Sunday, September 18, 2011

अन्ना हजारे फिर महात्मा गाँधी के खिलाफ बोले

Rajasthan Patrika 18 Sep
दिल्ली के रामलीला में जितने दिन अन्ना हजारे का अनशन चला, उतने दिन मंच पर उनके पीछे महात्मा गाँधी का एक बड़ा भारी फोटो लगा रहा। हजारे जी के मीडिया मैनेजरों ने उन्हें दूसरा महात्मा गाँधी बताकर खूब प्रचारित किया। नारे भी लगाए गए कि ‘अन्ना नहीं आंधी है, दूसरा महात्मा गाँधी है।’ टीम अन्ना का उत्साह इस कदर बढ़ गया कि देश में कई जगह उन्होंने महात्मा गाँधी की मूर्ति पर ‘मैं अन्ना हूँ’ की टोपी भी पहना दी। कुल मिलाकर बात यह थी कि किसी तरह अन्ना हजारे को महात्मा गाँधी के बराबर खड़ा कर दिया जाए। पर हजारे जी की बातों को देखें तो असलियत कुछ और ही बयान कर रही है।

हजारे जी महात्मा गाँधी की शिक्षाओं और आचरण के विपरीत बोल रहे हैं। जिसका उन्हें पूरा हक है। पर फिर कम से कम गाँधी के समकक्ष उन्हें न रखा जाए। ताजा उदाहरण हजारे जी का वह बयान है, जो उन्होंने अपने गाँव रालेगण सिद्धि से जारी किया है। जिसमें उन्होंने कहा है कि भ्रष्टाचारियों को फांसी पर चढ़ा दिया जाए। सुनने में यह बड़ा दमदार लगता है। पर क्या यह गाँधी की भाषा है? गाँधी जी जोर देकर बार-बार कहते थे कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’

अब हम हजारे जी के उस वक्तव्य का विश्लेषण करें, जो वे देश की अबोध और कुछ भावुक जनता को खुश करने के लिए बार-बार दे रहे हैं कि, ‘भ्रष्टाचारियों को फांसी दो।’ जाहिर है कि यह महात्मा गाँधी के सिद्धांत और शिक्षाओं के विपरीत है। रही बात फाँसी के प्रभाव की, तो इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि तानाशाहों के राज्यों में, मसलन फ्रांस में, जब जेबकतरों को सार्वजनिक स्थल पर फांसी दी जाती थी, तो वहाँ खड़ी भीड़ में दर्जनों जेबें कट रही होती थीं। इसलिए अपराध शास्त्र में फांसी की सजा को बहुत महत्व नहीं दिया गया है। अदालत भी जब फांसी की सजा सुनाती है, तो केवल उन्हीं मामलों में, जहाँ यह महसूस करती है कि अपराधी ने इतना निकृष्ट अपराध किया है कि उसका जीना समाज के लिए अभिशाप बन सकता है। ऐसा दुर्लभ मामलों में भी दुर्लभतम मामलों में किया जाता है। पूरी दुनिया के सभी देशों में, जहाँ जनतांत्रिक व्यवस्थाऐं हैं, फांसी की सजा कई वर्षों में एकाध-बार दी जाती है। हजारे जी ऐसी अव्यवहारिक, भड़काऊ और गैर गाँधीवादी बात कहकर आखिर क्या सिद्ध करना चाहते हैं?

