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Monday, April 11, 2022

पाक अधिकृत कश्मीर का ख़ौफ़नाक सच


‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ में जो दिखाया गया है वो उस ख़ौफ़नाक सच के सामने कुछ भी नहीं है जो अब अमजद अय्यूब मिर्ज़ा ने पाक अधिकृत कश्मीर में हुए हिंदुओं के वीभत्स नरसंहार के बारे में केलिफ़ोरनिया के अख़बार में प्रकाशित किया है। अय्यूब मिर्ज़ा ने पिछले महीने 21 मार्च को प्रकाशित अपने लेख में ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ को एक दमदार फ़िल्म बताते हुए इस बात की तारीफ़ की है कि कैसे इस फ़िल्म ने पाकिस्तान समर्थित जिहादियों और श्रीनगर के स्थानीय कट्टरपंथियों के आतंक को रेखांकित किया गया है। इस लेख में मिर्ज़ा लिखते हैं कि ये तो प्याज़ की पहली परत उखाड़ने जैसा है। उनके अनुसार जम्मू कश्मीर से अल्पसंख्यक हिंदुओं व सिखों को मारने और भगाने का सिलसिला 1990 से ही नहीं शुरू हुआ। इसकी जड़ें तो 1947 के भारत-पाक बँटवारे के अप्रकाशित इतिहास में दबी पड़ी हैं।
 

अमजद अय्यूब मिर्ज़ा पाक अधिकृत कश्मीर के मीरपुर ज़िले के निवासी हैं । जो अपने स्वतंत्र विचारों व मानव अधिकारों की वकालत करने के कारण आजकल इंगलेंड में निष्कासित जीवन जी रहे हैं। इसलिए इनकी सूचनाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता। 


मिर्ज़ा बताते हैं कि जम्मू कश्मीर के हिंदुओं पर मौत का तांडव 22 अक्तूबर 1947 से शुरू हुआ, जिस दिन पाकिस्तानी फ़ौज ने जम्मू कश्मीर पर हमला किया। उस वक्त आज के पाक अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिक्खों की बड़ी आबादी रहती थी और वे सब सुखी व सम्पन्न थे। जबकि स्निडन द्वारा 2012 में प्रकाशित जनसंख्या सर्वेक्षण में कहा गया है कि इस क्षेत्र में अब हिंदुओं और सिक्खों की आबादी का कोई आँकड़ा नहीं मिला है। या तो उन सब को भगा दिया या मार डाला गया। इस रिपोर्ट को पूरी दुनिया के शोधकर्ताओं और बुद्धिजीवीयों ने गम्भीरता से लिया है और माना है कि पाक अधिकृत कश्मीर में अब एक भी हिंदू या सिख नहीं है। इससे ये अनुमान लगाया है कि 1947 के पाकिस्तानी हमले के बाद वहाँ रह रहे 1,22,500 हिंदू और सिख उस इलाक़े से ग़ायब हो गए।

मिर्ज़ा लिखते हैं कि हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि बँटवारे के समय दोनों देशों के पंजाब प्रांतों में हो रहे भारी सांप्रदायिक दंगों से बचने के लिए बड़ी संख्या में सिख और हिंदुओं ने पंजाब की सीमा से सटे पाक अधिकृत कश्मीर में शरण ली थी। यहाँ के भिम्बर शहर में कम से कम 2000, मीरपुर में 15,000, राजौरी में 5,000 और कोटली में अनगिनित हिंदू और सिखों ने शरण ली थी। 

भिम्बर तहसील में 35 फ़ीसद आबादी हिंदुओं की थी। पर 1947 के पाकिस्तानी हमले में एक भी नहीं बचा। मिर्ज़ा लिखते हैं कि सबसे बड़ा नरसिंहार तो मेरे गृह नगर मीरपूर में हुआ जहां 25,000 हिंदू और सिखों को एक जगह एकत्र करके मारा-काटा गया। उनकी बहू-बेटियों को पाकिस्तानी  फ़ौज और धर्मांद लशकरियों ने ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ का नारा लगा कर अपनी वहशियाना  हवस का शिकार बनाया। उस नरसिंहार से बच कर उन लोगों के परिवारजन जो किसी तरह जम्मू पहुँच गए, वे आजतक 25 नवम्बर को ‘मीरपुर नरसिंहार दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इस मनहूस दिन 1947 में पाकिस्तानी फ़ौज और लश्कर ने मीरपुर में जगह-जगह आगजनी, लूट और नरसंहार किया था और ‘काफिरों’ के घरों और दुकानों को जला दिया था।

