Monday, February 27, 2017

विकास की नई सोच बनानी होगी

हाल ही में एक सरकारी ठेकेदार ने बताया कि केंद्र से विकास का जो अनुदान राज्यों को पहुंचता है, उसमें से अधिकतम 40 फीसदी ही किसी परियोजना पर खर्च होता है। इसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव, संबंधित विभाग के सभी अधिकारी आदि को मिलाकर लगभग 10 फीसदी ठेका उठाते समय अग्रिम नकद भुगतान करना होता है। 10 फीसदी कर और ब्याज आदि में चला जाता है। 20 फीसदी में जिला स्तर पर सरकारी ऐजेंसियों को बांटा जाता है। अंत में 20 फीसदी ठेकेदार का मुनाफा होता है। अगर अनुदान का 40 फीसदी ईमानदारी से खर्च हो जाए, तो भी काम दिखाई देता है। पर अक्सर देखने  आया है कि कुछ राज्यों मे तो केवल कागजों पर खाना पूर्ति हो जाती है और जमीन पर कोई काम नहीं होता। होता है भी तो 15 से 25 फीसदी ही जमीन पर लगता है। जाहिर है कि इस संघीय व्यवस्था में विकास के नाम पर आवंटित धन का ज्यादा हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। जबकि हर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार हटाने की बात करता है।

 यही कारण है कि जनता में सरकार के प्रति इतना आक्रोश होता है कि वो प्रायः हर सरकार से नाखुश रहती है। राजनेताओं की छवि भी इसी भ्रष्टाचार के चलते बड़ी नकारात्मक बन गयी है। प्रश्न है कि आजादी के 70 साल बाद भी भ्रष्टाचार के इस मकड़जाल से निकलने का कोई रास्ता हम क्यों नहीं खोज पाऐ? खोजना चाहते नहीं या रास्ता है ही नहीं। यह सच नहीं है। जहां चाह वहां राह। मोदी सरकार के कार्यकाल में  दिल्ली की दलाली संस्कृति को बड़ा झटका लगा है। दिल्ली के 5 सितारा होटलों की लाबी कभी एक से एक दलालों से भरी रहती थीं। जो ट्रांस्फर पोस्टिंग से लेकर बड़े-बड़े काम चुटकियों में करवाने का दावा करते थे और प्रायः करवा भी देते थे। काम करवाने वाला खुश, जिसका काम हो गया वह भी खुश और नेता-अफसर भी खुश। लेकिन अब कोई यह दावा नहीं करता कि वो फलां मंत्री से चुटकियों में काम करवा देगा। मंत्रियों में भी प्रधानमंत्री की सतर्क निगाहों का डर बना रहता है। ऐसा नहीं है कि मौजूदा केंद्र सरकार में सभी भ्रष्टाचारियों की नकेल कसी गई है। एकदम ऐसा हो पाना संभव भी नहीं है, पर धीरे-धीरे शिकंजा कसता जा रहा है। सरकार के हाल के कई कदमों से उसकी नीयत का पता चलता है। पर केंद्र से राज्यों को भेजे जा रहे आवंटन के सदुपयोग को सुनिश्चित करने का कोई तंत्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। कई राज्यों में तो इस कदर लूट है कि पैसा कहां कपूर की तरह उड़ जाता है, पता ही नहीं चलता।

 सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार से निपटने की बात अर्से से हो रही है। बडे़-बड़े आंदोलन चलाये गये, पर कोई हल नहीं निकला। लोकपाल का हल्ला मचाने वाले गद्दियों पर काबिज हो गये और खुद ही लोकपाल बनाना भूल गये। लोकपाल बन भी जाये तो क्या कर लेगा। कानून से कभी अपराध रूका है? भ्रष्टाचार को रोकने के दर्जनों कानून आज भी है। पर असर तो कुछ नहीं होता। इसलिए क्या समाधान के वैकल्पिक तरीके सोचने का समय नहीं आ गया है? तूफान की तरह उठने और धूल की तरह बैठने वाले बहुत से लोग नरेन्द्र मोदी के भाषणों से ऊबने लगे हैं। वे कहते है कि मन की बात तो बहुत सुन ली, अब कुछ काम की बात करिये प्रधानमंत्रीजी। पर ये वो लोग हैं, जो अपने ड्राइंग रूमों में बैठकर स्काच के ग्लास पर देश की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाया करते हैं। अगर सर्वेक्षण किया जाये, तो इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग मिलेंगे, जिनका अतीत भ्रष्ट आचरण का रहा होगा, पर अब उन्हें दूसरे पर अंगुली उठाने में निंदा रस आता है। नरेन्द्र मोदी ने तमाम वो मुद्दे उठाये हैं, जो प्रायः हर देशभक्त हिंदुस्तानी के मन में उठते हैं। समस्या इस बात की है कि मोदी की बात से सहमत होकर कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखने वाले लोगों की बहुत कमी है। जो हैं, उन पर अभी मोदी सरकार की नजर नहीं पड़ी।

 जहां तक विकास के लिए आवंटित धन के सदुपयोग की बात है, मोदी जी को कुछ ठोस और नया करना होगा। उन्हें प्रयोग के तौर पर ऐसे लोग, संस्थाऐं और समाज से सरोकार रखने वाले निष्कलंक और स्वयंसिद्ध लोगों को चुनकर सीधे अनुदान देने की व्यवस्था बनानी होगी। उनके काम का नियत समय पर मूल्यांकन करते हुए, यह दिखाना होगा कि इस कलयुग में भी सतयुग लाने वाले लोग और संस्थाऐं हैं। प्रयोग सफल होने पर नीतिगत परिवर्तन करने होंगे। जाहिर है कि राजनेताओं और अफसरों की तरफ से इसका भारी विरोध होगा। पर निरंतर विरोध से जूझना मौजूदा प्रधानमंत्री की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है। इसलिए वे पहाड़ में से रास्ता फोड़ ही लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इतना जरूर है कि उन्हें अपने योद्धाओं की टीम का दायरा बढ़ाना होगा। जरूरी नहीं कि हर देशभक्त और सनातन धर्म में आस्था रखने वाला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कड़े प्रशिक्षण से ही गुजरा हो। संघ के दायरे के बाहर ऐसे तमाम लोग देश में है, जिन्होंने देश और धर्म के प्रति पूरी निष्ठा रखते हुए, सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये हैं। ऐसे तमाम लोगों को खोजकर जोड़ने और उनसे काम लेने का वक्त आ गया है। अगला चुनाव दूर नहीं है, अगर मोदी जी की प्रेरणा से ऐसे लोग सफलता के सैकड़ों कीर्तिमान स्थापित कर दें, तो उसका बहुत सकारात्मक संदेश देश में जायेगा।

Monday, February 20, 2017

बिना ठोस वायदों का चुनाव

5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में इस बार कई नई नई बातें दिख रही हैं। मसलन चुनाव को कमखर्चे वाला बनाने की कोशिशों को देखें तो  दिखने में तो धूमधाम जरूर कम हो गई लेकिन प्रशिक्षित चुनाव प्रबंधन एजंसियों पर खर्चा इतना बढ़ गया कि इस मामलेे में हालत पहले से ज्यादा खराब है। होर्डिंग बैनर आौर गली गली में लाउडस्पीकर से प्रचार इस बार कम नजर आता है। लेकिन चुनाव प्रबंधकों के नियुक्त मानव संसाधनों की भरमार दिखने लगी है। कुछ राजनीतिक दलों के वास्तविक कार्यकर्ताओं में तो इसी बात को लेकर बेचैनी है। ये कार्यकर्ता वर्षो और महीनों से पार्टी के प्रचार वे इसीलिए लगे रहते हैं कि चुनाव के दौरान उन्हें काम मिलेगा। अब उन्हें सिर्फ चुनाव सभाओं में भीड़ जमा करने का काम मिलता है और वो भी अपनी पार्टी के नेताओं की तरफ से नहीं बल्कि चुनाव प्रबंधन कंपनियों के मैनेजरों के जरिए।

