Monday, May 27, 2024

आईआईटी की डिग्री भी नाकाम रही


इस हफ़्ते अखबारों में जिस खबर ने सबको चौंकाया वह थी कि इस साल आईआईटी से पास हुए 38 फ़ीसदी युवाओं को रोज़गार नहीं मिला। ये अनहोनी घटना है। वरना होता ये था कि आईआईटी में प्रवेश मिला तो बढ़िया रोज़गार की गारंटी होती थी। फ़र्क़ इतना ही होता था कि किसी को 60 लाख रुपए साल का पैकेज मिलता था तो किसी को 3 करोड़ रुपये साल का भी। पर इस साल तो आईआईटी की प्रतिष्ठित डिग्री के बावजूद 50 हज़ार महीने की भी नौकरी नहीं मिल रही। इससे युवाओं में भारी हताशा फैली है। आगे स्थिति सुधरने के कोई आसार नज़र नहीं आते। क्योंकि पूरी दुनिया में मंदी का असर फैलता जा रहा है। अब पता नहीं इन युवाओं को कितने बरस घर बैठना पड़ेगा या मामूली नौकरी से ही संतोष करना पड़ेगा।
 

सोचने वाली बात यह है कि आईआईटी में दाख़िला और उसकी पढ़ाई कोई आसान काम नहीं होता। माँ बाप और उनके होनहार बच्चे लाखों रुपया और बरसों की तपस्या झोंक कर आईआईटी में दाख़िले की तैयारी करते हैं। दिल्ली का मुखर्जी नगर हो या राजस्थान का कोटा शहर आईआईटी के अभ्यर्थियों को यहाँ लाखों की तादाद में संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है। जिसके बाद दाख़िला मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं होती। सोचिए कि एक मध्यम वर्गीय परिवार पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें अपने बेरोज़गार बच्चों के लटकते चेहरे रोज़ देखने पड़ रहे हैं। जबकि इसमें न तो युवाओं का दोष है और न ही उनके परिवार का। ये संकट आर्थिक नीतियों की कमियों के कारण उत्पन्न हुआ है।    

  


कुछ वर्ष पहले मद्रास आईआईटी के प्रोफ़ेसर एम सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोज़गारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया था। उनका कहना है कि 50 हज़ार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोज़गार अभियान’ से फ़ौरी राहत भले ही मिल जाए पर शहरों में इससे सम्माननीय रोज़गार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढाँचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोज़गार की मात्रा को क्रमशः घटा कर औपचारिक रोज़गार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोज़गारी ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50%, व्यापार, होटेल व अन्य सेवाओं में 47%, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39% और खनन क्षेत्र में 23% बेरोज़गारी फैल चुकी है। 


चिंता की बात यह है कि ये वो क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज़्यादा रोज़गार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आँकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेज़ी से बेरोज़गारी बढ़ने की स्थितियाँ पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मज़दूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाउन शुरू होते ही पैदल ही अपने गाँवों की ओर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। 



उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोज़गार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मज़दूर कम मज़दूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक़ भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनीयनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मज़दूरों में से 39.8 करोड़ मज़दूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपय से भी कम होती है। इसलिए नई सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियाँ होंगी। पहली; शहरों में रोज़गार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 10 वर्षों में बेरोज़गारी का फ़ीसदी लगातार बढ़ता गया है। आज भारत में 45 वर्षों में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी है। दूसरा; शहरी मज़दूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएँ, जिससे उन्हें अमानवीय स्थित से बाहर निकाला जा सके।



4 जून को लोकसभा के चुनाव परिणाम आ जाएँगे। सरकार जिस दल की भी बने उसे तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोज़गार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियाँ बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोज़गार सृजन वाली विकासात्मक नीतियाँ लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढाँचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है, कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मज़दूरों तक कभी नहीं पहुँच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर ख़रीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोज़गार बढ़ेगा। पाँचवाँ; शहरी रोज़गार योजनाओं को स्वास्थ्य और सफ़ाई जैसे क्षेत्र में तेज़ी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वो प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार दे सके। अगर होती तो वे गाँव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 


