तमिलनाडु में एक कहावत प्रचलित है कि कद्दू को चावल में नहीं छिपा सकते। भाजपा ने पिछले चार सालों में लगातार यह संदेश देने का असफल प्रयास किया कि राजग सरकार का एजेंडा हिन्दूवादी नहीं है। इसीलिये वाजपेई जी को मुखौटा बनाकर पेश किया गया। यह बात दूसरी है कि वे मात्र मुखौटा नहीं रहे और सरकार बाकायदा उनके व्यक्तित्व और उनकी टीम के इर्द गिर्द घूमती रही। पर आम भाजपाई मानते हैं कि इससे भाजपा को लाभ कम नुकसान ज्यादा हुआ। अपने मूल एजेंडे को भूलाकर, एक ओढ़़ा हुआ साझा एजेंडा भाजपा के कार्यर्काओं को रास नहीं आया। ऐसा करने का उन्हें कोई तार्किक कारण भी समझ में नहीं आया। उनके मन में यह प्रश्न लगातार उठता रहा कि आदर्शां के लिये जीने वाले दल का लक्ष्य क्या मात्र सत्ता प्राप्ति ही होना चाहिये ? या जिन आदर्शों के लिये वे संघ या दल में आये उन्हें प्राप्त करने का प्रयास होना चाहये ? अनुशासन के भय और राजनैतिक मजबूरी के चलते उन्हें चुप रह जाना पड़ा उन्हें ही क्यों भाजपा की रीढ़ और उसकी उन्नति के लिये मुख्य रूप से जिम्मेदार श्री लालकष्ष्ण आडवाणी को भी ऐसे माहौल में मजबूरन चुप रहना पड़़ा । हालांकि उनके निकटस्थ लोग बराबर ये संकेत देते रहे कि सरकार के कामकाज के तरीके से वे खुश नहीं हैं। कभी कभी तो इन लोगों का विरोध सार्वजनिक रूप से मुखर भी हुआ। इससे ज्यादा वे कुछ नहीं कर सके। पर पिछले कई चुनावों में लगातार भाजपा की हार ने, भाजपा के नेतष्त्व को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया। उसे यह मानना पड़़ा कि अपना मूल एजेंडा छोड़ देने के कारण ही भाजपा की यह दुर्गति हो रही है। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में हुआ ताजा बदलाव इस अनुभूति का परिणाम है। इससे वाजपेई मंत्रिमंडल में नई ऊर्जा आये या न आए पर यह साफ है कि अब कमान आडवाणी जी के हाथ में है।
कहने को तो वे उप प्रधानमंत्री ही बनाए गये हैं पर दल से लेकर मंत्रिमंडल तक हर ओर उनका वर्चस्व साफ दिखाई दे रहा है। वर्षों के इंतजार के बाद उनके निकटस्थ लोगों को सामरिक दष्ष्टि से महत्वपूर्ण जगहों पर बिठाया गया है। अरुण जेटली जैसे कुशल वक्ता को दल का प्रवक्ता बनाया जाना या शत्रुघ्न सिन्हा जैसे सक्षम और योग्य व्यक्ति को इतने लंबे इंतजार के बाद मंत्री बनाना इसका एक प्रमाण है। अब भाजपा वो नहीं रहेगी जो पिछले चार वर्ष में थी। नरेन्द्र मोदी से लेकर विनय कटियार तक के सामने आने से भाजपा का एजेंडा चावलों के ढेर में से कद्दू की तरह उभर कर सामने आ गया है। अब खुला खेल होगा।राजग के रहते यह हो पाया है इस पर लोगों को आश्चर्य है। इसका श्रेय राजग के संयोजक श्री जार्ज फर्नांडीज को जाता है। जिन्होंने बड़ी कुशलता से कई सारे सांडों को एक रस्सी से नाथने का काम किया और आडवाणी जी के राज्याभिषेक का मार्ग प्रशस्त किया। उधर इस बदलाव से धर्मनिरपेक्षतावादी और मुखर हो जायेंगे। अब उन्हें खुलकर भाजपा पर हमला करने का मौका मिलेगा। जिसका उन्हें पूरा हक है। ठीक वैसे ही जैसे भाजपा को भी अपने एजेंडा पर आधारित नीतियां बनाने और सरकार चलाने का पूरा हक है। यूं पूर्णतः दोष रहित कोई नहीं होता। भाजपा के शासन और नीतियों मे ंदोष ढूंढना मुश्किल नही। पर ऐसा कौन सा राजनैतिक दल है जो अपने दामन की शुद्धता का दावा कर सके? ऐसा कौन सा राजनैति दल है जो अपनी विचारधारा के प्रति