आजादी की लड़ाई के दौरान जब देश के बड़े-बड़े नेता बार-बार वर्षों तक जेलों में रहे, तो उन्होंने जेल की अन्दर की दशा को देखा। कैदियों के मनोविज्ञान को समझा और इसलिए आजादी के बाद वर्षों तक सभी राजनेता अपनी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जेल सुधार की बात करते रहे। अपराध शास्त्री सुधीर जैन बताते हैं कि आजादी से पहले अंगे्रजी हुकूमत का सोचना था कि किसी अपराधी को तीन उद्देश्यों से सजा दी जाए। (1) प्रतिशोध - उसने समाज के विरूद्ध जो अपराध किया है, उसका बदला उससे लिया जाए। (2) प्रतिरोध - उसे भविष्य में यह अपराध करने से रोका जाए। प्रतिरोध के भी दो भाग थे। एक था-वैयक्तिक प्रतिरोध और दूसरा-सामान्य प्रतिरोध। वैयक्तिक प्रतिरोध का मतलब था कि वह अपराधी दुबारा ऐसा जुर्म करने की हिम्मत न करे और सामान्य प्रतिरोध था कि उसकी सजा देखकर दूसरे डर जाएं और सबक सीखें। (3) प्रायश्चित - उसे कारागार में डालकर ऐसे हालात में रखा जाए कि वह बार-बार अपने अपराध का चिंतन करे और उसके मन में पश्चाताप पैदा हो।

आजादी के बाद इस सोच में बदलाव आया और जेल सुधार के कार्यक्रम में दो आयाम और जोड़े गए। एक था अपराधी का सुधार करना और दूसरा था उनका पुर्नवास करना। पहले के तहत अपराधी को अनेक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या आध्यात्मिक उपायों से सुधरने और बेहतर इन्सान बनने का मौका देना। अपराधी सुधार का यह आयाम महात्मा गाँधी के उन्हीं विचारों से प्रेरित था कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ पुर्नवास के तहत अपराधी को समाज में फिर से स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि एक बार जिस पर अपराधी होने का ठप्पा लग जाता है, उसे समाज आसानी से स्वीकार नहीं करता। इसलिए ऐसे कार्यक्रम बनाए गए और ऐसी प्रचार सामग्री तैयार की गई, जिससे समाज की सोच को बदला जा सके। इसी प्रयास का परिणाम था कि जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने चंबल के दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तो दस्युओं को ससम्मान समाज में पुनर्वासित किया गया। हालांकि ये दस्यु भ्रष्टाचार से भी कई गुना जघन्य हत्या और लूट जैसे बर्बर अपराधों में शामिल रहे थे, फिर भी इन्हें इनके प्रायश्चित का सम्मान करते हुए यथोचित सत्कार के साथ न सिर्फ लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बल्कि शासन व्यवस्था ने भी इनके पुर्नवास में तत्परता दिखाई। परिणाम यह हुआ कि चंबल के क्षेत्र से दस्युओं का आतंक कमोबेश समाप्त हुआ और यह पूर्व दस्यु अपने रूतबे के कारण अपने ग्रामीण समाजों में अपराध रोकने और विवाद निपटाने में प्रमुख भूमिका निभाने लायक हुए। मुझे याद है, जब मेरे एक मित्र ठाकुर मुकुट सिंह जो इंग्लैंड से पढ़कर लौटे और अपने गाँव में ग्रामीण विकास के स्वंयसेवी कार्य में जुट गए थे, वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से अपने पुत्र की बारात लेकर चंबल गए और एक दस्यु परिवार की कन्या से उसका विवाह किया। अपराधियों के पुर्नवास का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है?

हम पहले भी लिख चुके हैं कि राजघाट पर जब हजारे जी 8 जून को एक दिन के सांकेतिक उपवास पर बैठे थे, तो जिस तरह का नाच-गाना वहाँ हुआ और जैसा मजमा जुड़ा, उससे महात्मा गाँधी की समाधि की गरिमा कम हुई। माहौल ऐसा था, जैसे आई.पी.एल. का क्रिकेट मैच हो रहा हो और दर्शक मजा ले रहे हों।

रामलीला मैदान से भी अन्ना और टीम अन्ना के जो तेवर थे, उनमें दूर-दूर तक कहीं भी गाँधीवाद दिखाई नहीं दे रहा था। जिस तरह की भाषा वहाँ प्रयोग की गई, उसे सुनकर यही लगा कि अन्ना गाँधी कम शिवाजी ज्यादा लग रहे थे। इसका उल्लेख हमने इसी काॅलम में उस सप्ताह किया था।

