Friday, February 15, 2002

अब गोपनीय नहीं रह पाएंगे स्विसबैंकों के खाते

दुनिया भर के भ्रश्ट तानाषाह, सेनाध्यक्ष, राजनेता, नषीली दवाओं के तस्कर, हथियारों के सौदागर, बड़े नौकरषाह और उद्योगपति भी लंबे अर्से से अपनी अवैध अकूत दौतल स्विसबैंकों में जमा करते आए हैं। क्योंकि इन बैंकों में जमा की गई दौलत की थाह नहीं पाई जा सकती थी। दूसरे देषों की सरकारें तो दूर स्वीट्जरलैंड की सरकार भी इन खातों का पता नहीं लगा सकती। इसलिए दुनिया के किसी भी हिस्से में धन क्यों न कमाया जाए उसे स्विसबैंकों के खातों में ही जमा किया जाता था। एक अनुमान के अनुसार दुनिया की 40 फीसदी से ज्यादा दौलत स्वीट्जरलैंड में जमा है। षेश 60 फीसदी दौलत दुनिया के बाकी देषों में है। इतनी सारी दौलत को सहेज कर रखने में स्विस नागरिकों को कतई दिक्कत नहीं आती। दरअसल, बैंकिंग व्यवसाय उनके रक्त और संस्कारों में बसा है। वे इसे राश्ट्रीय गौरव मानते हैं। अनेक परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी इन बैंको में काम करते आए हैं। ये लोग अपने काम के बारे में इतने गोपनीय होते हैं और समाज में इतने सिमटे रहते हैं कि इनसे कुछ भी उगलवाना संभव नहीं होता। यही कारण है कि पिछली सदियों के राजे-महाराजे भी अपना धन इन बैंकों में जमा करते थे। कई बार ऐसा भी होता है कि धन जमा करने वाला अचानक चल बसा और उसके स्विसबैंक में चल रहे गोपनीय खाते की जानकारी उसके साथ ही चली गई। नतीजतन उसके वारिसों को भी यह धन नसीब नहीं हुआ। ऐसे तमाम लोगों का लावारिस धन स्विसबैंक के खातों और लाॅकरों में पड़ा है।

स्विसबैंक में खाता खोलने का तरीका भी बड़ा जटिल और गोपनीय है। बैंक के मैनेजर और कर्मचारियों तक को नहीं पता होता कि किस खाते में किस व्यक्ति की रकम है। इस व्यवसाय के जानकार बताते हैं कि जब कोई व्यक्ति अपनी अकूत दौलत स्विसबैंक में जमा करने आता है तो वह बैंक के मैनेजर से संपर्क करता है। यदि मैनेजर को लगता है कि यह ग्राहक ठीक-ठाक है तो वह उसे बैंक के दो ऐसे अधिकारियों से मिलवा देता है जो उस व्यक्ति का खाता खुलवाने का काम करते हैं। ये दो या तीन व्यक्ति उन अधिकारियों में से होते हैं जिनकी विष्वसनीयता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता। इन्हें नए खाताधारी का बैंकिंग सचिव कहा जाता है। खाता खोलने की सब औपचारिकताएं ये ही पूरी करवाते हैं और सब कागजात पूरे हो जाने के बाद खाताधारी को स्विसबैंक का एकाउंट नंबर दे देते हैं। किंतु अपनी फाइल में असली खाता नंबर न डालकर एक कोड नाम डाल देते हैं। मसलन अगर खाता खोलने वाले का नाम राजकुमार लालवानी है तो उसके खाते का नंबर हो सकता है प्रिंस रेड 98। खाते का नंबर ग्राहक को बताने के बाद उसका कोड फिर बदल दिया जाता है और अब संबंधित बैंकिंग सचिव इस खाते से संबंधित फाइल को बंद करके एक ऐसे कक्ष में ले जाते हैं जहां काउंटर के ऊपर धुंधले कांच की दीवार बनी होती है। इस दीवार की तली में जो बारीक-सी झिरि होती है उसमें से होकर नए खातेदार की यह गोपनीय फाइल दूसरी तरफ सरका दी जाती है। दूसरी तरफ जो व्यक्ति उस फाइल को लेता है उसे यह नहीं पता होता कि यह फाइल किसकी है और षीषे के बाहर से फाइल देने वाले बैंकिंग सचिवों को यह नहीं पता होता कि षीषे के दीवार के पीछे इस फाइल को किसने लेकर लाॅकर में रखा है। इस तरह नए खातेदार के खाते से संबंधित जो पांच-छह लोग होते हैं उनमें से किसी को भी पूरी जानकारी नहीं होती।

