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राज्यों के विधानसभा चुनावों में इस बार कई नई नई बातें दिख रही हैं। मसलन
चुनाव को कमखर्चे वाला बनाने की कोशिशों को देखें तो दिखने में तो धूमधाम
जरूर कम हो गई लेकिन प्रशिक्षित चुनाव प्रबंधन एजंसियों पर खर्चा इतना बढ़
गया कि इस मामलेे में हालत पहले से ज्यादा खराब है। होर्डिंग बैनर आौर गली
गली में लाउडस्पीकर से प्रचार इस बार कम नजर आता है। लेकिन चुनाव प्रबंधकों
के नियुक्त मानव संसाधनों की भरमार दिखने लगी है। कुछ राजनीतिक दलों के
वास्तविक कार्यकर्ताओं में तो इसी बात को लेकर बेचैनी है। ये कार्यकर्ता
वर्षो और महीनों से पार्टी के प्रचार वे इसीलिए लगे रहते हैं कि चुनाव के
दौरान उन्हें काम मिलेगा। अब उन्हें सिर्फ चुनाव सभाओं में भीड़ जमा करने का
काम मिलता है और वो भी अपनी पार्टी के नेताओं की तरफ से नहीं बल्कि चुनाव
प्रबंधन कंपनियों के मैनेजरों के जरिए।
चुनावी
खर्चे के बाद दूसरी नई बात यह है कि मतदाताओं का उत्साह घट गया। मतदाता अब
उतना मुखर नहीं है। देखने में जरूर लगता है कि छोटे छोटे कस्बों में टीवी
चैनल उम्मीदवारों या उम्मीदवारों के प्रतिनिधियों को कहने के लिए मंच
मुहैया करवाने लगे हैं। इन कार्यक्रमों में जनता को भी बैठाया जाता है।
लेकिन ये मुखर कार्यकर्ता पहली नजर में ही प्रायोजित मतदाता जैसे लगते हैं।
यानी इन कार्यक्रमों से हम बिल्कुल भी अंदाजा नहीं लगा पाते कि इस चुनाव
में मतदातों का रूझान किस तरफ है।
चुनाव
सर्वेक्षण एजंसियों ने तो इस बार हद ही कर दी है। किसी एक दल को खींचकर
जीतता हुआ दिखाने के चक्कर में उन पर कोई यकीन ही नहीं कर पा रहा है। पहले
यह हुआ करता था कि किसी के पक्ष में हवा बनाने के लिए कई एजंसियों में भी
आपसी समझ हुआ करती थी। लेकिन इस बार लगता है कि जैसे ये एजंसियां चुनाव
प्रचार का हिस्सा ही बनती जा रही हैं। पांचों राज्यों के चुनाव का आकार
देखें तो अब तक मतदान का दो तिहाई काम निपट गया है। लेकिन कहीं से भी कोई
ऐसा लक्षण नहीं दिख रहा जिसके आधार पर विश्वसनीय अनुमान लगाया जा सके।
अगर
तीनों बातों से कोई निष्कर्ष निकालें तो एक सकारात्कक बात भी निकलती है।
गुप्त मतदान चुनावी लोकतंत्र की बड़ी खासियत है। इससे निष्पक्ष मतदान का
लक्ष्य भी सधता है। इस लिहाज से मतगणना के पहले अनुमान नहीं लग पाना हर
मायने में अच्छी बात ही कही जाएगी। लेकिन ऐसा किन कारणों से हो रहा है यह
जरूर चिता की बात है। मसलन यह ऐसा पहला चुनाव है जिसमें चुनावी वायदे या
चुनाव घोषणा पत्रों की बड़ी बेकदरी दिख रही है। हो सकता है कि यह इसलिए हो
गया हो क्योंकि पिछले अनुभव से साबित हो गया है कि चुनावी वायदे महज वायदे
ही रह जाते हैं। सब कुछ हो भी इतनी जल्दी जल्दी रहा है कि जनता वायदे भूल
भी नहीं पा रही। बहुत संभव है कि चुनाव प्रबंध विशेषज्ञों ने यह बात समझ ली
हो कि अब दिशा दृष्टि, दूरगामी लक्ष्य की बातें हवा हवाई समझी जाएंगी। सो
उन्होंने छोटे मोटे तात्कालिक लाभों का वायदा ही कारगर समझा हो।
इस
चुनाव के पहले तक हमेशा बिजली पानी सड़क खास मुददे रहा करते थे और वाकई
जनता की बुनियादी जरूरत इन कामों से कुछ हद तक पूरी भी होती थी। लेकिन 130
करोड़ आबादी वाली अपनी उभर रही अर्थव्यवस्था में इन कामों को सुनिश्चित करने
की बात तो कोई सोच भी नही सकता। हां सपने दिखाने के लिए बोलते रहें ये अलग
बात है। क्योंकि पिछले दो दशकों से इसे खूब चलाते रहे सो अब इस पर यकीन
करने को कोई तैयार नहीं है।
सबको
साफ पानी, सबको पक्का मकान, सबको गुजारे लायक नौकरी या कामधंधा, साफ सफाई,
खेती के काम में लागत निकालने की समस्या, शिक्षा, स्वास्थ्य सारे ऐसे काम
है कि बिना पैसे के नहीं हो सकते। कहने को कोई खूब कहता रहे कि अपनी अक्ल
और हुनर लगाकर बिना पैसे के ये काम कर देगा लेकिन पिछले सत्तर साल में तय
हो चुका है कि हमारी जितनी माली हैसियत है उसके मुताबिक ज्यादा बड़ी बात
करना किसी भी तरह से ठीक नहीं है। क्योंकि आगे चलकर बड़ी जवाबदेही बन जाती
है। बहुत संभव है कि इसीलिए इस बार के चुनावों में मतदाताओं को छोटे मोटे
तोहफे देने का वायदा ही दिख रहा है।
कुछ
भी हो इन चुनावों ने इतना तो साबित कर दिया है कि हमारा चुनावी लोकतंत्र
मजबूत हो रहा है। इसका सबूत यह है कि इस बार किसानों की बात सबने की है।
खासतौर पर बदहाल किसानों के कर्ज माफ करने पर आम सहमति बन गई है। यह मुददा
देखने में भले ही दूसरे तीसरे पायदान पर हो लेकिन उप्र के अधिसंख्यक
मतदाताओं से इसका सीधा सरोकार है। हालांकि पूरी कहानी में यह बात अभी भी
गायब है कि इस कर्जमाफी में सरकार पर बोझ कितना पड़ेगा। ये पैसे आएंगे कहां
से? और अगर कहीं से इंतजाम कर भी लिया गया तो जहां से इंतजाम कियाा जाएगा
वह क्षेत्र हाहाकार कर उठेगा। यानी लब्बोलुआब यह है कि देश को या किसी भी
राज्य को पैसे चाहिए यानी आमदनी चाहिए। आमदनी बढ़ाने के लिए उत्पादन चाहिए
यानी उत्पादक रोजगार के मौके चाहिए। सबसे बड़ी हैरत की बात यही है कि इन
चुनावों में खासतौर पर उप्र के चुनाव में उत्पादक रोजगार बढ़ाने का वायदा
प्राथमिकता सूची में उपर दिखाई ही नहीं देता।
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