जिस दौर में हर नया युवा फिल्मी अदाकार कपड़े उतार कर, कूल्हे मटकाकर और बिना वजह कूद-कूद कर बंदरनुमा डांस करने को ही एक्टिंग मान रहा हो उस दौर में धारा के विरूद्ध तैरने का प्रयास किया है जया और अमिताभ बच्चन के बेटे ने। हाल में रिलीज हुई रिफ्यूजी फिल्म में न तो अपने जिस्म की नुमाइश की और न ही भौंडे डांस। भारत पाक सीमा पर बसे गांवों के बीच तस्करी होती आई है ये वर्षों से लोग सुनते आए थे। पर उसका तरीका क्या है ? इस तस्करी में दोनों देशों के सीमा सुरक्षा बलों की क्या भूमिका होती है। सरहद के आस पास रहने वाले गांव कैसे खतरों के बीच अपनी भावनाओं के रिश्ते बनाए रखते हैं ? कुछ ऐसे सवाल थे जिन पर रिफ्यूजी फिल्म ने अच्छा प्रकाश डाला है। ऐसे गंभीर विषय के लिए जैसे किरदार की जरूरत थी उसे अभिषेक ने बखूबी निभाया है। फिल्म आलोचक जरूर अभिषेक की तुलना रितिक रोशन से करके अभिषेक को अभिनय में कच्चा बता रहे हैं, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि आधुनिक डिस्को संस्कृति में पले-बढ़े बच्चे जब युवा कलाकार बन कर फिल्मों में आते हैं तो उनको वैसे ही सांस्कृतिक परिवेश पर आधारित फिल्म में काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती। क्योंकि जो वे स्कूल और काॅलेज में करते आए हैं उसे बड़ी सहजता से फिल्म पर्दे पर उतार देते हैं। फिर वो चाहे रितिक हो या कोई और। पर रिफ्यूजी फिल्म से अपनी फिल्मी कैरियर की शुरूआत करके अभिषेक ने बहुत बड़ा जोखिम उठाया है। इसलिए अभिषेक के अभिनय की छोटी-मोटी कमियों की तरफ ध्यान न देकर यह देखना चाहिए कि जो किरदार उसे सौपा गया वह उसने ठीक से निभाया या नहीं। जवाब होगा कि अभिषेक रिफ्यूजी के पात्र को दर्शक के दिल में उतारने में कामयाब हुआ है।
ये जरूरी नहीं कि हर कलाकार समय के साथ बहे तभी कामयाब होता है। बाॅलीबुड के इतिहास में ऐसे अनेकों सितारे हुए हैं जिन्होंने लीक से हटकर अभिनय किया और उसी तरह के अभिनय पर टिके रहे और अपनी एक अलग पहचान बनाई। राजकुमार ऐसा ही एक नाम था। अभिषेक की मां जया बच्चन जब पूना फिल्म इंस्टिट्यूट से पढ़कर फिल्म जगत में आईं तो एक तेज-तर्रार लड़की थीं। ऐसा उनके शिक्षक श्री रौशन तनेजा और सहपाठी बताते थे। पर जब जया भादुड़ी फिल्मों में आई तो उनकी छवि एक शालीन, सुसंस्कृत लड़की की बनी। क्योंकि उन्होंने वैसी ही भूमिकाएं निभाई। कभी न तो कपड़ों को तन से उतारा और ना ही कभी कोई वाहियात हरकत कीं। फिर भी वे बहुत जल्दी दर्शकों को भा-गई और उन्होंने अपनी यही छवि बनाए रखी।
अभिषेक के चेहरे-मोहरे और आंखांे में अपनी मां का वही भोलापन और सादगी है। यूं तो कलाकार को कई तरह की भूमिकाएं निभानी होती है। जरूरी नहीं कि हर भूमिका हर दर्शक को पसंद ही आ जाए पर अभिषेक चाहे तो नसरूद्दीन शाह और नाना पाटेकर को अपना आदर्श मान कर चुनौती पूर्ण भूमिकाएं ले सकता है। इससे उसका अभिनय भी निखरेगा और अलग पहचान भी बनेगी। पुरानी कहावत है कि नया नौ दिन और पुराना सौ दिन। ये कमर मटका कर और उछलकूद करके फिल्में पूरी कर देना बहुत दिनों तक नहीं चलेगा। लोग ऊब जाएंगे और तब उन्हें तलाश होगी धीर-गंभीर नायकों की। चूंकि फिलहाल अभिषेक उसी संाचे में ढला दिखाई देता है इसलिए ऐसा करना शायद उसके लिए मुश्किल नहीं होगा।
