Rajasthan Patrika 18 Sep |
दिल्ली के रामलीला में जितने दिन अन्ना हजारे का अनशन चला, उतने दिन मंच पर उनके पीछे महात्मा गाँधी का एक बड़ा भारी फोटो लगा रहा। हजारे जी के मीडिया मैनेजरों ने उन्हें दूसरा महात्मा गाँधी बताकर खूब प्रचारित किया। नारे भी लगाए गए कि ‘अन्ना नहीं आंधी है, दूसरा महात्मा गाँधी है।’ टीम अन्ना का उत्साह इस कदर बढ़ गया कि देश में कई जगह उन्होंने महात्मा गाँधी की मूर्ति पर ‘मैं अन्ना हूँ’ की टोपी भी पहना दी। कुल मिलाकर बात यह थी कि किसी तरह अन्ना हजारे को महात्मा गाँधी के बराबर खड़ा कर दिया जाए। पर हजारे जी की बातों को देखें तो असलियत कुछ और ही बयान कर रही है।
हजारे जी महात्मा गाँधी की शिक्षाओं और आचरण के विपरीत बोल रहे हैं। जिसका उन्हें पूरा हक है। पर फिर कम से कम गाँधी के समकक्ष उन्हें न रखा जाए। ताजा उदाहरण हजारे जी का वह बयान है, जो उन्होंने अपने गाँव रालेगण सिद्धि से जारी किया है। जिसमें उन्होंने कहा है कि भ्रष्टाचारियों को फांसी पर चढ़ा दिया जाए। सुनने में यह बड़ा दमदार लगता है। पर क्या यह गाँधी की भाषा है? गाँधी जी जोर देकर बार-बार कहते थे कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’
अब हम हजारे जी के उस वक्तव्य का विश्लेषण करें, जो वे देश की अबोध और कुछ भावुक जनता को खुश करने के लिए बार-बार दे रहे हैं कि, ‘भ्रष्टाचारियों को फांसी दो।’ जाहिर है कि यह महात्मा गाँधी के सिद्धांत और शिक्षाओं के विपरीत है। रही बात फाँसी के प्रभाव की, तो इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि तानाशाहों के राज्यों में, मसलन फ्रांस में, जब जेबकतरों को सार्वजनिक स्थल पर फांसी दी जाती थी, तो वहाँ खड़ी भीड़ में दर्जनों जेबें कट रही होती थीं। इसलिए अपराध शास्त्र में फांसी की सजा को बहुत महत्व नहीं दिया गया है। अदालत भी जब फांसी की सजा सुनाती है, तो केवल उन्हीं मामलों में, जहाँ यह महसूस करती है कि अपराधी ने इतना निकृष्ट अपराध किया है कि उसका जीना समाज के लिए अभिशाप बन सकता है। ऐसा दुर्लभ मामलों में भी दुर्लभतम मामलों में किया जाता है। पूरी दुनिया के सभी देशों में, जहाँ जनतांत्रिक व्यवस्थाऐं हैं, फांसी की सजा कई वर्षों में एकाध-बार दी जाती है। हजारे जी ऐसी अव्यवहारिक, भड़काऊ और गैर गाँधीवादी बात कहकर आखिर क्या सिद्ध करना चाहते हैं?
आजादी की लड़ाई के दौरान जब देश के बड़े-बड़े नेता बार-बार वर्षों तक जेलों में रहे, तो उन्होंने जेल की अन्दर की दशा को देखा। कैदियों के मनोविज्ञान को समझा और इसलिए आजादी के बाद वर्षों तक सभी राजनेता अपनी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जेल सुधार की बात करते रहे। अपराध शास्त्री सुधीर जैन बताते हैं कि आजादी से पहले अंगे्रजी हुकूमत का सोचना था कि किसी अपराधी को तीन उद्देश्यों से सजा दी जाए। (1) प्रतिशोध - उसने समाज के विरूद्ध जो अपराध किया है, उसका बदला उससे लिया जाए। (2) प्रतिरोध - उसे भविष्य में यह अपराध करने से रोका जाए। प्रतिरोध के भी दो भाग थे। एक था-वैयक्तिक प्रतिरोध और दूसरा-सामान्य प्रतिरोध। वैयक्तिक प्रतिरोध का मतलब था कि वह अपराधी दुबारा ऐसा जुर्म करने की हिम्मत न करे और सामान्य प्रतिरोध था कि उसकी सजा देखकर दूसरे डर जाएं और सबक सीखें। (3) प्रायश्चित - उसे कारागार में डालकर ऐसे हालात में रखा जाए कि वह बार-बार अपने अपराध का चिंतन करे और उसके मन में पश्चाताप पैदा हो।
