Friday, August 1, 2003

किसने कहा सीबीआई आजाद है ?



अयोध्या मामले में उप प्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी, मानव संसाधन विकास मंत्री डाॅ. मुरली मनोहर जोशी, सुश्री उमा भारती व अन्य लोगों पर लगा आपराधिक साजिश का आरोप सीबीआई ने वापस ले लिया है। इससे विपक्ष काफी उत्तेजित है। उसका आरोप है कि सीबीआई ने सरकार के दबाव के चलते ऐसा किया है और वह मुक्त होकर कार्य नहीं कर रही। पर इसमें उत्तेजित होने की कोई बात नहीं है। जो भी सीबीआई के काम करने के तरीके को जानता है, उसे पता है कि सीबीआई भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच करने वाली एक निष्पक्ष एजेंसी नहीं है बल्कि यह तो सत्ता पक्ष के हाथ में अपने विरोधियों को डराने धमकाने और सीधा रखने का एक औजार है। यही कारण है कि सीबीआई की स्वायत्तता को लेकर जब जब मांग उठी, तब तब उसे माना नहीं गया। 

यह रोचक तथ्य है कि 10 फरवरी 2000 को जी टीवी पर प्राइम टाइमकार्यक्रम में हवाला कांड की जांच से जुड़े रहे सीबीआई के पूर्व संयुक्त निदेशक व हरियाणा पुलिस के तत्कालीन महानिदेशक श्री बीआर लाल ने जोर देकर यह बात कही कि हवाला कांड में तमाम बड़े राजनेताओं के विरूद्ध सबूत मौजूद थे, पर सीबीआई के निदेशक के आदेश व ऊपर से पड़ रहे दबाव के चलते उन्हें अदालत के सामने पेश नहीं करने दिया गया। यह बात उन्होंने इसी शो में मौजूद सीबीआई के तत्कालीन निदेशक श्री जोगिंदर सिंह की उपस्थिति में कही। आश्चर्य की बात है कि सीबीआई,सरकार व सर्वोच्च न्यायालय ने इतने महत्वपूर्ण रहस्योद्घाटन पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। यहां तक कि देश के मीडिया ने भी इतनी महत्वपूर्ण खबर को कोई तरजीह नहीं दी। अगर ऐसा किया होता तो श्री लाल सारे प्रमाण अदालत के सामने रखकर ये सिद्ध कर देते कि हवाला कांड को किस तरह दबाया गया। 

5 फरवरी 2000 को जब मैंने स्टार न्यूज के बिग फाइट शोमें कंेद्रीय सतर्कता आयुक्तश्री एन. विट्ठल से पूछा कि वे देश से भ्रष्टाचार मिटाने की घोषणाएं तो कर रहे हैं, पर जिस हवाला कांड के कारण उन्हें यह पद मिला है उसकी जांच में हुए भ्रष्टाचार को दूर करने से वे क्यों कतराते हैं ? मजबूरन श्री विट्ठल को घोषणा करनी पड़ी कि वे हवाला कांड की जांच फिर से करवाएंगे। इसके तुरंत बाद देश की राजनीति में तूफान खड़ा हो गया। तीन हफ्ते तक संसद और अखबारों में यह शोर मचता रहा कि श्री विट्ठल को यह जांच करवाने का कोई अधिकार नहीं है। अंततः श्री विट्ठल के पर कतर दिए गए। उल्लेखनीय है कि अगस्त 1997 में जब हवाला कांड को पुनः ठंडे बस्ते में डालकर, भविष्य में सीबीआई को स्वायत्तता देने की बात सर्वोच्च न्यायालय में की जा रही थी, तभी मैंने लिखकर अदालत से अपना विरोध दर्ज किया था। मेरा तर्क था कि जब पूर्ण रूप से स्वायत्त संस्था सर्वोच्च न्यायालय ही आतंकवाद से जुड़े इस गंभीर कांड की जांच नहीं करवा पा रही है तो भविष्य में सरकार द्वारा नियुक्त सीवीसी नुमा कोई अधिकारी यह कैसे करवा पाएगा ? वही बात इस घटना के बाद सामने आई। 

