मीद करते हैं कि एक साधारण नागरिक इतना बड़ा जोखिम उठाएगा ?
सीबीआई में एक प्रथा रही है कि वो संदेहास्पद चरित्रा के लोगों के चाल-चलन पर निगाह रखती है, ताकि उन्हें पदोन्नति या विशेष जिम्मेदारी देते वक्त ऐसी जानकारी काम आ सके। सीबीआई संदेहास्पद व्यक्ति उन्हें मानती हैं जो भ्रष्टाचार के किसी कांड में आरोपित रह चुके हों या उन पर मुकदमा चल चुका हो। पिछले कुछ वर्षों में इस देश के अनेक महत्वपूर्ण नेता और अफसर भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े कांडों में पकड़ गए। फिर अपनी ताकत का इस्मेमाल करके बड़ी आसानी से कानून के शिकंजे से छूटते भी गए। उनमें से काफी लोग आज भी महत्वपूर्ण और संवेदनशील पदों को सुशोभित कर रहे हैं। क्या श्री विट्ठल ने संदेहास्पद चरित्रा के ऐसे लोगों की ताजा सूची सीबीआई से मंगवा कर देखी है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सूची बनाने की सीबीआई या मुख्य सतर्कता आयुक्त में हिम्मत ही नहीं है ?
सर्वोच्च न्यायालय के जिस फैसले के तहत मुख्य सतर्कता आयुक्त को यह नई भूमिका दी गई है उसमें एक भूमिका यह भी है कि सीबीआई के निदेशक पद पर नियुक्ति हो या प्रवत्र्तन निदेशक के पद पर, दोनो ही चयन समितियों में श्री विट्ठल भी एक महत्वपूर्ण सदस्य हैं। फिर क्या वजह है कि सीबीआई के तत्कालीन निदेशक श्री त्रिनाथ मिश्र को हटा कर श्री आरके राघवन को उन्होंने सीबीआई का निदेशक बनाया ? जबकि श्री राघवन को आपराधिक जांच करने का कोई अनुभव नहीं है। वे कभी सीबीआई में नहीं रहे। उन्होंने कभी किसी बड़े घोटाले की जांच नहीं की। जबकि श्री मिश्र न सिर्फ सीबीआई में कई वर्ष काम कर चुके थे बल्कि उनका क्षेत्राीय स्तर पर अपराधों की जांच करने और कानून व्यवस्था बनाए रखने का लंबा अनुभव था।   क्या यह सही नहीं है कि सीबीआई जैसी संवेदनशील और सर्वोच्च जांच एजेंसी के निदेशक के रूप में  श्री मिश्र राजनैतिक दबाव के तहत समझौते करने को तैयार नहीं थे, इसलिए उन्हें हटा दिया गया ? ठीक ऐसे ही प्रवत्र्तन निदेशक श्री इंद्रजीत खन्ना के साथ भी किया गया। क्या श्री विट्ठल यह सिद्ध कर सकते हैं कि इन दो महत्वपूर्ण पदों पर जिन व्यक्तियों को लाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है वे भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने वाले योद्धा रहे हैं या इस काम का उन्हें ज्यादा अनुभव रहा है ? अगर ऐसा नहीं है तो क्या श्री विट्ठल ने चयन समितियों में अपना विरोध लिख कर दर्ज किया था? अगर नहीं किया और अगर ये फैसले राजनैतिक हित साधने के लिए किए गए हैं तो श्री विट्ठल ने अपनी भूमिका निभाने में कोताही बरती है। जब भ्रष्टाचार के विरूद्ध जांच की एजेंसियों के सर्वोच्च पदों पर नियुक्तियों के मामले में उनकी ऐसी भूमिका रही है तो कैसे माना जाए कि ये जांच एजेंसियां अपना काम ईमानदारी और निष्पक्षता से करेंगी ? इसके प्रमाण मिलने शुरू हो गए हैं।
निचली अदालत से सर्वोच्च अदालत तक मानती है कि जैन हवाला कांड में सीबीआई की भूमिका शर्मनाक रही है। हवाला मामले में फैसला सुनाते वक्त सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्य सतर्कता आयुक्त को सीबीआई के कामकाज पर निगरानी का अधिकार दिया है। साथ ही सीबीआई के निकम्मे अफसरों को सजा देने का भी। चाहे हवाला कांड हो या मट्टू हत्या कांड की जांच, सीबीआई के अधिकारियों ने आरोपियों से सांठ-गांठ करके उन्हें बचाने का काम किया है। जब यह बात सिद्ध हो चुकी है तो क्या वजह है कि न तो सीबीआई के निदेशक ने और ना ही श्री विट्ठल ने ऐसे अधिकारियों को सजा देने की कोई पहल की ? ऐसा नहीं है कि उन्हें इसकी सुध न रही हो। इस संबंध में आवश्यक सूचना उन्हें सितंबर 1998 में, पद-ग्रहण करते ही दे दी गई थी। पर उन्होंने आज तक कुछ नहीं किया। वे जन सभाओं में अपने विद्वतापूर्ण भाषण देकर ये उद्घोषणा करते हैं कि वे भ्रष्टाचार को हटा कर ही दम लेंगे या कि लोग उनसे शिकायत करें, तो वे कड़े कदम उठाएंगे। तब कोई उनसे जब यह पूछता है कि आपने हवाला कांड में आरोपियों को बचाने वाले सीबीआई के अधिकारियों को आज तक सजा क्यों नहीं दिलवाई या उनके नाम अपनी वेबसाइट पर क्यों नहीं जारी किए, तो उनका जवाब होता है कि सीबीआई के निदेशक ने उन्हें बताया है कि, ‘‘सीबीआई पर इस मामले को दबाने के लिए भारी दबाव था।’’ क्या यह सफाई कानूनन जायज है ? क्या कोई जांच अधिकारी यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से बच सकता है ?
लगता है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल भी भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलांे में कुछ नहीं कर पाएंगे।  केवल छोटे अधिकारियों को ही  धर-पकड़ करने में उनका कार्यकाल समाप्त हो जाएगा। इसी तरह आज देश में निजीकरण के नाम पर बड़े-बड़े कांड हो रहे हैं। मसलन, माॅडर्न फूड इंडस्ट्रीज की संपत्ति थी पांच सौ करोड़ रूपए। पता चला है कि इस सार्वजनिक प्रतिष्ठान को मात्रा सवा सौ करोड़ रूपए में बेच दिया गया। इसी तरह इंडियन पेट्रो कैमिकल्स लिमिटेड की, लेखाकारों द्वारा आंकी गई, संपत्ति है 70 हजार करोड़ रूपए। सरकार इसे बेचने जा रही है। एक विदेशी कंपनी ने बोली लगाई है मात्रा साढ़े बारह सौ करोड़ रूपए की और एक भारतीय कंपनी ने बोली लगाई है मात्रा चैदह सौ करोड़ रूपए। कल अगर यह कंपनी इस तरह निजी हाथों को बेच दी जाती है तो यह आज तक का सबसे बड़ा वित्तीय घोटाला होगा। सरकार तब सफाई देगी कि उसने तो सबसे ज्यादा बोली लगाने वाले को कंपनी बेची है। क्या मुख्य सतर्कता आयुक्त की यह जिम्मेदारी नहीं कि वे ऐसे सब फैसलों को लागू होने से पहले ही उनकी पूरी तरह समीक्षा करें, ताकि समय रहते ही ऐसे निर्णयों में बड़े घोेटाले होने से रोके जा सकें। खासकर तब जबकि सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के कामकाज पर निगरानी रखना श्री विट्ठल के अधिकार क्षेत्रा में आता है।
देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों के बड़े अधिकारियों की मिली भगत से इन बैंकों में जमा देश की आम जनता का 55 हजार करोड़ रूपया उद्योगपतियों पर बकाया है। जिसे लौटाने से ये उद्योगपति वर्षों से बच रहे हैं और आज सरकार पर दबाव डाल रहे हैं कि उनका कर्ज माफ कर दिया जाए। पड़ौस के देश पाकिस्तान में भी यही चल रहा था। पर जनरल मुशर्रफ का डंडा क्या घूमा कि वहां के बैंको में उद्योगपतियों से भारी मात्रा में वसूली होना शुरू हो गई है। हमारे देश में गरीब आदमी या छोटे किसाने से छोटे-छोटे कर्जों की वसूली के लिए बैंक उनकी कुर्की तक करवा देते हैं। पिछले दिनों आध्र प्रदेश व महाराष्ट्र के तमाम छोटे किसाने ने बैंकों के कर्जें न लौटा पा सकने के गम में आत्म हत्याएं कर लीं थीं। क्या श्री विट्ठल  ने भारत के इन बड़े राष्ट्रीकृत बैंकों के अध्यक्षों के खिलाफ कोई कार्रवाई की है, ताकि उद्योगपतियों से कर्जा वसूला जा सके ? अगर कोई कारवाई नहीं की तो क्यों नहीं?
जहां तक श्री विट्ठल का दावा व्यवस्था को पारदर्शी बनवाने का है तो यह काम अकेले उनके बस का नहीं, क्योंकि कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है और दुर्भाग्य से हमारे सांसद व्यवस्था बदलने वाले फैसला लेने को तैयार नहीं हैं। फिर चाहे राजनीति के अपराधीकरण का सवाल हो या चुनावों में काले धन के प्रयोग का। ऐसे तमाम विधेयक वर्षों से संसद में पारित होने का इंतजार कर रहे हैं। जब सांसद ही नहीं चाहेंगे कि व्यवस्था पारदर्शी बने, तो अकेले श्री विट्ठल क्या कर लेंगे? हां अगर जनता सड़कों पर उतर आए और इसकी मांग करे, तब जरूर कुछ बात बन सकती है।      
इसलिए श्री विट्ठल का ये कहना कि वे जनता को भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए तैयार करेंगे, ठीक बात है। पर इस काम में अगर वे नौकरशाही और सरकारी तंत्रा पर ही निर्भर रहेंगे तो कुछ भी नहीं कर पाएंगे। जैसे साक्षरता अभियान व गरीबी हटाओं कार्यक्रम जैसे तमाम अभियान पिछले पचास वर्षों में भ्रष्ट व्यवस्था के चलते केवल कागजों पर ही पूरे हुए हैं, वैसे ही भ्रष्टाचार से लड़ने का अभियान भी कहीं भाषणों, घोषणाओं और आदेशों तक ही सिमट कर ही न रह जाए ? दरअसल भ्रष्टाचार से पूरी तरह किसी भी युग में भी निपटा नहीं गया। पर इसकी तीव्रता और व्यापकता को जरूर कम किया जा सकता है। कहते हैं मौत से ज्यादा मौत का डर आदमी को मार देता है। अगर श्री विट्ठल कुछ चुनिंदा मशहूर बड़े कांडों को लेकर, उन्हें अंजाम तक ले जाने की लड़ाई में सहयोग देते हैं, तो उन्हें अपने लक्ष्यों में सफलता मिल सकती है। एक पेड़ पर सौ चिडि़यां बैंठी हों और एक पर गोली दाग दी जाए तो कितनी बचेंगी ? ठीक ऐसे ही अगर श्री विट्ठल कुछ महत्वपूर्ण बड़े लोगों को सजा दिलवा पाते हैं तो बाकी देश इसके आतंक से ही सीधे रास्ते पर चलने लगेगा। अब तक अफसरशाही का ही हिस्सा रहे श्री विट्ठल के लिए लड़ाई  का यह तरीका अंजाना भले ही हो पर आखिर में असर यही दिखाएगा, केवल भाषण और फरमान जारी करना नहीं।

Friday, January 28, 2000

शेषन के रास्ते विट्ठल ?

भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे देश के 74 आईएएस व 21 आईपीएस अधिकारियों की सूची वेबसाइट पर जारी करके मुख्य सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल ने नौकरशाही के बीच एक बम फेंक दिया है। पहली बार इस तरह अधिकृत रूप से इतने सारे अफसरों को इस तरह चैराहे पर निर्वस्त्रा करने के लिए जाहिर है कि श्री विट्ठल को जनता की बधाई मिल रही है। इसके साथ ही श्री विट्ठल ने पूरे देश के सरकारी दफ्तरों को निर्देश जारी किया है कि हर दफ्तर में श्री एन. विट्ठल के नाम वाला एक सूचना पट्ट लगाया जाए ताकि जनता उनसे भ्रष्टाचार की शिकायत कर सके। यह भी एक अच्छा प्रयास है। पर हम जानते हैं कि हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते। श्री विट्ठल के इरादे नेक हो सकते हैं। संभव है कि वे अपने नए पद के अनुरूप वाकई भ्रष्टाचार से लड़ने को कमर कस रहे हों। पर इस सबके बावजूद कुछ ऐसे पेंच हैं जिन्हें खोले बिना इस धर्मयुद्ध की असलियत नहीं समझी जा सकती।

लगभग सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में एक व्यक्ति पूरे देश की समस्याओं का हल नहीं निकाल सकता। न तो ये मानवीय रूप से संभव है और न ही व्यावहारिक। अगर यह मान भी लें कि अपने जीवट के कारण वह व्यक्ति सभी रूकावटों को पार करके अपने लक्ष्य को पाने में कामयाब हो जाएगा, तो भी यह प्रयास स्थायी नहीं हो सकता। क्योंकि उस व्यक्ति का कार्यकाल समाप्त होते ही ‘कुत्ते की पूंछ फिर टेढी’ हो जाएगी। वैसे भी लोकतंत्रा में सबसे ज्यादा ताकत लोगों के हाथ में होनी चाहिए। जिस काम को जनता जिम्मेदारी से उठाएगी उसके लंबे समय तक चलने की उम्म्ीद की जा सकती है। क्योंकि उसका लाभ जनता को ही मिलेगा। दुर्भाग्य से हमारे देश में सरकारी पदों पर बैठे लोग जब अपने सक्रिय जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचते हैं तो उनमें से कुछ रातो रात क्रूसेडर बन जाते हैं। चूंकि देश की जनता की मानसिकता अभी भी सामंतवादी युग जैसी है, इसलिए उसे हमेशा किसी मसीहा या राजा का इंतजार रहमता है। उसकी अपेक्षा होती है कि ये मसीहा या राजा उसके सारे दुख दूर कर देगा और उसे यानी जनता को हाथ भी नहीं हिलाना पड़ेगा। मसीहाओं की इस मृगतृष्णा में भटकती जनता कभी जयप्रकाश नारायण के पीछे भागती है, कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह के, कभी टीएन शेषन के और कभी अटल बिहारी वाजपेयी के। इस उम्मीद में कि कोई न कोई तो मुल्क के हालात जरूर बदल देगा। पर ऐसा हर व्यक्ति भ्रष्टाचार के विरूद्ध मुहिम में नाकाम रहता है। फिर जनता में हताशा फैल जाती है। हताशा के कुछ वर्षों के बाद फिर कोई नया मसीहा उदय होता है। लगता है मौजूदा केंद्रीय सतर्कता आयुक्त श्री एन. विट्ठल ऐसा ही नया मसीहा बनने की तैयारी कर रहे हैं। वो कितने कामयाब हो पाएंगे ये तो वक्त ही बताएगा। पर इतना निश्चित है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी शक्तियां उन्हें कामयाब नहीं होने देंगी। जब तक वे भ्रष्टाचार से लड़ने का नाटक करते रहेंगे और उस नाटक का मीडिया में प्रचार करवाते रहेंगे तब तक किसी सत्ताधीश को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि उन्हें पता है कि लोकतंत्रा की सारी व्यवस्थाओं पर उनकी पकड़ इतनी मजबूत है कि श्री विट्ठल जैसे कितने ही आए और चले गए पर उनका बाल भी बांका नहीं कर सके। जैसे ही श्री विट्ठल ऐसे कड़े कदम उठाएंगे जिनसे सत्ताधीशों में अपने अस्तित्व का खतरा पैदा हो जाए तो वे श्री विट्ठल को पंगु बना कर एक कोने में पटक देंगे। ऐसा नहीं है कि श्री विट्ठल को इस बात का एहसास नहीं है। अपने भाषणों में वे खुल कर स्वीकार करते हैं कि सत्ताधीशों के विरूद्ध कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया जा सकता। तो फिर श्री विट्ठल क्या करने का प्रयास कर रहे हैं ? तो क्या इस अव्यवस्था से लड़ने का कोई तरीका नहीं है ? तो क्या भारत में कुछ नहीं बदलेगा ? नहीं, रास्ते तो हैं, बशर्तें कि उन्हें श्री विट्ठल जैसा व्यक्ति अपनाने को तैयार हो। ऐसी किसी भी बड़ी समस्या से लड़ने का सबसे शक्तिशाली तरीका है उस समस्या के विरूद्ध जनता को संगठित करके खड़ा कर देना। जो काम जयप्रकाश नारायण के बाद किसी ने नहीं किया। 1994-95 के बीच तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टीएन शेषन अपने कुछ कड़े फैसलों के कारण शहरी मध्यम वर्ग के आंख का तारा बन गए थे। शहरों में ही नहीं बल्कि देहातों और पिछड़ों इलाकों में भी उन्हें देखने और सुनने हजारों लोग उमड़ पड़ते थे। बंग्ला देश के युद्ध के बाद जैसी लोकप्रियता श्रीमती इंदिरा गांधी को मिली थी लगभग वैसी ही लोकप्रियता चुनाव सुधार के कदमों के कारण श्री शेषन को मिलने लगी। यह एक मौका था कि श्री शेषन अपनी लोकप्रियता का फायदा उठाते और गांव से लेकर देश की राजधानी तक जनता को हर स्तर पर संगठित करके चुनावों में निगरानी के लिए लोगों को प्रशिक्षित कर देते। उन्हें सिर्फ उत्प्रेरक की भूमिका निभानी थी। बहुत से लोगों ने उन्हें ऐसा करने की सलाह दी। उनके मतदाता जाकरूकता अधियान के तहत चूंकि मैंने भी उस दौर में देश भर में दर्जनों जनसभाएं उनके साथ जाकर संबोधित की और देखा कि उनकी लोकप्रियता को जन आंदोलन में बदलने की कितनी संभावना है। पर बार-बार सलाह देने के बावजूद वे ऐसे लोकतांत्रिक कदम उठाने को तैयार नहीं थे। नतीजा वही हुआ जो अपेक्षित था। लालू यादव सरीखे राजनेताओं ने और सर्वोच्च न्यायालय के रूख ने उनकी नाक में नकेल डाल दी। धीरे-धीरे वे हाशिए पर चले गए। चुनावों की जिन बुराइयों के खिलाफ वे मसीहा बन कर उभरे थे आज वे बुराइयां कमोबेश बदस्तूर जारी हैं। न तो राजनीति का अपराधिकरण रूका और न ही चुनावों में अवैध पैसे का प्रयोग ही। विधान सभाओं का चुनाव सामने है, सब फिर से सामने आ जाएगा।

आज वही गलती श्री विट्ठल दोहरा रहे हैं। वे श्री शेषन की तरह ही भाषणों की मैराथन में दौड़ रहे हैं। वही बात हर जगह कहते हैं। लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट में आत्मसम्मोहन की अवस्था में सभागारों से बाहर निकलते हैं। पर पिछले डेढ वर्ष में उनकी एक भी उपलब्धि उल्लेखनीय नहीं है। वे हर सरकारी दफ्तर में अपने नाम का सूचना पट्ट लगा कर शायद जनता की निगाह में हीरो बनना चाहते हैं। ताकि जब मुख्य सतर्कता आयुक्त के रूप में उनका कार्यकाल समाप्त हो तो बिना सरकारी भ्रष्टाचार खत्म करवाए ही लोग उन्हें भ्रष्टाचार के विरूद्ध मसीहा मान लें। उन्हें कुछ अंतराष्ट्रीय एवार्ड मिल जाए और उनकी ख्याति इतनी फैल जाए कि सरकार उन्हें कोई बड़ा राजनैतिक पद देने को मजबूर हो जाए। अगर ऐसा नहीं है तो उन्हें सरकार में चार दशक तक काम करने के अपने अनुभव के आधार पर रणनीति बनानी चाहिए। देश भर से शिकायतें इकट्ठी करने की बजाए उन्हें जनता को इस तरह प्रशिक्षित करना चाहिए कि स्थानीय जनता भ्रष्ट सरकारी व्यवस्था से अपने स्तर पर स्वयं ही निपट ले। इससे न सिर्फ जनता में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने का उत्साह पैदा होगा बल्कि भ्रष्ट अधिकारियों और राजनेतओं में भी खौफ फैलेगा। क्योंकि उन्हें पता है कि एक शेषन या एक विट्ठल के तो हाथ-पांव बांधे जा सकते हैं पर एक लोकतांत्रिक देश में जब जनता का सैलाब उठता है तो उसे रोका नहीं जा सकता। फिर तो यह सैलाब अपनी चैथ वसूल करके ही लौटता है। इतना ही नहीं एक बार जब जनता भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई में छोटी-सी भी सफलता का स्वाद चख लेगी तो फिर खामोश नहीं बैठेगी। फिर तो उसका उत्साह और लड़ने की इच्छा दोनों बढ़ेंगे और उन सब लोगों को भी खींच लेंगे जो प्रायः ऐसी संघर्षात्मक स्थित में तटस्थ बैठ कर नजारा देखते हैं। फिर श्री विट्ठल रहंे या न रहें यह क्रम चलता रहेगा। जनता को क्या सिखाया जाए ? कैसे सिखाया जाए ? इस पर अलग से एक विस्तृत लेख लिखा जा सकता है। पर यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि ऐसे बहुत सारे तरीके हैं जिन्हें श्री विट्ठल टेलीविजन और अखबरों की मार्फत आम जनता तक पहुंचा सकते हैं। दुनियां के तमाम लोकतांत्रिक देशों में ऐसी ही प्रक्रियाओं से गुजर कर आम जनता जागरूक हुई है, संगठित हुई है और जुझारू बनी है। नतीजतन इन देशों की प्रशासनिक व्यवस्थाएं बहुत हद तक पारदर्शी और जवाबदेह है। उन व्यवस्थाओं में कार्यरत कर्मचारी और अधिकारी अपने वरिष्ठ अधिकारियों और राजनेताओं कीे चाटुकारिता में वक्त खराब नहीं करते बल्कि सड़क चलते आम आदमी को भी सम्मानसूचक शब्दों से संबोधित करके उसकी सेवा करने को तत्पर रहते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि अगर यह आम नागरिक नाराज हो गया तो उनकी नौकरी सलामत नहीं रहेगी।

