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Monday, July 9, 2018

धर्मस्थलों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की अच्छी पहल

पिछले हफ्ते सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने जगन्नाथ जी मंदिर के प्रवेश के नियमों की समीक्षा के दौरान पूरे देश के जिला जजों को एक अनूठा निर्देश दिया। उनसे कहा गया है कि उनके जिले में जो भी धर्मस्थल, चाहें किसी धर्म के हों, अगर अपनी व्यवस्था भक्तों के हित में ठीक से नहीं कर रहे या अपनी आय-व्यय का ब्यौरा पारदर्शिता से नहीं रख रहे या इस आय को भक्तों की सुविधाओं पर नहीं खर्च कर रहे, तो उनकी सूची बनाकर अपने राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों के माध्यम से 31 अगस्त 2018 तक सर्वोच्च न्यायालय को भेजें।
इस पहल से यह स्पष्ट है कि सर्वोच्च न्यायालय का ध्यान धर्मस्थलों में हो रही भारी अव्यवस्थाओं और चढावे के धन के गबन की तरफ गया है। अभी सुधार के लिए कोई आदेश जारी नहीं हुए हैं। लेकिन सुझाव मांगे गये हैं। ये एक अच्छी पहल है। समाज के हर अंग की तरह धार्मिक संस्थाओं का भी पतन बहुत तेजी हुआ है। अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए धर्मस्थलों पर आने वाले धर्मावलंबियों की भीड़ लगातार बढ़ रही है। हर श्रद्धालु अपनी हैसियत से ज्यादा दान भी देता है। इससे ज्यादातर धर्मस्थलों की आय में तेजी से इजाफा हुआ है। पर दूसरी तरफ देखने में ये आता है कि दान के इस पैसे को भक्तों की सुविधा विस्तार के लिए नहीं खर्च किया जाता बल्कि उस धर्मस्थल के संचालकों के निजी उपभोग के लिए रख लिया जाता है।

जबकि होना यह चाहिए कि एक निर्धारित सीमा तक ही इस चढ़ावे का हिस्सा सेवायतों या खिदमदगारों को मिले। शेष भवन के रखरखाव और श्रद्धालुओं की सुविधाओं पर खर्च हो। मौजूदा व्यवस्थाओं में चढ़ावे के पैसे को लेकर काफी विवाद समाने आते रहते हैं। मुकदमेबाजियां भी खूब होती हैं। जनसुविधाओं का प्रायः अभाव रहता है। आय-व्यय की कोई पारदर्शी व्यवस्था नहीं है। इन स्थानों की प्रशासनिक व्यवस्था भी बहुत ढुलमुल होती है, जिससे विवाद होते रहते हैं। अच्छा हो कि सर्वोच्च न्यायालय सभी धर्मस्थलों के लिए एक सी प्रशासनिक व्यवस्था की नियमावली बना दे और आय-व्यय पारदर्शिता के साथ संचालित करने के नियम बना दे। जिससे काफी हद तक व्यवस्थाओं में सुधार आ जायेगा।
यहां कुछ सावधनियां बरतने की जरूरत होगी। सरकारें या उनके द्वारा बनाये गए बोर्ड इन धर्मस्थलों के अधिग्रहण के हकदार न हों। क्योंकि फिर भ्रष्ट नौकरशाही अनावश्यक दखलअंदाजी करेगी। वीआईपी संस्कृति बढेगी और भक्तों की भावनाओं को ठेस लगेगी। बेहतर होगा कि हर धर्मस्थल की प्रशासनिक व्यवस्था में दो चुने हुए प्रतिनिधि सेवायतों या खिदमदगारों के हों, छह प्रतिनिधि पिछले वित्तिय वर्ष में उस धर्मस्थल को सबसे ज्यादा दान देने वाले हों। दो प्रतिनिधिः जिला अधिकारी व जिला अधीक्षक हों और दो प्रमुख व्यक्ति, जो उस धर्मस्थल के प्रति आस्थावान हो और जिसके सद्कार्यों की उस जिले में प्रतिष्ठा हो, उन्हें बाकी के सदस्य की सामूहिक राय से मनोनीत किया जाए। इस तरह एक संतुलित प्रशासिक व्यवस्था की स्थापना होगी। जो सबके कल्याण का कार्य करेगी।
यहां एक सावधानी और भी बरतनी होगी। यह प्रशासनिक समिति कोई भी कार्य ऐसा न करे, जिससे उस धर्मस्थल की परंपराओं, आस्थाओं और भक्तों की भावनाओं ठेस लगे। हर धर्मस्थल पर भीड़ नियंत्रण, सुरक्षा निगरानी, स्वयंसेवक सहायता, शुद्ध पेयजल व शौचालय, गरीबों के लिए सस्ता या निशुल्क भोजन उपलब्ध हो सके, यह प्रयास किया जाना चाहिए। इसके साथ ही अगर उस धर्मस्थल की आय आवश्यक्ता से बहुत अधिक है, तो इस आय से उस जिले के समानधर्मी स्थलों के रखरखाव की भी व्यवस्था की जा सकती है। जिन धर्मस्थलों की आय बहुत अधिक है, वे शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य जनसेवाओं में महत्वपूर्णं योगदान कर सकते हैं और कर भी रहे हैं।
जब सर्वोच्च न्यायालय ने यह पहल कर ही दी है। तो हर जिले के जागरूक नागरिकों का यह कर्तव्य बनता है कि वे अपने जिले के, अपने धर्म के स्थलों, का निष्पक्षता से सर्वेक्षण करे और उनकी कमियां और सुधार के सुझाव यथाशीघ्र बाकायदा लिखकर जिला जज के पास जमा करवा दें। जिससे हर जिले के जजों को इनको व्यवस्थित करके अपने प्रांत के मुख्य न्यायाधीश को समय रहते भेजने में सुविधा हो। जो नौजवान कम्प्यूटर साइंस के विशेषज्ञ हैं, उन्हें इस पूरे अभियान को समुचित टैंपलेट बनाकर व्यवस्थित करना चाहिए। जिससे न्यायपालिका बिना मकड़जाल में उलझे आसानी से सभी बिंदुओं पर विचार कर सके।अगर इस अभियान में हर धर्म के मानने वाले बिना राग द्वेष के उत्साह से सक्रिय हो जाऐ, तो इस क्षेत्र में आ रही कुरीतियों पर रोक लग सकेगी। जो भारत जैसे धर्मप्रधान देश के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने यह पहल की है। आशा है ये किसी ठोस अंजाम तक पहुचेगी।