आजादी के बाद इस सोच में बदलाव आया और जेल सुधार के कार्यक्रम में दो आयाम और जोड़े गए। एक था अपराधी का सुधार करना और दूसरा था उनका पुर्नवास करना। पहले के तहत अपराधी को अनेक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या आध्यात्मिक उपायों से सुधरने और बेहतर इन्सान बनने का मौका देना। अपराधी सुधार का यह आयाम महात्मा गाँधी के उन्हीं विचारों से प्रेरित था कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ पुर्नवास के तहत अपराधी को समाज में फिर से स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि एक बार जिस पर अपराधी होने का ठप्पा लग जाता है, उसे समाज आसानी से स्वीकार नहीं करता। इसलिए ऐसे कार्यक्रम बनाए गए और ऐसी प्रचार सामग्री तैयार की गई, जिससे समाज की सोच को बदला जा सके। इसी प्रयास का परिणाम था कि जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने चंबल के दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तो दस्युओं को ससम्मान समाज में पुनर्वासित किया गया। हालांकि ये दस्यु भ्रष्टाचार से भी कई गुना जघन्य हत्या और लूट जैसे बर्बर अपराधों में शामिल रहे थे, फिर भी इन्हें इनके प्रायश्चित का सम्मान करते हुए यथोचित सत्कार के साथ न सिर्फ लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बल्कि शासन व्यवस्था ने भी इनके पुर्नवास में तत्परता दिखाई। परिणाम यह हुआ कि चंबल के क्षेत्र से दस्युओं का आतंक कमोबेश समाप्त हुआ और यह पूर्व दस्यु अपने रूतबे के कारण अपने ग्रामीण समाजों में अपराध रोकने और विवाद निपटाने में प्रमुख भूमिका निभाने लायक हुए। मुझे याद है, जब मेरे एक मित्र ठाकुर मुकुट सिंह जो इंग्लैंड से पढ़कर लौटे और अपने गाँव में ग्रामीण विकास के स्वंयसेवी कार्य में जुट गए थे, वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से अपने पुत्र की बारात लेकर चंबल गए और एक दस्यु परिवार की कन्या से उसका विवाह किया। अपराधियों के पुर्नवास का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है?
हम पहले भी लिख चुके हैं कि राजघाट पर जब हजारे जी 8 जून को एक दिन के सांकेतिक उपवास पर बैठे थे, तो जिस तरह का नाच-गाना वहाँ हुआ और जैसा मजमा जुड़ा, उससे महात्मा गाँधी की समाधि की गरिमा कम हुई। माहौल ऐसा था, जैसे आई.पी.एल. का क्रिकेट मैच हो रहा हो और दर्शक मजा ले रहे हों।
रामलीला मैदान से भी अन्ना और टीम अन्ना के जो तेवर थे, उनमें दूर-दूर तक कहीं भी गाँधीवाद दिखाई नहीं दे रहा था। जिस तरह की भाषा वहाँ प्रयोग की गई, उसे सुनकर यही लगा कि अन्ना गाँधी कम शिवाजी ज्यादा लग रहे थे। इसका उल्लेख हमने इसी काॅलम में उस सप्ताह किया था।
कड़ी सजा तो भ्रष्टाचारियों को मिलनी ही चाहिए, परन्तु फांसी की बात से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं। उसी तरह जैसे ‘जनलोकपाल’ कानून बनने से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है।
हजारे जी महात्मा गाँधी की शिक्षाओं और आचरण के विपरीत बोल रहे हैं। जिसका उन्हें पूरा हक है। पर फिर कम से कम गाँधी के समकक्ष उन्हें न रखा जाए। ताजा उदाहरण हजारे जी का वह बयान है, जो उन्होंने अपने गाँव रालेगण सिद्धि से जारी किया है। जिसमें उन्होंने कहा है कि भ्रष्टाचारियों को फांसी पर चढ़ा दिया जाए। सुनने में यह बड़ा दमदार लगता है। पर क्या यह गाँधी की भाषा है? गाँधी जी जोर देकर बार-बार कहते थे कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’
अब हम हजारे जी के उस वक्तव्य का विश्लेषण करें, जो वे देश की अबोध और कुछ भावुक जनता को खुश करने के लिए बार-बार दे रहे हैं कि, ‘भ्रष्टाचारियों को फांसी दो।’ जाहिर है कि यह महात्मा गाँधी के सिद्धांत और शिक्षाओं के विपरीत है। रही बात फाँसी के प्रभाव की, तो इस बात के तमाम प्रमाण हैं कि तानाशाहों के राज्यों में, मसलन फ्रांस में, जब जेबकतरों को सार्वजनिक स्थल पर फांसी दी जाती थी, तो वहाँ खड़ी भीड़ में दर्जनों जेबें कट रही होती थीं। इसलिए अपराध शास्त्र में फांसी की सजा को बहुत महत्व नहीं दिया गया है। अदालत भी जब फांसी की सजा सुनाती है, तो केवल उन्हीं मामलों में, जहाँ यह महसूस करती है कि अपराधी ने इतना निकृष्ट अपराध किया है कि उसका जीना समाज के लिए अभिशाप बन सकता है। ऐसा दुर्लभ मामलों में भी दुर्लभतम मामलों में किया जाता है। पूरी दुनिया के सभी देशों में, जहाँ जनतांत्रिक व्यवस्थाऐं हैं, फांसी की सजा कई वर्षों में एकाध-बार दी जाती है। हजारे जी ऐसी अव्यवहारिक, भड़काऊ और गैर गाँधीवादी बात कहकर आखिर क्या सिद्ध करना चाहते हैं?
