भारत का लोकतंत्र ठिठक गया है। लोग हैरान हैं कि देश में विपक्ष नाम की कोई चीज है भी या नहीं? क्योंकि देश को विपक्ष की मौजूदगी का एहसास ही नहीं हो रहा। संसद के कितने अधिवेशन हो चुके और अब मानसून सत्र शुरू होने को है, पर लगता है कि जैसे सत्तापक्ष ने विपक्ष की आवाज छीन ली है। क्या राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा की सरकार इतना बढि़या काम कर रही है कि उसमें विपक्ष को कहीं कमी नजर ही नहीं आती ? या फिर सरकार जो कुछ कर रही है वह विपक्षी दलों के नेताओं की सहमति और साझेदारी से कर रही है, इसलिए विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्ष में जो बडे़ दल आज हैं उनके पास अब इतना नैतिक बल ही नहीं बचा कि वे सत्तारूढ़ दलों का विरोध कर सकें ? शायद इसलिए कि जो दल आज विपक्ष में बैठे हैं वो कभी न कभी सत्ता में रह चुके हैं। इसलिए जानते हैं कि जब वे सत्ता में थे तब वे भी ऐसे ही सरकार चलाते थे तो अब किस मुंह से विरोध करें ? जो भी हो कुल मिला कर विपक्ष थका-पिटा, ऊर्जाहीन, कांतिहीन और नेतृत्व विहीन नजर आता है। सबसे बड़े दल की नेता श्रीमती सोनिया गांधी का अभी राजनैतिक प्रशिक्षण चल रहा है। पिछले वर्ष में उन्होंने जिस तरह का नेतृत्व दिया उससे कांगे्रसियों के मन में अपने भविष्य को लेकर असुरक्षा की भावना बढ़ती जा रही है। शरद पंवार, नरसिंह राव, एनडी तिवारी जैसे दिग्गज नेता चुप्पी ओढ़े बैठे हैं। कम्युनिस्ट दल अपने शेष साम्राज्य को ढहता हुआ देख रहे हैं। विपक्ष के इस बिखराव का भाजपा व सहयोगी दल डट कर फायदा उठा रहे हैं। आज सरकार में बैठे ज्यादातर राजनेता वह सब कर रहे हैं जिसकी वे अतीत मे आलोचना करते आए थे। वे जानते हंै कि विपक्ष उन्हें चुनौती नहीं देगा इसलिए अब उन्हें लोक-निंदा की भी चिंता नही रही। अब तो भाजपा के छुट-भइए नेता भी यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि हमें तो सत्ता चाहिए थी, वो मिल गई। वायदे और विचारधारा तो जनता को हांकने के लिए होते हैं। असल में तो राजनीति ऐसे ही की जाती है जैसे आज हमारे नेता कर रहे हैं।
एक तरफ देश की राजनीति के सर्वोच्च स्तर पर ये आलम है तो दूसरी ओर देश की बहुसंख्यक गरीब और आम जनता ही नहीं मध्यम वर्गीय लोग तक मौजूदा सरकार की नाकामियों और जन विरोधी नीतियों से त्रस्त हो चुके हैं। बिजली, पानी जैसी बुनियादी जरूरतों को भी पूरा करने में नाकामयाब सरकार जब चांद पर राकेट भेजने की बात करती है तो देश की जनता सिर धुन लेती है। इधर कुछ दिनों से सूचना प्रौद्योगिकी को लेकर जिस तरह का शोर मचाया जा रहा है उससे भी आम जनता में हताशा फैल रही है, क्या सूचना प्रौद्योगिकी को खाएं या पिएं ? जनता हैरान है यह सोच कर कि क्या सरकार की प्राथमिकताएं केवल देश के बड़े उद्योगपतियों के हित साधना ही है ? क्या उसे अपने गरीब मतदाताओं की कोई चिंता नहीं है ? यह सही है कि मौजूदा सरकार में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो पूर्ववर्ती सरकारों में भी उतने ही शक्तिशाली थे, जितने आज हैं। जाहिरन उनकी कार्य प्रणाली में वही पुराना ढर्रा है जो पिछली सरकारों में था। इस पर न तो संघ की विचारधारा का कोई प्रभाव है और न उन आश्वासनों का जो वाजपेयी जी आज तक जनसभाओं में देते आए हैं। कुल मिलाकर लोगों को यही लगता है कि कोई भी दल सरकार में क्यों न आ जाए उसको चलाने की बागडोर निहित स्वार्थों के हाथों में ही रहती है। ऐसा अब भाजपा के समर्थक भी मानने लगे हैं। इसलिए उनके मन में निराशा और भविष्य के प्रति आशंका दोनों है।