जहां तक कि आम जनता द्वारा श्री विट्ठल के पास शिकायतें भेजने की बात है तो इसमें श्री विट्ठल सिवाए असफल होने के और कुछ नहीं हासिल कर पाएंगे। नई शिकायतें तो जब आएंगी तब आएंगी, पर उन शिकायतों का क्या हुआ जो पिछले सवा साल से श्री विट्ठल की फाइलों में धूल खा रही हैंे ? ये जानते हुए कि इन शिकायतों के समर्थन में पर्याप्त सबूत मौजूद है फिर भी श्री विट्ठल उन पर कुछ कर क्यों नहीं पाए ? आईएएस और आईएसपीएस अधिकारियों की जो सूची उन्होंने जारी की है वो तो ठीक है पर जो काम सीधे उनके अधीन है उसमें वे क्यों कोताही बरत रहे हैं ? श्री विट्ठल को ध्यान होगा कि ‘वादी विनीत नारायण व प्रतिवादी भारत सरकार’ के जिस मुकदमें के फैसले के तहत श्री विट्ठल को यह सब अधिकार दिए गए हैं, उसी फैसले में उन्हें यह भी हिदायत दी गई थी कि अपना कर्तव्य ठीक से अंजाम न देने वाले सीबीआई के अधिकारियों को वे सजा देने में सक्षम होंगे। उपरोक्त फैसले के तहत ही सीबीआई का निदेशक हर मामले में जांच की प्रगति की रिपोर्ट श्री विट्ठल को देने के लिए बाध्य है। दरअसल इस फैसले के बाद से सीबीआई के कामकाज पर निगरानी का जिम्मा ही केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का हो गया है। सीबीआई के तमाम बड़े अधिकारी रिश्वत या तरक्की के लालच में भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामले पर खाक डालते रहे हैं व आरोपियों को बचाते रहे हैं। उनके ऐसे भ्रष्ट कारानामों की शिकायतों के प्रमाण श्री विट्ठल को कई बार सौपे जा चुके हैं। फिर क्या वजह है कि श्री विट्ठल सीबीआई के इन भ्रष्ट अधिकारियों को सजा देने या दिलवाने में नाकामयाब रहे हैं ?

अगर श्री विट्ठल वाकई इस देश में फैले भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहते हैं तो बजाए चारो तरफ हाथ मारने के उन्हें कुछ चुनिंदा मामलों में दिलचस्पी लेनी चाहिए। ये वो मामले हैं जिनमें देश के बड़े पदों पर बैठे सत्ताधीश शामिल हैं और जिन्हें तमाम सबूतों के बावजूद बड़ी बेशर्माई से दबा दिया गया है। अगर ऐसे कुछ बड़े मामलों को उनकी तार्किक परिणिति तक पहुंचाने में श्री विट्ठल जुट जाते हैं तो न सिर्फ इस मामलों में उन्हें सफलता मिलेगी बल्कि बाकी क्षेत्रों में भी आतंक फैल जाएगा। कहते हैं यथा राजा तथा प्रजा। पर श्री विट्ठल के तौर-तरीके को देखकर नहीं लगता कि वे ऐसा साहस दिखा पाएंगे। इस तरह न तो जनता को जागृत, संगठित और मजबूत कर पाएंगे और ना ही देश को लूटने वाले बड़े पदों पर आसीन सत्ताधीशों को ही सजा दिलवा पाएंगे। अंत में रहेंगे वही ढाक के तीन पात। इसलिए श्री विट्ठल के कामों को इस परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है, वरना निराशा ही हाथ लगेगी।