Monday, December 18, 2017

चलो कांग्रेस को समझ में तो आया

        गुजरात चुनाव के फैसले जो भी हो, एक बात स्पष्ट है कि आजादी के बाद, ये पहली बार है कि कांग्रेस को यह बात समझ में आई कि हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किये बिना बहुसंख्यक हिंदू समाज में उसकी स्वीकार्यता नहीं हो सकती। यही कारण है कि राहुल गांधी ने इस बार अपने चुनाव अभियान में गुजरात के हर मंदिर में जाकर भगवान के दर्शन किये। हम प्रभु से ये प्रार्थना करेंगे कि वे कांग्रेस के युवा अध्यक्ष और पूरे दल पर कृपा करें व उन्हें सद्बुद्धि दें कि वे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर साम्प्रदयिकता का दामन छोड़ दें।

आजादी के बाद आज तक कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों ने अल्पसंख्यकों को जरूरत से ज्यादा महत्व देकर हिंदुओं के मन में एक दरार पैदा की है। मैं यह नहीं कहता कि कांग्रेस ने हिंदूओं का ध्यान नहीं रखा। मेरा तो मानना है कि पिछले 70 वर्षों में हिंदू धर्मस्थलों के जीर्णोंद्धार और राम जन्मभूमि जैसे हिंदुओं के बहुत से कामों में कांग्रेस ने भी बहुत अच्छी पहल की है। लेकिन जहां तक सार्वजनिक रूप से हिंदूत्व को स्वीकारने की बात है, कांग्रेस और इसके नेता हमेशा इससे बचते रहे हैं। जबकि अल्पसंख्यकों के लिए वे बहुत उत्साह से सामने आते रहे, चाहे वो इफ्तार की दावत आयोजित करना हो, चाहे हज की सब्सिडी की बात हो, चाहे ईद में जाली की टोपी पहनकर अपना मुस्लिम प्रेम प्रदर्शित करना हो। जो भी क्रियाकलाप रहे, उससे ऐसा लगा, जैसे कि मुसलमान कांग्रेस पार्टी के दामाद हैं।