ईमानदारी से और पूरी तरह समर्पित होने का दावा कर सके ? अगर पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट यह दावा करें तो तुरंत माक्र्सवादी लेनिनवादी सामने आ जायेंगें वे पूछेंगे कि अगर सब माक्र्स के चिंतन के प्रति ही समर्पित तो पश्चिमी बंगाल की सरकार नक्सलवादियों पर गोली क्यों चलाती रही ? वैसे रूस के साम्यवादियों के बारे में एक कहावत प्रचलित है। वहां के राष्ट्रपति ब्रेझनेव एक बार अपनी मां को सैरगाह, काला सागर के पास ले गए। दिन भर मां को जारशाही के अंदाज में मौज करवाई।रात में शानदार भोज दिया। अपने वैभव से अभिभत बे्रझनेव ने मां से चुपके से पूछा, ‘‘ मां मेरा वैभव तुझे कैसा लग रहा है ? ’’ मां ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया, ‘‘बहुत अच्छा’ बहुत बहुत अच्छा। पर मेरे मनमें एक डर बैठा जा रहा है’’ ब्रेझनेव ने पूछा,‘‘डर कैसा मां?’’ मां ने उत्तर दिया, ‘‘ अगर कम्युनिस्ट आ गये तो?’’
आजकल अलग थलग पड़े कम्युनिस्ट नेता श्री हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे लोगों को सोचना चाहिये कि उनकी यह दुर्गति क्यों होरही है ? जिनके घर शीशे के होते हैं वे दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते। पर आज राजनीति इसी का नाम है। विरोध के लिये विरोध करो।दूसरे के फटे में पैर दो। दूसरे की गलती का राजनीतिक लाभ उठाओ। आज विपक्षी दल यही कर रहे हैं। कल भाजपा भी ऐसा करती थ। पर इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा के एजेंडा को नाकारा बताकर उसका हमेशा उपहास किया जाए। दुनिया के हर देश में लोगों को अपनी धार्मिक आस्थाओं को खुलकर व्यक्त करने की छूट है। ईसाई और मुसलमान मुल्कों में तो यह पूरी तरह डंके की चोट पर किया जाता है। विडंबना देखिये कि भारत में हिन्दुओं को अपनी धार्मिक भावनाओं के अभिव्यक्त करने की वैसी छूट नहीं है। धर्मनिरपेक्षता केनाम पर उनका मजाक बनाया जाता है। उन्हें दबाया जाता है। यह जरूरी नहीं कि हिन्दु धर्म का ठेका सिर्फ भाजपा के पास हो। यह भी जरूरी नहीं कि संघ की परिभाषा में जो आता है वही हिन्दू है। पर यह भी जरूरी नहीं कि भाजपा या आडवाणी जी जैसे उसके वरिष्ठ नेता को आत्मघोषित धर्मनिरपेक्षतावादियों की अपेक्षाओं के अनुरूप आचरण करना चाहिये। वे ऐसा क्यों करें ? जब कोई भी दल दूसरों की अपेक्षा के अनुरूप आचरण नहीं करता तो भाजपा के अपने एजेंडा के मुताबिक चलने से कैसे रोका जासकता है ? खासकर तब जब लोकतंत्र में जनता का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत उनके एजेंडे पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगाता रहा हो। आज आडवाणी जी राजनीैतिक दायरों में सबसे अलोकप्रिय व्यक्ति माने जाते हैं।उनके दल में भी बहुत से लोग हैं जो उनसे दूरी रखते हैं। इसका एक ही कारण है कि आडवाणी जी की चुप्पी और उनका काम का तरीका उन्हें नहीं भाता। हालांकि राजग सरकार के शुरू के दौर में उन्होंने कुछ धर्मनिरपेक्ष बयान देकर मामला संभालने की कोशश की थी। पर इससे बात नहीं बनी। सबको पता था कि यह बयानबाजी उनकी राजनैतिक मजबूरी थी। सब जानते हैं कि वे किस विचारधारा का समर्थन करते हैं। अब जबकि उन्हें साफ मैदान मिला है तो वे जाहिरन अपने एजेंडा के अनुरूप ही काम करेंगे? चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा।
