गुजरात चुनाव के
फैसले जो भी हो, एक बात स्पष्ट है कि
आजादी के बाद, ये पहली बार है कि
कांग्रेस को यह बात समझ में आई कि हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को सार्वजनिक रूप से
स्वीकार किये बिना बहुसंख्यक हिंदू समाज में उसकी स्वीकार्यता नहीं हो सकती। यही
कारण है कि राहुल गांधी ने इस बार अपने चुनाव अभियान में गुजरात के हर मंदिर में
जाकर भगवान के दर्शन किये। हम प्रभु से ये प्रार्थना करेंगे कि वे कांग्रेस के
युवा अध्यक्ष और पूरे दल पर कृपा करें व उन्हें सद्बुद्धि दें कि वे
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर साम्प्रदयिकता का दामन छोड़ दें।
आजादी के बाद आज तक
कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों ने अल्पसंख्यकों को जरूरत से ज्यादा महत्व देकर
हिंदुओं के मन में एक दरार पैदा की है। मैं यह नहीं कहता कि कांग्रेस ने हिंदूओं
का ध्यान नहीं रखा। मेरा तो मानना है कि पिछले 70 वर्षों में हिंदू धर्मस्थलों के जीर्णोंद्धार और राम
जन्मभूमि जैसे हिंदुओं के बहुत से कामों में कांग्रेस ने भी बहुत अच्छी पहल की है।
लेकिन जहां तक सार्वजनिक रूप से हिंदूत्व को स्वीकारने की बात है, कांग्रेस और इसके नेता हमेशा इससे बचते रहे हैं। जबकि
अल्पसंख्यकों के लिए वे बहुत उत्साह से सामने आते रहे, चाहे वो इफ्तार की दावत आयोजित करना हो, चाहे हज की सब्सिडी की बात हो, चाहे ईद में जाली की टोपी पहनकर अपना मुस्लिम प्रेम
प्रदर्शित करना हो। जो भी क्रियाकलाप रहे, उससे ऐसा लगा, जैसे कि मुसलमान कांग्रेस पार्टी के दामाद हैं।
अब जबकि गुजरात में
उनके अध्यक्ष ने खुद भारत में हिंदू धर्म के महत्व को समझा है और मंदिर-मंदिर जाकर
व संतो से आर्शीवाद लिया है, तो
गुजरात के चुनाव परिणामों से कांग्रेस में ये मंथन होना चाहिए कि आगे की राजनीति
में वे सभी धर्मों के प्रति सम्भाव रखें। सम्भाव रखने का ये मतलब नहीं कि
बहुसंख्यकों की भावनाओं की उपेक्षा की जाए और उन्हें दबाया जाऐ या उनको सार्वजनिक
रूप से स्वीकार करने से बचा जाऐ। उल्टा होना ये चाहिए की अब भविष्य में प्रायश्चित
के रूप में सार्वजनिक मंचों से कांग्रेस को अपनी पुरानी गलती की भरपाई करनी चाहिए।
गुजरात में अपने
अनुभव को दोहराते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और विपक्षी दल के नेताओं को भी
हिंदू धर्म के त्यौहारों में उत्साह से भाग लेना चाहिए और दिवाली और नवरात्रि जैसे
उत्सवों पर भोज आयोजित कर हिंदुओं के प्रति अपने सम्मान को सार्वजनिक रूप से
प्रदर्शित करना चाहिए। इसमें नया कुछ भी नहीं होगा। मध्ययुग से भारत में यह परंपरा
रही है कि हिंदू राजाओं ने मुसलमानों के तीज त्यौहारों पर और मुलमान बादशाहों ने
हिंदुओं के तीज त्यौहारों पर खुलकर हिस्सा लिया है। सर्वधर्म सम्भाव का भी यही
अर्थ होता है।
दूसरी तरफ मुसलमानों
के नेताओं को भी सोचना चाहिए कि उनके आचरण में क्या कमी है। एक तरफ तो वे भाजपा को
साम्प्रदायिक कहते हैं और दूसरी तरफ अपने समाज को संविधान की भावना के विरूद्ध
पारंपरिक कानूनों से नियंत्रित कर उन्हें मुख्यधारा में आने से रोकते हैं। इस वजह
से हिंदू और मुसलमानों के बीच हमेशा खाई बनी रहती है। जब तक मुसलमान नेता अपने
समाज को मुख्यधारा से नहीं जोड़ेगे, तब तक साम्प्रदायकिता खत्म नहीं होगी।
राहुल गांधी ने अपने
पहले अध्यक्षीय भाषण में दावा किया है कि वे समाज को जोड़ने का काम करेंगे, तोड़ने का नहीं। अगर राहुल गांधी और उनका दल वास्तव में इसका
प्रयास करता है और सभी धर्मों के लोगों के प्रति समान व्यव्हार करते हुए, सम्मान प्रदर्शित करता है, तो इसके दूरगामी परिणाम आयेंगे। भारतीय समाज में सभी धर्म
इतने घुलमिल गये हैं कि किसी एक का आधिपत्य दूसरे पर नहीं हो सकता। लेकिन यह भी
सही है कि जब तक बहुसंख्यक हिंदू समाज को यह विश्वास नहीं होगा कि कांगे्रस और
विपक्षी दल अल्पसंख्यकों के मोह से मुक्त नहीं हो गये हैं, तब तक विपक्ष मजबूत नहीं हो पायेगा। वैसे भी धर्म और
संस्कृति का मामला समाज के विवेक पर छोड़ देना चाहिए और सरकार का ध्यान कानून
व्यवस्था,
रोजगार सृजन और आधारभूत ढ़ाचे का विस्तार करना होना चाहिए।
किसी भी लोकतंत्र के
लिए कम से कम दो प्रमुख दलों का ताकतवर होना अनिवार्य होता है। मेरा हमेशा से ही
यह कहना रहा है कि मूल चरित्र में कोई भी राजनैतिक दल अपवाद नहीं है। भ्रष्टाचार व
अनैतिकता हर दल के नेताओं का भूषण है। यह बात किसी को अच्छी लगे या बुरी पर इसके
सैंकड़ों प्रमाण उपलब्ध है। रही बात विचारधारा की तो शरद पवार, अखिलेश यादव, मायावती, रामविलास
पासवान,
नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, प्रकाश सिंह बादल, फारूख अब्दुल्ला जैसे सभी नेता अपने-अपने दल बनाए बैठे हैं।
पर क्या कोई बता सकता है कि इनकी घोषित विचारधारा और आचरण में क्या भेद है? सभी एक सा व्यवहार करते हैं और एक से सपने जनता को दिखाते
हैं। तो क्यों नहीं एक हो जाते हैं? इस तरह भाजपा और कांग्रेस जब दो प्रमुख दल आमने-सामने होंगे, तब जनता की ज्यादा सुनी जायेगी। संसाधनों की बर्बादी कम
होगी और विकास करना इन दलों की मजबूरी होगी। साथ ही एक दूसरे के आचरण पर ‘चैक और
बैलेंस’ का काम भी चलता रहेगा। इसलिए गुजरात के चुनाव परिणाम जो भी हो, राहुल गांधी के आगे सबसे बड़ी चुनौती है कि वे उन लक्ष्यों
को हासिल करें, जिन्हें उन्होंने
अपने अध्यक्षीय भाषण में कांग्रेस की ताकत बताया है। साथ ही मंदिरों में जाना, पूजा अर्चना करना और मस्तक पर तिलक धारण करने की अपनी
गुजरात वाली पहल को जारी रखें, तो
उन्हें इसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे।
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