Rajasthan Patrika 16-3-2008 |
जिस अखबार में अपने लेख छपते हों उसकी अगर तारीफ की जाए तो यह चाटुकारिता लगेगा। इसलिए गत बुद्धवार को दिल्ली में जब राजस्थान पत्रिका के के.सी कुलिश पुरस्कार समारोह के बाद पत्रकरिता की दशा और दिशा पर कुछ लिखने कामन हुआ तो संकोच लगा। फिर भी लिख रहा हूं क्योंकि इस समारोह में भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा¡. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, लोक सभा के स्पीकर श्री सोमनाथ चटर्जी व राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने पत्रकारों को बहुत सी नसीहतें दीं। राजस्थान पत्रिका ने जो पहल की वह अनूठी है। देश भर के अखबारों में बढि़या काम करने वाले पत्रकारों को सम्मानित करने की जो उदारता इस समारोह में दिखाई दी वह प्रशंसनीय है। गोवहाटी के दैनिक जन्मभूमि का युवा पत्रकार हो या गुजरात के सौराष्ट्र आस-पास का, पाकिस्तान के डा¡न के संवाददाता हों या केरल के राष्ट्र दीपिका डेली के सभी इस समारोह में सम्मानित हुए। इस समारोह का स्वरूप कुछ ऐसा था मानों पत्रकारिता के फिल्मफेयर एवा¡र्ड की शुरूआत हुई हो। आने वाले वर्षों में कुछ और नवीन प्रयोग करने के बाद यह एवा¡र्ड वास्तव में दक्षिण एशिया के देशों में अपनी पहचान बना सकता है।
आज पत्रकारिता के स्तर को देखकर हर समझदार व्यक्ति को कोफ्त होने लगी है। अखबारों में अब खबर और विचार कम और विज्ञापन और विज्ञप्ति की मात्रा अधिक होने से अखबार अरुचिकर लगने लगे है। चंडीगढ़ के विश्वविद्यालय ने एक शोध के बाद बताया कि एक दैनिक अखबार में औसतन चालीस हजार शब्द रोज छपते हैं। जबकि एक औसत पाठक मात्र 115 शब्द ही रोज पढ़ता है। अखबार चलाना है तो विज्ञापन भी देने होगेa और विज्ञप्ति भी। पर यह भी ध्यान रखना होता है कि अखबार सही सूचना और अच्छे विचार भी अपने पाठकों को दें। ऐसा न हो कि विज्ञापन, विज्ञप्ति के साथ सूचना और विचार भी बाजारू किस्म के ही परोसे जांए। जैसा आज प्रायः हो रहा है। ऐसे अखबारों में साफ दिखता है कि पत्रकारिता नहीं दुकानदारी की जा रही है। इसीलिए अब इन अखबारों को खबरों के सहारे नहीं बल्कि आकर्षक इनामी योजनाएं चलाकर बेचा जा रहा है। गला काट प्रतियोगिता चल रही है। एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर झूठे दावे किए जा रहे हैं। एक दूसरे के इलाके में सेंध लगाई जा रही है। लोग तोड़े जा रहे हैं। पत्रकारिता के मूल्यों के निर्वाहन के अलावा वह सब कुछ हो रहा है जो नहीं होना चाहिए। इसलिए ऐसे माहौल में राजस्थान पत्रिका की यह पहल वास्तव में काफी सुखद और प्रभावी है।
रही बात पत्रकारों के लिए राजनेताओं की सलाह को गंभीरता से लेने की तो इस समारोह में काफी सलाह दी गई। पूर्व राष्ट्रपति ने तो पत्रकारों को शपथ भी दिलवाई कि वे नैतिकता का आचरण करें। जो ऐसा नहीं कर रहे उन्हें संभलना चाहिए। पर जो कर रहे हैं उनके सवालों का जवाब नसीहत देने वालों को देना चाहिए। अपना ही एक अनुभव बताता हूं । श्रीमती सोनिया गांधी ने राजनीति में कदम रखा तो उन पर भाजपा ने करारा हमला कर दिया। उनके मुकाबले श्री अटल बिहारी वाजपेयी को कहीं ज्यादा काबिल नेता बताया गया। अपने एक साप्ताहिक लेख में मैंने दोनों के गुण दोषों का विवेचन किया। उस दिन मुझे नागपुर विश्वविद्यालय के मीडिया सेंटर का उद्घाटन करने नागपुर जाना था। वहां के दो अखबारों में मेरे लेख छपते थे। एक का झुकाव इंका की तरफ था तो दूसरे का भाजपा की तरफ। मजा देखिए कि पहले वाले ने लेख का केवल वही अंश छापा जिसमें मैने वाजपेयी जी का बेबाक मूल्यांकन किया था और दूसरे ने इसी लेख का केवल उतना भाग छापा जिसमें मैंने श्रीमती गांधी का मूल्यांकन किया था। इंत्तफाकन