अब जबकि गुजरात में उनके अध्यक्ष ने खुद भारत में हिंदू धर्म के महत्व को समझा है और मंदिर-मंदिर जाकर व संतो से आर्शीवाद लिया है, तो गुजरात के चुनाव परिणामों से कांग्रेस में ये मंथन होना चाहिए कि आगे की राजनीति में वे सभी धर्मों के प्रति सम्भाव रखें। सम्भाव रखने का ये मतलब नहीं कि बहुसंख्यकों की भावनाओं की उपेक्षा की जाए और उन्हें दबाया जाऐ या उनको सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने से बचा जाऐ। उल्टा होना ये चाहिए की अब भविष्य में प्रायश्चित के रूप में सार्वजनिक मंचों से कांग्रेस को अपनी पुरानी गलती की भरपाई करनी चाहिए।

गुजरात में अपने अनुभव को दोहराते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और विपक्षी दल के नेताओं को भी हिंदू धर्म के त्यौहारों में उत्साह से भाग लेना चाहिए और दिवाली और नवरात्रि जैसे उत्सवों पर भोज आयोजित कर हिंदुओं के प्रति अपने सम्मान को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करना चाहिए। इसमें नया कुछ भी नहीं होगा। मध्ययुग से भारत में यह परंपरा रही है कि हिंदू राजाओं ने मुसलमानों के तीज त्यौहारों पर और मुलमान बादशाहों ने हिंदुओं के तीज त्यौहारों पर खुलकर हिस्सा लिया है। सर्वधर्म सम्भाव का भी यही अर्थ होता है।

दूसरी तरफ मुसलमानों के नेताओं को भी सोचना चाहिए कि उनके आचरण में क्या कमी है। एक तरफ तो वे भाजपा को साम्प्रदायिक कहते हैं और दूसरी तरफ अपने समाज को संविधान की भावना के विरूद्ध पारंपरिक कानूनों से नियंत्रित कर उन्हें मुख्यधारा में आने से रोकते हैं। इस वजह से हिंदू और मुसलमानों के बीच हमेशा खाई बनी रहती है। जब तक मुसलमान नेता अपने समाज को मुख्यधारा से नहीं जोड़ेगे, तब तक साम्प्रदायकिता खत्म नहीं होगी।

राहुल गांधी ने अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में दावा किया है कि वे समाज को जोड़ने का काम करेंगे, तोड़ने का नहीं। अगर राहुल गांधी और उनका दल वास्तव में इसका प्रयास करता है और सभी धर्मों के लोगों के प्रति समान व्यव्हार करते हुए, सम्मान प्रदर्शित करता है, तो इसके दूरगामी परिणाम आयेंगे। भारतीय समाज में सभी धर्म इतने घुलमिल गये हैं कि किसी एक का आधिपत्य दूसरे पर नहीं हो सकता। लेकिन यह भी सही है कि जब तक बहुसंख्यक हिंदू समाज को यह विश्वास नहीं होगा कि कांगे्रस और विपक्षी दल अल्पसंख्यकों के मोह से मुक्त नहीं हो गये हैं, तब तक विपक्ष मजबूत नहीं हो पायेगा। वैसे भी धर्म और संस्कृति का मामला समाज के विवेक पर छोड़ देना चाहिए और सरकार का ध्यान कानून व्यवस्था, रोजगार सृजन और आधारभूत ढ़ाचे का विस्तार करना होना चाहिए।