चुनावी खर्चे के बाद दूसरी नई बात यह है कि मतदाताओं का उत्साह घट गया। मतदाता अब उतना मुखर नहीं है। देखने में जरूर लगता है कि छोटे छोटे कस्बों में टीवी चैनल उम्मीदवारों या उम्मीदवारों के प्रतिनिधियों को कहने के लिए मंच मुहैया करवाने लगे हैं। इन कार्यक्रमों में जनता को भी बैठाया जाता है। लेकिन ये मुखर कार्यकर्ता पहली नजर में ही प्रायोजित मतदाता जैसे लगते हैं। यानी इन कार्यक्रमों से हम बिल्कुल भी अंदाजा नहीं लगा पाते कि इस चुनाव में मतदातों का रूझान किस तरफ है।

चुनाव सर्वेक्षण एजंसियों ने तो इस बार हद ही कर दी है। किसी एक दल को खींचकर जीतता हुआ दिखाने के चक्कर में उन पर कोई यकीन ही नहीं कर पा रहा है। पहले यह हुआ करता था कि किसी के पक्ष में हवा बनाने के लिए कई एजंसियों में भी आपसी समझ हुआ करती थी। लेकिन इस बार लगता है कि जैसे ये एजंसियां चुनाव प्रचार का हिस्सा ही बनती जा रही हैं। पांचों राज्यों के चुनाव का आकार देखें तो अब तक मतदान का दो तिहाई काम निपट गया है। लेकिन कहीं से भी कोई ऐसा लक्षण नहीं दिख रहा जिसके आधार पर विश्वसनीय अनुमान लगाया जा सके।

अगर तीनों बातों से कोई निष्कर्ष निकालें तो एक सकारात्कक बात भी निकलती है। गुप्त मतदान चुनावी लोकतंत्र की बड़ी खासियत है। इससे निष्पक्ष मतदान का लक्ष्य भी सधता है। इस लिहाज से मतगणना के पहले अनुमान नहीं लग पाना हर मायने में अच्छी बात ही कही जाएगी। लेकिन ऐसा किन कारणों से हो रहा है यह जरूर चिता की बात है। मसलन यह ऐसा पहला चुनाव है जिसमें चुनावी वायदे या चुनाव घोषणा पत्रों की बड़ी बेकदरी दिख रही है। हो सकता है कि यह इसलिए हो गया हो क्योंकि पिछले अनुभव से साबित हो गया है कि चुनावी वायदे महज वायदे ही रह जाते हैं। सब कुछ हो भी इतनी जल्दी जल्दी रहा है कि जनता वायदे भूल भी नहीं पा रही। बहुत संभव है कि चुनाव प्रबंध विशेषज्ञों ने यह बात समझ ली हो कि अब दिशा दृष्टि, दूरगामी लक्ष्य की बातें हवा हवाई समझी जाएंगी। सो उन्होंने छोटे मोटे तात्कालिक लाभों का वायदा ही कारगर समझा हो।

इस चुनाव के पहले तक हमेशा बिजली पानी सड़क खास मुददे रहा करते थे और वाकई जनता की बुनियादी जरूरत इन कामों से कुछ हद तक पूरी भी होती थी। लेकिन 130 करोड़ आबादी वाली अपनी उभर रही अर्थव्यवस्था में इन कामों को सुनिश्चित करने की बात तो कोई सोच भी नही सकता। हां सपने दिखाने के लिए बोलते रहें ये अलग बात है। क्योंकि पिछले दो दशकों से इसे खूब चलाते रहे सो अब इस पर यकीन करने को कोई तैयार नहीं है।