दरअसल सीबीआई के गठन को लेकर कोई अलग कानून नहीं है। इसका कानूनी नाम दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट (डीएसपीई) है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान युद्ध एवं  आपूर्ति विभाग में होने वाले भ्रष्टाचार की जांच करने के लिए भारत की अंग्रेज सरकार ने 1941 में इसकी स्थापना की थी। विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद केन्द्र सरकार के विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार की जांच के लिए 1946 में दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट बनाकर डीएसपीई को केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। इसी के साथ केन्द्र सरकार के सभी विभाग अब इसकी जांच के दायरे में आ गए। केन्द्रशासित प्रदेश और जरूरत पड़ने पर राज्यों को भी डीएसपीई की सेवाएं लेने की अनुमति दी गई। 1 अप्रेल 1963 से इसे सीबीआई कहा जाने लगा। पहले यह गृह मंत्रालय के अधीन था, फिर इसकी महत्ता को समझते हुए श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसे अपने अधीन कर लिया। तब से यह प्रधानमंत्री के ही अधीन चला आ रहा है। 

यूं सीबीआई ने कई बड़े कांड पकड़े हैं। पर बड़े पदों पर बैठे राजनेताओं, खासकर आला अफसरों को सजा दिलवा पाने में इसकी सफलता नगण्य रही है। अक्सर ऐसा होता है कि जब राज्य की पुलिस भ्रष्टाचार करे और जांच में कोताही बरते तो सीबीआई को तलब किया जाता है। पर अगर सीबीआई ही भ्रष्टाचार करे या तथ्यों को दबाए और अपराधियों को संरक्षण दे तो कहां जाया जाए? ऐसी ही समस्या तब सामने आई जब 1993 में मुझे पता चला कि सीबीआई जैन हवाला केस को 1991 से दबाए बैठी है। मैं देशद्रोह के इस मामले में जांच की मांग लेकर सर्वोच्च अदालत में गया। अदालत ने जांच करवाई और भारत की राजनीति में हड़कंप मच गया। पर फिर सीबीआई को भविष्य में स्वायत्ता दिए जाने के आदेश जारी करके केस को फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। 

दिसंबर 1997 में जैन हवाला केस के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण फैसले के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को सीबीआई को स्वायत्ता दिए जाने के निर्देश दिए। इस व्यवस्था के तहत उसे केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त के अधीन काम करना था। केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त का चुनाव एक पारदर्शी प्रक्रिया से होना था और कानून बनाकर उसके अधिकार काफी व्यापक किए जाने थे। पर सीबीसी नाम का यह बिल वर्षों संसद में फुटबाॅल की तरह उछलता रहा। अंत में जो कानून बना वो सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश की धज्जियां उड़ाने वाला था। न तो सीबीआई को स्वायत्ता ही मिली और न ही सीवीसी को सीबीआई से खुलकर काम कराने के अधिकार। अब तो सीबीआई पहले से भी और पंगु हो गई है।

ऐसे माहौल में अगर उसने अयोध्या मामले में श्री आडवाणी, डाॅ. जोशी, सुश्री उमा भारती व अन्य लोगों के खिलाफ आरोप वापस ले लिए हैं तो इसमें उत्तेजित होने की कोई बात ही नहीं। संसद के जो सदस्य भी इस कार्रवाई के खिलाफ हैं, उन्हें चाहिए कि वे इस मामले पर शोर मचाने के साथ ही इस बात का माहौल बनाएं कि 18 दिसंबर 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत सीबीआई और सीवीसी को पूर्ण स्वायत्ता दी जाए। ऐसा होने पर सीबीआई के सरकार के दबाव में आने की संभावना लगभग समाप्त हो जाएगी। पर कोई ऐसा नहीं करेगा। कोई दल नहीं चाहता कि सीबीआई जैसा सशक्त हथियार हाथ से जाने दिया जाए। जो आज सत्ता पक्ष कर रहा है वही कल वे दल करेंगे जो आज विपक्ष में बैठे हैं। इसलिए शोर चाहे जितना मचे, होना जाना कुछ नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे पिछले पचास सालों में कितने ही घोटालों पर कितना बवंडर मचा, पर अंत में रहे वही ढाक के तीन पात। हां, यह जरूर होगा कि कुछ दिनों तक अखबारों के पन्ने विपक्ष और पक्ष के आरोप प्रत्यारोंपों से भरे रहेंगे। टीवी के न्यूज चैनलों पर त्योंरियां चढ़ा चढ़ाकर गरमागरम बहसें होंगी। विपक्ष सरकार को हर तरह से सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करेगा, और इस सबका मकसद होगा केवल राजनैतिक लाभ कमाना। क्योंकि कोई भी दल नहीं चाहता कि सीबीआई इतनी सशक्त हो जाए कि वह निरंकुश होकर किसी भी बड़े आदमी के खिलाफ किसी भी सीमा तक जाकर जांच कर सके। 

