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Monday, December 12, 2022

आज के बड़े नेताओं के गंदे, हिंसक भाषण !

पिछले कुछ वर्षों से देश के एक प्रमुख राजनैतिक दल के बड़े नेताओं द्वारा चुनावी सभाओं में बहुत हिंसक व अपमान जनक भाषा का प्रयोग किया जा रहा है। इससे न सिर्फ राजनीति में कड़वाहट पैदा हो रही है बल्कि समाज में भी वैमन्स्य पैदा हो रहा है। जब से आजादी मिली है सैकड़ों चुनाव हो चुके है पर ऐसी भाषा का प्रयोग अपने विरोधी दलों के प्रति किसी बड़े नेता ने कभी नहीं किया। एक प्रथा थी कि चुनावी जन सभाओं में सभी नेता सत्तारूढ़ दल की नीतियों की आलोचना करते थे और जनता के सामने अपनी श्रेष्ठ छवि प्रस्तुत करते थे। सत्तारूढ़ दल के नेता अपनी उपलब्धियां गिनाते थे और भविष्य के लिये चुनावी वायदे करते थे। पर इस पूरे आदान प्रदान में भाषा की गरिमा बनी रहती थी। प्रायः अपने विपक्षी नेता के ऊपर व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी करने से बचा जाता था। इतना ही नही बल्कि एक दूसरे का इतना ख्याल रखा जाता था कि अपने विपक्षी दल के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के विरूद्व जानबूझ कर हल्के उम्मीदवार खड़े किये जाते थे, जिससे उस बड़े नेता को जीतने में सुविधा हो। ऐसा इस भावना से किया जाता था कि लोकसभा में देश के बड़े नेताओं की उपस्थिति से सदन की गरिमा बढ़ती है। 



आजकल लोकतंत्र की इन स्वस्थ परम्पराओं को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है। जिसका बहुत बुरा असर समाज पर पड़ रहा है। जब किसी दल के बड़े नेता ही जनसभाओं में अभद्र भाषा का प्रयोग करेंगे तो उनके समर्थक और कार्यकर्ता कैसे शालीन व्यवहार करेगे? सोशल मीडिया में प्रयोग की जा रही अभद्र भाषा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। कुछ दलों की ट्रोल आर्मी दूसरे दलों के नेताओं के प्रति बेहद अपमानजनक और छिछली भाषा का प्रयोग करती है। उन्हें गाली तक देते है। उनके बारे में व्हाट्सएप यूनिवार्सिटी से झूठा ज्ञान प्राप्त करके उसका विपक्षियों के प्रति दुरूपयोग करते है। मसलन नेहरू खानदान को मुसलमान बताना जबकि इस बात के दर्जनों सबूत है नेहरू खानदान सदियों से सनातन धर्मी ही रहा है। जबकि उसे मुसलमान बताने वालों के नेताओं की नास्तिकता जग जाहिर है। इनके बहुत से नेताओं के पूर्वजों ने कभी कोई तीर्थयात्रा की हो, इसका कोई प्रमाण नही मिलता। 

