कश्मीर की घाटी से 30 बरस पहले भयावह परिस्थतियों में पलायन करने वाले कश्मीरी पण्डितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुर्दिनों पर प्रकाश डालेगी।वो देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और मस्जिदों के लाउडस्पीकरों पर दी जा रही धमकियों के माहौल में 24 घंटे के भीतर लाखों कश्मीरी पण्डितों को अपने घर, जमीन-जायदाद, अपना इतिहास, अपनी यादें और अपना परिवेश छोड़कर भागना पड़ा। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गये ।
जिसके बाद जम्मू और अन्य शहरों के शिविरों में उन्हें बदहाली की जिंदगी जीनी पड़ी। 25 डिग्री तापमान से ज्यादा जिन्होंने जिंदगी में गर्मी देखी नहीं थी, वो 40 डिग्री तापमान में ‘हीट स्ट्रोक’ से मर गऐ। जम्मू के शिविरों में जहरीले सर्पदंश से भी कुछ लोग मर गए। कोठियों में रहने वाले टैंटों में रहने को मजबूर हो गऐ। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद ये सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिस पर आज तक कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं बनी। उन्हें उम्मीद थी कि कश्मीर के ही निवासी रहे विधु विनोद चोपड़ा इन सब हालातों को अपनी फिल्म में दिखाऐंगे, जिनके कारण उन्हें भी कश्मीर छोड़ना पड़ा। वो दिखाऐंगे कि किस तरह तत्कालीन सरकार ने कश्मीरी पण्डितों की लगातार उपेक्षा की। वो चाहती तो इन 5 लाख कश्मीरीयों को देश के पर्वतीय क्षेत्रों में बसा देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया।
कश्मीरी पण्डित आज भी बाला साहब ठाकरे को याद करते हैं। जिन्होने महाराष्ट्र के कॉलेजों में एक-एक सीट कश्मीरी शरणार्थियों के लिए आरक्षित कर दी। जिससे उनके बच्चे अच्छा पढ़ सके। वो जगमोहन जी को भी याद करते हैं, जिन्होंने उनके लिए बुरे वक्त में राहत पहुँचवायी । वो ये जानते हैं कि अब वो कभी घाटी में अपने घर नहीं लौट पाऐंगे। लेकिन उन्हें तसल्ली है कि धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया है । उन्हें इस फिल्म से बहुत उम्मीद थी कि ये उनके ऊपर हुए अत्याचारों को विस्तार से दिखाऐगी। उनका कहना है उनकी ये उम्मीद पूरी नहीं हुई।
दरअसल हर फिल्मकार का कहानी कहने का एक अपना अंदाज होता है, कोई मकसद होता है। विधु विनोद चोपड़ा ने ‘शिकारा’ फिल्म बनाकर इस घटनाक्रम पर कोई ऐतिहासिक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया है। जिसमें वो ये सब दिखाने पर मजबूर होते। उन्होंने तो इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिपेक्ष में एक प्रेम कहानी को ही दिखाया है। जिसके दो किरदार उन हालातों में कैसे जिए और कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा।
इस दृष्टि से से अगर देखा जाऐ, तो ‘शिकारा’ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। माना कि उस आतंकभरी रात की विभिषिका के हृदय विदारक दृश्यों को विनोद ने अपनी फिल्म में नहीं समेटा, पर उस रात की त्रासदी को एक परिवार पर बीती घटना के माध्यम से आम दर्शक तक पहुंचाने में वे सफल रहे हैं।यह उनके निर्देशन की सफलता है ।
इन विपरीत परिस्थितियों में भी कोई कैसे जीता है और चुनौतियों का सामना करता है, इसका उदाहरण हैं ‘शिकारा’ के मुख्य पात्र, जो हिम्मत नहीं हारते, उम्मीद नहीं छोड़ते और एक जिम्मेदार नागरिक भूमिका को निभाते हुए, उस कड़वेपन को भी भूल जाते हैं जिसने उन्हें आकाश से जमीन पर पटक दिया।
फिल्म के नायक का अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद पुनः अपने गाँव कश्मीर में लौट जाना और अकेले उस खण्डित घर में रहकर गाँव के मुसलमान बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लेना, हमें जरूर काल्पनिक लगता है, क्योंकि आज भी कश्मीर में ऐसे हालात नहीं हैं। पर विधु विनोद चोपड़ा ने इस आखिरी सीन के माध्यम से एक उम्मीद जताई है कि शायद भविष्य में कभी कश्मीरी पण्डित अपने वतन लौट सके।