आजादी की लड़ाई के दौरान जब देश के बड़े-बड़े नेता बार-बार वर्षों तक जेलों में रहे, तो उन्होंने जेल की अन्दर की दशा को देखा। कैदियों के मनोविज्ञान को समझा और इसलिए आजादी के बाद वर्षों तक सभी राजनेता अपनी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जेल सुधार की बात करते रहे। अपराध शास्त्री सुधीर जैन बताते हैं कि आजादी से पहले अंगे्रजी हुकूमत का सोचना था कि किसी अपराधी को तीन उद्देश्यों से सजा दी जाए। (1) प्रतिशोध - उसने समाज के विरूद्ध जो अपराध किया है, उसका बदला उससे लिया जाए। (2) प्रतिरोध - उसे भविष्य में यह अपराध करने से रोका जाए। प्रतिरोध के भी दो भाग थे। एक था-वैयक्तिक प्रतिरोध और दूसरा-सामान्य प्रतिरोध। वैयक्तिक प्रतिरोध का मतलब था कि वह अपराधी दुबारा ऐसा जुर्म करने की हिम्मत न करे और सामान्य प्रतिरोध था कि उसकी सजा देखकर दूसरे डर जाएं और सबक सीखें। (3) प्रायश्चित - उसे कारागार में डालकर ऐसे हालात में रखा जाए कि वह बार-बार अपने अपराध का चिंतन करे और उसके मन में पश्चाताप पैदा हो।
आजादी के बाद इस सोच में बदलाव आया और जेल सुधार के कार्यक्रम में दो आयाम और जोड़े गए। एक था अपराधी का सुधार करना और दूसरा था उनका पुर्नवास करना। पहले के तहत अपराधी को अनेक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या आध्यात्मिक उपायों से सुधरने और बेहतर इन्सान बनने का मौका देना। अपराधी सुधार का यह आयाम महात्मा गाँधी के उन्हीं विचारों से प्रेरित था कि, ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।’ पुर्नवास के तहत अपराधी को समाज में फिर से स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि एक बार जिस पर अपराधी होने का ठप्पा लग जाता है, उसे समाज आसानी से स्वीकार नहीं करता। इसलिए ऐसे कार्यक्रम बनाए गए और ऐसी प्रचार सामग्री तैयार की गई, जिससे समाज की सोच को बदला जा सके। इसी प्रयास का परिणाम था कि जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने चंबल के दस्युओं का आत्मसमर्पण कराया तो दस्युओं को ससम्मान समाज में पुनर्वासित किया गया। हालांकि ये दस्यु भ्रष्टाचार से भी कई गुना जघन्य हत्या और लूट जैसे बर्बर अपराधों में शामिल रहे थे, फिर भी इन्हें इनके प्रायश्चित का सम्मान करते हुए यथोचित सत्कार के साथ न सिर्फ लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने बल्कि शासन व्यवस्था ने भी इनके पुर्नवास में तत्परता दिखाई। परिणाम यह हुआ कि चंबल के क्षेत्र से दस्युओं का आतंक कमोबेश समाप्त हुआ और यह पूर्व दस्यु अपने रूतबे के कारण अपने ग्रामीण समाजों में अपराध रोकने और विवाद निपटाने में प्रमुख भूमिका निभाने लायक हुए। मुझे याद है, जब मेरे एक मित्र ठाकुर मुकुट सिंह जो इंग्लैंड से पढ़कर लौटे और अपने गाँव में ग्रामीण विकास के स्वंयसेवी कार्य में जुट गए थे, वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से अपने पुत्र की बारात लेकर चंबल गए और एक दस्यु परिवार की कन्या से उसका विवाह किया। अपराधियों के पुर्नवास का इससे बेहतर नमूना और क्या हो सकता है?
हम पहले भी लिख चुके हैं कि राजघाट पर जब हजारे जी 8 जून को एक दिन के सांकेतिक उपवास पर बैठे थे, तो जिस तरह का नाच-गाना वहाँ हुआ और जैसा मजमा जुड़ा, उससे महात्मा गाँधी की समाधि की गरिमा कम हुई। माहौल ऐसा था, जैसे आई.पी.एल. का क्रिकेट मैच हो रहा हो और दर्शक मजा ले रहे हों।
रामलीला मैदान से भी अन्ना और टीम अन्ना के जो तेवर थे, उनमें दूर-दूर तक कहीं भी गाँधीवाद दिखाई नहीं दे रहा था। जिस तरह की भाषा वहाँ प्रयोग की गई, उसे सुनकर यही लगा कि अन्ना गाँधी कम शिवाजी ज्यादा लग रहे थे। इसका उल्लेख हमने इसी काॅलम में उस सप्ताह किया था।
कड़ी सजा तो भ्रष्टाचारियों को मिलनी ही चाहिए, परन्तु फांसी की बात से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं। उसी तरह जैसे ‘जनलोकपाल’ कानून बनने से भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है।
बहुत अच्छा सन्देश
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