अयोध्या मुद्दे पर विपक्षी दलों का संसद में इतना तूफान मचाना क्यों जरूरी था? क्या इसलिए कि विपक्षी दलों के सदस्य ने इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी माना ? या फिर इसलिए कि उनकी धर्मनिरपेक्षता में आस्था है ? या इसलिए कि उन्हें मुस्लिम समुदाय के वोटों की राजनीति करनी है ? या फिर इसलिए कि उनके पास सरकार का विरोध करने के लिए कुछ ठोस मुद्दे उपलब्ध नहीं हैं ? या फिर इसलिए कि इस तरह का शोर मचाकर जनता से जुड़े असली सवालों पर से ध्यान हटाया जा सके। उधर प्रधानमंत्रh अटल बिहारी वाजपेयी का बयान उनकी पारंपरिक छवि के विपरीत अवश्य लगा पर इस बयान से अयोध्या मसले पर सरकार का रूख साफ ही हुआ है। खासकर तब जब राजग के सदस्यों ने भी उस पर कोई उल्लेखनीय विरोध प्रकट नहीं किया।
जहां तक विपक्षी दलों के सांसदों की नैतिक जिम्मेदारी का सवाल है तो यह सही ही है कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि हर उस मुद्दे पर संसद में विरोध प्रकट करें जिससे उन्हें लगता है कि समाज के लिए या राष्ट्र के लिए खतरा पैदा हो रहा है। पर साथ ही यह बहुत जरूरी है कि शोर मचाने वाले दल या सांसद अधूरी नैतिकता का प्रदर्शन न करें। ऐसा न हो कि निजी हित और दलीय हित उनके फर्ज के सामने आड़े आए। ऐसे तमाम उदाहरण है जहां सांसदों की भूमिका लोगों को विस्मय में डालती है। कई महत्वपूर्ण सवालों पर सांसदों का चुप रह जाना जनता की समझ में नहीं आता।
सब जानते हैं कि करोडों मुकदमों में देश के करोडों निरीह लोग फंसे हुए हैं और अपने उत्पादक कामधंधों को छोड़कर वर्षों से कचहरियों में धक्के खा रहे हैं। न्याय व्यवस्था भी भ्रष्टाचार के आरोप से मुक्त नहीं है। जिससे देशवासियों को भारी नाराजगी है। भारत के मुख्य न्यायधीश डा. ए.एस. आनंद ने इसी वर्ष के शुरू में कहा था कि न्यायधीशों के लिए एक आचार संहिता होना चाहिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि देश की विभिन्न अदालतों में कुछ न्यायधीश ऐसे हैं जो अपेक्षित आचरण नहीं कर रहें या उनका आचरण पारदर्शी नहीं है। तभी तो भारत के मुख्य न्यायधीश को ये कहना पड़ा। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि हमने सoksZच्च न्यायलय के तीन न्यायधीशों के गैर पारदर्शी आचरण पर कुछ तथ्य देश के सामने रखे थे। इनमें से एक तो अभी भी सर्वोच्च न्यायालय में कार्यरत हैं। जो सवाल हमने उठाए थे उनसे संबंधित प्रमाण भी देश के सामने रखे थे। पिछले नौ महीनों से मैं खुद जाकर दर्जनों सांसदों से मिला और उन्हें इन न्यायधीशों के गैर पारदर्शी आचरण के प्रमाण दिए। इस उम्मीद में कि माननीय सांसदगण देश की जनता की तकलीफो को देखते हुए इन न्यायधीशों के विरूद्ध संसद में अपनी आवाज बुलंद करेंगे। इस तरह अपने नैतिक व लोकतांत्रिक फर्ज का निर्वाह करेंगे। पर बड़े आश्चर्य और दुख की बात है कि न्यायधीशों पर इतने गंभीर आरोपों के बावजूद माननीय सांसदाs ने चुप्पी साध रखी है। क्या उन्हें देश के सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा की चिंता नहीं है ? यह जानते हुए भी कि न्यायधीशों के आचरण की समीक्षा करने या अविश्वास प्रस्ताव लाकर उन्हें हटाने का काम केवल संसद कर सकती है, फिर भी माननीय सांसदों ने इन गंभीर सवालों को जानबूूझ कर अनदेखा कर दिया। क्या इन माननीय सांसदों को इस गंभीर मुद्दे पर अपना नैतिक फर्ज याद नहीं रहा?
