Sunday, March 23, 2008

बिन पानी सब सून


गर्मी अभी शुरू भी नहीं हुई कि देश की राजधानी दिल्ली में पानी का संकट गहरा गया है। यह पहली बार है कि पानी की किल्लत आम आदमी ही नहीं देश के प्रधानमंत्री तक के घर में महसूस की जा रही है। पिछले दिनों खबर छपी कि प्रधानमंत्री की पत्नी श्रीमती गुरशरण कौर जल्दी सुबह उठकर पानी भरवाने की चिंता कर रहीं थीं। दिल्ली की विधान सभा में पानी के संकट को लेकर पक्ष और विपक्ष में जमकर मार पिटाई हुई। दरअसल मई 2000 के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद से हरियाणा दिल्लीको 600 क्यूसेक पानी देता आया है। अब उसने 100 क्यूसेक पानी देना कम कर दिया है। इतने में ही दिल्ली में हाहाकार मच गई है। दिल्ली सरकार सर्वोच्च न्यायालय से लेकर इंका आलाकमान तक केदरबार में अपनी फरियाद लेकर जा रही है। दोनों ही राज्यों में इंका की सरकार है इसलिए फौरी तौर परकुछ हल निकल भी सकता है। पर हरियाणा का यह आरोप सही है कि दिल्लीवासी अपने पश्चिमी रहनसहन के कारण पेय जल का भारी दुरूपयोग करते है। हरियाणा का कहना है कि औसत दिल्ली वासी को प्रतिदिन 10 लीटर पानी चाहिए। जबकि वे इससे कई गुना पानी बर्बाद करते हैं। इसलिए उन्हें अपनी आदत सुधारनी चाहिए।

जो ठोकर खा कर संभल जाए उसे अकलमंद मानना चाहिए। पर जो ठोकर खाकर भी न संभले और बार-बार मुंह के बल गिरता रहे, उसे महामूर्ख या नशेड़ी समझना चाहिए। हिंदुस्तान के दिल्ली जैसे महानगरों में रहने वाले हम लोग दूसरी श्रेणी में आते हैं। हम देख रहे हैं कि हर दिन पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। हम यह भी देख रहे हैं कि जमीन के अंदर पानी का स्तर घटता जा रहा है। हम अपने शहर और कस्बों में तालाबों को सूखते हुए भी देख रहे हैं। अपने अड़ौस-पड़ौस से हरे-भरे पड़ों को भी गायब होता हुआ देख रहे हैं। पर ये सब देख कर भी मौन हैं। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं। ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिसकर जमीन मेंजाने के कारण पानी के स्रोतों में घुल गए हैं। अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से अकाल के पास आते खतरे को देखकर भी हम बेखबर हैं तो अतिश्योक्ति न होगी। पानी का संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टीवी समाचार चैनलों ने अब पानी की किल्लत पर देश के किसी न किसी कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है।

देश के पर्यावरणवादी वर्षों से पानी के खतरे को लेकर चेतावनी देते आए हैं। इस काॅलम में भी हमनेबार-बार पानी के प्रबंध के सस्ते, पारंपरिक और अजमाए हुए तरीकों पर लिखा है। पर सत्ता के मद में मद-मस्त सरकारें कुछ भी सुनने को राजी नहीं हैं। सत्ताधीशों की जिंदगी राजसी ठाट-बाट से गुजरती है। देश भले ही प्यासा मर जाए पर नेताओं के घर के तो कुत्ते और कार तक ठंडे पानी के फव्वारों में नहाते हैं। भला वे क्यों परवाह करने लगे ? पर तकलीफ तो इस बात की है कि हम खुद भी कितने बेपरवाह हैं। हर शहर में एक से एक बढ़कर आधुनिक बंगले और बहुमंजिली इमारतें खड़ी होती जा रही है। अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर इन्हें बेचा जाता है और आरामदायक सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए जाते हैं। बेशक ये भवन बहुत सुंदर और कलात्मक होते हैं पर पानी का संकट इन्हें भी झेलना पड़ता है। शुरू-शुरू में ऐसी नई काॅलोनियों या इमारतों में कम ही लोग रहने जाते हैं इसलिए पानी बहुतायत से मिलता है। इस तरह उनमें बसने गए लोग ये सोचकर आश्वस्त हो जाते हैं कि यहां तो पानी की कोई कमी नहीं है। वे अपने मित्रों और रिश्तेदारों को भी प्रेरित करते हैं कि वे भी नए इलाकों में आकर बस जाएं। पर कुछ ही वर्षों में जब ये इमारतें और पाॅश कालोनियां पूरी तरह भर जाती हैं तो यहां पानी की किल्लत शुरू हो जाती है। तब लोग इन्हें छोड़-छोड़ कर भागते हैं। इतिहास साक्षी है कि पानी की कमी से बड़ी-बड़ी राजधानियांतक उजड़ गई। पर हम इतने मूर्ख है कि अपने घर या फ्लैट के बाॅथरूम में नहाने का टब जरूर लगवाते हैं। चाहे उसे भरने के लिए पानी हो या न हो। बड़े शहरों का कोई भी मध्यमवर्गीय घर ऐसा नहीं होगा जिसने बाॅथ टब न लगवाए हों या उन्हें लगाने का हसरत न रखता हो। इसी तरह कोई सरकारी इमारत न होगी जिसके आरकीटैक्ट ने उसमें फव्वारे या सरोवर का इंतजाम न किया हो। पर पानी की कमी से इन इमारतों के सरोवर सूखे पड़े रहते हैं और उनमें कूड़े का ढेर जमा होता रहता है। फिर भी यह मूर्खतापूर्ण कार्यवाही बार-बार की जाती है।