Friday, January 21, 2000

तुमसे तो हिजड़े भले


मध्य प्रदेश की जनता ने देश के राजनैतिक दलों और नेताओं के गाल पर जोरदार तमाचा मारा है। हाल ही में संपन्न हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में चार जगहों से उन्होंने हिजड़ों को अपना प्रतिनिधि चुन कर भेजा है। इतना ही नहीं कटनी की जनता ने तो कमला जान नाम के हिजड़ें को नगर निगम का मेयर तक चुन डाला। उधर सिहोरा नगरपालिका का अध्यक्ष भी एक हिजड़ा चुना गया है। जबलपुर नगर निगम और बीना नगरपालिका के लिए एक-एक पार्षद भी हिजड़ा समुदाय से ही चुना गया है। कटनी के नवनियुक्त मेयर कमला जान का कहना है कि देश की जनता राजनेताओं के भ्रष्टाचार, फिजूलखर्ची और कुनबापरस्ती से आजिज आ चुकी है। कमला जान ने घोषणा की है कि मेयर की हैसियत से उन्हें मिली लालबत्ती लगी सफेद सरकारी एम्बेसडर कार की जगह वो थ्रीव्हीलर (आटो रिक्शा) में ही नगर का भ्रमण करेंगी या करेंगे, ताकि जनता के पैसे की बर्बादी कुछ कम हो सके। कमला जान ने यह भी कहा है कि चूंकि उनका आज तक अपना तो कोई परिवार था नहीं पर अब तो पूरा कटनी उनका परिवार बन गया है। उनकी कोशिश होगी कि कटनी के लोगों को वो सब दे सकें जिसकी अपेक्षा उन्हें एक ईमानदार मेयर से है। कमला जान क्या कर पाएंगी या पाएंगे ये तो वक्त ही बताएगा। पर इसमें शक नहीं कि चुनावों में हिजड़ों की ऐसी विजय ने भारतीय लोकतंत्रा में एक नए और रोचक अध्याय को जोड़ा है।
वैसे समाज से तिरस्कृत किए गए इन हिजड़ों के दिल में समाज के लिए दर्द कुछ कम नहीं होता। जिस घर में ये जन्म लेते हैं उस घर के लोग भले सार्वजनिक रूप से इन्हें स्वीकार न करें पर घर में हारी-बीमारी, शादी-ब्याह या खुशी या गमी के मौकों पर अगर पैसे की जरूरत होती है तो रात के अंधेरे में पिछले दरवाजे से पैसा मांगने अपने रिश्तेदार हिजड़े के घर जाने में संकोच नहीं करते। शहर के जिन इलाकों में हिजड़े रहते हैं वहां अड़ौस-पड़ौस में रहने वाले गरीब परिवारों के दुख-दर्द में मदद करने को हमेशा तत्पर रहते हैं। चूंकि खुद के तो बच्चे होते नहीं इसलिए पड़ौस के गरीब बच्चों की परवरिश और पढ़ाई-लिखाई पर ये हिजड़े दिल खोल कर खर्च करते हैं। इससे इनके नपुंसक शरीर के बीच धड़क रहे इंसानी दिल की आवाज जरूर सुनाई देती है। शहर का कोई घर ऐसा नहीं होता जिसका भेद हिजड़ों को पता न हो। गरीब से अमीर तक हर मजहब और हर जाति के लोगों के बीच एक सा संबंध बना कर रखते हैं ये हिजड़े, जो साम्प्रदायिकता और जातिवाद के कैंसर के बीच एक मिसाल है। इतना ही नहीं हर धर्म की समान इज्जत करते हुए ये हिजड़े एक ही छत के नीचे सद्भावना से रहते हैं और एक-दूसरे के धार्मिक त्यौहारों में उत्साह से शरीक होते हैं। ऐसे में ये उम्मीद की जानी चाहिए कि कमला जान वो सब कर पाएंगी या पाएंगे जिसकी उनसे उम्मीद की जा रही है।
पर इस सब के बीच जो असली बात है वो ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह है वर्तमान राजनेताओं के प्रति जनता के आक्रोश की पराकाष्ठा। जब जनता ने देख लिया कि हर दल और लगभग हर नेता एक-सा है तो कटनी की जनता ने मजबूर होकर, अपने मत पत्रों के माध्यम से उद्घोषणा करते हुए, भाजपाइयों और इंकाई उम्मीदवारों से कह दिया, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।अगर कहीं कमला जान वाकई ईमानदार मेयर साबित हो जाएं और कुछ कर दिखाएं तो कोई आश्चर्य नहीं कि दूसरे शहरों की जनता भी अपने-अपने इलाकों के राजनेताओं से यही कहे, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।जनता कहेगी कि कम से कम ये हिजड़े अपने कपूतों को नेता बनाने मंे तो नहीं जुटेंगे। अपनी बीबी के लिए जेवर, साड़ी जमा करने में तो नहीं लगेंगे। अपनी आने वाली पीढि़यों के लिए करोड़ों रूपए की जमीन-जायजाद जोड़ने में जनता का हक तो नहीं छीनेंगे। इसलिए , ‘तुमसे तो हिजड़े भले।ये दूसरी बात है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे स्वार्थी तत्व हर स्थिति का फायदा उठाना जानते हैं। फिर  चुनावों में जीते गए हिजड़ों को भोग-विलास की लत लगा कर उन्हें काबू में करना और उनसे गलत काम करवाना कोई असंभव बात नहीं होगी। जिसके लिए कमला जान जैसे चुने गए हिजड़ों को सावधान रहना होगा।
सवाल सिर्फ हिजड़ों को चुन लेने का नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ महिलाओं को संसद या विधानसभा के लिए चुन लेने से देश की महिलाओं की स्थिति में फर्क नहीं आ जाता। अपनी जाति के नेता के बहकावे में आ जाने से उसे चुनाव में जिता देने से उस जाति के बहुसंख्यक समाज को कोई लाभ नहीं पहुंचता। ऐसे राजनेताओं के मुट्ठी भर चमचे और दलाल ही दलितो और शोषितों के नाम पर सारा फायदा हजम कर जाते हैं। इसलिए केवल हिजड़ों को वोट देकर आक्रोश प्रकट करने से किसी समस्या का हल नहीं निकलेगा।
देश की जनता के लिए सोचने की बात यह है कि चाहे जब टैक्स बढ़ा कर बिजली, पेट्रोल, डीजल, खाने का तेल, कैरोसिन आदि के दाम अचानक बढ़ा दिए जाते हैं। पर सरकारी बर्बादी रत्ती भर भी कम नहीं की जाती। कमरतोड़ महंगाई से आम जनता दबी जा रही है, पर  फिर भी विरोध नहीं करती। सड़कों पर नहीं उतरती। इलाके के नेताओं को घेर कर यह नहीं पूछती कि तुम अपनी फिजूलखर्ची तो घटाने की बजाए बढ़ाते जा रहे हो और हमसे कहते हो कि सरकार चलाने के लिए पैसा नहीं है, इसलिए टैक्स बढ़ाना पड़ता है। हर मार को जनता चुपचाप सह लेती है। बहुत हुआ तो चाय की दुकान या पनवाड़ी के सामने खड़े होकर अपनी नाराजगी का इजहार कर लेती है। पर संगठित होकर सड़कों पर नहीं उतरती। इसलिए कुछ नहीं बदलता। चाहे कोई दल सत्ता में आ जाए। ऐसी जनता से अगर कोई कहे कि, ‘तुमसे तो हिजड़े भलेतो क्या गलत होगा?
बड़े-बड़े घोटालोे में लिप्त देश के बड़े-बड़े राजनेता एक के बाद एक बड़ी आसानी से अदालतों से बेदाग होकर छूटते जा रहे हैं। जबकि देश की आम जनता करोड़ों मुकदमों में उलझी पड़ी है। इस देश में कानून दो तरह से लागू होता है। आम आदमी के लिए अलग व राजनेता और बड़े अफसरों के लिए अलग। लोकतंत्रा में जांच एजेंसियों और न्याय व्यवस्था का इतना पतन देख कर भी अगर देश की जनता चुप-चाप बैठी है और विरोध करने सड़कों पर नहीं उतरती तो कोई उससे भी कह सकता है कि, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।
हर थाने में दुखियारी जनता धक्के खाती है। पुलिस से बेवजह प्रताडि़त होती है। उसे अपनी सुरक्षा का खुद इंतजाम करना पड़ता है। अक्सर इलाके के गुंडे थाने में बैठकर दारू पीते हैं और मुर्गे उड़ाते हैं और बेखौफ होकर इलाके में आतंक फैलाते हैं। पर इलाके की जनता पुलिस को जवाबदेह बनाने के लिए कुछ भी नहीं करती। हालात से समझौता कर खामोश बैठी रहती है। ऐसी जनता से कोई कहे, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।
इस देश के करोड़ों नौजवान बेरोजगारी की मार सह रहे हैं। वो जानते हैं कि देश में धन की कोई कमी नहीं है। अगर सत्ताधीश चाहें तो ऐसे हालात पैदा कर सकते हैं कि हर नौजवान अपने पैरांे पर खड़ा हो सके। पर देश को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने की बजाए उसे रातदिन लूट कर खोखला किया जा रहा है। पर यह सब देख कर भी नौजवान क्रोधित नहीं होते। झूठे वायदों और आश्वासनों के मोहजाल में फंसे रहते हैं। सरकारी नौकरी के चक्कर में खुद भी कुछ नहीं करते। नेताओं और उनके दलालों के चक्कर काटते रहते हैं। लुटते और अपमानित होते रहते हैं। पर संगठित होकर युवा आक्रोश की सिंह-गर्जना नहीं करते। तो कोई उनसे भी कह सकता है, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।
इस देश की तीन चैथाई आबादी आज भी देहातों में रहती है। पिछले पचास वर्षों में विकास के नाम पर जो कुछ भी हुआ है उसका ज्यादातर हिस्सा शहरी लोगों की जेब में गया है। देश के लाखों गांव उपेक्षित पड़े हैं। शहरों द्वारा गांवों का शोषण हो रहा है। पर गांव वालों का खून फिर भी नहीं खौलता। ज्यादा उत्साह बढ़ा तो अपनी जाति के किसी नेता की जय-जय कार कर दी। बस फिर रहे वही ढाक के तीन पात। गांव वाले तो ये भी नहीं देख पाते कि किसानों के नाम पर राजनीति करने वालों का अपना जीवन और उनकी औलाद का जीवन कितना शहरी या विदेशीनुमा बन चुका है। जिसके मन में गांव के जीवन की सादगी के प्रति आकर्षण ही नहीं है, जो गांव को सिर्फ अपनी जागीर समझता है, जिसका दिल विलायती हो चुका है, वो क्या गांव वालों के लिए करेगा ? ये सब देख कर भी अगर देख के करोड़ों गांव वाले, मजबूत कद-काठी वाले किसान-मजदूर और युवा खामोश बैठे हैं तो कोई उनसे भी कह सकता है, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।
जो महिलाएं अपने पति की चांद पर तो आए दिन बेलन बजाती हैं पर राशन की दुकान पर मक्कारी करने वाले या बिजली, पानी, सफाई और स्वास्थ सेवाओं में कोताही करने वाले सरकारी मुलाजिमों को छोड़ देती हैं, उनकी बेलन से खबर नहीं लेतीं, ऐसी महिलाओं से भी कोई कह सकता है कि, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।
पिछले दिनों केंद्र सरकार में मंत्राी एक बड़े राजनेता से बात हो रही थी तो वे बोले कि, ‘‘इस देश की जनता बहुत अमन पसंद है। कोई उसे कितना भी मूर्ख क्यों न बना ले, वो आंदोलित नहीं होती। होती भी है तो किसी भावावेश में और वो भी किसी बेकार के मुद्दे पर। फिर जल्दी ही ठंडी भी हो जाती है। उसकी बला से सरकार में बैठे लोग कुछ भी करें।  यही कारण है कि इस मुल्क पर गुलाम वंश तक शासन कर गया। यानी सुल्तानों के खरीदे गुलाम तक तख्त पर बैठ गए और जनता ने चूं तक न की। इस मुल्क में 250 आदमियों की फौज लेकर अहमद शाह अबंदाली सैकड़ों गांवों को रौंदता चला गया, कहीं प्रतिरोध तक न हुआ। इस मुल्क में साढ़े तीन लाख अंग्रेज 35 करोड़ हिंदुस्तानियों पर 190 साल तक जुल्म ढाते रहे, पर जंगे आजादी लड़ने कोई लाखों लोग सड़कों पर नहीं उतरे।’’ मंत्राी जी कहते गए और हम सुनते गए। उनका आशय था कि इस मुल्क में कुछ भी लिख लो, कुछ भी बोल लो, कुछ भी कह लो, कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका ये कहना था कि देश के राजनेता ये बात अच्छी तरह समझ गए हैं। इसलिए उनकी रूचि जनता के दुख दूर करने में नहीं होती। सिर्फ जब चुनाव आता है तब ऐसे मुद्दों की खोज की जाती है जो जनता की कल्पनाशीलता में आसानी से बैठ सके। जिन मुद्दों पर जनता को थोड़े समय के लिए उद्ेलित किया जा सके। टेलीविजन और अखबारों का जम कर सदुपयोगकिया जाता है और जनता के सामने अपनी योग्यता और श्रेष्ठता की झूठी तस्वीर पेश की जाती है। जिस तरह जनता टीवी के विज्ञापनों से प्रभावित होकर बाजारू शक्तियों के शिकंजे में फंस जाती है और वह सब खरीद लेती है जिसकी उसे जरूरत भी नहीं होती, वैसे ही चुनाव के दौरान वह राजनैति दलों के जाल में फंस जाती है और बार-बार धोखा खाती है। पर कटनी की जनता ने इस बार अपनी आंख खुली रखी और राजनेताओं व दलों से कह दिया, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।
इससे पहले कि बाकी का देश कटनी का राह पकड़ ले देश के राजनेताओं, दलों व जनता को आत्म-मंथन करना चाहिए। तमाम संसाधन होते हुए हम इतने गरीब और अव्यवस्थित क्यों हैं ? अगर हमने ऐसा आत्म-मंथन नहीं किया तो कोई हमसे भी कह सकता है कि, ‘तुमसे तो हिजड़े भले।

Friday, January 14, 2000

आमिर भाई की गिरफ्तारी का नाटक

8 जनवरी को अखबारों में खबर छपी कि जैन हवाला कांड के एक प्रमुख अभियुक्त आमिर भाई को दिल्ली हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया गया। =ये वही आमिर भाई है जिसकी मार्फत जैन बंधुओं को करोडों रूपया अवैध रूप से हवाला के जरिए मिलने का आरोप है। यह रूपया देश के प्रमुख राजनेताओं व अफसरों को 1990-91 में बांटा गया। खबरों में बताया गया कि आमिर भाई दुबई से जैसे ही दिल्ली पहुंचा उसे धर-दबोचा गया। ये वही आमिर भाई हैं जिसको जैन हवाला कांड में तफतीश के लिए गिरफ्तार करने की सीबीआई वाले और प्रवर्तन निदेशालय वाले 1995 से कोशिश कर रहे थे। कुछ जांच अधिकारियों को खास इसी काम के लिए दुबई भी भेजा गया था पर बैरंग लौट आए। जो लोग पिछले कुछ वर्षों से जैन हवाला कांड के बारे में छप रही खबरों को पढ़ते आए हैं या टीवी पर सुनते आए हैं, उन्हें खूब याद होगा कि 1995-96 में इसी आमिर भाई की गिरफ्तारी के महत्व पर महीनों खबरें छपती रही थीं। सीबीआई और फेरा वालों ने देश की जनता और अदालत को यह तस्वीर पेश की थी कि अगर आमिर भाई उनकी गिरफ्त में आ जाता है तो कोई भी हवाला आरोपी नेता या अफसर कानून के शिकंजे से बच नहीं पाएगा। इन जांच एजेंसियों ने आमिर भाई के गिरफ्तारी के लिए हर तरह के हाथ-पांव फेंकने का अभिनय भी बखूबी किया था। यहां तक कि इंटरपोल तक को संपर्क करने की बात कही गई थी। कई बयान ऐसे भी छपे थे कि भारत सरकार विशेष प्रभाव इस्तेमाल कर दुबई की सरकार से आमिर भाई को भारत को सौपने को कहेगी। इस सब हंगामें के बावजूद आमिर भाई भारतीय जांच एजेंसियों की पकड़ में नहीं आया। जैन डायरियों में तमाम जगहों पर ‘ए बी’ जैसी प्रविष्टियां हैं जो आमिर भाई के बारे में हैं। मार्च 1995 के अपने इकबालिया बयान में सुरेंद्र जैन ने इसी आमिर भाई का जिक्र किया है।

अपनी गर्दन पर लटकती तलवार को ये तातकवर राजनेता हमेशा के लिए खत्म कर देने को बेचैन थे। इसलिए इन्होंने आमिर भाई से एक गुप्त समझौता किया और वह यह है कि तुम भारत चले आओ, तुम्हारी गिरफ्तारी और बाद की कानूनी कार्रवाही का सब नाटक पूरा कर लिया लाएगा और तुमसे किसी तरह की बदसलूकी नहीं की जाएगी। तुम्हें फेरा के तहत सही-सही इक्बालिया बयान देने के लिए मजबूर भी नहीं किया जाएगा। ताकि इस तरह जैन हवाला कांड के भविष्य में उठ खड़ा होने की सभी संभावनाओं को समाप्त कर दिया जाए।