इसलिये माना जा रहा है कि नये परिदष्श्य में आडवाणी जी को अपने पुराने तेवर दिखाने का मौका मिलेगा। वैसे भी भाजपा के आगे खाई खुदी है। ना तो वह हिन्दुओं को ही खुश कर पाई है और ना ही उसकी सरकार कुशल प्रशासन दे पाई है। अब बचने की एक ही उम्मीद है, अपने हिन्दूवादी एजेंडा को जोरदार तरीके से लागू करना। अगर भाजपा के समर्थकों और मतदाओं को लगा कि आडवाणी जी यह काम ईमानदारी से कर रहे हैं तब तो वे भाजपा के साथ जुड़े रहेंगे वरना साथ छोड़ भागेंगे। वाजपेयी जी भी इस हकीकत को समझ गये हैं इसीलिये दो कदम पीछे हट गये और दल और सरकार की बागडोर एक तरह से वाजपेई आडवाणी जी के हाथ सौंप दी है ताकि रामरथ यात्रा के दिनों की तरह अब फिर आडवाणी जी जुझारू तेवर अपना सकें।
कार्यकर्ताओं में नया उत्साह फूंक सकें। मतदाताओं को विश्वास दिला सकें कि वे वाकई हिन्दूवादी एजेंडे के प्रति गंभीर हैं। इस एजेंडे का इस्तेमाल केवल सत्ता प्राप्ति के लिय ही नहीं करते वैसे भाजपा के प्रशासन का अनुभव कर चुके मतदाता आसानी से भाजपा पर विश्वास नहीं करेंगे। पर वे यह भी जानते हैं कि सरकार जो भी हो व्यवस्था ऐसी है कि कोई भी दल बुनियादी बदलाव नहीं कर पाता। पर अपनी अपनी विचारधारा के अनुरूप हर दल का एक अपना वोट बैंक होता है। भाजपा का भी है, जो इन परिवर्तनों से अवश्य उत्साहित होगा। ऐसे में आडवाणी जी को अपने कार्यक्रम और उसको जन जन तक पहंुचाने के लिये बहुत सक्षम लोगों की जरूरत होगी। जो उन्हें जनता का खोया हुआ विश्वास फिर जीतने में मदद करसके। चूंकि अपने यहां लोकतंत्र है और वोट देने वालों में अधिक तादाद गरीब और निरक्षर लोगों की है इसलिये उन तक पहंुचे बिना आडवाणी जी इस अभियान में सफल नहीं हो पायेंगें। आम लोगों को धर्म से ज्यादा रोजी रोटी और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की चिंता है। भाजपा का हिन्दूवादी एजेंडा अगर ऐसी गंभीर समस्याओं की उपेक्षा करके चलेगा और केवल भावनाओं पर ही निर्भर रहेगा तो शायद उसे पहले की तरह खण्डित जनादेश ही मिले। किन्तु आम लोगों को साथ में लेकर, जो भी कार्यक्रम बनेगा, उसकी सफलता की संभावना ज्यादा होगी। भारत की संस्कष्ति में इसकी परंपरा है। धर्म और सामाजिक सरोकार में कोई विरोधाभास नहीं है।बशर्ते हम सच्चे धर्मका आचरण करें।अपनी इस सनातन परंपरा को सबने अनदेखा किया है। इंका ने भी और भाजपा ने भी। यही वह समय है आडवाणी जी को इस छिपी धरोहर को सामने लाना होगा। अगर राष्ट्र और समाज दोनों का हित उनकी रणनीति का वास्तविक आधा रहो तो सफलता सुनिश्चित है, अन्यथा नहीं। इसलिये यह आडवाणी जी के लिये भारी परीक्षा की घड़ी है। अगर वे इसमें सफल हुए तो अगले लोकसभा चुनाव में इसे वोटों में बदल सके तो वे भारत पर राज करेंगे। अगर वे ऐसा नहीं कर सके तो वे और उनका दल दोनों ही हाशिए पर सिमट कर रह जायेंगे। आने वाले दिनों में उनके नेतष्त्व में भाजपा ओर सरकार के बदले तेवरों की झलक दिखाई देगी। उसी से भाजपा के भविष्य का अनुमान लग जाएगा। इसलिये भारत की राजनीति में रुचि रखने वाले के लिये आने वाले दिन काफी रोचक होंगंे। इसका देश की राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था पर कैसा प्रभाव पड़ेगा यह तो समय ही बताएगा। पर लगता है कि अब आडवाणी जी चुप नहीं रहेंगे, कुछ नया जरूर करेंगे।
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