मिर्ज़ा बताते हैं कि, सौभाग्य से इस मनहूस दिन से केवल दो दिन पहले ही 2,500 हिंदू और सिख जम्मू कश्मीर की सेना के संरक्षण में जम्मू तक सुरक्षित पहुँचने में कामयाब हो गए थे। जो पीछे रह गए उन्हें पाकिस्तानी फ़ौज अली बेग इलाक़े में ये कह कर ले गयी कि वहाँ एक गुरुद्वारे में शरणार्थियों के लिए कैम्प लगाया गया है। पर जिस पैदल मार्च को हिंदू और सिक्खों ने इस उम्मीद में शुरू किया कि अब उनकी जान बच जाएगी वो मौत का कुआँ सिद्ध हुआ। इस पैदल मार्च के रास्ते में ही 10,00 हिंदू और सिक्खों को क़त्ल कर दिया गया। इनकी 5,000 बहू बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाने के बाद रावलपिंडी, झेलम और पेशावर के बाज़ारों में बेच दिया गया। इस तरह कुल 5000 हिंदू और सिख ही अली बेग तक पहुँच पाए। जहां पहुँच कर भी वे सुरक्षित नहीं रहे और उनके पहरेदारों ने ही उनका क़त्ल करना जारी रखा। इस तरह मीरपुर के 25,000 हिंदू और सिक्खों में से केवल 1600 बचे, जिन्हें ‘इंटरनैशनल कमेटी ओफ़ रेड क्रॉस’ वाले सुरक्षित रावलपिंडी ले गए जहां से फिर उन्हें जम्मू भेज दिया गया।

मिर्ज़ा बताते हैं कि 1951 में पाक अधिकृत कश्मीर में केवल 790 ग़ैर मुसलमान बचे थे। पर आज एक भी नहीं है। मीरपुर के इस नरसंहार  से भयभीत बहुत सी औरतों और आदमियों ने तो पहाड़ से कूद कर या ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली थी। हिंदू और सिखों का ऐसा ही नरसंहार  राजौरी, बारामूला, व मुज़फ़्फ़राबाद में भी हुआ। इसलिए मिर्ज़ा का कहना है कि ‘द कश्मीर फ़ाइल्ज़’ में जो दिखाया गया है उससे कहीं ज़्यादा ख़ौफ़नाक नरसंहार 1947 के बाद पाक अधिकृत कश्मीर में हिंदुओं और सिक्खों को झेलना पड़ा था। 

जहां यह रिपोर्ट हर हिंदू का ही नहीं बल्कि हर इंसान का दिल दहला देती है, वहीं ये बात भी महत्वपूर्ण है अमजद अय्यूब मिर्ज़ा जैसे मुसलमान भी हैं, जो अपने धर्म के कट्टरवादियों की धमकियों के बावजूद एक सच्चे इंसान की तरह सच को सच कहने से नहीं डरते।ऐसे मुसलमान भारत में भी बहुत बड़ी तादाद में हैं और पाकिस्तान में भी इनकी संख्या कम नहीं है। दिक्कत इस बात की है कि इस्लाम धर्म और उसको बताने वाले कट्टरपंथी मुल्ला इन बातों को कभी अहमियत नहीं देते बल्कि लगातार ज़हर घोलते रहते हैं। जिससे कभी साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित हो ही नहीं पाता। ज़रूरत इस बात की थी कि जज़्बाती और समझदार मुसलमान इन मुल्लाओं की ख़िलाफ़त करने की हिम्मत दिखाते। जिसके प्रभावी न होने के कारण बहुसंख्यक हिंदू समाज उनके प्रति हमेशा सशंकित रहता है। इसलिये ये ज़िम्मेदारी मुस्लिम समाज के पढ़े-लिखे और प्रगतिशील वर्ग की है कि वे अपने सुरक्षित घरों से बाहर निकलें और भारत में इंडोनेशिया, मलेशिया और तुर्की जैसे प्रगतिशील मुस्लिम समाज की स्थापना करें, जिससे हर हिंदुस्तानी अमन और चैन के साथ जी सके। तभी भारत में शांति स्थापित हो पाएगी। इसी में सभी का हित है। 