राजनीति के अपराधीकरण को रोकने और बड़े पदों पर बैठे भ्रष्ट लोगों को सजा दिलवाने संबंधी कानून आज तक नहीं बन पाए। जबकि इन मुद्दों पर तमाम सिफारिशें धूल खा रही हैं। देश की करोड़ों जनता राजनीति में आई इस गंदगी से बुरी तरह त्रास्त है। वह इन बुराइयों से निजात पाना चाहती है। पर क्या वजह है कि अयोध्या के मुद्दे से भी ज्यादा महत्वपूर्ण इन मुद्दों पर सांसदों ने कभी ऐसा शोर नहीं मचाया जैसा अयोध्या के सवाल पर मचाते हैं ? क्या इसलिए कि यदि राजनीति की गंदगी साफ करने वाले सवालों पर शोर मचेगा तो बहुत सारी किश्तियां डूब जाएंगी ?
सारा देश जानता कि जैन हवाला कांड कश्मीर के आतंकवादियों से जुड़ा है और यह भी कि इस खतरनाक कांड की सीबीआई ने आज तक ठीक से जांच भी शुरू नहीं की। देश की राजनीति में अभूतपूर्व तूफान मचा देने वाले इस कांड की ईमानदार जांच की मांग को लेकर माननीय सांसदों ने पिछले सात वर्षों में एक बार भी वैसा तूफान नहीं मचाया जैसा अयोध्या कांड पर मचाया। शोर मचाना तो दूर 10 सांसदों ने एक जुट होकर कभी सरकार से इस कांड की जांच में कोताही करने वालों को सजा देने तक की मांग नहीं की, क्यों ? क्या वह उनका नैतिक फर्ज नहीं था ? क्या कश्मीर के आतंकवादियों को अवैध धन पहंुचाना उनकी नजर में जुर्म नहीं है ? क्या वजह है कि माननीय सांसदों को देश और देशवासियों की सुरक्षा की जरा भी चिंता नहीं है ? होती तो वे हवाला कांड पर इस तरह चुप्पी साध कर न बैठे रहते।
अयोध्या मुद्दे पर शोर मचाने वाले माननीय सांसदों को अगर धर्मनिरपेक्षता की ही रक्षा करनी है तो ऐसा क्यों है कि उनकी ‘धर्मनिरपेक्षता‘ से मुस्लिम सांप्रदायिकता की दुर्गंध आती है ? धर्म के आधार पर चुनावों में टिकटों का बंटवारा करने में कोई पीछे नहीं रहता, शोर मचाने वाले दल भी। क्या इससे धर्मनिरपेक्षता पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता ? क्या वजह है कि कभी भी इन सांसदों ने इस बात पर शोर नहीं मचाया कि चुनावों में धर्म और जाति के आधार पर टिकटों का बंटवारा करने पर रोक लगाई जाए। शायद ही कोई सांसद ऐसा होगा जो अपने चुनाव में सांप्रदायिकता का सहारा लेकर वोट न मांगता हो। फिर ये हाथी के दांत खाने के और व दिखाने के और क्यों?