सबको साफ पानी, सबको पक्का मकान, सबको गुजारे लायक नौकरी या कामधंधा, साफ सफाई, खेती के काम में लागत निकालने की समस्या, शिक्षा, स्वास्थ्य सारे ऐसे काम है कि बिना पैसे के नहीं हो सकते। कहने को कोई खूब कहता रहे कि अपनी अक्ल और हुनर लगाकर बिना पैसे के ये काम कर देगा लेकिन पिछले सत्तर साल में तय हो चुका है कि हमारी जितनी माली हैसियत है उसके मुताबिक ज्यादा बड़ी बात करना किसी भी तरह से ठीक नहीं है। क्योंकि आगे चलकर बड़ी जवाबदेही बन जाती है। बहुत संभव है कि इसीलिए इस बार के चुनावों में मतदाताओं को छोटे मोटे तोहफे देने का वायदा ही दिख रहा है।

कुछ भी हो इन चुनावों ने इतना तो साबित कर दिया है कि हमारा चुनावी लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। इसका सबूत यह है कि इस बार किसानों की बात सबने की है। खासतौर पर बदहाल किसानों के कर्ज माफ करने पर आम सहमति बन गई है। यह मुददा देखने में भले ही दूसरे तीसरे पायदान पर हो लेकिन उप्र के अधिसंख्यक मतदाताओं से इसका सीधा सरोकार है। हालांकि पूरी कहानी में यह बात अभी भी गायब है कि इस कर्जमाफी में सरकार पर बोझ कितना पड़ेगा। ये पैसे आएंगे कहां से? और अगर कहीं से इंतजाम कर भी लिया गया तो जहां से इंतजाम कियाा जाएगा वह क्षेत्र हाहाकार कर उठेगा। यानी लब्बोलुआब यह है कि देश को या किसी भी राज्य को पैसे चाहिए यानी आमदनी चाहिए। आमदनी बढ़ाने के लिए उत्पादन चाहिए यानी उत्पादक रोजगार के मौके चाहिए। सबसे बड़ी हैरत की बात यही है कि इन चुनावों में खासतौर पर उप्र के चुनाव में उत्पादक रोजगार बढ़ाने का वायदा प्राथमिकता सूची में उपर दिखाई ही नहीं देता।

Monday, February 13, 2017

शराब की भी दुकानें क्यों न हों कैशलेस?

प्रधानमंत्री पूरी ताकत लगा रहे है भारत को कैशलेस समाज बनाने के लिए। सरकार से जुड़ी हर ईकाई इस काम के प्रचार में जुटी है। यह तो प्रधानमंत्री भी जानते हैं कि सौ फीसदी भारतवासियों को रातों-रात डिजीटल व्यवस्था में ढाला नहीं जा सकता। पर कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ इस काम को प्राथमिकता पर किया जा सकता है। इसलिए भारत और राज्य सरकारों को सबसे पहले शराब की सभी दुकानों को अनिवार्यतः कैशलेस कर देना चाहिए। क्योंकि यहां प्रतिदिन हजारों लाखों रूपये की नकदी आती है। हर शराबी नकद पैसे से ही शराब खरीदकर पीता और पिलाता है। सरकार को चाहिए कि शराब खरीदने के लिए  बैंक खाता, आधार कार्ड व बीपीएल कार्ड (जिनके पास है) दिखाने की अनिवार्यता हो। बिना ऐसा कोई प्रमाण दिखाये शराब बेचना और खरीदना दंडनीय अपराध हो।

इसका सबसे बड़ा फायदा ये होगा कि सरकार को ये भी पता चल जाएगा की जिन लोगों को सरकार आरक्षण, आर्थिक सहायता, सब्सिडी, फीस में छूट, नौकरियों में छूट, 2 रू.किलो गेहूं, मुफ्त आवास व बीपीएल के लाभ आदि दे रही है उनमे कितने लोग किस तरह शराब पर पैसा खर्च कर रहे हैं। कितने फर्जी लोग जो अपना नाम बीपीएल सूची में सम्मिलित करवाये बैठे हैं वो भी स्वतः ही पता चल जाएंगे । क्योंकि प्रतिमाह हजार डेढ़ हजार रुपया शराब पर खर्च करने वाला गरीबी फायदे लेने वका हकदार नहीं है।

