Monday, July 28, 2014

बदले बदले से मेरे सरकार नजर आते हैं

नई सरकार को आए 60 दिन पूरे हो गए हैं और अब नई सरकार के काम की समीक्षाएं भी शुरू हो गई हैं। जो लोग कहा करते थे कि देश में हालात बदलना आसान नहीं है, उन्हें अब फिर से सोचने की जरूरत पड़ रही है। 60 साल की रफ्तार से चलती गाड़ी को एकदम से तो ब्रेक लगाकर यू-टर्न नहीं लिया जा सकता। पर भारत सरकार की नौकरशाही के बदले रवैए से आने वाले समय का आगाज होना शुरू हो गया है। पिछले हफ्ते का एक रोचक वाकया इस बदली स्थिति को समझने के लिए उचित रहेगा।
 
दिल्ली-आगरा राजमार्ग-2 पर मथुरा रिफाइनरी के पास ‘बाद’ गांव में एक कृष्णकालीन सरोवर है। जिसका जीर्णोद्धार 500 वर्ष पहले अकबर के वित्त मंत्री टोडरमल ने करवाया था। इस आशय का एक शिलालेख मथुरा संग्रहालय में संग्रहित है। पिछले वर्षों में इस कुण्ड की वृह्द खुदाई का काम ब्रज फाउण्डेशन नाम की संस्था ने किया। जिसके बाद इसके नवनिर्माण व सौंदर्यीकरण की व्यापक योजना बनाकर उत्तर प्रदेश सरकार के माध्यम से अनुदान के लिए भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय को 2 वर्ष पहले भेज दी गई। इसी बीच सीमा सुरक्षा बल ने इस कुण्ड के पीछे लगभग 60 एकड़ भूमि खरीदकर उस पर अपने कैंप कार्यालयों और आवास का निर्माण शुरू कर दिया। जबकि इस क्षेत्र तक पहुंचने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग से कोई रास्ता नहीं था। सीमा सुरक्षा बल ने कृष्ण सरोवर के जल संग्रहण क्षेत्र में से 80 फुट सड़क काटकर रास्ता बना लिया, जो सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के विरूद्ध है। इस निर्देश के अनुसार किसी भी पुराने जलाशय की भूमि पर इस तरह का निर्माण नहीं किया जा सकता। जब बीएसएफ को अपनी भूल का अहसास हुआ तो उन्होंने इस कुण्ड के निर्माण और रखरखाव करने का प्रस्ताव किया। उनके इस व्यवहारिक प्रस्ताव पर ब्रज फाउण्डेशन ने भारत सरकार के गृह मंत्रालय की सहमति से भारत सरकार के पर्यटन मंत्रालय को यह आवेदन किया कि वे इस कुण्ड के लिए स्वीकृत धनराशि बीएसएफ को आवंटित कर दें, ताकि बीएसएफ का इंजीनियरिंग विंग इस कार्य को पूरा कर सके।
 
जब इस प्रस्ताव को लेकर फाउण्डेशन के लोग भारत सरकार के पर्यटन सचिव परवेज दीवान से मिले तो उन्हें बहुत सुखद अनुभव हुआ। उनकी मीटिंग के तय समय पर इस योजना से संबंधित सभी अधिकारी फाउण्डेशन के प्रस्ताव की फाइलें लेकर सचिव महोदय के कक्ष में पहले से मौजूद थे। श्री दीवान ने उनकी बात सुनी और उनके पारदर्शी व जनोपयोगी प्रस्ताव पर 5 मिनट के भीतर स्वीकृति की मोहर लगा दी। रोचक बात यह है कि बीएसएफ, गृह मंत्रालय और पर्यटन मंत्रालय इस पूरी प्रक्रिया को चलाने में उन्हें मात्र 2 महीने का समय लगा। यह बात दूसरी है कि यह धनराशि केंद्र सरकार के ही एक विभाग से दूसरे विभाग को जा रही है और इसमें ब्रज फाउण्डेशन का कोई दखल नहीं। फाउण्डेशन के लोगों का कहना है कि उनका अब तक का अनुभव यही रहा कि उनके ऐसे सही, सार्थक व जनोपयोगी प्रस्तावों पर भी महीनों और वर्षों तक कोई निगाह नहीं डालता। ऐसे तमाम प्रस्ताव देशभर के सरकारी दफ्तरों में वर्षों धूल खाते रहते थे। यह मोदी युग की शुरूआत है। यही है वह गुजरात मॉडल, जिसका इतना शोर देश में मचा था। केंद्र सरकार को छोड़ दे तो बाकी राज्य सरकारों में इसकी झलक अभी नहीं दिखाई देगी, क्योंकि वहां अन्य दलों की सरकारें हैं, इसलिए ‘मोदी प्रभाव’ नहीं पड़ा है।
 
