अंग्रेजों को भारत छोड़े 55 साल हो गए। पर पुराने लोग आज भी उनकी प्रशासनिक क्षमता को बड़े इसरार से याद करते हैं। यह कहते नहीं अघाते कि हुकुमत करना तो अंग्रेजों को आता था। ठीक यही बात आज देश में इंका के बारे में कही जा रही है। अनेक दलों की खिचड़ी सरकारों को देख लेने के बाद अब लोग यह कहने लगे हैं कि सरकार चलाना तो इंका को ही आता है। सामान्यजन हों या समाज के विशिष्ट वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले, सब इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि प्रशासनिक क्षमता में भाजपा इंका से बहुत पीछे है। हर व्यक्ति अपने-अपने अनुभव से अलग-अलग उदाहरण पेश करता है। पर कभी-कभी आलोचना का आधार जनहित न होकर, व्यक्तिगत कामों का न हो पाना होता है। ऐसी आलोचना मायने नहीं रखतीं। क्योंकि जिसका काम नहीं होगा वो तो आलोचना करेगा ही, फिर चाहे सरकार भाजपा की हो, इंका की हो या किसी और दल की ही हो। पर जिस अनुभव की बात यहां की जाने वाली है वह व्यक्तिगत फायदे के काम को लेकर नहीं बल्कि जनहित के काम को लेकर हुआ। पाठकों को याद होगा कि पिछले दिनों इसी काॅलम में हमने ब्रज प्रदेश के बरसाना गांव के पास गहवर वन की उन पहाडि़यों का जिक्र किया था जिनपर राजस्थान सीमा के भीतर खनन कार्य किया जा रहा था। चूंकि इन पहाडि़यों का वर्णन अष्टसखी पहाड़ी के रूप में भागवत् पुराण में आया है इसलिए कृष्ण भक्तों को इससे भारी पीड़ा हो रही थी। वे स्थानीय संत श्री रमेश बाबा के नेतृत्व में वर्षों से इसका विरोध कर रहे थे। पर भाजपा की भैरोसिंह शेखावत सरकार ने लोगों की धार्मिक भावनाओं की परवाह नहीं की। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता का दावा करने वाली इंका के राजस्थान में मौजूदा मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत ने इस लेख को पढ़ते ही जिस तेजी से कार्रवाही की उससे न केवल संत समाज और कृष्ण भक्तों में हर्ष की लहर दौड़ गई बल्कि यह भी सिद्ध हुआ कि प्रशासन पर जैसी पकड़ इंका मुख्यमंत्रियों की है, वैसी पकड़ भाजपा के मुख्यमंत्री आज तक नहीं बना पाए। श्री गहलोत ने लेख पढ़कर तुरंत राजस्थान के खान सचिव श्री राकेश वर्मा को मौके पर मुआयना करने भेजा। उनकी रिपोर्ट मिलते ही न सिर्फ स्वर्णगिरि की इन पहाडि़यों पर खनन पर स्थाई प्रतिबंध लगा दिया बल्कि सारा क्षेत्र वन विभाग को सौंप कर वहां सघन वृक्षारोपण के आदेश भी जारी कर दिए। इतना ही नहीं भविष्य में खनन न हो इसे सुनिश्चित करने के लिए भरतपुर जिले की पुलिस व वन विभाग की पुलिस की साझी पुलिस पोस्ट की भी वहां स्थापना कर दी। इसके साथ ही जिला प्रशासन और स्थानीय नागरिकों की संयुक्त निगरानी समिति का भी गठन कर दिया। उनके इस सुकृत्य की सूचना राष्ट्रीय अखबारों में खबर पढ़कर मिली। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री श्री गहलोत ने यह सब काम लेख छपने के चार-पांच दिन के भीतर कर दिया।
इस संदर्भ में यह याद दिलाना अनुचित न होगा कि 4 वर्ष पहले इसी काॅलम में एक लेख लिखा गया था जिसका शीर्षक था, ‘‘ब्रज की किसे परवाह है।’ इस लेख में प्रदेश और केंद्र में नवगठित भाजपा सरकार का आह्वाहन किया गया था। उन्हें स्मरण दिलाया गया था कि रामजन्म भूमि या श्रीकृष्ण जन्मभूमि जैसा विवादास्पद मुद्दा तो सुलझने में समय लेगा पर हिंदू धर्म की सेवा के लिए समर्पित भाजपा का यह नैतिक दायित्व है कि वह तीर्थ क्षेत्रों के विकास पर ध्यान दे। इसी में ब्रज प्रदेश के संरक्षण और संवर्द्धन पर विशेष ध्यान देने को कहा गया था। इस लेख में चेतावनी दी गई थी कि बनारस के विश्वविख्यात घाटों जैसे ही भव्य भवनों वाले घाट वृंदावन में यमुना तट पर बने हैं जिन पर लगातार अवैध कब्जा होता जा रहा है। इस तरह मध्ययुगीन स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने सदा के लिए अदृश्य होते जा रहे हैं। जिनके संरक्षण के लिए तुरंत कुछ किया जाना चाहिए। इस लेख का प्रभाव था या श्री वैष्णव देवी तीर्थ स्थल का, इंका के शासन काल में विकास करने वाले केंद्रिय आवास मंत्री श्री जगमोहन की अपनी प्रेरणा थी, कि वे वृंदावन आए और घाटों का निरीक्षण किया। पर उनके कुशल प्रशासन से नाराज भाजपाई नेताओं ने उनसे मंत्रालय ही छीन लिया। उधर उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने कतई परवाह नहीं की। नतीजा यह हुआ कि पिछले दो-तीन वर्षों में रहे-बचे घाटों पर भी कब्जा हो गया। इतना ही नहीं लोगों की धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात करते हुए, भाजपा की प्रादेशिक सरकार ने वृंदावन के चारों ओर बने परिक्रमा मार्ग को पक्का करवा दिया। जिसने न सिर्फ इन घाटों को ध्वस्त कर दिया बल्कि परिक्रमा मार्ग के चारों ओर यमुना तट में अवैध कालोनियों का निर्माण रातो-रात जोड़ पकड़ गया। परिक्रमा मार्ग पर श्रद्धालु भक्तगण, महिलाएं, बच्चे और बूढ़े सारे वर्ष नंगे पैर परिक्रमा करते हैं। पक्की सड़क के पत्थरों से उनके पांव छिल जाते हैं। गर्मी में गर्म तारकोल पैरों में चिपक जाता है, जलादेता है। इसलिए परिक्रमा मार्ग पर कच्ची सड़क और छायादार वृक्षों की आवश्यकता होती है, जिसका उल्लेख उस लेख में किया गया था। पर उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने धार्मिक भावनाओं के अनुरूप विकास करना तो दूर परिक्रमा मार्ग का विनाश करके रख दिया। इसी तरह इस लेख में ब्रज की समस्याओं को लेकर कुछ ऐसे दूसरे सरल सुझाव दिए गए थे जिन्हें आसानी से लागू करके ब्रजवासियों और तीर्थयात्रियों का कल्याण किया जा सकता था। बड़े दुख की बात है कि इतने वर्षों में एक भी सुझाव पर अमल नहीं किया गया। ऐसे में मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हिंदू धर्म की वकालत करने वाले भाजपाई नेता क्या वास्तव में सनातन धर्म की विशिष्टताओं और भक्तों की भावनाओं से परिचित हैं या केवल इसका राजनैतिक दोहन करना चाहते हैं ? प्रदेश शासन या उसमें शामिल मथुरा मंडल के मंत्री और स्थानीय विधायक अगर जरा सी भी संवेदनशीलता दिखाते तो वृंदावन या शेष ब्रज क्षेत्र में व्याप्त अव्यवस्था और विनाश पर कुछ नियंत्रण अवश्य लगता। पर ऐसा नहीं हुआ। दूसरी तरफ इंका की कार्यशैली है कि तिरूपति बाला जी का विकास हो या वैष्णो देवी का, सोमनाथ में मंदिर का निर्माण हो या अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास- इंका बिना ढि़ंढ़ोरा पीटे लोगों की भावनाओं के अनुरूप धर्मक्षेत्रों का संरक्षण और संवर्द्धन करती आई है। फिर चाहे वह हिंदुओं के धर्म क्षेत्र हों या मुसलमानों के या अन्य धर्मोंं के। इसलिए जब भी भाजपा हिंदू धर्म की बात उठाएगी हिंदू उससे यह जरूर पूछेंगे कि राज्य और केंद्र की सत्ता में रह कर जो कुछ धर्म क्षेत्रों के विकास के लिए किया जा सकता था वह उसने अपने शासनकाल में क्यों नहीं किया ? लोग प्रश्न कर सकते हैं कि एक और राम मंदिर बनाने से क्या होगा जब सदियों से बने खूबसूरत मंदिर समुचित देखभाल के अभाव में खण्डहर होते जा रहे हैं या तस्करों की लालची निगाहों का शिकार बन कर टुकड़ो-टुकड़ों में विदेशों में भेजे जा रहे हैं ?