वैसे भी अयोध्या मामले पर जनता की राय बंटी हुई है। हिन्दु भावना से प्रभावित लोग मानते हैं कि बाबरी मस्जिद को गिरवाकर भाजपा के नेताओं कोई अनैतिक कृत्य नहीं किया। उन्होंने तो ‘‘हिन्दुओं के सोए हुए स्वाभिमान’’ को जगाया। पर कानून की नजर में इन नेताओं का अपराध वास्तव में अपराध है क्योंकि उन पर सत्ता के विरुद्ध लोगों को भड़काने का आरोप बनता है। उन्होंने ऐसा कि इसके तमाम प्रमाण देश में मौजूद हैं। वैसे भी अपने पद की गोपनीयता और संविधान की शपथ खाकर केन्द्र में मंत्री बनने वाले व्यक्तियों से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे खुद ही कानून को तोड़ने वाले होंगे। पर यह केवल बौद्धिक चर्चा का विषय है। बड़ोदा डायनामाइट में आरोपित श्री जार्ज फर्नांडीज हों या दूसरे कांडों में फंसे दूसरे नेता जब जीतकर आते हैं और सत्ता पक्ष में होते हैं तो वे आमतौर पर उनके विरुद्ध आरोप पत्र दबा दिए जाते हैं। जब वे विपक्ष में आते हैं तो सत्ता पक्षा उन्हें नियंत्रण में रखने के लिए उनके खिलाफ आरोपों को उछालता रहता है। ठीक वैसे ही जैसे बोफोर्स कांड को उछलते हुए आज सोलह वर्ष हो गए और नतीजा कुछ भी नहीं निकला। हर चुनाव के पहले कांग्रेस के विरोधी दल इस मामले को उछाल देते हैं ताकि श्रीमती सोनिया गांधी की छवि को धूमिल किया जा सके। पर ईमानदारी से जांच वे भी नहीं करवाना चाहते। इसका साफ प्रमाण है कि इस घोटाले में फंसे बड़े अफसरों के खिलाफ जांच की अनुमति को प्रधानमंत्री कार्यालय बरसों दबाए बैठा रहा। 

ऐसा नहीं है कि सीबीआई को यह सब करने दिया जाए और देशवासी खामोशी से देश की शीर्ष जांच एजेंसी के पतन और दुरुपयोग का तमाशा देखते रहें। अगर हम चाहते हैं कि सीबीआई वास्तव में जांच करे और अपराधियों को सजा दिलवाए तो हमें सीबीआई की स्वायत्ता के लिए जनमत तैयार करना चाहिए ताकि भविष्य में सीबीआई आजादी से और निरंकुश रहकर भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी बड़ी जांच कर सके। आज देश के सामने जो सुरसा की तरह फैलते भ्रष्टाचार की समस्या है उसका निदान यही होगा कि सीबीआई को उसका काम करने दिया जाए। आज तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जांच करने वाली एजेंसी नहीं बल्कि बड़े घोटालों का कब्रगाह है। हर कुछ महीने बाद एक नए घोटाले की कब्र सीबीआई में बन जाती है। अयोध्या मामले की कब्र को बनते देखकर चीखने चिल्लाने से क्या फायदा ?

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