किसी भी लोकतंत्र के लिए कम से कम दो प्रमुख दलों का ताकतवर होना अनिवार्य होता है। मेरा हमेशा से ही यह कहना रहा है कि मूल चरित्र में कोई भी राजनैतिक दल अपवाद नहीं है। भ्रष्टाचार व अनैतिकता हर दल के नेताओं का भूषण है। यह बात किसी को अच्छी लगे या बुरी पर इसके सैंकड़ों प्रमाण उपलब्ध है। रही बात विचारधारा की तो शरद पवार, अखिलेश यादव, मायावती, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, प्रकाश सिंह बादल, फारूख अब्दुल्ला जैसे सभी नेता अपने-अपने दल बनाए बैठे हैं। पर क्या कोई बता सकता है कि इनकी घोषित विचारधारा और आचरण में क्या भेद है? सभी एक सा व्यवहार करते हैं और एक से सपने जनता को दिखाते हैं। तो क्यों नहीं एक हो जाते हैं? इस तरह भाजपा और कांग्रेस जब दो प्रमुख दल आमने-सामने होंगे, तब जनता की ज्यादा सुनी जायेगी। संसाधनों की बर्बादी कम होगी और विकास करना इन दलों की मजबूरी होगी। साथ ही एक दूसरे के आचरण पर ‘चैक और बैलेंस’ का काम भी चलता रहेगा। इसलिए गुजरात के चुनाव परिणाम जो भी हो, राहुल गांधी के आगे सबसे बड़ी चुनौती है कि वे उन लक्ष्यों को हासिल करें, जिन्हें उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में कांग्रेस की ताकत बताया है। साथ ही मंदिरों में जाना, पूजा अर्चना करना और मस्तक पर तिलक धारण करने की अपनी गुजरात वाली पहल को जारी रखें, तो उन्हें इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे।

Monday, December 11, 2017

राम मंदिर अयोध्या में ही क्यों बने

अभी कुछ ही दिन पहले देश के कुछ जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, फिल्मकारों ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका देकर प्रार्थना की है कि अयोध्या में राम मंदिर या मस्जिद ना बनाकर, एक धर्मनिरपेक्ष इमारत का निर्माण किया जाए। ये कोई नई बात नहीं है, जब से राम जन्भूमि आंदोलन चला है, इस तरह का विचार समाज का एक वर्ग खासकर वे लोग जिनका झुकाव वामपंथी विचारधारा की ओर है, देता आया है। जबकि मेरा मानना है कि इस सुझाव से समाज में सौहार्द नहीं बल्कि विद्वेष ही पैदा होगा। गत 20 वर्षों से राम जन्मभूमि के मुद्दे पर स्पष्ट मेरा ये मत रहा है कि केवल अयोध्या ही नहीं, मथुरा और काशी में जो श्रीकृष्ण और भगवान शिव से जुड़ी स्थलियां हैं, उन पर मस्जिद की मौजूदगी पिछले कुछ सदियों से पूरे विश्व के हिंदुओं के हृदय में कील की तरह चुभती है। जब तक ये मस्जिदें काशी, अयोध्या और मथुरा में रहेंगी, तब तक कभी भी साम्प्रदायिक सौहार्द पैदा नहीं हो सकता। क्योंकि ये मस्जिदें हमेशा उस अतीत की याद दिलाती रहेंगी, जब बर्बर आततायियों ने आकर हिंदू धर्मस्थलों को तोड़ा और उनके स्वाभिमान को कुचलने के लिए जबरदस्ती उन स्थलों पर मस्जिदों को निर्माण करवाया।



ये सही है कि ऐसी घटनाऐं इतिहास में हिंदू और मुसलमानों के ही बीच में नहीं बल्कि हिंदू-हिदूं  राजाओं के बीच में भी हुई और कई इतिहासकार इसके बहुत सारे प्रमाण भी देते हैं कि जब एक हिन्दू राजा दूसरे हिंदू राजा के खिलाफ जीतते थे, तब वे उसके स्वाभिमान के प्रतीको को तोड़ते-कुचलते हुए चले जाते थे। यहां तक की मंदिरों तक को तोड़ा जाता था। मगर ये भी सही है कि ऐसे मंदिर तोड़े गये, तो बाद के राजाओं ने उनके पुर्ननिर्माण भी कराये। लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि उनकी जगह किसी अन्य धर्म के धर्मस्थलों का निर्माण हुआ हो। जबकि काशी, मथुरा और अयोध्या में , जोकि हिंदुओं की आस्था के सबसे बड़े केंद्र हैं, वहां की धर्मस्थलियों के ऊपर विशाल मंस्जिदों का निर्माण करवाकर, मुगल राजाओं ने हिंदू और मुसलमानों के बीच वैमनस्य का एक स्थायी बीजारोपण कर दिया है ।



जिस तरह की राजनीति इस मुद्दे को लेकर लगातार हो रही है, उससे साम्प्रदायिक सौहार्द होना तो दूर, साम्प्रदयिक विद्वेष और हिंसा यहीं लगातार बढ़ रही है।



मेरा किसी भी राजनैतिक दल से कभी कोई नाता नहीं रहा है। मैंने हर राजनैतिक दल से बराबर दूरी बनाकर रखी है। जो सही लगा उसका समर्थन किया और जो गलत लगा, उसकी आलोचना की। यही एक पत्रकार का धर्म है, ‘ज्यों की त्यों धर दिनी रे चदरिया’। समाज को दर्पण दिखाना हमारा काम है, न कि हम बहाव में बह जाए।



पर एक आस्थावान हिंदू होने के नाते मुझे व्यक्तिगत रूप से ये बात हमेशा कचोटती रही है कि क्यों जरूरी है कि मथुरा, अयोध्या और काशी में ये मस्जिदें खड़ी रहें?