जैन बंधुओं के निकट सहयोगी और अक्टूबर 1996 से हवाला कांड की हर तारीख पर एनके जैन के साथ अदालत आने वाले डा. जाॅली बंसल ने हाल ही में जारी अपने एक शपथ पत्र में जैन बंधुओं और आमिर भाई के नियमित अवैध व्यापारिक संबंधों की पुष्टि की है। सब जानते हैं कि देश के बड़े राजनेताओं के भ्रष्टाचार के कारण सौकड़ों-हजारों करोड रूपए के लेन-देन साल भर होते हैं। ऐसे पैसे को देश से बाहर गैर-कानूनी तरीके से लेजाने या विदेश से बाहर लाने के जरिए को ही हवाला कहा जाता है। और आमिर भाई का नाम ऐसे सब बड़े हवाला लेन-देने में प्रमुखता से लिया जाता रहा है। जैन हवाला कांड के सुर्खियों में आने से पहले आमिर भाई अपना ये कारोबार मुंबई में रह कर बे-खौफ कर रहा था। क्योंकि उसे लगभग सभी बड़े दलों के राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त था। पर जैन हवाला कांड में गिरफ्तारी के डर से व हवाला कांड के आरोपी नेताओं के दबाव में वह भारत छोड़कर दुबई भाग गया। प्रवर्तन निदेशालय का यह रिकार्ड रहा हैकि जब कभी उसने किसी को भी फेरा के उल्लंघन के मामले में गिरफ्तार किया तो उससे इक्वालिया बयान सही-सही ले लिया। फेरा वाले हाथ ही तब डालते हैं जब संदिग्ध व्यक्ति के टेल्ीफोन, फैक्स व अन्य गतिविधियों पर पूरी निगाह रखने के बाद पर्याप्त प्रमाण जुटा लेते हैं। मौजूदा कानून के तहत फेरा के मामले में दिए गए इक्वालिया बयान को कानूनी स्वीकृति प्राप्त है। जबकि पुलिस हिरासत में दिए गए बयान को यह स्वीकृति प्राप्त नहीं है। इसलिए जैन हवाला कांड में आमिर भाई का बयान अगर फेरा में दर्ज कर लिया जाता तो हवाला आरोपियों के बच निकलने का कोई रास्ता न बचता। ठीक इसी तरह अगर सुरेंद्र जैन का भी बयान फेरा के तहत रिकार्ड कर लिया जाता तो भी उसकी कानूनी वैधता होती और हवाला आरोपी छूट नहीं पाते। ऐसा करना कानूनी रूप से लाजमी था। पर यह साजिशन नहीं किया गया। हवाला कांड की जांच कर रहे सीबीआई के एक डीआईजी श्री आमोद कंठ ने तो यहां तक साजिश की कि सुरंेद्र जैन के खिलाफ जो एफआईआर भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत दर्ज कराई उसी में ऊपर अवैध रूप से लिख दिया ‘फेरा’ जिससे यह एफआईआर फेरा के तहत भी दर्ज मान ली जाए। यह साजिश पूरी तरह गैर-कानूनी थी क्यांेकि सीबीआई को कोई हक नहीं कि वह फेरा के तहत केस दर्ज करवाए। यह काम तो प्रवर्तन निदेशालय का है। ऐसा इसलिए किया गया ताकि जब जैन बंधुओं को भ्रष्टाचार के मामले में जमानत मिले तो उन्हें फेरा के तहत गिरफ्तार न किया जा सके। क्योंकि वह ये तर्क दें कि उन्हें भ्रष्टाचार के साथ ही फेरा मामले में भी गिरफ्तार कर लिया गया था इसलिए अब उसी अपराध के लिए दुबारा गिरफ्तार नहीं किया जा सकता और यही हुआ भी। इससे जैन बंधु फेरा के तहत बयान देने से बच गए और उनके साथ ही फेरा के तहत पकड़े जाने से राजनेता और अफसर भी बच गए।

अब बचा आमिर भाई। जो अहमियत सुरंेद्र जैन के बयान की होती वही अहमियत आज आमिर भाई के बयान की भी हैं । अगर आमिर भाई आज भी फेरा के तहत ठीक बयान दे दें तो हवाला कांड में छोड़ दिए गए सभी राजनेता और अफसर फौरन फेरा के तहत गिरफ्तार हो जाएंगे और इन सब के मन में यही डर बैठा हुआ था कि अगर कभी भी आमिर भाई का दिमाग पलट जाए या वह प्रवर्तन निदेशालय का मुखबिर बन जाए या भावी सरकार उसे दुबई से भारत लाने में कामयाब हो जाए तो जो राजनेता साजिश करके आतंकवाद और देशद्रोह के जैन हवाला कांड की गिरफ्त से छूट गए हैं वे फिर धर-दबोचे जा सकते हैं। अपनी गर्दन पर लटकती इस तलवार को ये ताकतवर राजनेता हमेशा के लिए खत्म कर देने को बेचैन थे। इस लिए इन्होंने आमिर भाई से एक गुप्त समझौता किया और वह यह है कि तुम भारत चले आओ, तुम्हारी गिरफ्तारी और बाद की कानूनी कार्रवाही का सब नाटक पूरा कर लिया लाएगा और तुमसे किसी तरह की बदसलूकी नहीं की जाएगी। तुम्हें फेरा के तहत सही-सही इक्बालिया बयान देने के लिए मजबूर भी नहीं किया जाएगा। इस तरह जैन हवाला कांड के भविष्य में उठ खड़ा होने की सभी संभावनाओं को समाप्त कर दिया जाएगा। विश्वस्त्र सूत्रों से पता चला है कि प्रवर्तन निदेशालय के हाल तक निदेशक श्री इंद्रजीत खन्ना ने जब देशद्रोह की इस साजिश मंे सहयोग करने से मना कर दिया तो उन्हें उनके पद से हटा कर राजस्थान का मुख्य सचिव बना कर भेज दिया गया। आमिर भाई की गिरफ्तारी के नाटक को पूरा करने की जब सारी तैयारियां निष्कंटक हो गई तब आमिर भाई को भारत बुलाया गया। वह भी ऐसे दिन जब सरकारी छुट्टी थी और उसे प्रवर्तन निदेशालय वाले गिरफ्तार नहीं कर सकते थे। इसलिए उसे न्यायायिक हिरासत में तिहाड़ जेल भेज दिया गया। तिहाड़ जेल के अंदर बंद खूखांर अपराधियों का अपना ही जंगल कानून चलता है। जब कभी आमिर भाई जैसा बड़ा आर्थिक अपराधी तिहाड़ जेल पहुंचता है तो उसकी बंदियों द्वारा लात और घूसों से जम कर धुनाई की जाती है। ताकि उसे डरा-धमका कर उसके संबंधियों से जेल के बाहर मोटी रकम वसूल की जा सके। इस बात की एवज में कि आइंदा जेल में उसके साथ ऐसा व्यवहार नहीं होगा। जो लोग भी फेरा के बड़े मामलों में तिहाड़ जेल जा चुके हैं उन्हें इस बात का खूब अनुभव है। पर आमिर भाई के मामले में इस समस्या का भी निपटारा पहले ही कर लिया गया। विश्वस्त्र सूत्रों से पता चला है कि तिहाड़ जेल के बंदी दादाओं को आमिर भाई के साथ बदसलूकी न करने के एवज में एडवांस रकम पहुंचा दी गई है। अब सिर्फ नाटक के शेष अंश बाकी हैं। जिन्हें शीघ्र पूरा करके आमिर भाई और हवाला आरोपी राजनेता जल्दी ही हवाला कांड के बचे-खुचे आतंक से भी मुक्त हो जाएंगे।

सोचने वाली बात यह है कि जब बोफोर्स कांड के अभियुक्त विन चढ्ढा व क्वात्रोची एड़ी-चोटी का जोर लगाने के बावजूद भारत की जांच एजेंसियों की गिरफ्त में नहीं आ रहे। पिछले दस वर्षों से आराम से विदेश में बैठे हैं तो अचानक आमिर भाई को क्या पागल कुत्ते ने काटा था जो वो गिरफ्तार होने और सजा भुगतने भारत चला आया। अगर आमिर भाई की गिरफ्तारी एक स्वभाविक प्रक्रिया के तहत हुई है तो यह कैसे संभव हुआ कि जो आमिर भाई वर्षों के तमाम हंगामे के बावजूद भारत नहीं लाया जा सका। आज वह अपने आप चल कर शेर के मुंह में आ गया। जबकि उसे पता था कि भारत गया तो न सिर्फ गिरफ्तार होऊंगा बल्कि जेल के सींखचों के पीछे लंबी सजा काटनी पड़ेगी। इतना ही नहीं उसके अवैध व्यापार के प्रमुख हिस्सेदार राजनेताओं और दूसरे लोगों को भी सजा भुगतनी पड़ेगी। वह भी तब जब उसका कारोबार दुबई में बैठ कर पिछले कई वर्षों से बखूबी चल रहा है। किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं है। जिंदगी ऐश से गुजर रही है। वैसे भी हवाला का कारोबार भारत में चलाने के लिए कोई कारखाने खड़े करने या दफ्तर खोलने की जरूरत तो होती नहीं। सारा कारोबार अपने विश्वास पात्र हवाला कारोबारियों के संपर्क के जाल की मार्फत केवल टेलीफोन और फैक्स पर चलता है। जो काम वो दुबई में बैठकर आसानी से कर रहा था। सब जानते हैं कि जैन हवाला कांड कश्मीर के आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन को मिल रही अवैध विदेशी मदद से जुड़ा है। बावजूद इसके 1991 से इसकी जांच को हर स्तर पर साजिशन दबाया जाता रहा है। ताकि इस कांड से जुड़े देश के अनेक बड़े नेताओं और अफसरों को बचाया जा सके। आतंकवाद के मामले में देशद्रोह के इस कांड की हर साजिश का पर्दाफाश करने वाली एक पुस्तक ‘हवाला के देशद्रोही’ शीर्षक से, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से जारी हुई है। जिसे पढ़कर एक आम हिंदुस्तानी भी समझ सकता है कि इस देश में आतंकवाद खत्म होने की बजाए बढ़ क्यों रहा है ? क्या वजह है कि तमाम सबूतों के बावजूद हवाला आरोपी राजनेता एक-एक करके छुटते गए ? जबकि रिश्वत देने वाले जैन बंधुओं ने स्वीकारा कि उन्होंने राजनेताआंे को पैसे दिए और दर्जन भर राजनेताआंे ने भी स्वीकारा कि उन्होंने पैसे लिए, तमाम विदेशी मुद्रा व दस्तावेज छापों में पकड़े गए, पर अदालत ने कह दिया कि कोई सबूत ही नहीं है? क्या वजह है कि भरी अदालत में यह स्वीकारने के बाद कि सर्वोच्च अदालत पर हवाला कांड को दबाने के लिए भारी दबाव पड़ रहा है, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश श्री जेएस वर्मा ने न तो दबाव डालने वाले का नाम ही देश को बताने की जरूरत समझी और न ही उसे अदालत की अवमानना के जुर्म में गिरफ्तार ही करवाया ? जबकि अदालत की अवमनना के छोटे से मामले में भी बड़े-बड़े समाज सुधारकों, पत्रकारों, वकीलों व आईएएस और आईपीएस अधिकारियों तक को अदालत नहीं बख्शती। ऐसे तमाम तथ्यों का खुलासा यह पुस्तक करती है। इधर इंडियन एअर लाइंन्स के विमान अपहरण के बाद से देश में आतंकवादियों से जुड़े तंत्र पर सरकारी जांच एजेंसियों की सतर्क निगाहें तैनात हैं ऐसे हालात में आमिर भाई क्योंकर मधुमक्खियों के छत्ते में हाथ डालने लगा ? साफ जाहिर है कि उसका गिरफ्तार होना एक नाटक से ज्यादा कुछ नहीं हैं। आने वाले दिनों में पूरी तस्वीर देश के सामने आ जाएगी।