मौजूदा हालात में यह सोचना कि मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से आम लोगों को रोज़गार मिल जाएगा, नासमझी होगी। ये ज़रूरी है कि मनरेगा के तहत आवंटित धन और न्यूनतम कार्य दिवस, दोनों को बढ़ाया जाए। पर साथ ही यह मान बैठना कि जो मज़दूर लौट कर गाँव गए हैं उन्हें मनरेगा से या ऐसी किसी अन्य योजना से सम्भाला जा सकता है, अज्ञानता होगी। ये वो मज़दूर हैं जिन्हें मनरेगा के अंतर्गत मज़दूरी करने में रुचि नहीं रही होगी तभी तो वे गाँव छोड़ कर शहर की ओर गए। फिर भी मनरेगा को तो बढ़ाना और मज़बूत करना होगा ही। पर इससे करोड़ों बेरोज़गारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोज़गारों में ज़्यादा तादाद उनकी है जिनकी शहरों में रोज़गार करने में रुचि है। इसलिए शहर में सम्माननीय रोज़गार पैदा करना समय की माँग है और नई सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगा। क्योंकि ये तो सिर्फ़ शहरी मज़दूरों की बात हुई जबकि दूसरी तरफ़ करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर भी बेरोज़गार हैं। इनके लिए फ़ौरन कुछ करना होगा वरना देश के युवाओं में बढ़ते आक्रोश को सम्भालना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

Monday, May 20, 2024

‘लापता लेडीज़’ से महिलाओं को सबक़


बचपन से पढ़ते आए हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। पिछले सौ वर्षों से फ़िल्मों को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। ख़ासकर उन फ़िल्मों को जिनके कथानक में सामाजिक सरोकार के मुद्दे उठाए जाते हैं। इसी क्रम में एक नई फ़िल्म आई है ‘लापता लेडीज़’ जो काफ़ी चर्चा में है। मध्य प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि में बनाई गई ये फ़िल्म महिलाओं के लिए बहुत उपयोगी है। विशेषकर ग्रामीण महिलाओं के लिए।


फ़िल्म की शुरुआत एक रोचक परिदृश्य से होती है जिसमें दो नवविवाहित दुल्हनें लंबे घूँघट के कारण रेल गाड़ी के डिब्बे में एक दूसरे के पति के साथ चली जाती हैं। उसके बाद की कहानी इन दो महिलाओं के संघर्ष की कहानी है जो अंत में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेती हैं। इस कहानी का सबसे बड़ा सबक़ तो यह है कि नवविवाहिताओं को इतना लंबा घूँघट निकालने के लिए मजबूर न किया जाए। उनका सिर ज़रूर ढका हो पर चेहरा खुला हो। दूसरा सबक़ यह है कि ग्रामीण परिवेश में पाली-बढ़ी, अनपढ़ या कम पढ़ी लिखी लड़कियों को विदा करते समय उनके घर वालों को उस लड़की के ससुराल और मायके का पूरा नाम पता और फोन नंबर लिख कर देना चाहिए। जैसा प्रायः मेलों और पर्यटन स्थलों में जाते समय शहरी माता-पिता अपने बच्चों की जेब में नाम पता लिख कर पर्ची रख देते हैं। अगर भीड़ में बच्चा खो भी जाए तो यह पर्ची उसकी मददगार होती है। 



इस फ़िल्म का तीसरा संदेश यह है कि शहरी लड़कियों की तरह अब ग्रामीण लड़कियाँ भी पढ़ना और आगे बढ़ना चाहती हैं। जबकि उनके माँ-बाप इस मामले में उनको प्रोत्साहित नहीं करते और कम उम्र में ही अपनी लड़कियों का ब्याह कर देना चाहते हैं। ऐसा करने से उस लड़की की आकांक्षाओं पर कुठाराघात हो जाता है और उसका शेष जीवन हताशा में गुज़रता है। आज के इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग में शायद ही कोई गाँव होगा जो इनके प्रभाव से अछूता हो। हर क़िस्म की जानकारी, युवक-युवतियों को स्मार्ट फ़ोन पर घर बैठे ही मिल रही है। ज़रूरी नहीं कि सारी जानकारी सही ही हो, इसलिए उसकी विश्वसनीयता जाँचना, परखना ज़रूरी होता है। अगर जानकारी सही है और ग्रामीण परिवेश में पाल रही कोई युवती उसके आधार पर आगे पढ़ना और अपना करियर बनाना चाहती है तो उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस फ़िल्म में दिखाया है कि कैसे एक युवती को उसके घरवालों ने उसकी मर्ज़ी के विरुद्ध उसकी शादी एक बिगड़ैल आदमी से कर दी और जैविक खेती को पढ़ने, सीखने की उसकी अभिलाषा कुचल दी गई। पर परिस्थितियों ने ऐसा पलटा खाया कि ये जुझारू युवती विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए अपने गंतव्य तक पहुँच गई। पर ऐसा जीवट और क़िस्मत हर किसी की नहीं होती। 