पानी का संकट बढ़ाने में जिस चीज ने सबसे ज्यादा भूमिका अदा की है वो हैं पानी के सबमर्सिबिल पंप। इन्हें चाहे जहां बोरिंग करके लगा दिया जाता है और फिर बिजली का बटन दबाते ही असीमित जल जमाहो जाता है। जिसका हम लोग बेदर्दी से इस्तेमाल करते हैं। बिना ये सोचे कि जमीन के नीचे का पानीकिस तरह तेजी से खत्म होता जा रहा है और जमीन अंदर ही अंदर पोली होती जाती है। गुजरात में भूकंप के दौरान तमाम बहुमंजिली इमारतें जमीन के अंधर ऐसे समा गई जैसे सीता माता पृथ्वी में समा गई थीं। उन्हीं दिनों दिल्ली-जयपुर हाइवे के पास बनी एक व्यावसायिक इमारत भी अचानक दो मंजिल तक जमीन में धस गई। दिल्ली के ही सबसे पाॅश इलाके महरौली फार्म हाउस इलाके में भूजल स्तर इतना नीचे चला गया है कि बोरिंग के बाद कम से कम 300 फुट नीचे जाकर पानी मिलता है। ये वो इलाका है जहां देश के अनेक मशहूर लोगों और सप्रग की नेता श्रीमती सोनिया गांधी तक के फार्म हाउस हैं। जब वीवीआईपी इलाके का ये हाल है तो सामान्य लोगों का क्या हाल होगा। पानी के संकट पर और अधिक लिखने की जरूरत नहीं है। सवाल है कि इस संकट का हल क्या है ?

वही पुरानी बात फिर काम आएगी। हर शहर और कस्बे में ज्यादा से ज्यादा तालाब खोदे जाएं। पुराने तालाबों की गाद साफ करके उनके नए स्रोत खोदे जाए और उनका जीर्णोद्धार किया जाए। बरसात के पानी को हर घर में रीचार्ज करने की व्यवस्था की जाए। बोर-वैल लगाने पर सख्त पाबंदी की जाए। भारी मात्रा में वृक्षारोपण किया जाए और वनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध लगाए जाए। अपने नजरिए में बदलाव किया जाए और अपनी जीवनशैली ऐसी बनाई जाए जिसमें पानी की बर्बादी कम से कम हो। इस सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि स्वच्छ जल स्रोतों को प्रदूषण से बचाना। सरकार के निकम्मे और भ्रष्ट अफसरों के चलते ज्यादातर उद्योगपति अपने औद्यौगिक कचरे से प्राकृतिक जल स्रोतों को प्रदूषित करने में लगे हैं। उन पर लगाम कसी जाए और जल को प्रदूषण करना, मनुष्य की हत्या करने जैसा संगीन अपराध बनाया जाए, जिसके लिए जेल में कैद किया जाना अनिवार्य सजा हो। दरअसल, पानी की कमी नहीं है। वर्षा अगर ठीक समय पर पूरी मात्रा में हो तो भारत के किसी भी कोने में पानी की कमी नहीं रहेगी। क्योंकि इन्द्र देवता जितना जल भारत के भूभाग पर बरसाते हैं उसका 10 फीसदी भी हम संचय नहीं कर पाते। 90 फीसदी जल नदी-नालों के रास्ते समुद्र में जाकर खारा हो जाता है। जल संकट से निपटने के समाधान सरकार के पास है। पर उनको लागू करने में किसी की रूचि नहीं है। क्यांेकि जितने बडंे बांध, जितनी बड़ी जल परियोजनाएं बनती है, उतना ही सत्ताधीशों का कमीशन भी बढ़ता है इसलिए पिछले 50 वर्ष में जल प्रबंधन पर किए गए खर्च का मामूली हिस्सा भी जल प्रबंध के पारंपरिक तरीकों पर खर्च नहीं किया गया। किया जाता तो आज ये नौबत न आती। पर उस तरीके के विकास माॅडल में कमीशन खाने की गुंजाइश नहीं बचती।

सरकार किसी भी दल की क्यों न हो उसे अपनी कुर्सी बचाने और आपसी झगड़े निपटाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। इसलिए यह जिम्मेदारी तो हम सब की है कि अपने-अपने गांव, शहर और कस्बे में जल प्रबंधन दलों का गठन करें और सक्रिय रह कर इन संगठनों के माध्यम से अपने इलाके के जल स्रोतों को बचाएं। वो सब कदम उठाए जिससे जमीन के भीतर पानी का स्तर क्रमशः बढ़ता जाए। अगर हम अब भी न जगे तो वह दिन दूर नहीं जब हमारे खूबसूरत बाथरूम सूखे नाकारा और खाली पड़े होंगे। पूरे परिवार के लिए एक बाल्टी पानी भी हासिल करना असंभव हो जाएगा।

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