पिछले दिनों नागरिकता कानून को लेकर जो देशव्यापी धरने, प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, उनमें एक बात साफ हो गई कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज हो या अल्पसंख्यक सिक्ख समाज, सभी वर्गों से खासी तादाद में लोगों ने मुसलमानों के साथ इस मुद्दे पर कंधे से कंधा मिलाकर समर्थन किया। ये अपने आप में काफी है कश्मीर की घाटी के मुसलमानों को बताने के लिए कि जिन हिंदुओं को तुमने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी नफरत का शिकार बनाया था, जिनकी बहु-बेटियों को बेइज्जत किया था, जिनके घर लूटे और जलाए, जिनके हजारों मंदिर जमीदोज कर दिये, वो हिंदू ही तुम्हारे बुरे वक्त में सारे देश में खुलकर तुम्हारे समर्थन में आ गऐ। उनका ये कदम सही है गलत ये भी नहीं सोचा और हमदर्दी में साथ दिया । कश्मीर के पण्डित कश्मीर की घाटी में फिर लौट सके, इसके लिए माहौल कोई फौज या सरकार नहीं बनाऐगी। ये काम तो कश्मीर के मुसलमानों को ही करना होगा। उन्हें समझना होगा कि आवाम की तरक्की, फिरकापरस्ती और जिहादों से नहीं हुआ करती। वो आपसी भाईचारे और सहयोग से होती है। मिसाल दुनियां के सामने है। जिन मुल्कों में भी मजहबी हिंसा फैलती है, वे गर्त में चले जाते हैं और लाखों घर तबाह हो जाते हैं। रही बात ‘शिकारा’ फिल्म की तो ये एक ऐतिहासिक ‘डॉक्युमेंटरी’ न होकर केवल प्रेम कहानी है, जो एहसास कराती है, कि नफरत की आग कैसे समाज और परिवारों को तबाह कर देती है।
जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्यों की बात है पिछले दो दशकों में ‘जोधा अकबर’, ‘पद्मावत’ जैसी कई फिल्में आईं हैं, जिनमें ऐतिहासिक घटनाओं का संदर्भ लेकर प्रेम कथाओं को दिखाया गया है। जब भी ऐसी फिल्में आती हैं, तो समाज का वह वर्ग आन्दोलित हो जाता है, जिनका उस इतिहास से नाता होता है और तब वे फिल्म का डटकर विरोध करते हैं, कभी-कभी तोड-फोड़ और हिंसा भी करते हैं, जैसा पद्मावत के दौर पर हुआ। फिल्म उद्योग को समझने वाले इसके अनेक कारण बताते हैं।
कुछ मानते हैं कि ऐसा फिल्म निर्माता के इशारे पर ही होता है। क्योंकि जितना फिल्म को लेकर विवाद बढ़ता है, उतना ही उसे देखने की उत्सुकता बढ़ जाती है। जिसका सीधा लाभ निर्माता को मिलता है। पर इन विवादों का एक कारण लोगों की भावनाओं का आहत होना भी होता है। जाहिर है कि जिस पर बीतती है, वही जानता है। ऐसा ही कुछ फिल्म ‘शिकारा’ के संदर्भ में माना जा सकता है। क्योंकि कश्मीरी पण्डितों के साथ पिछले तीस सालों में भारत सरकार या देश के बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारियों ने कभी कोई सहानुभूति नहीं दिखाई, कभी उनके मुद्दे पर हल्ला नहीं मचाया, कभी उन पर कोई सम्मेलन और गोष्टियाँ नहीं की गई और कभी उन पर कोई फिल्म नहीं बनी, इसलिए शायद उन्हें ‘शिकारा’ से बहुत उम्मीद थी। पर सारी उम्मीदें एक ही फिल्म निर्माता से करना या तीस बरस के सारे कष्टों को एक ही फिल्म में दिखाने की माँग करना, कश्मीरी पण्डितों की आहत भावना को देखते हुए उनके लिए स्वाभाविक ही है। पर निर्माता के लिए संभव नहीं है। ‘शिकारा’ ने कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर भविष्य में एक नहीं कई फिल्में बनाने की जमीन तैयार कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले सालों में हमें उन अनछूए पहलूओं पर भी तथ्य परख फिल्में देखने को मिलेंगी। तब तक ‘शिकारा’ काफी है हमें भावनात्मक रूप से कश्मीर की इस बड़ी समस्या को समझने और महसूस कराने के लिए। इसलिए ये फिल्म अपने मकसद में कामयाब रही है। जिसे देश और विदेश में आम दर्शक पसंद करेंगे।