Friday, January 7, 2000

ऐसे नहीं खत्म होगा आतंकवाद


आतंकवादियों के हौसले बुलंदी पर हैं। आये दिन कश्मीर में हमारे सैनिक प्रतिष्ठानों पर जिस तरह बेखौफ होकर आतंकवादी हमले कर रहे हैं, उससे यह बात और भी पुख्ता हो जाती है। इंडियन एयरलाइंस के हवाई जहाज को बंधक बनाकर रखने के बाद मिली कामयाबी से तो उनके आगे का रास्ता भी खुल गया। जिस देश  में पुलिस का महकमा भ्रष्टाचार के चलते जनता का विश्वास खो बैठा हो, जहां लगभग हर पुलिसिये की कीमत लगाई जा सकती हो वहां आतंकवादियों के लिए अपने काम को बिना दिक्कत के अंजाम देना कितना सरल है इसका कोई भी अंदाजा लगा सकता है। मसलन अगर किसी शहर में आतंकवादी आर डी एक्स के साथ पकड़े जायें तो क्या यह संभव नहीं है कि वे इलाके के दरोगा को उसकी हैसियत से पांच दस गुना ज्यादा रिश्वत देकर पिछले दरवाजे से चुपचाप भगा दिये जायें। मुम्बई बम कांड में जो आर.डी.एक्स. इस्तेमाल हुआ था वह मुम्बई के ही सीमा शुल्क विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों की नाक तले शहर में लाया गया था। इस घातक पदार्थ को ले जाने की छूट देने के एवज में सीमा शुल्क विभाग के अधिकारियों को कुछ लाख रुपये मिले होंगे। मगर उनकी इस कमजोरी ने शेयर बाजार में काम कर रहे सैकड़ों नौजवानों की जान ले ली। ऐसे हादसे देश के हर हिस्से में कभी भी हो सकते हैं।

भारत सरकार एक बार फिर पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. की भारत में चल रहीं भूमिगत गतिविधियों के बारे में जल्दी ही श्वेत-पत्र लाने की बात कर रही है। इससे पहले दिसम्बर 1998 में भी भारत के मौजूदा गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवानी ने बार-बार इसी तरह का श्वेत-पत्र लाने की घोषणा की थी। किन्तु अनजान कारणों से ऐन मौके पर यह श्वेत-पत्र नहीं लाया गया। खैर देर आयद दुरुस्त आयद। अब भी अगर आतंकवादियों के बारे में सरकार श्वेत-पत्र ले आती है तो कम से कम जनता को उन नग्न तथ्यों की जानकारी मिलेगी जिन्हें गोपनीयता के नाम पर जनता से यूं ही छिपा कर रखा जाता है। आखिर जनता को यह हक है कि वह हुक्मरानों से पूछे कि क्या वजह है कि आतंकवादी इतनी आसानी से तरक्की कैसे कर पा रहे हैं? उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रस्तावित श्वेत-पत्र आतंकवाद से जुड़े किसी भी पहलू पर जानकारी को छिपायेगा नहीं। यहां यह उल्लेख करना बहुत महत्वपूर्ण है कि आतंकवादियों को वित्तीय मदद पहंुचाने के कई खतरनाक कांड सी.बी.आई. की निगाह में आये हैं। पर शर्म की बात है कि इन कांडों की पूरी तहकीकात करने के बजाय सी.बी.आई. लगातार इन्हें दबाने का काम करती आई है। कश्मीर के आतंकवादियों को दुबई और लंदन से आ रही वित्तीय मदद के सबसे ज्यादा चर्चित और राजनैतिक रूप से संवेदनशील जैन हवाला कांड का भी यही हश्र हुआ है। ऐसा क्यों होता है? लोकतंत्र में जनता को यह हक है कि वह जाने कि जिन खुफिया या जांच एजेंसियों को आतंकवाद की जड़ें खोजने का काम करना चाहिए वे आतंकवादियों को गैर कानूनी संरक्षण देने का काम क्यों करती आईं हैं। जैन हवाला जैसे तमाम कांड जो देश में आतंकवाद से जुड़े हैं उनका विस्तृत ब्यौरा सरकार के प्रस्तावित श्वेत-पत्र में आना ही चाहिए। इस श्वेत-पत्र में इस बात का विस्तृत उल्लेख होना चाहिए कि ऐसे हर कांड की जांच को किस राजनैतिक दबाव के तहत ठंडे बस्ते में डाला गया। इसमें इस बात का भी जिक्र होना चाहिए कि उन कांडों की जांच के लिये जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों या दूसरे जांच अधिकारियों ने इन केसों से सम्बन्धित फाइलों पर क्या टिप्पणियां लिखी थीं। अगर यह पता चले कि एक डी.आई.जी. ने तो टिप्पणी की थी, ’’जांच तेजी से बढ़ाई जाए और सभी सम्बन्धित लोगों के घर छापे डाले जाएं’’ वहीं उससे बड़े अधिकारी ने उसी केस के सम्बन्ध में फाइल पर टिप्पणी की हो, ’’छापे डालने की कोई जरूरत नहीं है जांच रोक दी जाए’’ इस तरह की गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी करने वाले वरिष्ठ अधिकारियों का पर्दाफाश किया जाए ताकि जनता को पता चले कि हमारी पुलिस व्यवस्था में कौन से अधिकारी हैं जो चांदी के टुकड़ों या पदोन्नति के लालच में अपने ईमान को बेच कर देश द्रोह की सीमा तक जाने से संकोच नहीं करते। इस तरह पहचाने गये अधिकारियों के  खिलाफ अगर सख्त प्रसाशनिक कार्यवाही नहीं की जाती और उन्हें देश द्रोह की इस आपराधिक साजिश के लिये कड़ी सजा नहीं दी  जाती तो आतंकवाद पर काबू नहीं पाया जा सकता। चाहे कितने ही श्वेत-पत्र लाये जायें और आतंकवाद से ’’कड़ाई से निपटने’’ के कितने ही दावे क्यों न किये जायें।

इसके साथ ही देश की खुफिया एजेंसियों की भूमिका का मूल्यांकन होना भी निहायत जरूरी है। राॅ और आई.बी. जैसी दो बहुत बड़ी खुफिया एजेंसियां भारत की जनता के खून पसीने की कमाई पर पल रही हैं। फिर क्या वजह है कि कारगिल हो या इंडियन एयरलाइंस का हवाई जहाज, कोयम्बटूर की जनसभा हो या मुम्बई का बम विस्फोट, हम धमाके सुनने के बाद ही जाग पाते हैं। प्रश्न किया जा सकता है कि क्या ये खुफिया एजेंसियां  नाकारा हैं? क्या इन्हें काम करना नहीं आता? क्या इनके पास साधन नहीं है? क्या राजनैतिक हित साधने के लिये इनका दुरुपयोग किया जाता है? क्या इनमें तैनात अधिकारी सरकारी दामाद बनकर सैर-सपाटों और मौज मस्ती में ही लगे रहते हैं और अपना काम बहुत नीचे के स्तर के कर्मचारियों के जिम्मे छोड़कर बेफिक्र हो जाते हैं? इन सब प्रश्नों के उत्तर हां में हो सकते हैं और शायद हैं भी। यदि ऐसा है तो यह एक चिंता की बात है। देश की दो प्रमुख खुफिया एजेंसियां अगर यह कहती हैं कि इन प्रश्नों के उत्तर हां में नहीं हैं। वे तो अपना काम मुस्तैदी से करती हैं पर उनके राजनैतिक आका उनकी समय पर दी गई चेतावनियों को नजर अंदाज कर देते हैं तो इसमें उनका क्या दोष? अगर यह बात सही है तो प्रस्तावित श्वेत-पत्र में ऐसे तमाम गृहमंत्रियों के नामों की सूची जरूर छपनी चाहिए जिन्होंने समय-समय पर आतंकवाद के बारे में देश की प्रमुख खुफिया एजेंसियों द्वारा दी गई चेतावनियों को नजर अंदाज किया है। इससे जनता को अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के असली चेहरे देखने का मौका मिलेगा। इन सब मुद्दों को मद्देनजर रखते हुए प्रस्तावित श्वेत-पत्र का भारी महत्व है और देशवासी उत्सुकता से इसकी प्रतीक्षा करेंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि मौजूदा गृह मंत्री आतंकवाद व आई.एस.आई. की गतिविधियों पर जो श्वेत-पत्र जल्दी ही प्रस्तुत करने की बात कर रहे हैं, उसमें इन सभी तथ्यों को बिना किसी लापरवाही के ठीक-ठीक उजागर किया जाएगा। अन्यथा उस श्वेत-पत्र का महत्व सरकारी रद्दी से ज्यादा कुछ नहीं होगा।