सुबह से रात तक लगातार काम में जुटे प्रधानमंत्री ने सभी मंत्रियों और सचिवों को पिछले 60 दिन से इसी तरह काम में जोत रखा है। उन्हें निर्देश दिए हैं कि 15 दिन से ज्यादा किसी भी फाइल के ‘‘मूवमेन्ट’’ में समय नहीं लगना चाहिए। इसका असर अब केंद्र सरकार में खूब दिखने लगा है। अगर यह इसी तरह चलता रहा, तो जाहिर है कि प्रांतीय सरकारें भी अपना रवैया बदलने पर मजबूर होंगी।
 
आज तो ज्यादातर प्रांत सरकारों की हालत यह है कि आप कितना भी अच्छा प्रस्ताव ले जाएं, कितना ही केंद्र से अनुदान आ जाएं, पर काम अपने ही तरीके से होता है। काम नहीं होता, काम करने का नाटक होता है। पैसा जिले तक पहुंचते पहुंचते कपूर की तरह काफूर हो जाता है। इससे जनता में भारी हताशा और आक्रोश फैलता है। जो सरकारें इस अव्यवस्था को दूर करने में सफल रही हैं, उन्हें जनता बार-बार चुनकर भेजती है। पर मोदी की कार्यशैली इस सबसे बहुत आगे है। वे हर व्यक्ति से समयबद्ध कार्यक्रम के तहत लक्ष्यपूर्ति की अपेक्षा करते हैं। ऐसा न करने वालों को दरवाजा दिखाने में उन्हें संकोच नहीं होता। क्या हमारी प्रांतीय सरकारें इससे कुछ सबक लेंगी ?

Monday, July 21, 2014

आम भारतीय के रास्ते का रोड़ा बनी हुई है अंग्रेजी



गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने यूनाइटेड नेशंस पापुलेशन फंड इण्डिया के एक समारोह में हिंदी में भाषण देकर ऐसा क्या गुनाह कर दिया कि अंग्रेजी मीडिया उन पर टूट पड़ा है ? अंग्रेजी छोड़ हिंदी अखबार तक गृह मंत्री के समर्थन में आवाज़ बुलंद नहीं कर रहे | दरअसल राजनाथ जी इस मौके पर दो सन्देश दे रहे थे | एक तो यह कि दुनिया की चौथी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी को दुनिया में सम्मान देने का समय आ गया है | दूसरा वे अपने बहुसंख्यक मतदाताओं को ध्यान में रख कर बोल रहे थे | वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर ही देश की अस्मिता के सवाल को उठाया जाता है | मौजूदा सरकार और उसके प्रधानमन्त्री इस मुद्दे पर काफी गंभीर हैं और संजीदगी से इसे आगे बढ़ाना चाहते हैं | इसलिए ऐसे और भी मौके अभी आयेंगे |

कुछ अखबारों की यह आलोचना सही है कि ऐसे मौकों पर हिंदी भाषण का अंग्रेजी अनुवाद पहले से तैयार रखा जा सकता है | पर अंग्रेजी ही क्यों ? जब अंतर्राष्ट्रीय मंच की बात है तो रूसी, चीनी, जापानी, स्पैनिश क्यों नहीं ? दूसरी बात यह कि कई बार आत्मविश्वास वाले नेता अपने दिल की बात मौके पर स्वतंत्र रूप से रखना चाहते हैं | ऐसे में कोई पूर्वनिर्धारित भाषण की सीमाओं में बंधे रहना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता है |