इस शून्य को भरने के दो रास्ते हैं या तो देश के जुझारू और क्रांतिकारी लोग राजनीति में आएं और विकल्प दें। पर वे ऐसा कर पाएंगे इस पर किसी को सहज विश्वास नहीं होता। अगर ऐसा नहीं होता है, जिसकी संभावना ज्यादा है, तो मौजूदा राजनैतिक दलों में से ही नए नेतृत्व को चुनने की बात उठेगी। दरअसल देश को आज एक जुझारू और जमीन से जुड़े नेतृत्व की जरूरत है। इस दृष्टि से फिलहाल दो-तीन नाम ही उभर कर सामने आते हैं। ममता बैनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, मायावती व मुलायम सिंह यादव।
चंद्रबाबू नायडू और ममता बैनर्जी फिलहाल केंद्रीय सरकार में शामिल हैं इसलिए इनकी तलवार भौंथरी हो गई है। जब कभी भविष्य में चुनाव होंगे तो इन्हें सरकार की नाकामियों के पाप को ढोना पड़ेगा। इसलिए ये दोनो ही नेता विपक्षी दलों के ध्रुवीकरण का केंद्र नहीं बन सकते। वैसे भी इनकी रूचि अपने-अपने राज्यों तक ही सीमित है। मायावती अपने अहमक स्वभाव के कारण शायद सर्वमान्य नेता नहीं हो सकती। वैसे भी उन्होंने उत्तर प्रदेश की सरकार चलाने के लिए भाजपा से हुए अपने करार को जिस तरह तोड़ा था और लोकसभा में विश्वास मत पर बहस के दौरान जिस तरह रातो-रात पासा पलटा था उससे मायावती की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिंह लग गया है। इसलिए बचे मुलायम सिंह यादव। यूं तो चार पूर्व प्रधानमंत्री भी देश को फिर से ‘नेतृत्व’ देने को अकुला रहे हैं। पर काठ की हांडी रोज-रोज नहीं चढ़ा करती। वे भले ही चाहें पर लोग उन्हें अब एक और मौका देकर मूर्ख बनने को तैयार नहीं हैं।
उधर मुलायम सिंह यादव ने पिछले कुछ वर्षों में अपने व्यक्तित्व और कद को बढ़ाया है। केंद्र की सत्ता में साझेदारी का इंकाई न्यौता उन्होंने जिस तरह ठुकरा दिया था उससे उनके बारे में अच्छा संदेश गया। इसी तरह उत्तर प्रदेश में भी ऐसी स्थिति रही है कि मुलायम सिंह चाहते तो सरकार में शामिल हो सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। शायद उनकी रणनीति रही होगी कि भाजपा को सरकार चलाने दो। लोगों का भाजपा से मोहभंग होने दो। हिंदू धर्मावलंवियों को यह महसूस करने का मौका दो कि भाजपा ने राम नाम का सहारा लेकर जनता की धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ किया है, केवल इसलिए कि सत्ता हासिल की जा सके। यह तो सभी जानते हैं कि भाजपा का सबसे बड़ा समर्थक वर्ग वैश्य समुदाय है। जिस वैश्य समुदाय को भाजपा आज तक रंगीन सपने दिखाती आई थी वही वैश्य समुदाय आज भाजपा से सबसे ज्यादा नाराज है। भाजपा के राज के बावजूद न तो करों को लेकर सरकार की नीति बदली, न इंस्पेकटर राज का खातमा हुआ। यहां तक कि हर सरकारी मुलाजिम को रिश्वत देने के बाद भी गाली खाने को मजबूर वैश्य समुदाय की इज्जत में भी भाजपा के शासनकाल में कोई इजाफा नहीं हुआ। छोटे दुकानदारों और कारखानेदारों की जो बेइज्जती पिछली सरकारों के दौरान होती थी वैसी ही भाजपा के राज में आज भी हो रही है। इतना ही नहीं भाजपा सरकार की आयात-निर्यात और आर्थिक नीतियों के चलते तमाम लघु उद्योग तेजी से बंद होते जा रहे हैं। इससे वैश्य समाज में भाजपा के प्रति भारी आक्रोश है। जिसका सीधा लाभ अब मुलायम सिंह यादव को मिल सकता है। शायद यही सोच कर उन्होंने उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ अन्य दलों की तरह गठबंधन सरकार में शामिल होने की बात नहीं स्वीकारी। उन्होंने सोचा होगा कि भाजपा की सरकार बनी रही तो जनता के सामने दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। जनता इनका असली चेहरा देख लेगी। उसे अच्छी तरह समझ में आ जाएगा कि भाजपा की कमीज दूसरों की कमीज से ज्यादा उजली नहीं है, जिसवे वे दावा करते हैं। शायद मुलायम सिंह की राजनैतिक सूझबूझ और दूर-दृष्टि काम आई। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में हुए पंचायतों के चुनावों में भाजपा समर्थित उम्मीदवार बुरी तरह पिटे। जबकि मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी से समर्थित उम्मीदवार बड़ी तादाद में सफल रहे। जाहिरन इससे सपा के खेमे में उत्साह बढ़ा है और अब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में अगला विधानसभाई चुनाव अकेले अपने ही बूते पर लड़ने की बात कह रहे हैं। पर आगे का रास्ता इतना आसान न होगा। उनके वोट बैंक पर कई दावेदार दांत गड़ाए बैठे हैं। अगर मुलायम सिंह यादव का लक्ष्य केवल उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री ही बनना है तो बात दूसरी है। पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो वे 10 वर्ष पहले भी थे। इन 10 वर्षों में तो उनका कद बढ़ा है। एक बार तो वे प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार भी रह चुके हैं। इसलिए यदि वे राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका को महत्वपूर्ण बनाना चाहते हैं तो उन्हें उत्तर प्रदेश के बाडे़ से बाहर निकलना होगा और अपनी पुरानी छवि को बदलना होगा। जिसके लिए उन्हें एक सुगठित संगठन की जरूरत होगी जो आज उनके पास नहीं है। भाजपा समर्थित मीडिया ने जो उनकी छवि बनाई थी उसे तोड़ने के लिए उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर कुछ मशहूर और सक्षम नए चेहरों की एक टीम भी अपने साथ जोड़नी पड़ेगी। जिस टीम के सदस्य समाज के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करते हों। ताकि उनकी पार्टी एक नेता के पीछे ही चलने वाली भीड़ न लग कर एक इज्जतदार राष्ट्रीय दल के रूप में स्थापित हो सके। तभी देश की राजनीति में उनकी भूमिका बढ़ेगी।
अब जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि उनकी आलोचना करने वालों के असली चेहरे कुछ बेहतर नहीं हैं, तो यही वह मौका है जब मुलायम सिंह यादव यह संदेश दे सकते हैं कि उनकी नई टीम प्रशासन और राजनीति को नए अंदाज से चलाएगी। इतनी गंभीरता से कि जनता सुरक्षित महसूस करे। किसान मजदूरो की भी सुनी जाए। व्यापारी की इज्जत हो। समाज में कानून का डर फैले। यदि मुलायम सिंह यादव ऐसा संदेश दे पाते हैं तो उनकी कामयाबी को कोई रोक नहीं पाएगा। क्योंकि उनमें राष्ट्रीय नेता बनने के सभी गुण मौजूद हैं। लालू यादव के मुकदमों में उलझ जाने के कारण हिंदी भाषी राज्यों में उनका कोई सीधा मुकाबला करने वाला अभी दिखाई नहीं दे रहा है। पर उन्हें संकुचित राजनीति के दायरे से निकल कर संपूर्ण भारत की दृष्टि से हर स्थिति का मूल्यांकन करने की आदत डालनी होगी। अगर वे ऐसा नहीं कर सके तो केंद्र की राजनीति में वे सत्ता की जोड़तोड़े व मोलभाव करने वाले कुछ सांसदों के एक गुट के नेता से ज्यादा नहीं बन पाएंगे। मौजूदा हालात में मुलायम सिंह क्या करते हैं ये आने वाला वक्त ही बताएगा। पर यह भी स्पष्ट हैं कि भारत में फिलहाल विपक्ष की राजनीति की धु्ररी बनने की सबसे ज्यादा संभावना मुलायम सिंह यादव की ही है।
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