उस समारोह में सभी स्थानीय अखबारों के संपादक मौजूद थे। मैने नाम लिए बिना छात्रों से इसका उल्लेख किया और कहा कि इसका परिणाम यह होगा कि कुछ पाठक मुझे कांग्रेसी समझेंगे और कुछ भाजपाई। जबकि मैंने अपनी निष्पक्षता को कायम रखा है। पर नुकसान तो हो ही गया। बाद में उन दोनों संपादकों ने क्षमा मांगते हुए अपनी मजबूरी बताई। यह तो एक उदाहरण है। ऐसी घटनाएं हर पत्रकार के जीवन में अनेक बार घटती हैं। इनसे हम बहुत कुछ सीखते हैं। कितना अड़ना है? कितना लड़ना है और कितना झुकना है? अगर हम लड़ें भी नहीं और झुके भी नहीं तो एक बीच का रास्ता भी निकल सकता है। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। बशर्तें हम अपने आचरण में खरे और पारदर्शी हों। तब कोई हम पर उंगली नहीं उठा सकेगा। अगर हमारा आचरण तो ठीक हो नहीं और पत्रकारिता के दंभ पर हम बड़े लोगों पर तोपें दागे तो हमारी साख को बट्टा लगेगा ही। यदि लंबे समय तक सार्थक, चर्चित और सम्मानपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं तो हमें इन बातों पर ध्यान देना ही होगा।
अखबार मालिक की भी बड़ी भारी समस्या है। जुनूनी पत्रकारों को अगर खुली छूट दे दे तो वे उनका अखबार ही बंद करवा देंगे। वे बिचारे आज के राजनैतिक और व्यवसायिक यर्थाथ के बीच में झूलते रहते हैं। उनकी भी बहुत सी मजबूरियां हैं। पर वैसी नहीं जैसे आजादी के पहले आज, लीडर, हरिजन जैसे देशभक्त अखबारों की थीं। उन पर तो अंग्रेज सरकार का डंडा चलता था। आज यदि एक अखबार पर डंडा चले तो पत्रकारों के संगठन और जागरूक लोग उसके समर्थन में उठ खड़े होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संगठन भी बावेला मचा देते हैं। इसलिए मालिकों को भी उतना ही झुकना चाहिए जिससे कमर टूटे भी नहीं और अखबार की अस्मिता भी बची रहे। पर जब अखबार मालिक अखबार के हित से इतर अपने अन्य व्यवसायिक हित अखबार के माध्यम से साधना चाहते हैं तो वे सत्ताधीशks के आगे साष्टांग दण्डवत कर देते हैं। सफाई ये देते हैं कि ऐसा किए बिना अखबार चलाना असंभव था। दक्षिण भारत का द हिन्दू अंगेजी का एक ऐसा अखबार है जो किसी के आगे नहीं झुका। उसके संपादक एन.राम को राजस्थान पत्रिका ने अपनी जूरी का सदस्य बनाकर यह संदेश देने की कोशिश की कि के. सी. कुलिश एवा¡र्ड के चयन में सही पत्रकारिता को ही तरजीह दी जाएगी। जिस समय नंदीग्राम में सी.पी.एम. की fहaसा पर रिर्पोटिंग के लिए द स्टेसमैन के संवाददाता सुकुमार मित्र को पुरूस्कार दिया जा रहा था उस समय वहां मौजूद सभी दलों के नेताओं की निगाह लोक सभा अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी पर टिकी थीं। सबके चेहरों पर एक शरारती मुस्कान थी। पर श्री चटर्जी ने बुरा न मानकर उसी मंच से पत्रकारों को निडर और निष्पक्ष होने की सलाह दी। यही लोकतंत्र की स्वस्थ पंरपरा है। दुर्भाग्य से आज ज्यादातर बडे़ नेता ऐसे हैं जो अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करते। चाटुकारिता करने वालों को पद्मभूषण और राज्य सभा की सदस्यता तो रोज मिलती है। क्या किसी राजनैतिक दल ने सत्ता में आने के बाद अपने आलोचक पत्रकार को पद्मभूषण देने की पेशकश की है। नहीं की। इसीलिए उनके उपदेशों असर नहीं होता।
पत्रकार हों या अखबार मालिक, राजनेता हों या पाठक सबको लगातार मूल्यांकन करते रहना चाहिए कि आखिर हम लोकतंत्र के चैथे खंबे से चाहते क्या हैं। एक सजग प्रहरी की भूमिका या एक जन संपर्क अधिकारी की भूमिका। कहावत है कि लोगों को वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वे योग्य होते हैं। पाठकों को भी वैसा ही अखबार मिलता है जैसा वे चाहते हैं।
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