पिछले कितने दशकों से करूणानिधि या जयललिता हमेशा सदन में, मीडिया के सामने और विशिष्ट अतिथियों के साथ वार्ता में केवल तमिल भाषा का ही प्रयोग करते हैं | तो इससे किसी को कोई परेशानी नहीं होती | ऐसा ही अन्य राज्यों के नेता भी करते हैं | पर उससे हिंदी भाषी आहत महसूस नहीं करते | बल्कि उनके मातृभाषा प्रेम की सराहना करते हैं| दरअसल दो फीसद अंग्रेजी बोलने वाले लोग पिछले डेढ़ सौ वर्षों से अठानवे फीसद लोगों का शोषण करते आ रहे हैं | क्षेत्रीय भाषाओँ को दासी का दर्जा दिया गया है और अंग्रेजी को मालकिन का | यह स्थिति अब बदलनी चाहिए | बीस बरस पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने भी हिंदी के समर्थन में मजबूत मोर्चा खोला था | उनकी भी इसी तरह आलोचना हुई और मजाक उड़ा | पर वे विचलित नहीं हुए और अपने अभियान में सफल रहे|

तीस वर्ष पहले बहुराष्ट्रीय कम्पनीयां अपने विज्ञापन अंग्रेजी में ही छापती थी, चाहे प्रकाशन किसी भी क्षेत्रीय भाषा का हो | जब उन्हें लगा कि उपभोक्ता का विशाल बाजार अंग्रेजी नहीं क्षेत्रीय भाषा समझता है तो उन्होंने अपने विज्ञापन इन भाषाओँ में छापने शुरू कर दिए और आम आदमी तक पहुँच गए | यहाँ तक की आधुनिक तकनिकी की सौगात गूगल ने भी क्षेत्रीय भाषाओं के महत्व को स्वीकार कर अपने डेटा में इन भाषाओं के सब विकल्प उपलब्ध करा रखे हैं |

दूसरी तरफ हमारे हिंदी अखबार हैं, जिन्होंने अकारण अपनी भाषा को दोगला बना लिया है | अखबार हिंदी में छपता है और उसका नाम अंग्रेजी में | ख़बरों में भी अंग्रेजी के शब्दों की अकारण भरमार रहती है | यह अखबार गर्व से कहते हैं कि वे ‘हिंगलिश’ के अखबार हैं | यह तर्क बहुत बेहूदा है | इससे पूरी पीढ़ी की भाषा बिगड़ रही है | हम सब भी तो रोज़मर्रा की बोलचाल में उदारता से अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते हैं | जिससे हम कोई भी भाषा ठीक और शुद्ध नहीं बोल पाते - ना हिंदी, ना अंग्रेजी | दूसरी तरफ रूस व चीन जैसे वे देश हैं जहाँ अगर आप उनकी भाषा में ना बोलें तो न तो आपको पीनी को पानी मिल पायेगा और ना ही शौचालय का मार्ग कोई बताएगा | आप लघुशंका के वेग से उछलते रह जाएंगे | क्योंकि अंग्रेजी में पूछे गए आपके सवालों का जवाब वे अपनी भाषा में देते रहेंगे और हम एक दूसरे की बात नहीं समझ पायेंगे | जब विदेशों में हम अंग्रेजी से काम नहीं चला पाते तो अपने देश में उसकी बैसाखियों का सहारा क्यों लेते हैं ?

प्राथमिक शिक्षा हो या विश्वविद्यालयी शिक्षा, प्रतियोगी परीक्षा हो या कचहरी की कार्यवाही या फिर सरकारी काम काज, अंग्रेजी आज आम भारतीय को उसका हक मिलने के रास्ते में रोड़ा बन कर बैठी है | अपने हक के लिए तीन दशकों तक मुकदमा लड़ने के बाद जब वादी और प्रतिवादी सर्वोच्च न्यायालय पहुँचते हैं तो उन्हें यह पता नहीं चलता कि उनकी जिंदगी का फैसला करेने वाले मुकदमें में क्या बहस हो रही है ? इसी तरह गांव की हकीकत से जुड़ा एक मेधावी नौजवान प्रशासनिक अधिकारी बनकर अपने लोगों का कितना काम कर सकता था ? पर अंग्रेजी में हाथ तंग होने के कारण वह मौका चूक जाता है |