Monday, February 10, 2020

शिकारा: कश्मीरी प्रेम कथा

कश्मीर की घाटी से 30 बरस पहले भयावह परिस्थतियों में पलायन करने वाले कश्मीरी पण्डितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुर्दिनों पर प्रकाश डालेगी।वो देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और मस्जिदों के लाउडस्पीकरों पर दी जा रही धमकियों के माहौल में 24 घंटे के भीतर लाखों कश्मीरी पण्डितों को अपने घर, जमीन-जायदाद, अपना इतिहास, अपनी यादें और अपना परिवेश छोड़कर भागना पड़ा। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गये । 
जिसके बाद जम्मू और अन्य शहरों के शिविरों में उन्हें बदहाली की जिंदगी जीनी पड़ी। 25 डिग्री तापमान से ज्यादा जिन्होंने जिंदगी में गर्मी देखी नहीं थी, वो 40 डिग्री तापमान में ‘हीट स्ट्रोक’ से मर गऐ। जम्मू के शिविरों में जहरीले सर्पदंश से भी कुछ लोग मर गए। कोठियों में रहने वाले टैंटों में रहने को मजबूर हो गऐ। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद ये सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिस पर आज तक कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं बनी। उन्हें उम्मीद थी कि कश्मीर के ही निवासी रहे विधु विनोद चोपड़ा इन सब हालातों को अपनी फिल्म में दिखाऐंगे, जिनके कारण उन्हें भी कश्मीर छोड़ना पड़ा। वो दिखाऐंगे कि किस तरह तत्कालीन सरकार ने कश्मीरी पण्डितों की लगातार उपेक्षा की। वो चाहती तो इन 5 लाख कश्मीरीयों को देश के पर्वतीय क्षेत्रों में बसा देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। 
कश्मीरी पण्डित आज भी बाला साहब ठाकरे को याद करते हैं। जिन्होने महाराष्ट्र के कॉलेजों में एक-एक सीट कश्मीरी शरणार्थियों के लिए आरक्षित कर दी। जिससे उनके बच्चे अच्छा पढ़ सके। वो जगमोहन जी को भी याद करते हैं, जिन्होंने उनके लिए बुरे वक्त में राहत पहुँचवायी । वो ये जानते हैं कि अब वो कभी घाटी में अपने घर नहीं लौट पाऐंगे। लेकिन उन्हें तसल्ली है कि धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया है । उन्हें इस फिल्म  से बहुत उम्मीद थी कि ये उनके ऊपर हुए अत्याचारों को विस्तार से दिखाऐगी। उनका कहना है उनकी ये उम्मीद पूरी नहीं हुई। 
दरअसल हर फिल्मकार का कहानी कहने का एक अपना अंदाज होता है, कोई मकसद होता है। विधु विनोद चोपड़ा ने ‘शिकारा’ फिल्म बनाकर इस घटनाक्रम पर कोई ऐतिहासिक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया है। जिसमें वो ये सब दिखाने पर मजबूर होते। उन्होंने तो इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिपेक्ष में एक प्रेम कहानी को ही दिखाया है। जिसके दो किरदार उन हालातों में कैसे जिए और कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा। 
इस दृष्टि से से अगर देखा जाऐ, तो ‘शिकारा’ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। माना कि उस आतंकभरी रात की विभिषिका के हृदय विदारक दृश्यों को विनोद ने अपनी फिल्म में नहीं समेटा, पर उस रात की त्रासदी को एक परिवार पर बीती घटना के माध्यम से आम दर्शक तक पहुंचाने में वे सफल रहे हैं।यह उनके निर्देशन की सफलता है । 
इन विपरीत परिस्थितियों में भी कोई कैसे जीता है और चुनौतियों का सामना करता है, इसका उदाहरण हैं  ‘शिकारा’ के मुख्य पात्र, जो हिम्मत नहीं हारते, उम्मीद नहीं छोड़ते और एक जिम्मेदार नागरिक भूमिका को निभाते हुए, उस कड़वेपन को भी भूल जाते हैं जिसने उन्हें आकाश से जमीन पर पटक दिया। 
फिल्म के नायक का अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद पुनः अपने गाँव कश्मीर में लौट जाना और अकेले उस खण्डित घर में रहकर गाँव के मुसलमान बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लेना, हमें जरूर काल्पनिक लगता है, क्योंकि आज भी कश्मीर में ऐसे हालात नहीं हैं। पर विधु विनोद चोपड़ा ने इस आखिरी सीन के माध्यम से एक उम्मीद जताई है कि शायद भविष्य में कभी कश्मीरी पण्डित अपने वतन लौट सके।