कड़ी सजा तो भ्रष्टाचारियों को मिलनी ही चाहिए, परन्तु फांसी की बात से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं। उसी तरह जैसे ‘जनलोकपाल’ कानून बनने से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है।

Sunday, September 11, 2011

प्रियंका गाँधी का राजनैतिक भविष्य


Rajasthan Patrika 11 Sep

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी एक और रथयात्रा शुरू करने का ऐलान कर चुके हैं। वे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के प्रयासों से बने भ्रष्टाचार विरोधी माहौल को भुनाने की फिराक में हैं। उधर दिल्ली की राजनीति के गलियारों में इंका के भविष्य को लेकर अटकलें लगाई जा रही हैं। श्रीमती सोनिया गाँधी का अस्वस्थ होना, पार्टी को भारी पड़ा है। इन लोगों का मानना है कि अन्ना के अनशन से उपजी स्थिति का सही इस्तेमाल करने में राहुल गाँधी असफल रहे हैं। राहुल गाँधी का मंत्री मण्डल में शामिल न होने के भी दो अलग मायने लगाये जा रहे हैं। कुछ मानते हैं कि राहुल उत्तर प्रदेश में सफल हुए बिना सत्ता का हिस्सा नहीं बनना चाहते। वे बनेंगे तो सीधे प्रधानमंत्री या फिर संगठन के लिए काम करते रहेंगे। दूसरा पक्ष मानता है कि राहुल में आत्मविश्वास की कमी है। शायद उन्हें लगता है कि मंत्री बनकर वे ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ पायेंगे, जिससे उनका जनाधार बढ़े और प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदारी मजबूत हो। इंका से बाहर के दलों में और राजनैतिक विश्लेषकों में यह बात काफी समय से चल रही है कि राहुल गाँधी का व्यक्तित्व, जमीन की समझ और आम लोगों के बारे में अनुभव इस स्तर का नहीं कि वे देश को नेतृत्व दे सकें। अभी उन्हें बहुत सीखना है, खासकर राजनीति के मामलों में। ऐसे में प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी प्रचारित करके इंका को बहुत लाभ नहीं मिलने वाला है। 

Punjab Kesari 12 Sep
इन परिस्थितियों में इंका के बड़े नेता भी यह मानते हैं कि प्रियंका गाँधी का व्यक्तित्व, समझ और लोगों पर प्रभाव राहुल गाँधी से कहीं ज्यादा अच्छा पड़ता है। पर खुलकर कहने की हिम्मत किसी में नहीं है। दबी जुबान से ही काफी नेता यही चर्चा करते हैं। जहाँ तक प्रियंका का सवाल है, उन्होंने अपनी सीमित प्रेस मुलाकातों में बार-बार यही दोहराया है कि वे सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहतीं। अपने भाई व माँ की मदद भर करना चाहती हैं। पर इंका के रणनीतिकार, जो आज कई खेमों में बंटे हैं, दावा करते हैं कि अगले चुनाव से पहले प्रियंका गाँधी को सामने लाना पार्टी की मजबूरी होगा। क्योंकि सरकार के विरूद्ध आज बने माहौल में प्रियंका का ही व्यक्तित्व ऐसा है जो आम जनता को आकर्षित कर सकता है। 

उधर प्रियंका गाँधी को निजी तौर पर जानने वालों का दावा है कि वे अपने परिवार और छोटे बच्चों के साथ ही समय बिताना चाहती है। राजनीति के पचड़े में नहीं पड़ना चाहतीं। अगर यह सच है तो भी प्रियंका के राजनीति में पदार्पण की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता। उल्लेखनीय है कि जब राजीव गाँधी हवाई जहाज उड़ाते थे और 7 रेसकोर्स पर अपनी मम्मी के सरकारी आवास में सपरिवार रहते थे, तब यह चर्चा देश में बार-बार उठी कि राजीव गाँधी राजनीति में नहीं आना चाहते। इसलिए संजय गाँधी को सामने आना पड़ा। पर अन्त में अपने भाई की आकस्मिक मृत्यु व  माँ की हत्या के बाद उन्हें बे-मन से ही सही, राज-काज संभालना पड़ा। ठीक इसी तरह प्रियंका गाँधी कितना भी ना-नुकुर कर लें, अगर इंका के कार्यकर्ताओं ने और चुनाव के समय की देश की परिस्थिति ने उन्हें ऐसा मौका दिया तो वे शायद पीछे नहीं हटेंगी। 