इसके साथ ही यह बात भी महत्वपूर्ण है कि धर्म निरपेक्षता का ढिंढोरा पीटने वाली शबाना आजमी  और दिलीप कुमार जैसे कलाकार, राजेन्द्र सच्चर जैसे न्यायविद्, रोमिला थापर जैसे इतिहासकार, राजेन्द्र यादव जैसे साहित्यकार और तमाम दूसरे कलाकार, रंगकर्मी और पत्रकार जो आये दिन धर्म निरपेक्षता के नाम पर रैली, सेमिनार, नुक्कड़ नाटक व प्रदर्शन करते रहते हैं इस्लामी आतंकवाद के बारे में मौन क्यों हैं? क्यों नहीं ये उतने ही मुखर होते? उड़ीसा में एक ईसाई धर्म प्रचारक की दर्दनाक हत्या पर पूरे देश में तूफान मचा देने वाले इस्लामी आतंकवाद को सिर्फ आतंकवाद कहकर कैसे बच निकलते है। जबकि बिन लादेन से लेकर तमाम इस्लामी अतिवादी संगठन बार-बार यह घोषणा करते हैं कि उनकी भारत से लड़ाई सिर्फ इसलिए है कि भारत इस्लामी मुल्क नहीं है। उनके प्रभाव वाले इलाकों में स्थित मस्जिदों में जब इन अतिवादी संगठनों की राजनैतिक बैठकें होती हैं तो उनमें भारत के विरुद्ध जेहाद को और तेज करने की कसमें खाई जाती हैं। एक तरफ तो हम भारत के बहुसंख्यक हिन्दू समाज के मुट्ठी भर अराजक तत्वों की यदा कदा होने वाली अराजक वारदातों पर इतने उत्तेजित हो जाते हैं कि आसमान सिर पर उठा लेते हैं और दूसरी ओर धर्मान्धता से निर्देशित होने वाले एक सुव्यवस्थित, सुसंगठित और लगभग पूर्ण रूप से सैनिक हमलों को मात्र आतंकवाद कहकर टाल देते हैं। हाल के वर्षों में यह साफ हो गया है कि भारत में आतंकवाद दो किस्म का है। एक आतंकवाद तो उन नौजवानों द्वारा फैलाया जा रहा है जो देश की राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था से नाराज हैं और विकास की प्रक्रिया में अपने क्षेत्र की उपेक्षा को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं और दूसरा आतंकवाद इस्लामी आतंकवाद है। जिसका देश की अंदरूनी स्थिति से कोई सरोकार नहीं। यह आतंकवाद भारत की सीमाओं के बाहर, विदेशी शक्तियों की मदद से बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से विकसित किया जा रहा है। इसे देश के भीतर छिपे गद्दारों और भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहयोग मिल रहा है। इस आतंकवाद के पीछे की मानसिकता किसी को भी उसका हक दिलाने की नहीं है चाहे वह कश्मीर के बहुसंख्यक मुसलमान हों या देश के दूसरे प्रांतों में बसे अल्पसंख्यक मुसलमान। इस इस्लामी आतंकवाद का एक ही लक्ष्य है भारत को इस्लामी राज्य बनाना। इसलिए बिना किसी धर्मान्धता या भावुकता के यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि इस्लाम की बुनियाद ही विधर्मियों को तलवार के जोर पर अपना धर्म कबूल करवाने के लिए मजबूर करने की रही है। जबकि भारत की भूमि में पनपे वैदिक या वैदिकोत्तर धर्मों ने अपनी दार्शनिक श्रेष्ठता के बल पर लोगों के दिल जीते हैं। चीन, जापान, थाईलैण्ड, श्रीलंका, अफगानिस्तान और रूस तक बुद्ध धर्म का प्रचार करने कोई फौजें नहीं गई थीं। कोई आतंकवादी संगठन भी नहीं बनाये गये थे। शस्त्रहीन, सिर मुड़े बौद्ध भिक्षु भगवान बुद्ध की शिक्षा और भिक्षा पात्र लेकर इन सुदूर देशों में गये और वहां के पूरे समाज को बदल दिया। बीसवीं सदी मे भी भारत के अनेक संतों ने पूरे विश्व में जाकर सनातन धर्म का प्रचार बड़ी विनम्रता, प्रेम व सद्भावना के साथ किया और हर धर्म के लाखों लोगों को अपनी वाणी से अभिभूत कर दिया। इनमें से किसी ने भी किसी भी देश के खिलाफ कभी जेहाद की घोषणा नहीं की। फिर भी  वैदिक दर्शन और सनातन धर्म की ध्वजा आज पूरी दुनिया में लहरा रही है। इसलिए भारत भूमि में पनपे दार्शनिक सिद्धांतों को मानने वालों के विरुद्ध आयातित धर्मों के लोगों द्वारा थोपा गया यह युद्ध या जेहाद भत्र्सना के योग्य है। देश के सनातन धर्मावलम्बियों को ही नहीं, बल्कि विधर्मियों को भी भारतीय नागरिक होने के नाते इस जेहाद का डटकर विरोध करना चाहिए। सबसे ज्यादा खुलकर तो उन धर्म निरपेक्षवादियों को सामने आना चाहिए जो आज तक धर्म निरपेक्षता के नाम पर भारतीयता पर हमले करते आये हैं।  केन्द्र व राज्य की सरकारों को भी चाहिए कि वह देश के ऐसे पुलिस अधिकारियों को इकट्ठा करे जो आतंकवाद से लड़ने में सक्षम हैं या जिन्हें इस काम का अनुभव है। ऐसे पुलिस अधिकारियों को देश के आतंकवाद से निपटने की जिम्मेदारी सौंपी जाये, उन्हें सब साधन, सहयोग और अधिकार दिये जायें। उनके काम में राजनैतिक दखलंदाजी बिल्कुल  की जाये। तब जाकर कहीं आतंकवाद के बेलगाम घोड़े को काबू किया जा सकेगा। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो आतंकवाद पिछले वर्षों की तरह ही घटने की बजाय बढ़ेगा ही। चाहे कितने ही श्वेत-पत्र लाये जायें। राजनेता और बड़े अफसर तो ब्लैक कैट कमांडो के सुरक्षा घेरे में अपनी जान बचा लेंगे पर देश की करोड़ों जनता आतंकवादियों के रहमोकरम पर जिंदगी बसर करने को लावारिस छोड़ दी जाएगी।

Friday, December 31, 1999

नई सदी या दिमागी दिवालियापन

इंडियन एअर लाइंस के विमान के अपहरण के बाद उसमें सवार मुसाफिरों के रिश्तेदारों ने जिस तरह अपने गुस्से का इजहार किया वह अप्रत्याशित था। किसी हादसे के बाद सरकारी तंत्र की विफलता पर नागरिकों का गुस्सा हो जाना एक स्वभावित बात होती है। अक्सर ऐसा होता भी रहता है। लोग संबंधित अधिकारियों को कोसते हैं, राजनेताओं पर संवेदनशून्यता का आरोप लगाते हैं और खुद स्थिति से जूझने में जुट जाते हैं। इस बार जो नई बात थी वह ये कि जैसे ही इस वायुयान में सवार मुसाफिरों के रिश्तेदारों को पता चला कि आतंकवादी अपने साथियों को रिहा करवाने की मांग कर रहे हैं और सरकार उनसे बातचीत करके मामला निपटाना चाहती है, तो उनका क्रोध आपे के बाहर हो गया। उनका तर्क था कि पूर्व गृहमंत्रh श्री मुफ्ती मौहम्मद की बेटी कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा उठा ली गई थी तब तत्कालीन सरकार ने बिना हील-हुज्जत के आतंकवादियों की मांगों के आगे समपर्ण कर दिया था और गृहमंत्राी की बेटी को बचाने के लिए कई खूंखार आतंकवादियों को रिहा कर दिया था। जबकि इस बार वायुयान में 150 से ज्यादा मुसाफिरों की जान अटकी है पर सरकार वैसी फुर्ती नहीं दिखा रही। मुसाफिरों के रिश्तेदारों ने बार-बार जोर देकर कहा, ‘चूंकि इस वायुयान में कोई राजनेता या उसका परिवारजन सफर नहीं कर रहा इसलिए सरकार निर्णय लेने में इतना वक्त खराब कर रही है। जबकि वायुयान में सवार मुसाफिरों के प्राण जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं।’ इन लोगों में इस कदर गुस्सा था कि इनका एक झुंड शोर मचाते हुए सीधे वहां पहुंच गया जहां विदेश मंत्राी श्री जसवंत सिंह सम्मवाददाता सम्मेलन कर रहे थे। वहीं विदेश मंत्राी को पत्राकारों के सामने ही इन लोगों ने खूब खरी-खोटी सुनाई।

दूसरी तरफ मुसाफिरों के कुछ दूसरे नातेदारों का लगातार प्रधानमंत्राी पर दबाव बनाए रखना यह सिद्ध करता है कि हिंदुस्तानी जनता अब राजनेताओं को कटघरे में खड़ा करने लगी है। 27 दिसंबर को तो मुसाफिरों के रिश्तेदारों ने दिल्ली के सेंट्योर होटल से प्रधानमंत्राी निवास तक पैदल मार्च किया और देर रात तक प्रधानमंत्राी आवास के बाहर खड़े रहे। इन लोगों के इस तर्क में निसंदेह बहुत दम है कि अगर कोई राजनेता या उसका परिवारजन इस वायुयान में होता तो निर्णय लेने में सरकार इतनी देर न लगाती। अपनी इस भावना का खुला प्रदर्शन इन रिश्तेदारों ने अलग-अलग टेलीविजन कंपनियों के सामने खुल कर किया। देश के बिगड़ते निजाम और सूचना क्रांति के चलते भारतीय लोकतंत्रा के पांचवें दशक में जनता में जिस तरह की जागरूकता आ रही है और जिस तरह की जवाबदेही की अपेक्षा वह राजनीतिज्ञों से करने लगी है वह एक स्वस्थ्य प्रवृत्ति है। इससे भारतीय लोकतंत्रा मजबूत ही होगा। पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसा क्यों हो गया है कि राजनेता किसी भी विचारधारा या दल के क्यों न हों जनता की निगाह में उनकी तस्वीर एक फिल्मी विलेन से ज्यादा नहीं बची है। आज खादी के सफेद कपड़े पहनने वाले को सरेआम दलाल कहा जाता है। सुरक्षा गार्डों को लेकर चलने वाले नेताओं पर नौजवान फब्ती कसते हैं, ‘देखो एक और चोर जा रहा है।’ एक जमाना था जब केंद्र और प्रांत की सरकार आमतौर पर एक ही दल चलाता था पर आज दो दर्जन दल देश की सरकार चलाने पर मजबूर है। क्योंकि जनता का विश्वास किसी भी दल या विचारधारा में नहीं रहा। उसने अब ये अच्छी तरह समझ लिया है कि विचारधाराओं के मुखौटे तो जनता को बरगलाने के लिए होते हैं, पर्दे के पीछे तो सबकी मिली भगत है। इस सदी के आखिरी वर्ष में अगर हम देश की राजनैतिक स्थिति का मूल्यांकन करs तो कुछ रोचक तथ्यों को अनदेखा नहीं कर पाएंगे। इस सदी के शुरू में श्री बालगंगाधर तिलक, श्री विपिनचन्द्र पाल, श्री लाला लाजपत राय, श्री गोपाल कृष्ण गोखले, श्री सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गांधी, सरदार भगत सिंह, वीर सावरकर जैसे महान्, त्यागी, राष्ट्र भक्त और युग दृष्टा राजनेताओं की एक लंबी कतार पाते हैं। जबकि आज के दौर की राजनीति के कुछ चमकते सितारें हैं श्री अमर सिंह, श्री ओम प्रकाश सिंह चैटाला, श्री लालू यादव, श्री पप्पू यादव, श्री सुखराम, श्री गुलामनबी आजाद आदि। कोई इन राजनेताओं से पूछे कि आप कौन-सी राजनैतिक विचारधारा में पले, बढ़े ? उस विचारधारा से आपके जीवन का क्या संबंध है ? आपने अपने जीवन में समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए कौन सा संघर्ष किया? क्या तकलीफें सही ? किन सुख, सुविधाओं का त्याग किया ? आखिर आपने देश और समाज के लिए ऐसा क्या योगदान किया कि आज आप देश के वरिष्ठ नेताओं में गिने जाते हैं ? हो सकता है कि जवाब मिले ‘क्या करें हालात ही ऐसी है कि हमें न चाहते हुए भी बहुत कुछ ऐसा-वैसा करना पड़ता है।’ तब प्रश्न किया जा सकता है कि जिसने हालात के आगे समर्पण कर दिया हो उसे नेता कैसे माना जा सकता है ? नेता तो वह होता है जो विपरीत हालात में भी अपनी बात मनवाने की कुव्वत रखता हो। जो समाज और राष्ट्र को दिशा और नेतृत्व देने की क्षमता रखता हो। ऐसे सक्षम कितने नेता आज देश में हैं ? कितने नेता देश में हैं जिनकी एक झलग देखने को गांव के गांव उमड़े चले आते हों ? आज हर दल को किराए की भीड़ क्यों जुटानी पड़ती है ? ये कैसा लोकतंत्रा है जिसमें नेताओं के बेटे तो घर बैठे नेता बन जाते हैं और कार्यकर्ता जीवन भर कार्यकर्ता ही बने रहते हंक ? इस सदी में भारतीय राजनीति की गुणवत्ता में आए इस प्रमुख परिवर्तन का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है। आज देश का प्रबंधन और प्रगति की दिशा देश में उपलब्ध संसाधनों को ध्यान में रख कर या लोगों की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं है। बल्कि निहित स्वार्थों के आत्मपोषण के लिए है।