भारत की नई सरकार को अगर देश की राष्ट्रभाषा हिंदी को उसका वांछित स्थान दिलवाना है तो भविष्य में अनुवाद आदि की व्यवस्थाओं को और व्यापक बनाना होगा | जिससे ऐसे विवाद फिर खड़े ना हों | फ़िलहाल हमें राजनाथ सिंह जी को बधाई देनी चाहिए और उनका उत्साह बढ़ाना चाहिए ताकि राष्ट्रभाषा को उसका दीर्घ प्रतीक्षित स्थान मिल सके |

Monday, July 14, 2014

बढ़ती जा रहीं है देश की समस्याएं और चिंताएं


देश में समस्याएं और चिंताएं बढ़ती जा रही है | हाल ही में लोकसभा के चुनावों के दौरान इन समस्याओं को जनता के सामने बार बार रख कर सभी राजनेतिक दलों ने अपनी अपनी समझ से उपाए रखे और वादे किये | लोगों ने नरेन्द्र मोदी में भरोसा जताया | उनकी स्पष्ट बहुमत की सरकार बन गयी |

स्थायी समस्याओं के रूप में सरकार के सामने – महंगाई भ्रष्टाचार और बेरोज़गारी है | महंगाई घटती नहीं दिखती, भ्रष्टाचार की स्थिति का पता नहीं है और रोज़गार इतनी बड़ी समस्या है कि विकास की बात कहने के अलावा किसी के पास कभी कोई योजना होती ही नहीं है |

महंगाई को लेकर पिछली सरकार के खिलाफ सतत विरोध अभियान चलाया गया था | मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि यूपीए सरकार इसी मुद्दे पर हारी थी | इस आधार पर हम अनुमान लगा सकते हैं कि नई सरकार के सामने सबसे पहले करने के लिए यही काम होना चाहिए था | संयोगवश और परंपरावश रेल बजट और आम बजट को इन्ही दिनों पेश होना था | रेल बजट के पहले रेल किराये और भाड़ा बढ़ाना पड़ा | सरकार ने खूब तर्क दिए और मजबूरियां बताई लेकिन नई सरकार की छवि को मजबूरी से किये गए इस काम से काफी नुक्सान पहुंचा है | जबकि सरकार चाहती तो यही काम करने के पहले जनता को जागरूक बना सकती थी | रेलवे पर श्वेतपत्र लाकर यह काम किया जा सकता था | और अगर श्वेतपत्र लाने में देर हो जाने का तर्क था तो वैसे में कम से कम रेलवे की वास्तविक स्थिति का प्रचार तो सरकार कर ही सकती थी |

लगातार रोजी-रोटी के जुगाड़ में लगी जनता बजट की बारीकी और आर्थिक बातों की गहराई समझ नहीं पाती | वह तो अपनी रोज़मर्रा की समस्याओं से निजात चाहती है और जबतक निजात ना मिले तो कुछ राहत चाहती है | महंगाई के मोर्चे पर वह राहत जनता को महसूस नहीं हुई | हालांकि वित्त मंत्री ने अपने व्यक्तित्व के हिसाब से दलीलें दीं, लेकिन इन्ही वित्त मंत्री को लोगों ने चुनाव के दौरान भी सुना था | उनके भाषणों के उस दौर को गुज़रे हुए अभी दो महीने भी नहीं हुए हैं | जो भी हुआ हो लेकिन अब एक ही स्थिति बनती है कि देश के वास्तविक हालात की जानकारी समझने लायक अंदाज़ में दी जाये और महंगाई से निपटने के कुछ फौरी उपाए भी किये जायें | यह बात कुछ ज्यादा गंभीर इसलिए भी है क्योंकि – अच्छा मौसम आने वाला है इस खुशफ़हमी में नहीं रहा जा सकता | इस साल बारिश के अब तक के आंकड़े निराशाजनक हैं | इस आसमानी आफत से सुल्तानी तरीके से कैसे निपटा जाये यह चुनौती खड़ी हो गयी है | वैसे बारिश के चार महीनों में अभी सिर्फ एक महीना ही गुज़रा है | इसमें हमें 40-50 फीसद पानी मिला है | लेकिन इसके आधार पर पता नहीं क्यों सूखे की आशंकाएं जताए जाने लगी हैं | यानी ऐसी आशंकाएं जताने में कहीं जल्दबाजी तो नहीं हो रही है | और अगर दुर्भाग्य से वैसा हुआ भी तब भी अभी से ऐसी आशंकाओं से महंगाई के हालात और ज्यादा बिगड़ सकते है |

