केंद्रीय सतर्कता आयुक्त एन. विट्टल प्रस्तावित विधेयक से बहुत परेशान हैं। उनकी सबसे बड़ी परेशानी की वजह है कि इस विधेयक के संसद में पारित हो जाने के बाद उनकी ताकत भी खत्म हो जाएगी। संसदीय समिति ने काट-छा¡ट कर जिस रूप में इस विधेयक को तैयार किया उससे इसकी सार्थकता ही समाप्त हो गई। इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का पद एक बिना दांत और पंजे वाले शेर जैसा होगा। यानी केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को सीबीआई या दूसरी जांच एजेंसियों पर नियंत्रण रखने या उन्हें आदेश देने का हक नहीं होगा। दरअसल, हवाला कांड के नाम से मशहूर (विनीत नारायण वर्सेज भारत सरकार) नाम के मुकदमें में जब सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई को स्वायतत्ता देने की घोषणा की थी तो अंग्रेजी पत्रा-पत्रिकाओं ने इसका बढ़-चढ़ कर स्वागत किया था। कुछ ने तो सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को ऐतिहासिक बताया था। पर पाठकों को यह बताने की कोशिश किसी ने नहीं की कि यह फैसला दरअसल जैन हवाला कांड की सुनवाई के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने दिया और आश्चर्यजनक रूप से सर्वोच्च न्यायालय ने हवाला कांड की जांच पूरी करवाए बिना ही भविष्य में स्वायत्त संस्था गठित किए जाने की व्यवस्था सुझा दी। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का मौजूदा स्वरूप इसी मुकदमें का परिणाम है।
इस निर्णय से सीबीआई के उन भ्रष्ट अधिकारियों को कोई सबक नहीं मिला जिन्होंने हवाला कांड की जांच को वर्षों साजिशन दबाए रखा। बल्कि भविष्य के लिए तय हो गया कि सर्वोच्च न्यायालय की देख-रेख में भी भ्रष्ट अधिकारियों का कुछ नहीं बिगड़ सकता। सीबीआई को स्वायतत्ता देने की जो बात इस निर्णय में कही गई वह आज झूठ सिद्ध हो रही है। प्रस्तावित विधेयक में उक्त आदेश के तहत दिए गए प्रावधानों की उपेक्षा कर दी गई है। अब केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को वैसे अधिकार प्राप्त नहीं है जिनकी उम्मीद सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले को सुनाते वक्त की थी। इसमें आश्चर्यजनक कुछ भी नहीं है। देश की राजनीति और संसद के इतिहास की थोड़ी भी जांनकारी रखने वाले लोग जानते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय तब तक कानून नहीं बन सकता था जब तक संसद इस पर विधेयक पारित न कर दे। ऐसे तमाम उदाहरण है जब सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश, जस्टिस कुलदीप सिंह ने 1800 सरकारी बंगलों के अवैध आवंटन को रद्द करने का फैसला दिया था। सरकारी भ्रष्टाचार के विरूद्ध इस फैसले को धता बताते हुए भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकर दयाल शर्मा ने एक अध्यादेश जारी करके ऐसे अवैध काम करने वालों को कानूनी स्वीकृति प्रदान कर दी। तमाम दूसरे उदाहरण भी है। सर्वोच्च न्यायालय ने तो हवाला कांड के मामले में यही किया कि चोर निकल कर भागा जा रहा हो और बजाए चोर को पकड़ने के शोर मचाएं, ‘भईया अगली बार ताला मजबूत लगाना।’
केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के रूप में जो मजबूत ताला लगाने का सपना सर्वोच्च न्यायालय ने देश को दिखाया था वह सपना अब हकीकत नहीं बन पाएगा। शरद पवांर के नेतृत्व में संसदीय समिति ने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त संबंधी विधेयक को काट-छाट कर भौंथरा बना दिया है। दरअसल, राजनेताओं की मुश्किल यह है कि वे मन से ये कतई नहीं चाहते कि भ्रष्टाचार के मामले में राजनेता या उच्च पदों पर बैठे अफसर किसी जांच के दायरे में आएं। पर लोक-लज्जा के लिए उन्हें यह दिखावा करना पड़ता है। इसलिए नए-नए नामों से भ्रष्टाचार से लड़ने की बात की जाती है। फिर वो चाहे लोक आयुक्त बना कर हो या केंद्रीय सतर्कता आयुक्त। हर चुनाव से पहले हर दल का नेता और प्रधानमंत्री पद का हर दावेदार, जनता को यह आश्वासन देता है कि वह भ्रष्टाचार से लड़ेगा। क्योंकि राजनेता जानते हैं कि इस देश के करोड़ों लोग प्रशासनिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार से बुरी तरह त्रस्त हैं। इसलिए भ्रष्टाचार के नाम पर चुनाव में जनता को बहकाना सबसे ज्यादा आसान होता है। यही कारण है कि जैसे ही चुनावों की घोषणा होती है सभी दलों के राजनेता, चाहे वो क्षेत्रीय दल के हों या राष्ट्रीय दल के, अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों के घोटाले उछालने में जुट जाते हैं। चुनाव जीतने के बाद फिर सब एक हो जाते हैं और एक-दूसरे को बचाने में लगे रहते हैं। इसलिए केंद्रीय सतर्कता आयुक्त से संबंधित विधेयक पर चर्चा करते समय सांसदों को यही दिक्कत आ रही थी कि वे कैसे ऐसा प्रारूप बनाएं जिससे जनता में तो यह संदेश जाए कि सरकार भ्रष्टाचार से निपटना चाहती है, पर असलियत में कुछ न हो, सब यथावत चलता रहे। इसलिए केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की छटपटाहट जायज है।