Hind Samachar 12 Sep 11
इसमें एक ही अड़चन है। गत् गई महीनों से भाजपा और संघ से जुड़े लोगों ने देशभर में करोड़ो एस.एम.एस. भेज-भेजकर इंका और उसके नेतृत्व के खिलाफ एक आक्रामक अभियान चला रखा है। जिसमें नेहरू परिवार के प्रति काफी विष-वमन किया जा रहा है। तमाम तरह के आरोपों के एस.एम.एस. ये लोग दिनभर भेजते रहते हैं। यहाँ तक कि सोनिया गाँधी की बीमारी पर भी इनके एस.एम.एस. ये सन्देश दे रहे थे कि वे इलाज कराने नहीं, अपनी अकूत दौलत को ठिकाने लगाने गईं हैं। इसी क्रम में इन एस.एम.एस. के माध्यम से प्रियंका गाँधी के पति रॉबर्ट वढेरा पर अनेक घोटालों में लिप्त होने के भी आरोप लगातार लगाये जा रहे हैं। इन सब आरोपों का आधार है या नहीं, यह तो भविष्य बताएगा, पर इतना स्पष्ट है कि इनका मकसद प्रियंका गाँधी के राजनैतिक भविष्य को ग्रहण लगाना है। सच्चाई क्या है, प्रियंका गाँधी बेहतर जानती होंगी। अगर वे मन के किसी कोने में भी दबी हुई राजनैतिक महत्वकांक्षा पाले हुए हैं, तो वे इस सम्भावित परिस्थिति के प्रति सचेत होंगी। 

राहुल गाँधी हों या प्रियंका गाँधी, इंका सत्ता में हो या विपक्ष में, पर मूलभूत सवाल यह है कि इन दोनों की समझ देश की बुनियादी समस्याओं के बारे में कितनी गहरी है? जिस तरह की अपेक्षा और आक्रोश देश की आम जनता में अब पैदा हो चुका है, उनकी मांगे ढेर सारी होंगी और वे किसी भी छलावे में आने को तैयार नहीं होंगे। 122 करोड़ लोगों की महत्वकांक्षा को पश्चिमी विकास मॉडल से पूरा नहीं किया जा सकता। उनकी उपभोक्तावादी संस्कृति ने दुनिया का औपनिवेशिक शोषण कर, अपने देशों को बनाया। नव उपनिवेशवाद के दौर में बिना गुलाम बनाए भी दुनिया के देशों का जमकर आर्थिक दोहन किया। जिससे उनके देशों की प्रजा भोग-विलास का जीवन जी सकें। जबकि भारत के अधीन ऐसा कोई उपननिवेश नहीं है जो भारत की बढ़ती मांगों की तेजी से पूर्ति कर सके। ऐसे में अमीर गरीब की खाई बढ़ती जा रही है। बढ़ रहा है आक्रोश और हिंसा और लोगों की अधीरता। जिसे पूरा करने के लिए विकास का देशी गाँधीवादी मॉडल ही फिर से अपनाना होगा। कागजों पर नहीं, जमीन पर। क्या प्रियंका गाँधी ने इस बारे में कोई अध्ययन, कोई यात्रा या कोई अन्य प्रयास किया है? जिससे उनकी समझ इन मुद्दों पर विकसित हो सके। अगर किया है तो उन्हें जनता के बीच विकास का नया मॉडल लेकर जाने में कोई संकोच नहीं होगा। तब जनता उनसे जुड़ा हुआ अनुभव करेगी। अगर ऐसा नहीं है तो उन्हें और समाज को दिक्कत आएगी। पर यह स्पष्ट है कि प्रियंका गाँधी अपने भाई के खिलाफ बगावत का झण्डा बुलन्द करके सत्ता पर काबिज नहीं होना चाहेंगी। जो कुछ नेहरू-गाँधी परिवार करेगा, सामूहिक सोच और समन्वय के साथ करेगा।