साफ बात है कि जब समाज सेवा का ढोंग रच कर लुटेरी मानसिकता के लोग राजनीति मंे हावी हो जाएंगे तो उनके प्रति जनता का रवैया इससे भिन्न और क्या हो सकता है ? कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर राजनेताओं की देश में इज्जत नहीं बची है। यह राष्ट्र और समाज के लिए दुखद स्थिति है। राजनेताओं को ही इसके कारण खोजने चाहिए। उन्हें धरातल पर उतरना चाहिए। उन्हें सदी के इस अंतिम वर्ष में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के इस पतन पर आत्मविश्लेषण करना चाहिए ताकि नई सदी में वे सही मायने में देश को नेतृत्व दे सकें। जिसकी भारत जैसे देश को अभी बहुत जरूरत है। ऐसा नहीं है कि सभी राजनेताओं का एक जैसा हाल है। अगर केंद्रीय सरकार के वर्तमान मंत्रिमंडल की तरफ ही देखें तो हर मामले में न सही, पर कुछ मामलों में अनूठे आदर्श सामने दिखाई देते हैं। मसलन, केंद्रीय रेल मंत्राी सुश्री ममता बनर्जी ने अभी तक अपने पद के अनुरूप सरकारी बंगला नहीं लिया है। वे बिना किसी तामझाम के, बेहद सादगी से, अपने उसी फ्लैट में रह रही हैं जिसमें बतौर सांसद वे आज तक रहती आई हैं। कोई अनजान व्यक्ति भी आसानी से उनके घर में घुस सकता है। इतना ही नहीं सुश्री बनर्जी अपने टिफिन में घर से अपना लंच लेकर जाती हैं। उनसे मिलने आने वालों को रेल मंत्रालय की कैंटीन से चाय मंगवा कर पिलाती हैं और उसका भुगतान भी खुद ही करती हैं। जबकि आज तक परंपरा यही थी कि रेलमंत्राी के मेहमानों की खातिर शाही तरीके से रेल विभाग द्वारा की जाती थी और इस फालतू खर्च का भार पड़ता था जनता पर। क्या ममता बनर्जी की तरह ही केंद्रीय सरकार के बाकी मंत्राी भी इसी तरह ही सादगी और मितव्यता से काम नहीं कर सकते ? दूसरा महत्वपूर्ण उदाहरण है केंद्रीय रक्षा मंत्राी श्री जार्ज फर्नाडीज का। उनके पद की संवेदनशीलता को देखते हुए उनके साथ सेना के जवानों और सुरक्षा कर्मियों का लगातार उनके इर्द-गिर्द बने रहना स्वभाविक सी बात है। पर श्री जार्ज फर्नाडीन ने ये सारे भ्रम तोड़ डाले हैं। यूं कहने को तो वे रक्षा मंत्राी है पर उनके बंगले के दरवाजे पर कोई भी सुरक्षा कर्मी तैनात दिखाई नहीं देते। नई दिल्ली के कृष्णा मेनन मार्ग पर स्थित रक्षा मंत्राी के सरकारी आवास का आलम यह है कि इतने बड़े बंगले में एक फाटक तक नहीं लगा है। कोई भी सड़क चलता आदमी रक्षा मंत्राी के शयन कक्ष तक बे-रोक-टोक पहुंच सकता है। यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है और वह यह कि जब देश का रक्षा मंत्राी बिना सुरक्षा कर्मियों के आराम से रह सकता है, उसे कोई खतरा नहीं नजर आता, तो देश के बाकी नेताओं और उनके चमचे चाटुकारों को ऐसा कौन सा खतरा पैदा हो गया है जो सारे के सारे अपने इर्द-गिर्द सुरक्षा कर्मियों को लटकाए घूमते हैं। राज्यों के मुख्यमंत्राी जब सड़कों पर निकलते हैं तो उनके आगे-पीछे आला अफसरों की गाडि़यों का इतना बड़ा हुजूम होता है कि दुनिया के ज्यादातर देशों के राष्ट्राध्यक्ष तक देख कर घबड़ा जाएं। ये फिजूलखर्ची क्यों ? आर्थिक रूप से दीवालिया हो चुके उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हर विधायक तक एक एक सुरक्षाकर्मी को साथ लेकर घूमता है। खर्चा पड़ता है प्रदेश की जनता पर। जो जनप्रतिनिधि बन कर भी जनता के बीच जाने से घबड़ाता हो उसे जनता अपना नेता क्यों माने ? देश में नेतृत्व और आदर्शवादी राजनीतिज्ञों का अभाव सदी के अंतिम वर्षों में एक बहुत बड़े संकट के रूप में उभर कर सामने आया है।

राजनीति में आई इस गिरावट के लिए वो सब लोग जिम्मेदार हैं जो राजनीमि को अछूत मानते आए हैं। फिर चाहे वो समर्पित और त्यागी सामाजिक कार्यकर्ता हों या अन्य व्यवसायों से जुड़े संवेदनशील जागरूक नागरिक- सबको सोचना चाहिए कि इस तरह हजारों झुंडों और खेमों में बंट कर वे समाज को कैसे बदल पाएंगे? किले का सदर दरवाजा तोड़ने के लिए लकड़ी का एक लट्ठा ही काफी होता है। बशर्ते कि उसे सामुहिक रूप से उठाने के लिए कुछ लोग तैयार हों और वे सब सामुहिक शक्ति का प्रदर्शन करते हुए उस लट्ठे से किले के सदर दरवाजे पर बार-बार आघात करें। दुर्भाग्य से राष्ट्र व समाज के बारे में सोचने वाले लोग अपने अहम के चलते किसी दूसरे के काम को न तो समझना चाहते हैं और न उसकी प्रशंसा करना चाहते हैं। सबको अपनी सोच, अपनी क्षमता और अपना काम ही सर्वश्रेष्ठ लगाता है। अगली सदी में यह स्थिति बदल सके इसके लिए जागरूक नागरिकों को ही पहल करनी होगी। ताकि देश की राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था को जवाबदेह और पारदर्शी बनाया जा सके। इसके अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं है। भारत के बिगड़े हालात सुधारने चीन या पाकिस्तान के नागरिक तो करूणावश यहां आएंगे नहीं ? अगर हम चाहते है कि हमारे नेताओं का व्यक्तित्व गर्व करने योग्य हो तो हम सबको इसके लिए सतत प्रयास करना होगा। ताकि जब इंडियन एअर लाइंस का विमान अपहरण करके ले जाया जाए तो लोगों को प्रधानमंत्राी और विदेश मंत्राी के घर के सामने धरना न देना पड़े, उनकी आलोचना न करनी पड़े, उनकी औपचारिक बैठकों में दखन न देना पडे़, बल्कि उन्हंे विश्वास हो कि सरकार जो भी करेगी सर्वश्रेष्ठ करेगी, उनके हित में करेगी और जितनी जल्दी हो सके करेगी। पिछले दो दशकों में सरकार और प्रशासन पर से जनता का भरोसा लगभग उठ चुका है। किसी देश के लिए इससे ज्यादा चिंता की बात और क्या होगी कि उसकी जनता का अपनेे नेतृत्व में विश्वास ही न हो ? इस बिखराव को रोकना होगा और लोगों का विश्वास फिर से राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में जमाना होगा। तभी अगली सदी में वह सब हासिल हो पाएगा जिसके सपने आज देखे और दिखाए जा रहे हैं।

केवल नारो से कोई राष्ट्र मजबूूत नहीं बना करता। नारो के पीछे समर्पण और आदर्श-जीवन के उदाहरण होते हैं, तभी नारे सार्थक हो पाते हैं। पर दुर्भाग्य से बाजारू शक्तियों ने राष्ट्र के जीवन में आने वाले हर ऐतिहासिक अवसर को माल बेचने के अवसर में बदल देने में महारथ हासिल कर ली है। फिर चाहे वो कारगिल युद्ध हो या नई सदी के उत्सव। बाजारू शक्तियां मीडिया पर किस कदर हावी हैं इसका उदाहरण है नई सदी का बुखार, जो बिना वजह ही पूरे देश को चढ़ गया है। 1 जनवरी 2000 से बीसवीं सदी का आखिरी वर्ष शुरू हो रहा है ना कि नई सदी की शुरूआत। नई सदी तो 1 जनवरी 2001 से शुरू होगी। पर जिस तरह विज्ञापन एजेंसियां मिट्ठी को सोना बता कर बेंच देती हैं उसी तरह अब ये इतनी ताकतवर हो चुकी हैं कि बड़ी आसानी से लोगों की सोच पर कब्जा जमा लेती हैें। फिर चाहे वह सोच देश की समस्याओं के बार में हो या राजनैतिक नेतृत्व के बारे में या एड्स जैसी किसी तथाकथित महामारी के बारे में या क्रिकेट मैच के टीवी प्रसारण के बारे में, सब कुछ फास्ट-फूड की तरह पहले बाजारू शक्तियों के प्रयोगशाला में तैयार किया जाता है और फिर उसे बड़ी होशियारी से लोगों के दिमागों में दर्ज करा दिया जाता है ताकि उसका फायदा कुछ कंपनियों के माल को बेचने में उठाया जा सके। इस तरह हमारी सोच और जेब दोनों पर डाका डाला जा रहा है। इस सदी के अंतिम दशकों में आ खड़े हुए इस नए खतरे के बावजूद अगर हमें अपने जीवन स्तर को वाकई उठाना है, भारत को महान् बनाना है और अपने राजनेताओं का रवैया सुधारना है, तो हमें कुछ कड़े कदम उठाने ही होंगे। वरना अगली सदी में सपने टूटते देर नहीं लगेगी। जाहिर है कि शराब पीकर ‘न्यू ईयर्स ईव’ पार्टियों में थिरकने वाले तो ऐसे कदम उठा नहीं सकते। फिर ये पहल कौन करेगा ?