Sunday, January 24, 2010

ये कैसा मजहब?

मलेशिया के उच्च न्यायालय ने ईसाइयों को गाड की जगह अल्ला शब्द के इस्तमाल की अनुमति दे दी। जिससे मलेशिया में तूफान मच गया। कट्टरपंथियों ने गिरजाघरों और गुरूद्वारों पर हिंसक हमले किये। मजबूरन सरकार को अदालत से फरियाद करनी पड़ी कि वे अपने इस फैसले को पलट दे। सवाल उठता है कि हम भगवान गाड या खुदा को मजहब के आधार पर अलग कैसे कर सकते हैं। क्या यह सही नहीं है कि लाखों हिंदू रोज बोलचाल की भाषा में भगवान को खुदा कहने में संकोच नहीं करते? तो क्या अब हिंदू तय कर लें कि वे खुदा शब्द का प्रयोग नहीं करेंगे। इससे दूरियां बढ़ेंगी या घटेंगी? पेड़ से एक सेब तोड़ो और हिंदू से पूछो इसको किसने पैदा किया तो जवाब मिलेगा भगवान ने। मुसलमान कहेगा खुदा ने और ईसाई कहेगा गाड ने। पर सेब तो एक ही है, तो फिर बनाने वाले तीन कैसे हो गए? जवाब साफ है कि एक बनाने वाले को तीन अलग-अलग मजहब के लोग अपने-अपने नाम से बुलाते हैं। मलेशिया के ईसाई अगर अल्ला शब्द का इस्तमाल करते हैं तो हर्ज क्या है। हां यह बात गलत है कि ईसाई मिशनरी स्थानीय धर्म और परंपराओं का अनुसरण कर लोगों के धर्म बदलवाते हैं। जैसे झारखण्ड में गिरजाघर का रंग और पादरी का चोगा सफेद नहीं केसरिया कर दिए गए हैं। क्योंकि इस रंग का हिंदू समाज में सम्मान किया जाता है। वे अपने गिरजाघरों को प्रभु ईशु का मंदिर बताते हैं। यह ढाsaग क्यों?

अभी हाल ही में फ्रांस में महिलाओं के बुर्का पहनने पर पाबंदी लगा दी है। फ्रांस की धर्म निरपेक्ष सरकार इस तरह के धार्मिक प्रतीकों का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं होने देना चाहती। उधर स्विटजरलैंड ने मस्जि़दों में मीनारों के निर्माण पर रोक लगा दी है। उदारनीतियों का वायदा कर सत्ता में आए अमरीकी बराक ओबामा खुद एक मुसलिम पिता की संतान हैं। पर वे भी अमरीका में इस्लाम के प्रति बढ़ते आक्रोश को रोक नहीं पाए। आज अमरीका में अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सम्मेलनों का आयोजन होना घट गया है। क्योंकि आयोजकों को इस बात का भरोसा नहीं कि दुनिया के दूसरे देशों से मुसलमानी नाम वाले लोगों को वे बुलाएंगे तो उन्हें वीजा़ मिलेगा भी या नहीं। अमरीका के आव्रजन अधिकारी इतने रूखे हो गए हैं कि हर गैर अमरीकी को अपमानित करते नजर आते हैं। पिछले दिनों बालीवुड सितारे शाहरूख खान तक इस व्यवहार के शिकार हुए। ओसामा बिन लादेन के अनुयायियों को अमरीका में घुसने से रोकने के लिए अमरीकी प्रशासन काफी गंभीर और सतर्क है। पर बाकी लोगों से ऐसा रूखा व्यवहार क्यों ?

क्या वजह है कि पूरी दुनिया में इस मजहब के लोगों के प्रति असष्णिुता लगातार बढ़ती जा रही है। जहां कट्टरपंथी इस बात से खुश होंगे कि उनकी गतिविधियों के कारण मुसलिम समाज का ध्रुवीकरण हो रहा है वहh उदार मुसलमान इस्लाम के इस रूप से इत्तफाक नहीं रखते वे धर्म को निजी मामला मानते हैं और मिल-जुल कर रहने में विश्वास करते हैं। पर कट्टरपंथियों के आगे उनकी दाल नहीं गलती। हर मजहब का मकसद होता है सर्वोच्च सत्ता की प्राप्ति या यूं कहें कि भगवत् प्राप्ति। ऐसा जो भी सफर होगा वह द्वेष का नहीं बल्कि प्रेम और सौहार्द के रास्ते का होगा। परस्पर विश्वास का होगा। रूहानियत दिलों को जोड़ती है तोड़ती नहीं। बशर्ते हम धर्म का दिखावा न कर रूहानियत का रास्ता अपनायें। दुनियां जलवायु संकट, जल संकट, खाद्यान संकट और प्राकृतिक विपदाओं से पहले ही त्रस्त है। उस पर यह मजहबी आतंकवाद लोगों की जिंदगी में नासूर बन गया है। इसने दुनिया के हर कोने में बैठे आम आदमी को खौफ के साये में जीने को मजबूर कर दिया है।

अगर मजहब का इसी तरह दुरूपयोग होता रहा और उसके मानने वाले इस दुरूपयोग को रोकने के लिए सामने नहीं आए तो पूरी दुनिया में बहुत तबाही मचेगी। सबसे ज्यादा चिंता की बात तो यह है कि मजहबी कट्टरता के प्रति पढ़े लिखे युवाओं का आकर्षण तेजी से बढ़ रहा है। जो एक खतरनाक प्रवृति है। अमरीका के वल्र्ड-ट्रेड सेंटर पर आत्मघाती हमला करने वाला मुसलमान और लंदन की मैट्रो में बंम विस्फोट करने वाला मुसलमान युवा क्रमशः इंजीनियर व डा¡क्टर थे। साफ जाहिर है कि मजहब की घुट्टी उन्हें इस तरह पिलाई गई है कि वे आगे पीछे देखे बिना अपनी जान देने को भी तैयार हो जाते है। काश इन पढ़े लिखे नौजवानों की ताकत व दिमाग जन सेवा की तरफ मुड़ जाए तो चमत्कार हो जायेगा। इनके काम से लोगों को राहत मिलेगी और इन्हें भी आम आदमी की जिंदगी सुधारने में फक्र महसूस होगा। समय की मांग है कि हर पढ़ा-लिखा मुसलमान युवा इन बातों को समझें और मजहब को विनाश का नहीं सुख और समृद्धि का कारण बनायें। फिर उनके मजहब का भी सम्मान बढ़ेगा और उन्हें भी जीवन का सही रास्ता दिखाई देगा।

No comments:

Post a Comment