एक और प्रवासी दिवस सम्पन्न हो रहा है। इण्डिया शाइनिंग के दौर में राजग की सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी नींव डाली थी। उद्देश्य था बाहर बसे भारतीयों को देश में निवेश के लिये प्रोत्साहित करना। आकड़े बताते हैं कि इस दिशा में कुछ भी उल्लेखनीय हासिल नहीं हुआ। यह दूसरी बात है कि प्रवासी भारतीयों के निवेश को आकर्षित करने के लिये भारत के सभी प्रमुख राज्यों के मुख्यमंत्री इस कार्यक्रम में अपनी दुकान सजाने जरूर आते हैं। इनमें भी सबसे ज्यादा सक्र्रिय रहे हैं, बिहार के मुख्यमंत्री। पर क्या वे उल्लेखनीय निवेश आकर्षित कर पाये ? उत्तर है नहीं। दूसरी तरफ देश में अजय पीरामल जैसे उद्योगपति हैं जो लगभग 22 हजार करोड़ रूपया दो वर्षों से बैंक में रखे बैठे हैं। क्योंकि उन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश करने का हौसला नहीं पैदा हो रहा। वे देश के माहौल को देखकर सोचते हैं कि क्यों न यह निवेश चीन जैसे किसी देश में किया जाये।
श्री पीरामल अकेले नहीं हैं। उनके जैसे दूसरे तमाम उद्योगपति हैं जो बाहर निवेश करने में होड़ लगाये हुए हैं। दूसरी तरफ देश में ही मध्यमवर्गीय निवेशक भी लाखों की तादाद में हैं, जो अफ्रीका, पूर्वी यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में लघु या मध्यमवर्गीय उद्योग लगा रहे हैं। व्यापारी तो वहीं जायेगा न जहाँ उसे लाभ दिखायी देगा। उसकी निष्ठा किसी देश की सीमाओं से ज्यादा अपने मुनाफे में होती है। इसलिये इन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।
पर सवाल उठता है कि अगर भारत में ही इतने सारे निवेशक मौजूद हैं तो हमें प्रवासी भारतीयों के पीछे दौड़ने की क्या जरूरत है ? पिछले 12 वर्षों से हम प्रवासी दिवस पर करोडों रूपया खर्च करते आ रहे हैं। न तो इससे भारत में निवेश बढा और न ही भारत की साख। जरूरत इस पर विचार करने की है। दरअसल देश के आधारभूत ढांचे में अभी बहुत कमी है। सड़कें, बिजली की आपूर्ति, कानून और व्यवस्था की स्थिति और नौकरशाही का थका देने वाला रवैया किसी बाहरी निवेशक को यहाँ आकर्षित नहीं कर पाता। इसलिये प्रवासी दिवस में दुकान लगाने की बजाय प्रांतों के मुख्यमंत्रियों को अपने प्रांतों में आधारभूत संरचना को सुधारने का काम प्राथमिकता से करना चाहिये। अगर ऐसा होगा तो निवेशक स्वयं ही दौड़े चले आयेंगे। फिर वे चाहें देशी हों या प्रवासी। फिर वो चाहें राजस्थान हो या बिहार।
तकलीफ की बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ शोर तो बहुत मचता रहता है, पर उस शोर से अभी तक सरकारों पर इतना असर नहीं पड़ा कि वे अपने तौर-तरीके में बदलाव लायें। नतीजतन हम सारी संभावनाओं के होते हुए भी आर्थिक प्रगति की दौड़ में चीन से पिछड़ते जा रहे हैं। चीन हमारी अर्थव्यवस्था पर हावी होता जा रहा है। हम डर व्यक्त करते हैं। अपनी सरकारों को कोसतेे भी हैं। पर अपने हालात सुधारने के लिये आगे नहीं आते। आधारभूत ढांचे को सुधारने के लिये आजादी के बाद से आज तक अरबों रूपया खर्च हो चुका है, पर खर्चे के मुकाबले में हमारी उपलब्धि नगण्य रही है। निवेश नहीं होता तो रोजगार का सृजन भी नहीं होता। जिससे युवाओं में भारी हताशा फैलती है और वे हिंसक प्रतिरोध के लिये सड़कों पर उतर आते हैं। कभी वे नक्सलवादी बनते हैं, कभी माक्र्स लेनिन वादी और कभी तालिबान बनते हैं तो कभी अपराधी। यह खतरनाक प्रवृत्ति है।
प्रवासी दिवस में आने वाले भारतीय भी निवेश को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहते। वे तो आते हैं यहाँ छुट्टी मनाने और मनोरंजन करने। इस बहाने वे अपने गाँव का दौरा कर लेते हैं और कुछ मौज-मस्ती व सैर-सपाटा भी। हैदराबाद के प्रवासी दिवस में मैं भी 3 दिन रहा था। मुझे प्रवासी भारतीयों से बात करके यही लगा कि वे केन्द्र एवं राज्य की सरकारों के सब्जबागों से प्रभावित नहीं थे। बल्कि आन्ध्र प्रदेश की सरकार के आयोजन की खामियों से नाराज ज्यादा थे। ऐसे में भारत सरकार के ओवरसीज मंत्रालय के विषय में यही कहा जा सकता है कि न खुदा ही मिला, न विसाले सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे। इस मंत्रालय को इस पूरी कवायद की उपयोगिता पर एक निष्पक्ष मूल्यांकन करना चाहिये और इसके प्रारूप में समयानुकूल परिवर्तन कर इसकी लागत घटानी चाहिये और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये तय किये गये लक्ष्यों को हासिल करने के लिये कुछ नये प्रयास करने चाहिये।
