न्यूया¡र्क के हवाई अड्डे पर सुरक्षा जांच के लिए रोके गए भारतीय फिल्मी सितारे शाहरूख खान को अपनी ‘ये बेइज्जती’ बर्दाश्त नहीं हुई, तो उन्होंने यह फिल्म बनवा डाली। जिसमें बार-बार यह बात दोहराई गयी है कि, ‘माई नेम इज़ खान एण्ड आई एम ना¡ट ए टैरेरिस्ट’ मैं खान हूं पर आतंकवादी नहीं। 9/11 के बाद से अमरीका में रह रहे मुसलमानों को स्थानीय आबादी की घृणा का शिकार होना पड़ा है। इसलिए तब से अब तक इस मुद्दे पर दर्जनों फिल्में भारत और अमरीका में भारतीय मूल के निर्माता बना चुका हैं। जिनमें इस्लाम के मानने वालों की मानवीय संवेदनाओं को दिखाने की कोशिश की गयी है। अपने आप में यह कोशिश सही भी है और जरूरी भी। पर इसका मतलब यह नहीं कि चाहे जो दर्शकों को परोस दिया जाए।
माई नेम इ़ज खान’ एक ऐसी फिल्म है जिसमें तथ्य दो मिनट का है कहानी को नाहक ही ढाई घंटे घसीटा गया है। फिल्म का कथानक दमदार नहीं है। रेंगती हुई कहानी बढ़ती है। बार-बार वही डायला¡ग दोहराये जाते हैं। बोझिल दृश्यों की भरमार है। शाहरूख खान को अमन का मसीहा बनाकर पेश किया गया है। फिल्म के दौरान दर्शक थियेटर से उठने को बेताब रहते हैं और कुछ तो उठकर चले भी जाते हैं। पिछले दो-तीन वर्षों से शाहरूख खान की फिल्मों में उनकी शख्सियत को कई गुना बढ़ा कर पेश किया जा रहा है। जहां एक तरफ कामयाबी और दौलत ने शाहरूख खान को भारत के सफलतम फिल्मी सितारों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है वहीं लगता है कि अब उन्हें शिखर से नीचे उतरने का डर सताने लगा है। इसलिए उनकी पत्नी गौरी खान के बैनर तले एक के बाद एक फिल्म शाहरूख खान को टिकाये रखने के मकसद से बनाई जा रही है। ‘माई नेम इ़ज खान’ भी कुछ ऐसी ही फिल्म है।
पश्चिमी देशों में एक रिवाज है कि जब कोई फिल्मी सितारा, गायक कलाकार या उद्योगपत्ति बहुत ज्यादा सफल हो जाता है और उसके पास दौलत का अंबार लग जाता है तो वह जन सेवा के कामों की ओर बढ़ जाता हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य या राहत के कार्यों में अपना धन और अपनी शक्ति लगता देता है। इससे उसे यश भी मिलता है और संतोष भी। आज शाहरूख खान के पास बेशुमार दौलत है। वे चाहे तो अपनी रूचि के क्षेत्र में अपनी ऊर्जा लगाकर जनहित के कार्य कर सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि वे फिल्मी दुनिया से सन्यास ले लें। बल्कि हर तरह की फिल्म करने की बजाय चुनिन्दा फिल्मों में काम करें और अपने अभिनय के झंडे गाढ़ते रहे। इस मामले में शाहरूख खान को आमिर खान से सबक लेना चाहिए। जिन्होंने कछुए की चाल चलकर खरगोशों को पछाड़ा है। साल डेढ साल में एक फिल्म लाते हैं। यश भी कमाते हैं, धन भी कमाते हैं और समाज को कुछ ठोस संदेश भी दे जाते हैं। लगान, तारे जमीन पर, रंग दे बंसती व थ्री इडियट जैसी फिल्मों ने पूरी दुनिया के दर्शकों को प्रभावित किया है।
फिल्म सबसे सशक्त माध्यम है जिससे समाज में बड़ा परिवर्तन किया जा सकता है। राजनीति में आने वाले फिल्मी सितारों ने अपनी लोकप्रियता को भुनाया तो खूब पर समाज का कुछ भला नहीं कर पाए। चाहे गोविन्दा हो या धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन हो या एन.टी.रामाराव। शाहरूख खान अपनी लोकप्रियता की उस बुलंदी पर है जहां से वे युवाओं का सैलाब सही दिशा में मोड़ सकते हैं। बशर्तें कि उन्हें खुद इस बात का अहसास हो कि दिशा क्या है। खुद ना हो तो उन्हें बताने वाले सही सलाह दें। फिर उन्हें अच्छी फिल्म का कथानक भी मिलेगा और अपने किरदार के लिए मौका भी। उनकी फिल्म उन्हें यश भी दिलायेगी और कुछ परिवर्तन भी ला पायेगी। उम्मीद है कि शाहरूख खान इन बातों पर गंभीरता से मनन करेंगे और अपनी कामयाबी के सूरज के डूबने से पहले एक बार फिर नए भूमिका में जनता के दिल के सितारे बनेंगे। ‘माइ नेम इज़ खान‘ बनाकर नहीं बल्कि काम से नाम पैदा करके।