Sunday, September 4, 2011

जनक्रांति या मीडिया क्रांति


Rajasthan Patrika 4Sep2011
विश्वविख्यात लेखिका अरूंधति राय ने टीम अन्ना के आन्दोलन पर जो आक्रामक लेख लिखा है, उसके समर्थन में देशभर से लाखों ईमेल आये हैं। उल्लेखनीय है कि अरूंधती राय आज तक टीम अन्ना वाली सिविल सोसाईटी की ही सदस्या रही हैं। इस आन्दोलन के तौर-तरीकों और जनलोकपाल बिल के खिलाफ उनका इतना तीखा हमला करना, टीम अन्ना पचा नहीं पा रही है। उधर पूरे देश में यह चर्चा चल पड़ी है कि यह अन्ना की जनक्रांति थी या मीडिया की बनायी हुई क्रांति?

पिछले सप्ताह दिल्ली के ‘इण्डिया इण्टरनेशनल सेंटर’ में इस विषय पर तीखी बहस हुई। आठ वक्ताओं में से उन टी.वी. चैनलों के प्रमुख लोग थे जिन्होंने टीम अन्ना के समर्थन में रात-दिन एक कर दिया। इसके साथ ही अन्य वक्ताओं में प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, अरूणा रॉय और मैं स्वंय शामिल थे। श्रोताओं में पाँच सौ से अधिक पत्रकार और पत्रकारिता के छात्र थे। वहाँ प्रशांत भूषण और टी.वी. चैनलों के मुखियाओं ने यह बात रखी कि जनलोकपाल बिल के समर्थन में यह आन्दोलन पूरी तरह से आत्मप्रेरित था और मीडिया ने उसमें केवल दृष्टा की ही भूमिका निभायी। उन्होंने यह भी दावा किया कि यह आन्दोलन लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन से बड़ा था और इसमें उस आन्दोलन की तरह राजनेताओं का कोई समर्थन नहीं था तथा मीडिया ने पूरी तटस्थता बरती। पर इसे सुनकर श्रोता आक्रामक हो गये। उन्होंने जे.पी. आन्दोलन को बिना संचार माध्यमों व राजनेताओं की मदद से हुआ कहीं बड़ा आन्दोलन बताया।

 
यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इतने प्रबुद्ध श्रोताओं में से आधे से अधिक, टीम अन्ना के भारी विरोध में खड़े थे। उनके तेवर इतने हमलावर थे कि आयोजकों को उन्हें संभालना भारी पड़ रहा था। इससे यह संकेत साफ मिला कि टीम अन्ना जो यह दावा कर रही है कि देश के 122 करोड़ लोग उसके साथ हैं, वह सही नहीं है। वक्ताओं और लोगों का आरोप था कि मीडिया ने कृत्रिम रूप से आन्दोलन के पक्ष में माहौल बनाया। ‘टी.वी. एंकरपर्सन’ रिपोर्टर की भूमिका में कम और ‘एक्टिविस्ट’ की भूमिका ज्यादा निभा रहे थे। स्टूडियो में होने वाली वार्ताओं में टीम अन्ना के समर्थकों को सबकुछ बोलने की छूट थी और उनके विरोध के स्वर उठने नहीं दिए जाते थे।

