पाँच राज्यों में हो रहे चुनावों में अलग-अलग राजनैतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र में अपने कार्यक्रमों की घोषणा कर दी है। हमेशा की तरह सपने दिखाये जा रहे हैं। कोई विजन की बात कर रहा है तो कोई मन्दिर बनाने की। हकीकत यह है कि अब किसी भी राजनैतिक दल में कोई गहरा वैचारिक मतभेद नहीं बचा है। यूँ दिखाने को नारे, झण्डे और प्रतीक भले ही अलग-अलग हैं पर सब की कार्यशैली लगभग एक सी है। मतदाता जानता है कि इन वायदों में गंभीरता नाम मात्र की होती है। इसलिये चुनावी घोषणापत्र मतदाता को उत्साहित नहीं करते। जो उसके मुद्दे हैं उनकी बात कोई नहीं करता। यही कारण है कि आधे मतदाता तो मतदान केन्द्र तक भी नहीं जाते। हालांकि उन्हें जाना चाहिये, तभी तो राजनैतिक दलों के नेतृत्व पर उनका दबाव बनेगा।
अगर असली मुद्दों की बात करें तो पंजाब में इस वक्त किसानों की हालत खराब है। जो पंजाब कभी हरित क्रान्ति का नेतृत्व कर रहा था, वहाँ के किसान आज कर्ज के बोझ तले दबे हैं। फसल अब मुनाफे का सौदा नही रही। चार रूपये किलो की उत्पादन लागत वाला आलू एक रूपये किलो बिका। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध प्रयोग ने पंजाब की कृषि भूमि की उत्पादकता इतनी घटा दी कि अब खेती करना घाटे का सौदा हो गया है। पंजाब के किसानों ने सबमर्सिबिल पम्प लगाकर जमीन के नीचे के पानी को इस बुरी तरह बहाया कि आज पाँच नदियों के लिये मशहूर पंजाब की जमीन के नीचे का भूजल स्तर तेजी से घट रहा है। पंजाब की सत्ता के लिये दावेदार प्रमुख दलों ने इस समस्या के हल के लिये क्या रणनीति बनायी है ? बैंक के कर्जे माफ करना, सस्ती दर पर ऋण देना या खाद और कीटनाशकों पर सब्सिडी देना, इस समस्या का हल नहीं है। हल तो पहले से मौजूद था। पर पश्चिम की नकल और जल्दी ज्यादा पैदा करने की हविश ने हमारी पारंपरिक खेती को खत्म कर दिया। अब समाधान उस तरफ लौट कर ही होगा। गाय के गोबर में ही वह क्षमता है कि भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ा सके। पर जिस देश में इस वैज्ञानिक ज्ञान को भी अन्धविश्वास बता कर उपेक्षा की गयी हो और गायों के कत्लखाने खोलकर गौवंश की लगातार नृशंस हत्या की जा रही हो, उस देश में कृषि और किसानों की दुर्दशा को कोई राहत नहीं दूर कर सकती। पर कोई भी राजनैतिक दल ऐसे बुनियादी समाधानों को बढ़ावा नहीं देता। क्योंकि अगर लोगों को यह बता दिया जाये कि गाय-बैल पालकर तुम अपनी खेती को धीरे-धीरे फिर से बढ़िया बना सकते हो, तो फिर रासायनिक खाद के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में जो अरबों रूप्ये का कमीशन खाया जाता है, उसकी गुंजायश कहाँ बचेगी ?
पिछला पूरा साल देश का शहरी नागरिक भ्रष्टाचार के सवाल पर सक्रिय रहा। ऐसा लगा कि कुछ हल निकाला जायेगा। पर सभी दल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे। किसी ने भी समाधान की तरफ कोई ठोस पहल नहीं की। नतीजा यह कि अब बढ़-चढ़ कर यह दावा किया जा रहा है कि इन चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं है। बेशक जिस तरह राजनेता एक-दूसरे के भ्रष्टाचार पर हंगामा खड़ा करते रहे हैं, वैसे हंगामे में मतदाता की कोई रूचि नहीं। उसे तो यह बात काटती है कि सरकारी विभागों के कर्मचारियों से साधारण सी सेवाओं के लिये भी उसे रोज जूझना पड़ता है। क्या किसी भी घोषणापत्र में इसका समाधान बताया गया है ?
हर शहर में कूड़े के पहाड़ बनते जा रहे हैं। जेएनआरयूएम जैसे अरबों रूपये के पैकेज लेने वाले शहर भी अपने नागरिकों को नारकीय स्थिति में जीने पर मजबूर कर रहे हैं। क्या किसी घोषणापत्र में इस बात की चिन्ता व्यक्त की गयी है कि हुक्मरानों के बंगलों जैसे ठाठ-बाट न भी हों, तो भी कम से कम साफ और स्वस्थ वातावरण में नागरिकों को जीने का हक तो मिलना चाहिये ? ऐसा नहीं है कि इन समस्याओं के समाधान संभव नही हैं। समाधान हैं पर राजनैतिक इच्छा शक्ति नहीं है।
नौजवानों को तकनीकी और प्रबन्धकीय शिक्षा देने के नाम पर हर शहर में इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमैंट कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की कुकुरमुत्ते की तरह फसल उग आयी है। रोजगार की तलाश में भटकने वाले लाखों निम्न मध्यमवर्गीय नौजवान अपने माता-पिता की खून-पसीने की कमाई को देकर इन संस्थानों से डिग्रियाँ हासिल कर रहे हैं। पर पेट काट कर, लाखों रूपया फीस देकर भी इन संस्थानों से निकलने वाले युवा न तो कुछ खास सीख पाते हैं और न ही नौकरी के बाजार में सफल होते हैं। कारण इन शिक्षा संस्थानों को चलाने वालों ने इन्हें नोट छापने का कारखाना बना दिया है। न तो फैकल्टी में गुणवत्ता है और न ही संस्थान के पास समुचित पुस्तकालय और अन्य साधन। एमबीए की डिग्री लेने वाले साड़ी की दुकान में सेल्समैन की नौकरी कर रहे हैं। इन संस्थानों के पीछे छुपा है एक बड़ा शिक्षा माफिया। जिसे राजनैतिक बाहुबलियों का संरक्षण प्राप्त है। नौजवानों को रोजगार की गारण्टी का लुभावना वायदा देने की बजाय अगर उन्हें ऊँचे दर्जे की किन्तु सस्ती और सुलभ शिक्षा उपलब्ध करवायी जाये तो वे खुद अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। पर यह सोच किसी राजनैतिक दल की नहीं है।
ऐसे तमाम बुनियादी सवाल हैं जिन पर ईमानदारी से कदम बढ़ाने की जरूरत है। अगर ऐसा हो तो उन लोगों का जीवन सुखी और समृद्ध हो जिन्हें चुनावी मौसम में भेड़-बकरी समझ कर वायदों का चारा फैंका जाता है। काश ऐसा हो पाता।