अगर जनमत संग्रह की बात मानें तो केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बन रहे हैं, जिसके लिए उन्हें बधाई। क्योंकि एक ही साल में राजनैतिक दल बनाकर इस सफलता को पाना कोई सरल काम न था। पत्रकारों की छोड़िये राजनैतिक दल तक आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) की दिल्ली में आम लोगों के बीच लोकप्रियता का पूर्वानुमान नहीं लगा सके। दरअसल केजरीवाल लोगों को यह बात समझाने में सफल रहे कि कांग्रेस और बीजेपी एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। इसलिए चाहे उन्होंने असंभव को संभव बनाने के दावे किए हों या बढ़ चढ़कर अपनी उपलब्धियों के दावे किए हों, कुल मिलाकर यह साफ है कि वे आम आदमी को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे। अब जब काफी उधेड़बुन के बाद केजरीवाल दिल्ली में सरकार गठन का निर्णय लेने जा रहे हैं, तब भी लोगों के मन में आशंका है कि वे कितने सफल हो पाएंगे ? कांग्रेस और भाजपा कुछ ज्यादा ही आक्रामक तेवर अपना रहे हैं। वे ये सिद्ध करना चाहते हैं कि केजरीवाल सरकार चलाने में विफल हो जाएंगे। जबकि केजरीवाल का यह पलटवार कि वे न सिर्फ सरकार बनाएंगे, बल्कि उसे अच्छी तरह चलाकर भी सिखाएंगे, इन राजनेताओं के मन में अपनी स्थिति को लेकर संशय पैदा कर रहा है।
केजरीवाल यह अच्छी तरह जानते हैं कि अगर वे विफल हुए तो जमे हुए राजनैतिक दल उनकी बोटी नोंच लेंगे और अगर वे सफल हुए तो कई महानगरों में इनके प्रत्याशी लोकसभा का चुनाव जीत सकते हैं। इसलिए उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार कर ठीक किया है। हमने पिछले हफ्ते इसी कॉलम में लिखा था कि अगर केजरीवाल सरकार बनाते हैं और कुछ महीने के लिए ही सही कुछ अनूठा कर दिखाते हैं, तो उनको आगे बढ़ने के रास्ते खुलते जाएंगे। हो सकता है कि वे बिजली और पानी की कीमतों को लेकर अपने दावे निकट भविष्य में पूरे न कर पाएं, पर लोकप्रिय चाल चलन से नायक फिल्म के अनिल कपूर की तरह दिल्ली की गलियों और झुग्गियों में हड़कंप तो मचा ही सकते हैं। हमारे हुक्मरानों ने आजादी के बाद अपने को आम आदमी से इतना दूर कर लिया है कि केजरीवाल के छोटे-छोटे कदम भी उसे प्रभावित करेंगे, जैसे बिना लालबत्ती की गाड़ी में चलना। अगर मीडिया पहले की तरह केजरीवाल को प्रोत्साहित करता रहा, तो इन कदमों की चर्चा देशभर में होगी। जिससे पूरी राजनैतिक जमात में हड़कंप मचेगा। क्योंकि राजनेताओं की वीआईपी संस्कृति देश के हर हिस्से में आम लोगों की आंखों में किरकिरी की तरह चुभती है। पर वे इसे बदलने में असहाय हैं। यह पहल तो राजनेताओं को ही करनी चाहिए थी। वे चूक गए। अब केजरीवाल उन्हें नयी राह दिखाएंगे।
जब से दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजे आए हैं, कांग्रेस और भाजपा दोनों के नेता दबी जुबान से यह स्वीकार करते हैं कि केजरीवाल के तौर तरीकों ने पारंपरिक राजनीति की संस्कृति को एक झटका दिया है। विधायकों की खुली खरीद न होना इसका एक प्रमाण है। अलबत्ता वे यह कहने में नहीं चूक रहे कि आलोचना करना और सपने दिखाना आसान है बमुकाबले कुछ करके दिखाने के। इसलिए वे तमाम तरह की संभावित समस्याओं का हौवा खड़ा कर रहे हैं। केजरीवाल की यह बात सही है कि अगर मन में ईमानदारी हो और कुछ नया करने का जुनून तो सरकार चलाना कोई मुश्किल काम नहीं। खैर यह तो समय ही बताएगा कि वे अपने इस दावे में कहा तक सफल होते हैं।
आजादी के बाद आज तक किसी भी दल का घोषणा पत्र उठाकर देख लो तो साफ हो जाएगा कि उसमें चैथाई वायदे भी पहले तीन चार साल में पूरे नहीं किए जाते। फिर ये राजनेता केजरीवाल से क्यों उम्मीद कर रहे हैं कि वे मुख्यमंत्री की शपथ लेते ही जादू की छड़ी घुमा देंगे। शायद इसका कारण खुद आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) के नेतृत्व की वह बयानबाजी है, जिसमें कई बार शालीनता की सीमाओं को लांघकर अहंकारिक वक्तव्यों ने अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ा। उनके बड़बोलेपन ने ही आज उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया है, क्योंकि उन्होंने न सिर्फ दिल्ली की आम जनता को सपने दिखाए, बल्कि उसे अति अल्प समय में पूरा करने का भी वायदा किया। इसलिए उन पर दवाब ज्यादा है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध आम आदमी पार्टी (आ.आ.पा.) इतना शोर मचाने के बावजूद अभी तक कुछ भी हासिल न कर पायी है। पर इतना जरूर है कि एक नौजवान ने हिम्मत करके पूरी राजनैतिक व्यवस्था के सामने एक विकल्प तो खड़ा करके दिखा ही दिया है। हमें इस नौजवान का उत्साहवर्धन करना चाहिए और आशा करनी चाहिए कि वह हिन्दुस्तान की तस्वीर भले ही न बदल पाए, राजनेताओं को उनके तौर तरीके बदलने पर मजबूर जरूर करेगा।
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