श्री पीरामल अकेले नहीं हैं। उनके जैसे दूसरे तमाम उद्योगपति हैं जो बाहर निवेश करने में होड़ लगाये हुए हैं। दूसरी तरफ देश में ही मध्यमवर्गीय निवेशक भी लाखों की तादाद में हैं, जो अफ्रीका, पूर्वी यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में लघु या मध्यमवर्गीय उद्योग लगा रहे हैं। व्यापारी तो वहीं जायेगा न जहाँ उसे लाभ दिखायी देगा। उसकी निष्ठा किसी देश की सीमाओं से ज्यादा अपने मुनाफे में होती है। इसलिये इन्हें दोष नहीं दिया जा सकता।
पर सवाल उठता है कि अगर भारत में ही इतने सारे निवेशक मौजूद हैं तो हमें प्रवासी भारतीयों के पीछे दौड़ने की क्या जरूरत है ? पिछले 12 वर्षों से हम प्रवासी दिवस पर करोडों रूपया खर्च करते आ रहे हैं। न तो इससे भारत में निवेश बढा और न ही भारत की साख। जरूरत इस पर विचार करने की है। दरअसल देश के आधारभूत ढांचे में अभी बहुत कमी है। सड़कें, बिजली की आपूर्ति, कानून और व्यवस्था की स्थिति और नौकरशाही का थका देने वाला रवैया किसी बाहरी निवेशक को यहाँ आकर्षित नहीं कर पाता। इसलिये प्रवासी दिवस में दुकान लगाने की बजाय प्रांतों के मुख्यमंत्रियों को अपने प्रांतों में आधारभूत संरचना को सुधारने का काम प्राथमिकता से करना चाहिये। अगर ऐसा होगा तो निवेशक स्वयं ही दौड़े चले आयेंगे। फिर वे चाहें देशी हों या प्रवासी। फिर वो चाहें राजस्थान हो या बिहार।
तकलीफ की बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ शोर तो बहुत मचता रहता है, पर उस शोर से अभी तक सरकारों पर इतना असर नहीं पड़ा कि वे अपने तौर-तरीके में बदलाव लायें। नतीजतन हम सारी संभावनाओं के होते हुए भी आर्थिक प्रगति की दौड़ में चीन से पिछड़ते जा रहे हैं। चीन हमारी अर्थव्यवस्था पर हावी होता जा रहा है। हम डर व्यक्त करते हैं। अपनी सरकारों को कोसतेे भी हैं। पर अपने हालात सुधारने के लिये आगे नहीं आते। आधारभूत ढांचे को सुधारने के लिये आजादी के बाद से आज तक अरबों रूपया खर्च हो चुका है, पर खर्चे के मुकाबले में हमारी उपलब्धि नगण्य रही है। निवेश नहीं होता तो रोजगार का सृजन भी नहीं होता। जिससे युवाओं में भारी हताशा फैलती है और वे हिंसक प्रतिरोध के लिये सड़कों पर उतर आते हैं। कभी वे नक्सलवादी बनते हैं, कभी माक्र्स लेनिन वादी और कभी तालिबान बनते हैं तो कभी अपराधी। यह खतरनाक प्रवृत्ति है।
प्रवासी दिवस में आने वाले भारतीय भी निवेश को लेकर बहुत उत्साहित नहीं रहते। वे तो आते हैं यहाँ छुट्टी मनाने और मनोरंजन करने। इस बहाने वे अपने गाँव का दौरा कर लेते हैं और कुछ मौज-मस्ती व सैर-सपाटा भी। हैदराबाद के प्रवासी दिवस में मैं भी 3 दिन रहा था। मुझे प्रवासी भारतीयों से बात करके यही लगा कि वे केन्द्र एवं राज्य की सरकारों के सब्जबागों से प्रभावित नहीं थे। बल्कि आन्ध्र प्रदेश की सरकार के आयोजन की खामियों से नाराज ज्यादा थे। ऐसे में भारत सरकार के ओवरसीज मंत्रालय के विषय में यही कहा जा सकता है कि न खुदा ही मिला, न विसाले सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे। इस मंत्रालय को इस पूरी कवायद की उपयोगिता पर एक निष्पक्ष मूल्यांकन करना चाहिये और इसके प्रारूप में समयानुकूल परिवर्तन कर इसकी लागत घटानी चाहिये और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये तय किये गये लक्ष्यों को हासिल करने के लिये कुछ नये प्रयास करने चाहिये।
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