बचपन में सरकार प्रचार करवाती थी कि ‘लड़कियाँ हो या लड़के, बच्चे दो ही अच्छे’ पिछले 75 सालों में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा तमाम योजनाएँ चलाई गईं, जिनमें लड़कियों को पढ़ाने, आगे बढ़ाने और आत्मनिर्भर बनाने के अनेकों कार्यक्रम चलाए गए और इसका असर भी हुआ। आज कोई भी कार्य क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां महिलाएँ सक्रिय नहीं हैं। पिछले दिनों संघ लोक सेवा आयोग के परिणामों में ऐसे कई सुखद समाचार मिले जब निर्धन, अशिक्षित और मज़दूरी पेशा परिवारों की लड़कियाँ प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो कर पुलिस या प्रशासनिक अधिकारी बन गईं। बावजूद इसके देश में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। हाल ही में कर्नाटक की हसन लोकसभा से उम्मीदवार प्रज्वल रेवन्ना के तथाकथित लगभग 3000 वीडियो सोशल मीडिया पर जारी हुए जिसमें आरोपी पर हर उम्र की सैकड़ों महिलाओं के साथ जबरन यौनाचार करने के दिल दहलाने वाले दृश्य हैं। आरोपी अब देश छोड़ कर भाग चुका है। कर्नाटक सरकार की ‘एस आई टी’ जाँच में जुटी है। पर क्या ऐसे प्रभावशाली लोगों का क़ानून कुछ बिगाड़ पाता है? 



पिछले वर्ष मणिपुर में युवतियों को निर्वस्त्र करके जिस तरह भीड़ ने उन्हें अपमानित किया उसने दुनिया भर के लोगों की आत्मा को झकझोर दिया। पश्चिमी एशिया में तालिबानियों और आतंकवादियों के हाथों प्रताड़ित की जा रही नाबालिग बच्चियों और महिलाओं के रोंगटे खड़े कर देने वाले दृश्य अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में छाए रहते हैं। भारत में दलित महिलाओं को सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र करने, प्रताड़ित करने, उनसे बलात्कार करने और उनकी हत्या कर देने के मामले आय दिन हर राज्य से सामने आते रहते हैं। पुलिस और क़ानून बहुत कम मामलों में प्रभावी हो पाता है और वो काफ़ी देर से। 


महिलाओं पर पुरुषों के अत्याचार का इतिहास सदियों पुराना है। क़बीलाई समाज से लेकर सामंती समाज और सामंती समाज से लेकर के आधुनिक समाज तक के सैंकड़ों वर्षों के सफ़र में हमेशा महिलाएँ ही पुरुषों की हैवानियत का शिकार हुई हैं। कैसी विडंबना है कि माँ दुर्गा, माँ सरस्वती और माँ लक्ष्मी की उपासना करने वाले भारतीय समाज में भी महिलाओं को वो सम्मान और सुरक्षा नहीं मिल पाई है जिसकी वो हक़दार हैं। ऐसे में ‘लापता लेडीज़’ जैसी दर्जनों फ़िल्मों की ज़रूरत है जो पूरे समाज को जागरूक कर सके। महिलाओं के प्रति संवेदनशील बना सकें और उनके लिए आगे बढ़ने के लिए अवसर भी प्रदान कर सकें। 


एक महिला जब सक्षम हो जाती है तो वो तीन पीढ़ियों को सम्भालती है। अपने सास-ससुर की पीढ़ी, अपनी पीढ़ी और अपने बच्चों की पीढ़ी। पर यह बात बार-बार सुनकर भी पुरुष प्रधान समाज अपना रवैया बदलने को तैयार नहीं है। इस दिशा में समाज सुधारकों, धर्म गुरुओं और सरकार को और भी ज़्यादा गंभीर प्रयास करने चाहिए। बेटियों को मिलने वाली चुनौतियों से घबराकर कुछ विकृत मानसिकता के परिवार कन्या भ्रूण हत्या जैसे अमानवीय कृत्य करने लग जाते हैं। इस दिशा में कुछ वर्ष पहले एक विज्ञापन जारी हुआ था जिसमें हरियाणा के गाँव में एक नौजवान अपने घर की छत पर थाली पीट रहा था। प्रायः पुत्र जन्म की ख़ुशी में वहाँ ऐसा करने का रिवाज है। पर इस नौजवान की थाली की आवाज़ सुन कर वहाँ जमा हुए पचासों ग्रामवासियों को जब यह पता चला कि ये नौजवान अपने घर जन्मीं बेटी की ख़ुशी में इतना उत्साहित है तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। काश हम ऐसा समाज बना सकें।  