अगर शोरमचाने वाले माननीय सांसदों को अल्पसंख्यक वोटों की ही राजनीति करनी है तो फिर धर्मनिरपेक्षता का आडंबर क्यों? क्यों नहीं स्वयं को साफ-साफ तौर पर मुस्लिम सांप्रदायिकता के संरक्षक राजनैतकि दल के रूप में मान्यता ले लेते हैं ? कम से कम फिर मुस्लिम समुदाय को तो यह पता चल ही जाएगा कि उनके हितैषी मुस्लिम लीग ही नहीं तमाम दूसरे दल भी हैं। जाहिर है कि शोर मचाने वाले सांसदों के दल इस बात से सहमत नहीं होंगे। क्योंकि सब जानते हैं कि केवल मुस्लिम वोटों की मदद से ही चुनाव नहीं जीते जा सकते। हर चुनाव में जीतने के लिए दूसरे संप्रदायों के वोटों की भी भारी कीमत होती है। फिर क्या वजह है कि पिछले पचास वर्षेंा में धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वाले राजनैतकि दलों ने एक बार भी बहुसंख्यक हिंदू समाज की भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं की। समझना तो दूर इन मुद्दों पर बात करने वालों को ही सांप्रदायिकत करार दे दिया। उनकी इस नासमझी का सीधा लाभ भाजपा को मिला जो यह बताने में कामयाब हो गई कि केवल वही एक दल है जो हिंदुओं के धार्मिक हितों की चिंता करता है। विपक्षी दल आज फिर वही गलती दोहरा रहे हैं। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करवाना कोई भाजपा का एकाधिकार नहीं है। यह तो पूरे देश के बहुसंख्यकों की दबाई गई भावनाओं को सम्मान देने का सवाल है। जब तक अयोध्या, काशी और मथुरा के पवित्रा तीर्थस्थलों पर बनें भव्य मंदिरों को ध्वस्त करके जबरन बनाई गई मस्जिदें खड़ी रहेंगी तब तक हिंदुस्तान के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दीवार खड़ी रहेगी।
मथुरा, अयोध्या व काशी में हिंदुओं के धर्मस्थालों पर बनी मस्जिदें दुनियां में बनी हजारों मस्जिदों की तरह ही तीन मस्जिदें हैं। जो मक्का मदीना, वेटिकन सिटी व हरमंदिर साहिब की तरह विशेष अहमियत नहीं रखतीं। पर ये तीनां स्थान इस देश के सनातनधर्मियों को जान से भी ज्यादा प्यारे हैं। हर रोज लाखों तीर्थ यात्राी, दुनियां भर से, इन स्थानों पर अपनी आस्था के फूल चढ़ाने आते हैं। वहां खड़ी ये तीनों मस्जिदें उन्हें बार-बार उस घिनौने इतिहास की याद दिलाती हैं जब चंद लुटेरों ने इसलाम के नाम पर यहां खड़े मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था। इससे उनके जख्म फिर हरे हो जाते हैं। बचपन से जो नफरत पैदा होती है वह सारी उम्र बनी रहती है। इसलिए इस समस्या का शीघ्र और स्थायी समाधान निकाला जाना चाहिए । दोनों समुदायों को साथ बिठाकर प्रेम और सह अस्तित्व की बात करनी चाहिए ना कि भावनाओं को भड़काने की। हर सवाल को वोट के तराजू में तौलना देश के लिए बहुत घातक सिद्ध हो रहा है। अच्छी बात यह है कि मुस्लिम समाज में भी बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो इस बात से इत्तफाक नहीं रखते कि विवादित स्थलों पर नमाज अदा की जाए। धर्मनिरपेक्षता का ढोंग रचने वाले अगर मुस्लिम समुदाय को भड़काएं न तो उनमें भी ज्यादातर लोग संजीदगी से इस समस्या का हल चाहते हैं। अयोध्या विवाद के शिखर के दौर में भी देश के अनेक आम मुसलमानों ने खुल कर ये राय व्यक्त की थी कि थी अयोध्या में विवादित स्थल पर मस्जिद बनाने की जिद छोड़ देनी चाहिए। दुनिया के तमाम मुसलमान देशों में पुरानी मस्जिदों को बाइज्जत उठाकर दूसरी जगह ले जाया गया है। फिर यह भारत में क्यों नहीं हो सकता ? तेा फिर श्री वाजपेयी ने ऐसा कया कह दिया जो कि विपक्ष पर आसमान टूट पड़ा ?
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