वैसे भविष्य में क्या होगा यह कहा भी नहीं जा सकता। अमिताभ बच्चन जब सात हिंदुस्तानी फिल्म में आए थे तो उनकी एक शालीन, सरल युवक की छवि बनी थी। पर बाद में शायद सस्ती लोकप्रियता और पैसा कमाने की चाहत ने उन्हें भौंडे नृत्य करने पर मजबूर कर दिया। वे लोकप्रिय तो खूब हुए पर एक पूरी पीढ़ी उनके साथ कमर मटकाने को खड़ी हो गईं। अमिताभ यह कह कर पल्ला झाड़ सकते हैं कि फिल्म समाज से हट कर नहीं बन सकती। पर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि समाज पर फिल्मों का काफी प्रभाव पड़ता है। इसलिए सुसंस्कृत और शालीन परिवारों से आने वाले कलाकारों से तो उम्मीद की ही जा सकती है कि वे समाज के पतन में सहयोग न देकर उसके उत्थान में योगदान देंगे। जीवन में पैसा ही सब कुछ नहीं होता। अपने से ये सवाल भी पूछना बहुत जरूरी होता है कि हमने समाज से क्या लिया और उसे बदले में क्या दिया ? ये जरूरी नहीं कि अभिषेक अपनी मां का रास्ता ही अपनाएं। लोकप्रियता और खूब पैसे की चाहत अभिषेक को भी उसी रास्ते पर ले जा सकती है जिस पर उनके पिता चाहे-अनचाहे चले। इसलिए आगे क्या होगा इसका फैसला तो अभिषेक और उनके दर्शकों के हाथ में रहेगा, पर अभिषेक को यह भी याद रखना चाहिए कि वे सम्मानित साहित्यकार श्री हरिवंशराय बच्चन के प्रपौत्र हैं।
ये बड़े दुख की बात है कि जिस तरह की भौंड़ी संस्कृति को आज बढ़ाया जा रहा है उससे समाज के एक बहुत बड़े साधनहीन वर्ग का भारी नुकसान हो रहा है। जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी निरक्षर और भुखमरी के कगार पर खड़ी हो उस देश में उपभोक्तावादी व डिस्को संस्कृति पर इतना ज्यादा जोर देकर समाज में असंतुलन पैदा किया जा रहा है। इससे युवकों के व्यक्तित्व में सतहीपन और गैर-जिम्मेदाराना रवैया बढ़ता जा रहा है। साधन तो उपलब्ध हो नहीं और फिल्म व टीवी में दिखा-दिखा कर चाहत इतनी बढ़ा दी जाए कि नौजवान होशो-हवाश खो बैंठें, तो हताशा तो बढ़ेगी ही। यही हताशा फिर युवाओं को आतंकवादी या बड़ा अपराधी बना देती है। इसलिए फिल्म बनाने वालों पर इस बात की काफी जिम्मेदारी है कि वे युवा पीढ़ी को खोखला न होने दें। बल्कि ऐसी फिल्में बनाएं जिससे युवाओं को हालात से जूझने की प्रेरणा मिले। मुल्क की बदइंतजामी व भ्रष्टाचार से निपटने की भावना पैदा हो। मुश्किल ये है कि फिल्म बनाने में बहुत पैसा लगता है जो प्रायः अवैध धन ही होता है। इस धन का सबसे बड़ा स्रोत प्रायः अपराध जगत के कुख्यात लोग होते हैं। ऐसे लोगों को न तो देश में क्रांति करवानी है और न ही समाज के नैतिक मूल्यों के पतन को रोकना है। उन्हें तो सिर्फ दौलत बढ़ानी होती है। चाहे उसके लिए कोई भी कीमत क्यों न देनी पड़ी। ऐसे माहौल में किसी फिल्म निर्देशक या कलाकार से ये उम्मीद करना कि वह धारा के विरूद्ध खड़ा रह पाएगा, जरा मुश्किल बात