अभी हाल ही में सरकार ने फसल ऋणों की ब्याज दर में भारी कटौती करके किसानों को राहत देने की कोशिश की है। इसके तहत अपनी फसलों को लहलहाते देखने के लिए जो किसान अब तक 14 से 18 प्रतिशत की ब्याज दर पर कर्जा ले रहे थे, अब उन्हें पचास हजार रुपए तक के फसली ऋण के लिए नौ फीसदी ब्याज ही चुकानी होगी। एक तरह से देखा जाए तो सरकार का यह कदम प्राकृतिक आपदाओं के मकड़जाल में फंसकर तड़पते किसानों के माथे की सलवटों को कुछ हद तक दूर कर देगा, पर क्या सिर्फ इसी निर्णय के बलबूते किसानों की सारी समस्याओं का अंत हो जाएगा ? ऐसा नहीं होगा। भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले किसान तब भी वैसे ही बदहाल रहेंगे, जैसे वे आज हैं। बड़े किसानों की बात छोड़ दें तो लघु और सीमांत किसानों की हालत पिछले कुछ सालों में बिगड़ी ही है। अन्न उत्पादन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले निचले स्तर के किसान तथा खेतिहर मजदूरों की आर्थिक स्थिति में गिरावट का दौर थम नहीं पा रहा है। बल्कि देखा जाए तो पिछले कुछ सालों से, जबसे सरकार ने कृषि उत्पादनों के आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबंध हटाए हैं, तब से छोटे किसानों की कमर ही टूट गई है।
ऐसा नहीं है कि छोटे किसानों की यह हालत उत्पादन में कमी के कारण आई है। अन्न उत्पादन तो हर साल रिकार्ड स्तर को पार कर जाता है। फिर किसानों की हालत क्यांे नहीं सुधर पा रही? यदि गहनता से विचार किया जाए तो पता चलेगा कि किसानों में भी दो वर्ग हैं। एक वे जो बड़ी जमीनों के मालिक हैं और घर बैठकर खेतिहर मजदूरों से अन्न उत्पादन कराते हैं। दूसरे वह हैं जो दिन-रात कड़ी मेहनत करके खेतों में अपना पसीना बहाते हैं। इनके पास या तो खुद की जमीन नहीं होती या फिर होती भी है तो वह इतनी कम कि वह उनकी गुजर बसर के लिए साधन नहीं जुटा पाती। बड़े किसान तो साधन सम्पन्न होने के कारण खेती में प्रयुक्त होने वाले खाद, बीज, उपकरण आदि चीजों की व्यवस्था कर लेते हैं। साथ ही वे बाजार की मांग के हिसाब से बोयी जाने वाली फसल में भी बदलाव कर लेते हैं। आजकल पारंपरिक अन्न की पैदावार के बजाए फल-फूल की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। सरकार भी किसानों को तरह तरह के प्रशिक्षण तथा जानकारी देकर उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित कर रही है। बीज उपलब्ध कराने से लेकर फसल उगाने के तरीकों तक की जानकारी किसानों को दी जा रही है। इनसे होने वाले फायदे गिनाए जा रहे हैं। इन फसलों में मुनाफा ज्यादा होने के कारण किसानों का रुझान भी अब इस ओर बढ़ने लगा है। कई क्षेत्रों में गांव के गांव फल-फूल की खेती करने लगे हैं। इससे वहां के किसानों का जीवन स्तर में भी सुधार आया है। परंतु लघु एवं सीमांत किसान जिनके पास पांच एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं होती, के लिए नई तकनीकों का प्रयोग करना इतना आसान नहीं होता। यह लोग तो खेती के आवश्यक खर्चों को भी वहन नहीं कर पाते। जैसे तैसे कर्जा लेकर खाद, बीज खरीदकर फसल उगाते हैं। भगवान से हर समय प्रार्थना करते रहते हैं कि कोई प्राकृतिक आपदा न आए। यदि फसल ठीक हो भी जाए तो भी इनके लिए लागत निकालना आसान नहीं होता। यह लोग ब्याज की रकम और मूल चुका भी नहीं पाते कि दूसरी फसल उगाने का समय आ जाता है। इस तरह यह कर्ज दर कर्ज के संजाल में फसंते जाते हैं। तब इनके सामने दो ही रास्ते बचते हैं या तो अपनी जमीन बेचकर कर्जा चुकाएं या फिर भूख और बेहाली से त्रस्त होकर जान गंवाएं। इसी वर्ग में खेतिहर मजदूर भी आते हैं जो रात दिन दूसरों के खेतों में फसल पैदा करते हैं। अपना पसीना बहाकर पैदा किया गया अन्न भी इनकी पहंुच से दूर होता है। उत्पादक, खेत मालिक और मंडी तीन स्तरों के बाद अनाज बाजार में बिकने आता है, उसे भी यह खेतिहर मजदूर खरीद पाने में सक्षम नहीं होते। अब ऐसी स्थिति में इन छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों का जीवन स्तर कैसे ऊपर उठ पाएगा, यह एक गंभीर चिंतन का विषय है।