एक प्रश्न यह भी पूछा गया कि जो टी.वी. चैनल गंभीर से गंभीर टॉक शो में हर दस मिनट बाद कॉमर्शियल ब्रेक लेते हैं, उन्होंने इस आन्दोलन के दौरान बिना कॉमर्शियल ब्रेक लिए कवरेज कैसे किया? यह कैसे सम्भव हुआ कि ओम पुरी का भाषण हो, किरण बेदी का मंच पर नाटक हो या प्रशांत भूषण की प्रेस कॉन्फरेंस हो, सब बिना किसी अवरोध के घण्टों सीधे प्रसारित होते रहे? इस दौरान इन टी.वी. चैनलों को विज्ञापन न दिखाने की एवज में जो सैंकड़ों करोड़ की राजस्व हानि हुई, उसकी इन्होंने कैसे भरपाई की? क्या किसी ने यह धन इन्हें पेशगी में दे दिया था? जैसे अक्सर लोग अपने कार्यक्रमों को कवर कराने के लिए टी.वी. चैनलों से ‘एयर टाइम’ खरीदते हैं या यह माना जाए कि इस आन्दोलन का धुंआधार कवरेज करने वालों ने इतना मुनाफा कमा लिया कि उन्होंने भ्रष्टाचार के इस मुद्दे पर अपने मोटे घाटे की भी परवाह नहीं की? अगर यह सही है तो क्या यह माना जाए कि भविष्य में जब ऐसे दूसरे मुद्दे उठेंगे, तब भी ये टी.वी. चैनल अपने व्यवसायिक हितों को ताक पर रखकर इसी तरह, बिना कॉमर्शियल ब्रेक के, लगातार प्रसारण करेंगे? वक्ताओं ने एक चेतावनी यह भी दी कि अगर भविष्य में इन टी.वी. चैनलों ने, पहाड़, जमीन, जल, नदी, खनन आदि से जुड़े मुद्दों पर जनआन्दोलनों के संघर्षशील लोगों के साथ ऐसी ही उदारता न बरती, जैसी टीम अन्ना के साथ दिखाई दी, तो वे आन्दोलनकारी आक्रामक होकर टी.वी. संवाददाताओं के साथ हिंसक भी हो सकते हैं और उनके कैमरे आदि भी तोड़ सकते हैं। क्योंकि उनकी अपेक्षाऐं अब टी.वी. मीडिया से काफी बढ़ चुकी हैं।

अब जबकि टी.वी. मीडिया ने ‘प्रो-एक्टिव’ होकर, सामाजिक सारोकार को टी.आर.पी. बढ़ाने का जरिया मान लिया है, तो यह माना जाना चाहिए कि भविष्य में पाँच सितारा जिन्दगी, उपभोक्तावाद, भौंडे और अश्लील नृत्य या काॅमेडी शो जैसे कार्यक्रमों पर जोर न देकर ये टी.वी. चैनल समाज और आम आदमी से जुड़े मुद्दों को ही प्राथमिकता देंगे और उसके लिए अपने व्यवसायिक लाभ को भी छोड़ देंगे। अगर ऐसा होता है तो वास्तव में यह मानना पड़ेगा कि भारत में क्रांति की शुरूआत हो गयी है। जैसा कि ये टी.वी. चैनल पिछले कुछ हफ्तों से दावा कर रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो देशवासियों के मन में यह सवाल जरूर उठेगा कि केवल टीम अन्ना के लिए ही कुछ टी.वी. चैनलों ने इतना उत्साह क्यों दिखाया? इसके पीछे क्या राज है, इसे जानने और खोजने की उत्सुकता बढ़ेगी।

उधर देश में भ्रष्टाचार के प्रति जो आक्रोश था, उसे संगठित करने का अभूतपूर्व कार्य बाबा रामदेव और अन्ना हजारे ने किया है। पर इस जागृति से उत्पन्न ऊर्जा को स्वार्थी तत्व, अपने राजनैतिक लाभ के लिए उपयोग न कर सकें, इसके लिए देशवासियों को सचेत रहना होगा। वरना आशा को हताशा में बदलने में देर नहीं लगेगी और वह अच्छी स्थिति नहीं होगी।