Monday, May 6, 2024

रेगिस्तान में बाढ़


एक ही महीने में दूसरी बार दुबई में बादल फटने से बाढ़ के हालात पैदा हो गये। रेगिस्तान की तपती रेत  में पानी का मिलना सदियों से एक आकस्मिक और चमत्कारिक घटना माना जाता है। तपती रेत पर हवा गर्म हो कर कई बार पानी होने का भ्रम देती है और प्यासा उसकी तलाश में भटकता रहता है। इसे ही मृग तृष्णा कहते हैं। गर्म रेत के अंधड़ों से बचने के लिए ही खाड़ी के देशों के लोग ‘जलेबिया’ यानी सफ़ेद लंबा चोग़ा पहनते हैं और सिर पर कपड़े को गोल छल्लों से कस कर बांधते हैं, जिससे आँधी में वो उड़ न जाए। इन रेगिस्तानी देशों में ऊँट की लोकप्रियता का कारण भी यही है कि वो कई दिन तक प्यासा रह कर भी सेवाएँ देता रहता है और रेत में तेज़ी से दौड़ लेता है। इसीलिए उसे रेगिस्तान का जहाज़ भी कहते हैं। 



जब से खाड़ी के देशों में पैट्रो-डॉलर आना शुरू हुआ है तब से तो इनकी रंगत ही बदल गई। दुनिया के सारे ऐशो आराम और चमक - दमक इनके शहरों में छाह गई। अकूत दौलत के दम पर इन्होंने दुबई के रेगिस्तान को एक हरे-भरे शहर में बदल दिया। जहां घर-घर स्विमिंग पूल और फ़व्वारे देख कर कोई सोच भी नहीं सकता कि ये सब रेगिस्तान में हो रहा है। पर जैसे ही आप दुबई शहर से बाहर निकलते हैं आपको चारों ओर रेत के बड़े - बड़े टीले ही नज़र आते हैं। न हरियाली और न पानी। इन हालातों में ये स्वाभाविक ही था कि दुबई का विकास इस तरह किया गया कि उसमें बरसाती पानी को सहेजने की कोई भी व्यवस्था नहीं है। इसलिए जब 75 साल बाद वहाँ बादल फटा तो बाढ़ के हालात पैदा हो गये। कारें और घर डूब गये। हवाई अड्डे में इतना पानी भर गया कि दर्जनों उड़ाने रद्द करनी पड़ी। एक तरफ़ इस चुनौती से दुबई वासियों को जूझना था  और दूसरी तरफ़ वे इतना सारा पानी और इतनी भारी बरसात देख कर हर्ष में डूब गये। 



पर ऐसा हुआ कैसे? क्या ये वैश्विक पर्यावरण में आये बदलाव का परिणाम था या कोई मानव निर्मित घटना? खाड़ी देशों में आई इस बाढ़ की वजह को कुछ विशेषज्ञों ने ‘क्लाउड सीडिंग’ यानी कृत्रिम बारिश को बताया है। जब एक निश्चित क्षेत्र में अचानक अपेक्षा से कहीं गुना ज़्यादा बारिश हो जाती है, तो उसे हम बादल फटना कहते हैं। कुछ वर्ष पहले इसी तरह की घटना भारत में केदारनाथ, मुंबई और चेन्नई में भी हुई थी। तब से आम लोगों को ये जानने की जिज्ञासा रही है कि ऐसा कैसे और क्यों हुआ? दरअसल आधुनिक वैज्ञानिकों ने अब इतनी तरक़्क़ी कर ली है कि वे बादलों में बारिश का बीजारोपण करके कहीं भी और कभी बारिश करवा सकते हैं। वे करते ये हैं कि जहां पर ज़्यादा भाप से भरे बादल इकट्ठा होते हैं उसमें ‘क्लाउड सीडिंग’ कर देते हैं।  



हालांकि, हाल ही में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार अमेरिकी मौसम वैज्ञानिक रयान माउ इस बात को मानने से इनकार करते हैं कि दुबई में बाढ़ की वजह ‘क्लाउड सीडिंग’ है। उनके मुताबिक खाड़ी देशों पर बादल की पतली लेयर होती है। वहां ‘क्लाउड सीडिंग’ के बावजूद इतनी बारिश नहीं हो सकती है कि बाढ़ आ जाए। ‘क्लाउड सीडिंग’ से एक बार में बारिश हो सकती है। इससे कई दिनों तक रुक-रुक कर बारिश नहीं होती जैसा की वहां हो रहा है। माउ के मुताबिक अमीरात और ओमान जैसे देशों में तेज बारिश की वजह ‘क्लाइमेट चेंज’ है। जो ‘क्लाउड सीडिंग’ पर इल्जाम लगा रहे हैं वो ज्यादातर उस मानसिकता के हैं जो ये मानते ही नहीं कि ‘क्लाइमेट चेंज’ जैसी कोई चीज़ होती है।