दूसरी ओर उदारीकरण के नाम पर जो फैसले कुछ साल पहले लिए गए थे, अब उसके दुष्परिणाम भारतीय उत्पादकों के सामने आ रहे हैं। आयात नीति में छूट देने के कारण जहां विदेशों से फलों की आवक के कारण हिमाचल प्रदेश और कश्मीर के किसान परेशान हो गए हैं, वहीं गेहूं, चावल के खुले आयात से पंजाब एवं उत्तर भारतीय किसानों की पेशानी पर बल पड़ गए हैं। कपास के आयात से आन्ध्र प्रदेश, गुजरात एवं महाराष्ट्र के किसानों पर भी बुरा असर पड़ रहा है। यही हाल तिलहन की खेती करने वालों का है क्योंकि सस्ता होने के कारण विदेशी पाम आॅयल और सोयाबीन आॅयल को भारत मंगवाया जा रहा है। डब्लूटीओ का वरदहस्त प्राप्त बहुराष्ट्रीय कंपनियां महंगी खाद और बीज तथा कीटनाशकों को भारत में खपा रही हैं और यहां के भोले-भाले किसानों को भरमा रही हैं कि इनका प्रयोग करने से पैदावार में कई गुना बढ़ोत्तरी हो जाएगी। यह सही है कि इन्हें खेतों में डालने से उत्पादन बढ़ जाता है मगर वास्तविकता में इनसे लाभ कम, नुकसान ज्यादा होता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ये बीज सिर्फ एक बार ही बोए जा सकते हैं। इनसे दुबारा फसल नहीं हो सकती। इसी तरह रासायनिक खाद धीरे धीरे भूमि की उर्वरा शक्ति को खत्म कर देती है। कुछ ही सालों में जमीन बंजर हो जाती है। उस पर कोई भी फसल नहीं उग पाती। यह कंपनियां अपने नुकसानदेह उत्पादों को तो भारत मंे भेज रही हैं और खुद यहां के पारंपरिक तौर-तरीकों को आत्मसात कर सुकून का अनुभव कर रही हैं। भारतीय तरीके वास्तव में कारगर हैं परंतु पश्चिम की बयार ने भारतीयों के मन मस्तिष्क को कुंद कर दिया है। वह आधुनिक चकाचैंध के पीछे भागकर अपनी सदियों पुरानी विरासत को भूलते जा रहे हैं।
नई जरूरतों के हिसाब से व्यवस्थाओं में तब्दीली करने के कानून तो बना दिए जाते है मगर जंग खाई नौकरशाही जनहित में नए नियमों को लागू नहीं होने देती। स्वार्थसिद्धि की आदत उन्हें रोक देती है। हर साल अन्न की पैदावार रिकार्ड स्तर को पार कर जाती है। अन्न गोदामों में सड़ता रहता है। खाद्यान्न की अधिकता के कारण उसे रखने की जगह तक नहीं मिलती। सैकड़ों टन अनाज मौसम की मार से यूं ही बेकार हो जाता है। मगर फिर भी विदेशों से अनाज मंगवाया जाता है। जो पैसा अन्न के आयात में खर्च किया जाता है यदि उसे देश में पैदा होने वाली फसलों के रखरखाव पर खर्च किया जाए तो भारत में अनाज की कोई कमी नहीं रहेगी। सरकार को केवल कागजी घोड़े दौड़ाने की जगह अब वास्तविकता के धरातल पर उतरकर कुछ ठोस करना ही होगा। हर साल सरकार गेहूं खरीद के न्यूनतम मूल्य निर्धारित करती है। अनाज खरीदने के लिए खरीद केन्द्र बनाए जाते हैं। किसानों की सुविधाओं के लिए इन खरीद केन्द्रों पर सभी आवश्यक साधन भी मुहैया कराए जाते हैं, मगर फिर भी किसान इनके बजाए कम कीमत पर बाजारों में अपना अन्न बेचते हैं। कारण, नौकरशाही का वरदहस्त प्राप्त दलालों का इन जगहों पर कब्जा रहता है। सरकार के तमाम दावों को यह नौकरशाही पलीता लगा देती है। हर साल झगड़े होते हैं, फसाद होते हैं लेकिन कुछ समय बाद गाड़ी उसी पुराने ढर्रे पर आ जाती है। स्थिति जस की तस रहती है। नियम बनाने के साथ साथ सरकार को नौकरशाही के अवैधानिक कार्यों पर लगाम लगाने के भी उपायों पर विचार करना होगा तभी किसानों तक उनका लाभ पहंुच पाएगा।
फसली ऋण की ब्याज दरों में कटौती करके सरकार ने किसानों को वर्ष 2002-03 की ऋण राशि में ही करीब ढाई हजार करोड़ रुपए की राहत देने की कोशिश की है। साथ ही किसानों को सस्ती ब्याज दर और आसान शर्तों पर ट्रैक्टर तथा अन्य कृषि उपकरण दिलाने के बारे में सरकार प्रयासरत है। निश्चय ही सरकार का यह कदम बड़े किसानों के लिए स्वागतयोग्य है। पर छोटे किसानों की दशा कैसे सुधरे, इस प्रश्न का हल खोजा जाना चाहिए। एक तरफ उदारीकरण के कारण बंद होते कारखाने, दूसरी तरफ कृषि का व्यवसायीकरण, गरीब आखिर जाए तो कहां जाए?
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