पिछले दिनों नागरिकता कानून को लेकर जो देशव्यापी धरने, प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, उनमें एक बात साफ हो गई कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज हो या अल्पसंख्यक सिक्ख समाज, सभी वर्गों से खासी तादाद में लोगों ने मुसलमानों के साथ इस मुद्दे पर  कंधे से कंधा मिलाकर  समर्थन किया। ये अपने आप में काफी है कश्मीर की घाटी के मुसलमानों को बताने के लिए कि जिन हिंदुओं को तुमने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी नफरत का शिकार बनाया था, जिनकी बहु-बेटियों को बेइज्जत किया था, जिनके घर लूटे और जलाए, जिनके हजारों मंदिर जमीदोज कर दिये, वो हिंदू ही तुम्हारे बुरे वक्त में सारे देश में खुलकर तुम्हारे समर्थन में आ गऐ। उनका ये कदम सही है  गलत ये भी नहीं सोचा और हमदर्दी में साथ दिया । कश्मीर के पण्डित कश्मीर की घाटी में फिर लौट सके, इसके लिए माहौल कोई फौज या सरकार नहीं बनाऐगी। ये काम तो कश्मीर के मुसलमानों को ही करना होगा। उन्हें समझना होगा कि आवाम की तरक्की, फिरकापरस्ती और जिहादों से नहीं हुआ करती। वो आपसी भाईचारे और सहयोग से होती है। मिसाल दुनियां के सामने है। जिन मुल्कों में भी मजहबी हिंसा फैलती है, वे गर्त में चले जाते हैं और लाखों घर तबाह हो जाते हैं। रही बात ‘शिकारा’ फिल्म की तो ये एक ऐतिहासिक ‘डॉक्युमेंटरी’ न होकर केवल प्रेम कहानी है, जो एहसास कराती है, कि नफरत की आग कैसे समाज और परिवारों को तबाह कर देती है। 
जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्यों की बात है पिछले दो दशकों में ‘जोधा अकबर’, ‘पद्मावत’ जैसी कई फिल्में आईं हैं, जिनमें ऐतिहासिक घटनाओं का संदर्भ लेकर प्रेम कथाओं को दिखाया गया है। जब भी ऐसी फिल्में आती हैं, तो समाज का वह वर्ग आन्दोलित हो जाता है, जिनका उस इतिहास से नाता होता है और तब वे फिल्म का डटकर विरोध करते हैं, कभी-कभी तोड-फोड़ और हिंसा भी करते हैं, जैसा पद्मावत के दौर पर हुआ। फिल्म उद्योग को समझने वाले इसके अनेक कारण बताते हैं। 
कुछ मानते हैं कि ऐसा फिल्म निर्माता के इशारे पर ही होता है। क्योंकि जितना फिल्म को लेकर विवाद बढ़ता है, उतना ही उसे देखने की उत्सुकता बढ़ जाती है। जिसका सीधा लाभ निर्माता को मिलता है। पर इन विवादों का एक कारण लोगों की भावनाओं का आहत होना भी होता है। जाहिर है कि जिस पर बीतती है, वही जानता है। ऐसा ही कुछ फिल्म ‘शिकारा’ के संदर्भ में माना जा सकता है। क्योंकि कश्मीरी पण्डितों के साथ पिछले तीस सालों में भारत सरकार या देश के बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारियों ने कभी कोई सहानुभूति नहीं दिखाई, कभी उनके मुद्दे पर हल्ला नहीं मचाया, कभी उन पर कोई सम्मेलन और गोष्टियाँ नहीं की गई और कभी उन पर कोई फिल्म नहीं बनी, इसलिए शायद उन्हें ‘शिकारा’ से बहुत उम्मीद थी। पर सारी उम्मीदें एक ही फिल्म निर्माता से करना या तीस बरस के सारे कष्टों को एक ही फिल्म में दिखाने की माँग  करना, कश्मीरी पण्डितों की आहत भावना को देखते हुए उनके लिए स्वाभाविक ही है। पर निर्माता के लिए संभव नहीं है। ‘शिकारा’ ने कश्मीरी पण्डितों की समस्या पर भविष्य में एक नहीं कई फिल्में बनाने की जमीन तैयार कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले सालों में हमें उन अनछूए पहलूओं पर भी तथ्य परख फिल्में देखने को मिलेंगी। तब तक ‘शिकारा’ काफी है हमें भावनात्मक रूप से कश्मीर की इस बड़ी समस्या को समझने और महसूस कराने के लिए। इसलिए ये फिल्म अपने मकसद में कामयाब रही है। जिसे देश और विदेश में आम दर्शक पसंद करेंगे।