‘क्लाउड सीडिंग’ तकनीक हमेशा से बहस का विषय बनी रही है। दशकों के शोध से स्थैतिक और गतिशील बीजारोपण तकनीकें सामने आई हैं। ये तकनीकें 1990 के दशक के अंत तक प्रभावशीलता के संकेत दिखाती हैं। परंतु कुछ संशयवादी लोग सार्वजनिक सुरक्षा और पर्यावरण के लिए संभावित खतरों पर जोर देते हुए ‘क्लाउड सीडिंग’ के ख़तरों पर ज़ोर देते हुए इसके ख़िलाफ़ शोर मचाते रहे हैं। चूंकि सरकारें और निजी कंपनियां जोखिमों के बदले लाभ को ज़्यादा महत्व देती हैं, इसलिए ‘क्लाउड सीडिंग’ एक विवाद का विषय बना हुआ है। जबकि कुछ देशों में इसे कृषि और पर्यावरणीय उद्देश्यों के लिए अपनाया जाता है। इतना ही नहीं अन्य संभावित परिणामों से अवगत होकर ऐसे देश इस पर सावधानी से आगे बढ़ते हैं।


यदि इतिहास की बात करें तो ‘क्लाउड सीडिंग’ का आयाम वियतनाम युद्ध के दौरान ‘ऑपरेशन पोपेय’ जैसी घटनाओं से मेल खाता है। उस समय मौसम में संशोधन एक सैन्य उपकरण था। विस्तारित मानसून के मौसम और परिणामी बाढ़ के कारण 1977 में एक अंतरराष्ट्रीय संधि हुई जिसमें मौसम संशोधन के सैन्य उपयोग पर रोक लगा दी गई। रूसी संघ और थाईलैंड जैसे देश हीटवेव और जंगल की आग को दबाने के लिए इसका सफलतापूर्वक उपयोग कर रहे हैं, जबकि अमेरिका, चीन और ऑस्ट्रेलिया सूखे को कम करने के लिए वर्षा के दौरान पानी के अधिकतम उपयोग के लिए इसकी क्षमता का उपयोग कर रहे हैं। संयुक्त अरब अमीरात में इस तकनीक का उपयोग अपनी कृषि क्षमताओं का विस्तार करने और अत्यधिक गर्मी से लड़ने के लिए सक्रिय रूप से किया जाता है।


एक शोध के अनुसार यह पता चला है कि कुछ विदेशी कंपनियाँ इसे सक्रिय रूप से नियोजित करती हैं, विशेषकर ओला-प्रवण क्षेत्रों में जहाँ बीमा कंपनियाँ संपत्ति के नुकसान को कम करने के लिए परियोजनाओं को वित्तपोषित करती हैं। ‘क्लाउड सीडिंग’ के प्रयोग विभिन्न आयामों में फैले हुए हैं। सूखे को कम करने के लिए वर्षा पैदा करना। कृषि क्षेत्र में ओलावृष्टि के प्रबंधन करना। स्की रिसॉर्ट क्षेत्र में भारी बर्फबारी करवा कर इसका लाभ उठाना। जलविद्युत कंपनियों द्वारा इसका उपयोग कर वसंत अपवाह को बढ़ावा देना। ऐसा करने से कोहरे को साफ करने में भी मदद मिलती है, जिससे हवाई अड्डों पर विसिबिलिटी भी बढ़ती है। 


आर्थिक लाभ के लिए सरकारें और उद्योगपति कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। यही बात ‘क्लाउड सीडिंग’ के मामले में भी लागू होती है। जबकि ‘क्लाउड सीडिंग’ लंबे समय तक बने रहने वाले स्वास्थ्य जोखिमों पर भी गंभीरता से ध्यान दिये जाने की ज़रूरत है। आधुनिकता के नाम पर जैसे-जैसे हम ‘क्लाउड सीडिंग’ के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं, विशेषज्ञों द्वारा इसके सभी आयामों पर शोध करना एक नैतिक अनिवार्यता है। ऐसे शोध न केवल संपूर्ण हों, बल्कि ‘क्लाउड सीडिंग’ के स्वास्थ्य जोखिमों के खिलाफ संभावित लाभों का आकलन भी करता हो। वरना दुबई जैसी तबाही के दृश्य अन्य देशों में भी देखने को मिलते रहेंगे।