है। इसके लिए साफ दृष्टि और मजबूत इरादे की जरूरत होती है। खरबूजे के देखकर खरबूजा रंग बदलता है। अगर अभिषेक भी उसी रास्ते पर चल पड़े तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। पर यहां मुद्दा सिर्फ एक नए कलाकार की पहली फिल्म की समीक्षा करने का नहीं है बल्कि हिंदी फिल्मों से जुड़े उन सवालों को उठाने की है जो आज भारतीय समाज के सभी जागरूक और चिंतनशील लोगों को परेशान कर रहे हैं। खासकर उन्हें जिनके बच्चे इन फिल्मों को देखकर शिष्टाचार और शालीनता की मर्यादाओं को बड़ी आसानी से तोड़ते जा रहे हैं और हिंसक और आक्रामक होते जा रहे हैं। देश और समाज से जुड़े सवालों से कटते जा रहे हैं। वैसे ये कोई नई बात नहीं है। पड़ौस के ज्यादातर मुल्कों में मीडिया अब मात्र मनोरंजन का साधन रह गया है। सूचना देने और शिक्षित करने की इसकी भूमिका पीछे हट गई है। ऐसा इन देशों के हुक्मरानों ने साजिशन किया है ताकि पूरी की पूरी जवान पीढ़ी नाॅच-कूद और मौज-मस्ती में डूबी रहे और अपने और देश के भविष्य के बारे में न कुछ सोचे। न तो आलोचना करें और न सवाल खड़े करे। अभी तक भारत में गनीमत थी कि फिल्म, टेलीविजन और प्रिंट मीडिया देश और समाज से सारोकार रखने वाले सवालों को उठाता आया था। दुर्भाग्य से अब वहां भी बाजारू शक्तियां हावी होती जा रही हैं। अब अखबारों के ज्यादातर पन्ने ‘कुलीन’ समाज के राग-रंग का कवरेज करते हैं और बुनियादी सवालों को उठाने से कतराते हैं। यह खतरनाक प्रवृत्ति है जो अब घटने वाली नहीं।
ऐसा नहीं है कि हालात आज ही इतने बिगड़े हैं। हर पिछली पीढ़ी आने वाली पीढ़ी से यही कहती आई है कि जमाना कितना खराब आ गया है। पर फिर भी कालचक्र रूकता नहीं, अपनी गति से चलता ही रहता है। इस सबके बावजूद जो लोग मजबूती से खड़े रहते हैं वहीं कालपुरूष बनते हैं। ऐसे कालपुरूष कर क्षेत्र में हमेशा सामने आते रहते हैं। वह चाहे राजनीति का क्षेत्र हो उद्योग का या मनोरंजन का। अभिषेक जैसे नौजवान काल पुरूष बनना चाहते हैं या समय की धारा में बह कर जीवन का तथाकथित आनंद लूटना चाहते हैं। ये उनके संस्कारों, परिवेश और व्यक्तिगत आकांक्षाओं पर निर्भर करेगा। धारा के साथ बहना बहुत सरल होता है पर धारा को अपनी इच्छानुसार मोड़ देना बहुत कठिन काम है। यूं तो एक तरह से अपने जमाने में राजकपूर, दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन व राजेश खन्ना जैसे फिल्मी सितारों ने समाज को अपनी शख्सियत से काफी प्रभावित किया था, जैसा आज शायद शारूर्खान कर रहे हैं। ये जरूरी नहीं कि आइंस्टाइंन का बेटा बाप की तरह मशहूर वैज्ञानिक ही बने। पर जब अभिषेक ने फिल्म जगत में प्रवेश कर ही दिया है तो जाहिरन लोग उनके कद को उनके पिता से नाप कर देखेंगे। ऐसे में अभिषेक के सामने और भी ज्यादा बड़ी चुनौती है कि वे अपनी एक अलग पहचान बना सकें। जो उनकी पीढ़ी के नौजवानों को देश और समाज के प्रति ज्यादा जागरूक बनने में मदद करे, उन्हें पलायनवादी न बनाए। क्या होगा वक्त बताएगा।
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