यह सही है कि स्वयं को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले लोग और दल भाजपा के हिंदू एजेंडे पर लगातार हमला करते रहते हैं। उसका मजाक उड़ाते हैं। जिस कारण भाजपा के नेतृत्व को कई बार यह कह कर जान बचानी पड़ती है कि राम मंदिर हमरा एजेंडा नहीं है या हम धर्मनिरपेक्ष दल हैं। जबकि जरूरत इस बात की है कि भाजपा का ऐजेंडा अगर हिंदू धर्म का संवर्द्धन करना है तो वह बिना संकोच के उस पर काम करे, लेकिन फिर ठोस काम हो, केवल बयानबाजी नहीं। लोगों को लगे कि भाजपा ने वाकई बहुजनहिताय धर्म की सेवा की है। आज ऐसा कोई नहीं मानता। बार बार लोगों को यही अनुभव होता है कि भाजपा धार्मिक मामलों में भी प्रशासनिक मामलों की तरह ही असफल रही है। अब तो उसकी धार्मिक नारेबाजी को भी जनता संशय की नजर से देखती है। जबकि इंका ऐसा कोई दावा नहीं करती पर अपनी प्रशासनिक क्षमता और तुरंत निर्णय लेने की काबलियत के बल पर लोगों का विश्वास जीत लेती है। श्री अशोक गहलोत ने गहवर वन के मामले में जिस फुर्ती से कार्रवाही की, उससे इस मान्यता की पुष्टि होती है। जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि पिछले दिनों इस लेखक की एक अंतरंग बैठक भाजपा के वरिष्ठतम नेता व गृहमंत्री से उनके कार्यालय में हुई। कई मुद्दों पर खुलकर चर्चा हुई। मैंने आडवाणी जी को यह बताने की कोशिश की कि इंका के नेता उनके दल के नेताओं से किन मामलों में श्रेष्ठ हैं। मसलन, यदि आप इंका के किसी नेता की आलोचना करें, उसे बुरा-भला कहें, उसके विरूद्ध कोई अभियान भी छेड़ें तो भी उनका व्यवहार नहीं बदलता। न सिर्फ वे पहले जैसी गर्मजोशी से मिलते हैं बल्कि आपके सुझावों और आलोचनाओं को गंभीरता से स्वीकार्य कर लेते हैं। जबकि भाजपा के नेता अपनी आलोचना सुनना पसंद नहीं करते हैं। वे सिर्फ प्रशस्तिगान सुनने के ही आदी हैं। वे चाहते हैं कि पत्रकार निष्पक्ष रह कर उनके कार्यों का मूल्यांकन न करें। जो पत्रकार ऐसा करते हैं उन्हें भाजपा के नेता पसंद नहीं करते। ऐसा नहीं है कि इंका के नेता रागद्वेष से मुक्त हैं और शत्रु व मित्र के बीच भेद नहीं करते। पर शायद वर्षों के प्रशासनिक अनुभव ने उन्हें सिखा दिया है कि अपने सबसे बड़े आलोचक को उसकी अपेक्षा से अधिक सम्मान देकर जीत लो। चिकमंगलूर के चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी की खुली आलोचना कर उनके विरूद्ध लड़ने वाले वीरेन्द्र पाटिल को श्रीमती गांधी ने घर से बुलाकर अपनी कैबिनेट का मंत्री बनाया। शायद इंकाई यह बात जानते हैं कि ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटि छवाय।’ ऐसा नहीं है कि भाजपा में कोई गुण ही नहीं है या उनके हिंदूवादी एजेंडे की इस देश के लिए कोई सार्थकता नहीं है। भाजपा भी अन्य दलों की ही भांति गुण और दोेष दोनों से युक्त है। पर उसे अभी हुकुमत करने के गुर और अपने आलोचकों से व्यवहार करने का तरीका सीखना हैं। आज आडवाणी जी सुशासन देने की बात कर रहे हैं। यही बात वाजपेयी जी ने अपने चुनाव प्रचार में कही थी। पर भाजपा को 1998 व 1999 में जो जन समर्थन देश में मिल रहा था उसमें इजाफा नहीं बल्कि भारी कटौती हुई है इसलिए भाजपा में आत्मचिंतन और प्राथमिकताओं के पुनःनिर्धारण की अवश्यकता है।
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