शराब की बिक्री को कैशलेस करने के अन्य कई लाभ होंगे। जो लोग भारी मात्रा में एकमुश्त  शराब खरीदते हैं जैसे अपराधी, अंडरवलर्ड, सरकारी अधिकारी और पुलिसबल को शराब बांटने वले व्यापारी, माफिया व राजनीतिज्ञ इन सबकी भी पोल खुल जाएगी। क्योंकी इन धंधों में लगे लोगों को प्रायः भारी मात्रा में अपने कारिंदों को भी शराब बांटनी होती है। जब पैनकार्ड या आधार कार्ड पर शराब खरीदने की अनिवार्यता होगी तो थोक में शराब खरीदकर बाँटने वाले गलत धंधो में लगे लोग बेनकाब होंगे। क्योंकि तब उनसे इस थोक खरीद की वजह और हिसाब कभी भी माँगा जा सकता है। माना जा सकता है कि ऐसा करने से अपराध में कमी आयेगी।

उधर बड़े से बड़े शराब कारखानो में आबकारी शुल्क की चोरी धड़ल्ले से होती है। चोरी का ये कारोबार अरबों रुपये का होता है। मुझे याद है आज से 43 वर्ष पहले 1974 में मैं एक बार अपने चार्टर्ड अकाउंटेंट मित्र के साथ शराब कारखाने के अतिथि निवास में रुका था। शाम होती ही वहां तैनात सभी आबकारी अधिकारी जमा हो गए और उन लोगों का मुफ्त की शराब और कबाब का दौर देर रात तक चलता रहा। चलते वख्त वो लोग अपने दोस्तों और  रिश्तेदारों को बाँटने के लिए अपने साथ मुफ्त की शराब की दो-दो बोतलें भी लेते गए। जिसका कोई हिसाब रिेकार्ड में दर्ज नहीं था। पूछने पर पता चला कि आबकारी विभाग के छोटे से बड़े अधिकारी, सचिव और मंत्री को मोटी रकम हर महीने रिश्वत में जाती है। जिसकी एवज में कारखानों में तैनात आबकारी अधिकारी शराब कारखानों के मालिकों के बनाये फर्जी दस्तावेजों पर स्वीकृति की मोहर लगा देते हैं। मतलब अगर 6 ट्रक शराब कारखाने से बाहर जाती है, तो आबकारी रिकॉर्ड में केवल एक ट्रक ही दर्ज होता है। ऐसे में कैशलेस बिक्री कर देने से पूरा तंत्र पकड़ा जायेगा। 

पर सवाल है कि क्या कोई भी सरकार इसे सख्ती से लागू कर पाएगी? गुजरात में ही लंबे समय से शराबबंदी लागू है। पर गुजरात के आप किसी भी शहर में शराब खरीद और पिला सकते है। तू डाल- डाल तो वो पात-पात।

शराब के कारोबार का ये तो था उजाला पक्ष। एक दूसरा अँधेरा पक्ष भी है। पुलिस और आबकारी विभाग की मिलीभगत से देश के हर इलाके में भारी मात्रा में नकली शराब बनती और बिकती है। जब कभी नकली शराब पीने वालों की सामूहिक मौत का कोई बड़ा कांड हो जाता है तब दो चार दिन मीडिया में हंगामा होता है, धड़ पकड़ होती है, पर फिर वही ढाक के तीन पात। इस कारोबार को कैशलेस कैसे बनाया जाय ये भी सरकार को सोचना होगा।                       
 
शराब के दुर्गणों को पीने वाला भी जानता है और बेचने वाला भी। कितने जीवन और कितने घर शराब बर्बाद कर देती है। पर ये भी शाश्वत सत्य है कि मानव सभ्यता के विकास के साथ ही शराब उसका अभिन्न अंग रही है। बच्चन की ‘मधुशाला’ से गालिब तक शराब की तारीफ में कसीदे कसने वालों की कमी नहीं रही। गम गलत करना हो, मस्ती करनी हो, किसी पर हत्या का जुनून चढ़ाना हो, दंगे करवाने हों, फौज को दुर्गम परिस्थियों में तैनात रखना हो और उनसे दुश्मन पर खूंखार हमला करवाना हो तो शराब संजीवनी का काम करती है। इसीलिये मुल्ला-संत कितने भी उपदेश देते रहें कुरान, ग्रन्थ साहिब या पुराण कितना भी ज्ञान दें, पर शराब हमेशा रही है और हमेशा रहेगी। जरूरत इसको नियंत्रित करने की होती है। फिर कैशलेस के दौर में शराब की बिक्री को क्यों न कैशलेस बना कर देखा जाय ? देखें क्या परिणाम आता है।