इस काम में जो कर्मचारी लगे होते हैं वे बैंक के विष्वसनीय अधिकारी होते हैं और इस बात के प्रति आष्वस्त हुआ जा सकता है कि गोपनीय जानकारी बाहर नहीं जाएगी। ऐसी घटनाएं इक्का-दुक्का ही हुई हैं। मजे की बात तो यह है कि स्विसबैंक में धन जमा करने वालों को ब्याज मिलना तो दूर इस धन के संरक्षण के लिए उन्हें नियमित फीस देनी होती है। इस तरह स्वीट्जरलैंड में अथाह धन जमा हो गया है। आबादी थोड़ी सी, जीवन स्तर में ज्यादा तड़क-भड़क की गुंजाइष नहीं इसलिए उनकी जरूरत से कहीं ज्यादा धन उनके लिए उपलब्ध है। स्विस नागरिक अब तक यह मानते आए थे कि धन कहां से आ रहा है इसका उनसे कोई सारोकार नहीं। उनके लिए हर तरह के धन का रंग समान था और वे किसी का भी धन लेने में संकोच नहीं करते थे। वे बैंकिंग को षुद्ध आर्थिक व्यवसाय के रूप में देखते थे। पर अब स्थिति बदल रही है।

अब उन्हें भी पता है कि दुनिया भर मे गरीबी, कुपोशण व भूख बढ़ती जा रही है। दुनिया के तमाम देषों के भ्रश्ट नेता और नौकरषाह अपने भ्रश्ट आचरण के कारण जनता को दुख दे रहे हैं। नषीली दवाओं के सेवन से समाज और बचपन प्रदूशित हो रहे हैं। ऐसे माहौल में स्वीट्जरलैंड दुनिया के प्रति सारोकार से उदासीन होकर नहीं रह सकता। मानवीय संवेदनाओं से षून्य होकर भी नहीं रह सकता। जब दुनिया भर के अपराधी स्वीट्जरलैंड में चोरी का धन छुपाएंगे तो स्वीट्जरलैंड इस अनैतिकता के पाप का भागीगार बने बिना नहीं रह सकता। ऐसे विचारों ने स्वीट्जरलैंड के नागरिकों को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया। इसके साथ ही दुनियाभर में स्विसबैंकों के खातों के प्रति जागरूकता और उनमें अवैध रूप से जमा अपने देष का धन वापस देष में लाने की मांग कई देषों में उठने लगी। इस सबका नतीजा यह हुआ कि स्विस नागरिकों ने अपने संविधान में संषोधन किया। चूंकि स्वीट्जरलैंड दुनिया का सबसे परिपक्व लोकतंत्र है इसलिए वहां हर कानून बनने के पहले जनता का आम मतदान कराया जाता है। बहुमत मिलने पर ही कानून बन पाता है। इसलिए जब स्विस नागरिकों को नैतिक दायित्व का एहसास हुआ तो उन्होंने एक कानून बनाया जिसके अनुसार अब स्विसबैंकों में खोले गए खाते गोपनीय नहीं रहेंगे। स्वीट्जरलैंड की या अन्य किसी भी देष की सरकारें इन खातों की जानकारी प्राप्त कर सकती हंै। इसके लिए करना सिर्फ यह होगा कि संबंधित देष को उस व्यक्ति के खिलाफ, जिसके स्विस खाता होने का संदेह है, एक आपराधिक मामला दर्ज करना होगा। इसके बाद उस देष की सरकार स्वीट्जरलैंड की सरकार को आधिकारिक पत्र लिखेगी जिसमें उस व्यक्ति के विरूद्ध दर्ज आपराधिक मामले का हवाला देते हुए स्वीट्जरलैंड की सरकार से अनुरोध करेगी कि वह पता करके बताए कि उस व्यक्ति का कोई गोपनीय खाता स्वीट्जरलैंड के बैंकों में तो नहीं है ? इस पत्र के प्राप्त हो जाने के बाद स्वीट्जरलैंड की सरकार सभी बैंकों इस पत्र की प्रतिलिपियां भेजेगी और उन बैंकों से यह जानकारी मांगेगी। अगर किसी बैंक में संबंधित व्यक्ति का गोपनीय खाता चल रहा होगा तो बैंक को उसकी पूरी जानकारी अपनी सरकार को देनी होगी। स्वीट्जरलैंड की सरकार यह जानकारी संबंधित देष में भेज देगी। आवष्यकता पड़ने पर वह गोपनीय खाते में जमा रकम को भी उस देष को लौटा देगी। ऐसा कई मामलों में हो चुका है। इसलिए अब स्विसबैंकों में जमा अवैध धन गोपनीय नहीं रह सकता। बषर्तें कि खाताधारक के विरूद्ध आपराधिक मामला दर्ज हो।