जिन दलों ने चुनावी राजनीति को इस कदर गिरा दिया है उन्हें सोचना चाहिये कि ये सब करने से क्या उन्हें हमेशा वांछित फल मिल रहे है ? नहीं मिल रहे। अक्सर अपेक्षा के विपरीत बहुत अपमान जनक परिणाम भी मिल रहे हैं। फिर ये सब करने की क्या जरूरत है। ये सही है कि प्रचार प्रसार पर अरबों रूपया खर्च करके हानिकारक पेय पदार्थों जैसे पेप्सी कोला को घर-घर बेचा जाता है वैसे ही चुनावी प्रचार प्रसार में नकारा और असफल राजनेताओं को भी महान बनाकर बेचा जाता है। अब ये तो मतदाता की बुद्वि और विवेक पर निर्भर करता है कि वह किसे अपना मत देता है। अक्सर अपराधी, भ्रष्टाचारी और माफिया चुनाव जीत जाते है और सच्चरित्र उम्मीदवारों की जमानत तक जप्त हो जाती है। इसका मतलब यह हुआ कि चुनाव का परिणाम क्या होगा इसका कोई पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। ऐसे में अपमानजनक, आक्रामक व छिछली भाषा में अपने प्रतिद्वन्दियों पर हमला करने वाले नेता अपने ही छिछले व्यक्तित्व का परिचय देते है। उन्हें सोचना चाहिये कि राजनैतिक जीवन में  इस गन्दगी को घोल कर वे स्वयं ही गन्दे हो रहे है। आश्चर्य तो तब होता है जब देश के महत्वपूर्ण पदों पर विराजे बड़े राजनेता ऐसी भाषा का प्रयोग करने में संकोच नही करते। जो भाषा उनके पद की गरिमा के अनुकूल नही होती। मुझे याद है कि 1971 के भारत-पाक युद्व के दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फीकार अली भुट्टों ने बयान दिया, ‘‘हम एक हजार साल तक भारत से युद्व लड़ेंगे’’। इस उत्तेजक बयान को सुनकर भी भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने कोई उत्तेजना नही दिखाई। कोई भड़काऊ बयान नही दिया। जब वे एक विशाल जनसभा को सम्बोधित कर रही थी तो उन्होंने बड़े आम लहजे में कहा, ‘‘वे कहते है कि हम एक हजार साल तक लड़ेंगे। हम कहते है कि हम शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व से रहेंगे’’। इस सरल से वक्तव्य में कितनी शालीनता थी। न भुट्टों का नाम लिया न पाकिस्तान का, न अभद्र भाषा का प्रयोग किया और न कोई उत्तेजना दिखाई। इससे जहां एक ओर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भुट्टो की अंतर्राष्ट्रीय छवि धूमिल हुई वहीं इन्दिरा गांधी ने संयमित रहकर अपनी बड़ी लकीर खींच दी।


ऐसे व्यक्तित्व के कारण उस दौर में भी इन्दिरा गांधी की छवि पूरी दुनिया में एक ताकतवर नेता की थी। जिन्होंने अपनी इसी क़ाबिलियत के बल पर पड़ोसी देश सिक्किम का भारत में विलय कर लिया और बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करवा दिया। 1947 से आजतक इतनी बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सफलता भारत के किसी प्रधानमंत्री को कभी प्राप्त नहीं हुई। इससे यह स्पष्ट होता है कि शालीन भाषा बोलकर भी कोई राजनेता अपने प्रतिद्वन्दियों को परास्त कर सकता है। इसलिये उसे अपनी भाषा पर संयम रखना चाहिये। इसका एक और उदाहरण समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया और पं. जवाहरलाल नेहरू के बीच सम्बन्धों का है। लोकसभा में लोहिया जी पं. नेहरू की नीतियों की कड़ी आलोचना करते थे। पर सत्र के बीच जब दोपहर के भोजन का अवकाश होता तो पं. नेहरू लोहिया जी के कंधे पर हाथ रखकर कहते कि तुमने मेरी खूब आलोचना कर ली चलो अब भोजन साथ-साथ करते हैं। 

लोकतंत्र की यही स्वस्थ परम्परा कुछ वर्ष पहले तक चली आ रही थी। राजनैतिक विचारधाराओं में विपरीत होने के बावजूद सभी दल के नेता एक दूसरे के प्रति मित्र भाव रखते थे और एक दूसरे का सम्मान करते थे। अपने को सर्वश्रेष्ठ मानकर अहंकार और दूसरे दलों और नेताओं के प्रति तिरिस्कार का भाव रखने वाले न तो अच्छे नेता ही बन सकते है और न उच्च पद पर बैठने योग्य व्यक्ति। फिर ऐसे व्यक्ति का युगपुरूष बनना तो असंम्भव है। इसलिये भारत के चुनावों और लोकतांत्रिक परम्पराओं में आ रही इस गिरावट को फौरन रोकना चाहिये।