Monday, February 6, 2017

किस्सा आम बजट का

सरकार का सबसे मुश्किल काम बजट बनाना होता है। और जब माली हालत पतली हो तो और भी ज्यादा मुश्किल। लेकिन जैसे तैसे यह काम निपट गया।  सरकार के लिए एक अच्छी बात यह रही कि इस बार कोई भी क्रांतिकारी कदम न उठाने के कारण इसके अच्छे बुरे असर पर ज्यादा अटकल लगाई नहीं जा सकी। यहां तक कि बजट पेश हुए पांच दिन गुजर गए फिर भी बजट के लोग बजट का ऐसा कोई बड़ा झोल निकाल कर नहीं दिखा पाए। लेकिन बजट की अच्छाई की तारीफ करने करने के काम पर लगाए जाने वाले लोग भी ज्यादा कुछ नहीं बता पाए।

यानी पूरी तसल्ली से देखने के बाद कोई विश्लेषण किया जाए तो कहा जा सकता है कि कई साल बाद हमें यथास्थिति बनाए रखने वाला बजट देखने को मिला है। चूंकि आमतौर पर पहले ऐसा नहीं होता रहा है सो यह अंदेशा भी है कि इसके कई वैसे असर भी दिख सकते हैं जिन्हें हमने सोचकर नहीं रखा है। मसलन देश में यथास्थिति बनाए रखने में सबसे ज्यादा बाधक कारक है जनसंख्या वृद्धि। हर साल देश में आबादी दो करोड़ बढ़ जाती है। देश की योजना बनाने वाला योजनाकर इस तथ्य से आंख चुराने की कितनी भी कोशिश कर ले इसके असर से बचा नहीं जा सकता।

दो करोड़ आबादी बढ़ने का यह मतलब नहीं है कि हमें नवजात शिशुओं की संख्या ही बढ़ेगी। इसको यथास्थिति  बताने वाले यह तर्क दे सकते हैं कि इतने नवजात तो हर साल बढ़ते हैं। लेकिन यहां यह बताने की जरूरत है कि जो युवा पिछले साल नौकरी या कामधंधा नहीं मांग रहा था वह इस साल कामधंधा मांगने वालों की कतार में आकर खड़ा हो गया। इन युवाओं की संख्या भी लगभग दो करोड़ ही बैठती है। वैसे यह भी इस बार होने वाली कोई नई बात नहीं है। इतने युवा हर साल ही रोजगार पाने के आंकाक्षी बनते ही हैं। इस तरह यह निष्कर्ष निकलता है कि पिछले साल जितने बेरोजगार थे उनमें दो करोड़ की बढ़ोतरी और हो गई है। यही तथ्य बजट के आकार में बढ़ोतरी की मांग कर रहा था।

देश की माली हालत का अंदाजा लगाना आसान काम नहीं है। सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को लगातार बढ़ाते चलने की जरूरत हमें इसीलिए पड़ती है क्योंकि आबादी के लिहाज से देश का आकार बढ़ने की मात्रा बढ़ती है। इसके अलावा देश के नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता बढ़ाते चलना हमारा मकसद होता ही है। इसीलिए हर देश की तमन्ना रहती है कि उसकी आर्थिक वृद्धि दर किसी तरह दस फीसद हो जाए। अब क्योंकि वैश्वीकरण युग है सो सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं में तुलना होने लगी है सो हम इस बात को लेकर खुश होते रहते है कि दूसरों की तुलना में हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से उभरती व्यवस्था है। लेकिन क्या यह तेजी से उभरती व्यवस्था हमारी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति को सुनिश्चित कर पा रही है? इसी बात को देखने के लिए देश में बढ़ती बेरोजगारी पर ध्यान देना जरूरी माना जाना चाहिए।