जबकि मुसलमानों का भी एक बहुत बड़ा पर खामोश हिस्सा ये मानता है कि इस दुराग्रह का कोई धार्मिक कारण नही है। इस दुराग्रह से मुसलमानों का कोई भला होने वाला नहीं है। इन मस्जिदों के वहां रहने व हट जाने से इस्लाम खतरे में पड़ जाने वाला नहीं है। पश्चिमी एशिया में आधुनिक तकनीकों से मस्जिदों को उनके पूरवर्ती स्थानों से हटाकर नये स्थानों पर पुर्नस्थापित किये गये हैं। तो ये कार्य जब मुस्लिम देशों में हो सकता है, तो भारत में बहुसंख्यक हिंदूओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए क्यों नहीं हो सकता ? इस विषय में मेरा मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय में माननीय न्यायाधीश बहुत गंभीरता से विचार करेंगे और बिना किसी राजनैतिक प्रभाव में आए, निर्णय देंगे, जिससे समाज का भला हो। जहां तक बात राम मंदिर के मुद्दे को भाजपा द्वारा राजनैतिक रूप से भुलाने की है जैसा कि आरोप विपक्षी दल भाजपा पर लगाते हैं, तो इसमें कुछ असत्य नहीं है ।  भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिंदू परिषद् और संघ से जुड़ी संस्थाओं ने राम जन्मभूमि से जुड़े इस मुद्दे का प्रयोग अपने राजनैतिक उद्देश्यों के लिए किया है। पर साथ ही ये बात भी स्पष्ट है कि राजनीति की ये आवश्यक्ता होती है, कि ऐसे मुद्दों को पकड़े, जिससे व्यापक समाज की भावना जुड़ सके। तभी राजनैतिक वृद्धि होती है। संगठन का विस्तार होता है, जनाधार का विस्तार होता है और राजनीति ऐसे ही की जाती है, सत्ता प्राप्ति के लिए। तो अगर भाजपा ने राम मंदिर के मुद्दे को सत्ता प्राप्ति के लिए एक यंत्र के रूप में प्रयोग किया है, तो इसमें कोई अनैतिक कृत्य नही है। क्योंकि जिस तरह कांग्रेस ने गांधी जी को और वामपंथियों ने माक्र्स और माओ को प्रयोग किया और उनकी विचारधाराओं से बहुत दूर रहकर आचरण किया। तो अगर भाजपा इन मंदिरों के निर्माण के लिए संकल्पित है और प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ये चाहते हैं कि उनके शासनकाल में अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो, तो ये एक बहुत ही सहज, स्वाभाविक आकांक्षा है। जिसमें बहुसंख्यकों की आकांक्षाऐं भी जुड़ी हुई हैं। तो मैं समझता हूं कि इस मुद्दे पर बहुत छीछालेदर  हो गई, दो दशक खराब हो गये, काफी खून-खराबा सदियों से होता आया है। विवाद अगर ये थमा नहीं और चलता रहा, तो न कभी सौहार्द होगा, न कभी शांति होगी और न ही सद्भभाव बढ़ेगा। इसलिए मैं तो मानता हूं कि मुस्लिम समाज के कुछ जागरूक पढ़े-लिखे लोगों को पहल करनी चाहिए और एक उदार भाई की तरह आचरण करते हुए, स्वयं आगे आकर कहना चाहिए कि, ‘मथुरा, काशी और अयोध्या आपके धर्मस्थल हैं, आप इन पर अपनी श्रद्धा के अनुसार मंदिरों को निर्माण करें और हमारी मंस्जिदों को एक वैकल्पिक जगह देकर इन्हें पुर्नस्थापित कर दें। जिससे हम लोग समाज में प्रेम और भाईचारे से रह सकें।’