परंतु इसके साथ ही आश्चर्यजनक रूप से श्री विट्टल को प्रस्तावित विधेयक के जिस अंश ने सबसे ज्यादा उद्वेलित किया है वह यह है कि केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पद से निवृत्त होने के बाद वे किसी लाभ के पद पर नहीं रह पाएंगे। उनकी शिकायत है कि जब सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों के न्यायधीशों पर यह प्रतिबंध नहीं है तो केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पर क्यों ? श्री विट्टल का यह वक्तव्य पिछले दिनों सारे देश में छपा। तभी से श्री विट्टल के बयान को लेकर राजधानी में अनेक तरह की चर्चाएं चल रही हैं। जागरूक लोग श्री विट्टल के इस तर्क से सहमत नहीं हैं कि दूसरी बार सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें फिर एक और नौकरी की क्यों मिले ? आमतौर पर देखा जा रहा है कि उच्च संवैधानिक पदों पर से निवृत्त होने वाले उन्हीं लोगों को अच्छे पद देकर पुरस्कृत किया जाता है जिन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान राजनेताओं के हित साधे हों। इसलिए जरूरत इस बात की है कि जिन उच्च संवैधानिक पदों के लिए यह प्रावधान आज उपलब्ध है उनके लिए भी यह सुविधा समाप्त कर दी जाए। न्यायालयों के न्यायधीशों का सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पदों पर बैठना न्याय व्यवस्था की पारदर्शिता के लिए घातक है। पर श्री विट्टल अपनी मांग पर अड़े हैं। दूसरी तरफ जिस तरह के उत्तेजक भाषा श्री विट्टल देश भर में सेमिनारों में जाकर दे रहे हैं, उससे लगता है कि मानो वे कितनी बड़ी क्रांति करने के लिए तैयार हैं। जबकि हकीकत यह है कि जब श्री विट्टल भारत सरकार में सचिव थे तब उन्हांेने कई वरिष्ठ व ईमानदार लोगों को चैन से काम नहंी करने दिया, ऐसा आरोप उनके कई साथी लगाते हैं। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर आने के बाद पिछले तीन वर्ष में श्री विट्टल ने भाषण देने का तो खूब रिकार्ड कायम किया पर ऐसा कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया जिससे देश की स्थिति में कोई बदलाव आता। मसलन, जिस हवाला कांड की बदौलत उन्हें ये पद मिला उसकी ही ईमानदार जांच करवाने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाए। अगर श्री विट्टल यह तर्क देते हैं कि उनके पास पर्याप्त अधिकार नहीं है तो उन्हें बजाए भावनात्मक भाषण देने के देश का हर मंच से यह बार-बार बताना चाहिए कि जब बड़े-बड़े कांड जानबूझ कर दबा दिए गए तो मैं ही क्या कर पाउंगा ? पर उन्होंने ऐसा नहीं कहा।
इस देश में तमाम ऐसे लोग हैं जिन्होंने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर बैठे बिना भी व्यवस्था में पारदर्शिता लाने के लिए अथक प्रयास किए और भारी सफलता प्राप्त की। यदि श्री विट्टल इस लड़ाई में जनता की सीधी भागीदारी सुनिश्चित कर लेते तो भी कुछ बात बनती। पर संसद उन्हें ताकत देगी नहीं। व्यवस्था से लड़ने की हिम्मत उन्होंने तब नहीं दिखाई जब वे इसी व्यवस्था का अंग थे। जनता को हवाला कांड जैसे महत्वपूर्ण कांडों की वास्तविकता से परिचय कराने की बजाए उपदेश देने में उनकी उर्जा ज्यादा लग रही है। अब वे इस कार्यकाल के बाद एक तीसरे पद की प्राप्ति के लिए बेचैन लग रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में यह कहां स्पष्ट होता है कि श्री विट्टल वास्तव में व्यवस्था में सुधार चाहते हैं। इससे तो यही लगता है कि वे सुधार का मुखौटा ओढ़ कर भविष्य के लिए एक और नौकरी सुनिश्चित करना चाहते हैं। इसलिए इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि संसद उन्हें पूरी ताकत दे या न दे। यदि वास्तव में श्री विट्टल इस देश की व्यवस्था में व्याप्त अनैतिकता और गंदगी साफ करना चाहते हैं तो उन्हें अपनी इस नाकारा और शक्तिहीन नौकरी का मोह त्याग कर सड़कों पर उतर जाना चाहिए। पर वे ऐसा नहीं करेंगे। अपना पूरा कार्यकाल सेमिनारों में भाषण देकर पूरा कर देंगे। देश को न तो खुदा ही मिलेगा, न बिसाले सनम। रहे वही ढाक के तीन पात। श्री विट्टल के इस रूदन से कोई भी विचलित नहीं हो रहा न तो सरकार ही और न ही जनता।
No comments:
Post a Comment