इसमें कोई शक नहीं कि किसी भी सरकार के पास जादू की छड़ी नहीं होती। उसे अपने संसाधनों में ही काम चलाना पड़ता है। और हमारी नवीनतम स्थिति यह है कि हम अपने सारे उपायों के बावजूद 21 लाख 47 हजार करोड़ रूप्ए से ज्यादा खर्च कर सकने की हालत नहीं बना पाए। यह रकम पिछले साल की तुलना में सिर्फ डेढ लाख करोड़ ज्यादा है। जबकि उभरती हुई अर्थव्यवस्था के रूप् में हमें अपनी यथास्थिति बनाए रखने के लिए ही कम से कम आठ फीसद बढोतरी की जरूरत पड़ती है।  यानी लगभग बीस लाख करोड़  के आकर वाले बजट में न्यूनतम एक लाख 60 हजार करोड़ रूप्ए बढ़ाने की जरूरत थी। लगभग इतना ही हम बढ़ा पाए। यानी यथास्थिति बनाए रखने का ही प्रबंध कर पाए।

अगर यह मान लें कि सरकार के पास इस साल आमदनी बढ़ाने का और कोई जरिया बचा नहीं था तो एक ही गुजाइश बचती थी कि जहां जहां खर्च कम हो सकता था वहां कटौती कर दें और अपनी प्राथमिकता वाले क्षेत्र पर घ्यान लगा दें। लेकिन संतुलित बजट के पारंपरिक उपाय अपनाने के कारण अपनी प्राथमिकताओं का काम होने से रह गया। अब सवाल उठता है कि प्राथमिकता का वह क्षेत्र हो क्या सकता था।

जैसा पहले साबित किया जा चुका है कि बढ़ती आबादी और बढ़ती बेरोजगारी के कारण हमारे सामने एक ही काम बचता है कि हम अपना उत्पादन या सेवा क्षेत्र कैसे बढ़ाएं। अब तक के अनुभव से हम जान चुके हैं कि उत्पादन बढ़ाने में बड़ी बाधाएं हैं। कृषि और विनिर्माण के क्षेत्र में पूरी ताकत लगाने के बाद भी उसमें अपेक्षित बढ़ोतरी की गुंजाइश बन नहीं पा रही है। इसीलिए हमने एक विशेष क्षेत्र तलाशा था कि हमारा देश बहुमूल्य विरासत का देश है और इसका लाभ उठाते हुए हम पर्यटन उद्योग पर जोर लगा सकते हैं। ये कोई नई बात भी नहीं है। मौजूदा सरकार ने आने के पहले और आने के बहुत बाद तक प्र्यटन को एक बड़ा उद्यम माना भी था। लेकिन इस बार के बजट में चैतरफा दबाव के कारण प्र्यटन क्षेत्र को प्राथमिकता सूची में सबसे उपर रखने का काम रह गया। और हो सकता है इसलिए रह गया हो कि प्र्यटन उद्योग को बढ़ाने के लिए भी संसाधनों का प्रबंध करना उतना ही बड़ा काम था।

 यहां यह ध्यान दिलाने की जरूरत पड़ रही है कि पर्यटन ऐसा क्षे़त्र है जिसमें उद्योग और व्यापार जगत की जबर्दस्त रूचि रही है। इस कारपोरेट जगत के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व नाम का कानून भी हमने पहले से ही बना कर रखा हुआ है। मोटा अनुमान है कि इस कानून के तहत जमा होने वाली रकम एक से दो लाख करोड़ रूप्ए के लपेटे में बैठती है। भले ही सरकार खुद इसे अपना राजस्व नहीं मान सकती लेकिन अगर इस रकम का बड़ा हिस्सा पर्यटन विकास के लिए प्रोत्साहित कर दिया जाए तो रोजगारी पैदा करने का हिमालयी लक्ष्य साधने के बारे में सोचा जरूर जा सकता है।