साग सब्जियों, दाल और अनाज के व्यापारी बाज़ार की ‘धारणाओं’ से चलते हैं | सूखे और दूसरी आसमानी आफत की ज्यादा बातें फ़िज़ूल इसलिए भी हैं क्योंकि ऐसी आफतों से निपटने का उपाय हम जैसे देश अभी ढूंढ नहीं पाए हैं | प्रकृति बार बार चेता कर हमें जल संरक्षण सीखने का सुझाव देती है | लेकिन पता नहीं क्यों यह राजनैतिक मुद्दा नहीं बनता | यह बात चुनावी घोषणापत्रों में नहीं आती | हो सकता है इसका कारण यह हो कि इस काम के लिए लंबा समय चाहिए | जबकि सामान्य अनुभाव यह है कि हम चाहे सरकार गिराना हो और चाहे सरकार बनाना हो सिर्फ फौरी बातों का ही सहारा लेते हैं |

नए राजनैतिक माहौल में ऐसी बातें किन्हें पसंद आएँगी इसका अनुमान तो अभी नहीं लगाया जा सकता | लेकिन यह तय है कि जटिल समस्याओं के समाधान में लंबे सोच विचार की ज़रूरत पड़ती है और मजबूरी में दीर्घकालिक योजनाएं बनानी पड़ती हैं | खासतौर पर महंगाई जैसी फौरी समस्याओं के समाधान को भी हम जलप्रबंधन जैसे उपायों के संदर्भ में क्यों नहीं देख सकते |

पिछले एक महीने की बारिश में हमें सामान्य से आधा पानी मिला | अगर दुनिया के कुछ क्षेत्रों को देखें तो उनके यहाँ अपने देश की कुल औसत बारिश से एक चौथाई औसत बारिश से ही काम चल जाता है यह उनके जलप्रबंधन का कमाल है | और हैरत की बात यह है कि हमारे देश के और प्रदेशों के जल संसाधान मंत्री लगभग हर साल उन क्षेत्रों में दौरा करने जाते हैं और लौट कर तारीफें भी करते हैं लेकिन वैसा कुछ कर नहीं पाते | सामान्य अनुभव है कि वैसा करने के लिए पैसे की कमी का रोना रोया जाता है | लेकिन सवाल यह उठता है कि जब दूसरे क्षेत्रों में विदेशी निवेश का उपाय हम अपना लेते हैं तो इतने महत्वपूर्ण क्षेत्र में यानी जलप्रबंधन के क्षेत्र में विदेशी निवेश की छूट के नफे नुक्सान पर हम क्यों नहीं सोचते?

Monday, July 7, 2014

सीवीसी की नियुक्ति में कोई अड़चन नहीं आएगी

संसद में सबसे बड़ा विपक्षी दल इस बात को ले कर परेशान है कि सरकार उसके नेता को ‘नेता प्रतिपक्ष’ का दर्ज़ा क्यों नहीं देना चाहती | कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने श्रीमती सोनिया गांधी की अध्यक्षता में इस मुद्दे पर सरकार को संसद में घेरने कि रणनीति बनाई है | वैसे ये फैसला लोकसभा की अध्यक्षा श्रीमती सुमित्रा महाजन को करना है | कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद ने एक सार्वजनिक बयान देकर यह चिंता जताई है कि नेता प्रतिपक्ष की नियुक्ति न होने से सीवीसी जैसे अनेक संवैधानिक पदों को भरना असंभव हो जायेगा | जबकि हकीकत यह नहीं है | सीवीसी एक्ट की धारा चार के अनुसार सीवीसी की नियुक्ति राष्ट्रपति के आदेश पर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा की जाति है | जिसके अन्य दो सदस्य भारत के गृहमंत्री व नेता प्रतिपक्ष होते हैं | जैन हवाला काण्ड का फैसला देते समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था महत्वपूर्ण पदों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के लिए की थी | पर इसके साथ ही इस क़ानून के निर्माताओं ने संसद की मौजूदा स्थिति का शायद पूर्वानुमान लगा कर ही इस अधिनियम के सब-सेक्शन में यह स्पष्ट कर दिया है कि सीवीसी कि नियुक्ति के सम्बन्ध में ‘नेता प्रतिपक्ष’ का तात्पर्य लोक सभा में सबसे अधिक सांसदों वाले दल के नेता से है | ऐसे में अगर श्रीमती सुमित्रा महाजन कांग्रेस की मांग पर उसके नेता को सदन में नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं देतीं तो भी सीवीसी कि नियुक्ति में कोई अड़चन नहीं आएगी |

ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सीवीसी की संरचना को लेकर सरकार कुछ नई पहल करे | जिस तरह भारत के मुख्य न्यायाधीश ने विशेष मामलों के लिए सर्वोच्च न्यायायलय में विशेष योग्यता वाले न्यायाधीशों की नियुक्ति की पहल की है | उसी तरह सीवीसी के भी सदस्यों की संख्या में विस्तार किये जाने की आवश्यकता है | अभी परंपरा यह बन गयी है कि एक सदस्य भारतीय प्रशासनिक सेवा का होता है, एक भारतीय पुलिस सेवा का और एक बैंकिंग सेवा का | ये तीन तो ठीक हैं इनके अलावा एक सदस्य कर विशेषज्ञ होना चाहिए, एक सिविल इन्जीनियरिंग का, एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मामलों का और एक सदस्य कानूनविद होना चाहिए | इनकी भी नियुक्ति उसी तरह हो जैसी मौजूदा सदस्यों की होती है | क्योंकि सीवीसी के सामने जो ढेरों मामले आते हैं उनको जांचने परखने के लिए ऐसे विशेषज्ञों का होना अनिवार्य है |

इसके साथ ही एक सबसे बड़ी समस्या मंत्रालयों, सार्वजनिक उपक्रमों व अन्य सरकारी विभागों में नियुक्त सीवीओ को लेकर है | इस प्राणी का जीवन मगरमच्छ के मुंह में अटका है | उसी विभाग के संयुक्त सचिव स्तर के व्यक्ति को कुछ अवधि के लिए उसी विभाग का सीवीओ बना दिया जाता है | जिसका काम अपने विभाग में हो रहे भ्रष्टाचार की शिकयतों को सुलटाना होता है | अब यदि विभाग का अध्यक्ष ही टेंडर आदि में बड़े घोटाले कर रहा हो तो उसका अधीनस्त कर्मचारी उसके खिलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत कैसे कर सकता है ? क्योंकि इस पद से हटने के बाद तो उसे उसी अधिकारी के अधीन शेष नौकरी करनी होगी | आवश्यक्ता इस बात की है कि सीवीसी को यह अधिकार दिया जाये कि वो देश के किसी भी राज्य या विभाग के किसी भी योग्य अधिकारी का चयन कर उसे सीवीओ नियुक्त करे, जिससे वह पूर्ण निष्पक्षता से कार्य कर सके |

सीवीसी की दूसरी बड़ी समस्या यह है कि उसके पास योग्य अफसरों का अभाव हमेशा बना रहता है |  ज्यादा नियुक्तियां करने से नाहक खर्च बढ़ेगा | अच्छा ये हो कि सीवीसी को अधिकार दिया जाये कि वह सेवानिवृत्त योग्य व अनुभवी अधिकारीयों को शिकायतों कि जाँच करने के लिए सलाहकार रूप में बुला सके | इससे पेंशनयाफ्ता खाली बैठे योग्य अधिकारियों का सदुपयोग होगा और जाँच की प्रक्रिया में तेज़ी भी आएगी |
 
वैसे तो सीबीआई की स्वायत्ता और उस पर सीवीसी के नियंत्रण को लेकर कई महत्वपूर्ण मुकदमें फिलहाल भारत के मुख्य न्यायधीश के विचाराधीन हैं | पर सरकार को भी इस मामले पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए | लोकपाल के गठन और असर को लेकर कई पेच हैं | पर मौजूदा व्यवस्था में थोड़े से सुधार से भ्रष्टाचार को लेकर जो चिंता लोगों के मन में है उसके समाधान प्रस्तुत किये जा सकते हैं | इससे नई सरकार की प्रतिबद्धता भी स्पष्ट होगी और देश में एक सही सन्देश जायेगा |