स्वीट्जरलैंड में इस नए कानून के बन जाने से दुनिया के उन देषों की सरकारों को बहुत सहुलियत होगी जिन देषों का अवैध धन इन बैंकों में जमा है। अब तो बस किसी भी सरकार को इतना सा करना है कि वह ऐसे व्यक्तियों के विरूद्ध, चाहे वे कितने ही ऊंचे पद पर क्यों न बैंठे हों, केस दर्ज कराए और स्वीट्जरलैंड के बैंको में उनके खातों की जांच करवाए। जो भी सरकार अपनी साफ छवि होने का दावा करती है या जो प्रधानमंत्री भी यह दावा करते हैं कि देष को भ्रश्टाचार मुक्त प्रषासन देंगे उनका यह नैतिक दायित्व है कि वे ऐसे लोगों के विरूद्ध कार्रवाही करें जिन पर जनता की अकूत दौलत होने के संदेह हैं। ऐसे लोगों को चिराग लेकर ढूंढने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उन्हें सब जानते हैं। यहां तक कि उनके इलाके के आम नागरिक भी। हां अगर गरीब देषों की सरकारें ही अपने देष का धन वापिस अपने देष में न लाना चाहें तो कोई क्या कर सकता है ?

पुरानी कहावत है कि तू डाल-डाल तो मैं पात-पात। जबसे स्वीट्जरलैंड में यह कानून बना है तब से ही इससे निपटने के नए तरीके ईजाद कर लिए गए हैं। अब माॅरीषस जैसे तमाम देषों में नकली कंपनियां रजिस्टर कराई जाती हैं। जिनके षेयर पूरी दुनिया में जारी किए जाते हैं। अवैध रूप से अर्जित धन के स्वामी इन षेयरों को छद्म नामों से खरीद लेते हैं। इस तरह वे अपनी अवैध दौलत कंपनी के खाते में जमा करवा देते हैं। ये कंपनियां फिर स्वीट्जरलैंड के बैंकों में कंपनी के नाम से खाते खोल लेती हैं। इस तरह स्वीट्जरलैंड के नए कानून को भी धता बता कर अवैध धन को जमा करने का सिलसिला जारी हैं। पर जब कभी स्वीट्जरलैंड के जागरूक नागरिकों की तरह ही अन्य देषों के नागरिक भी इस गोपनीय व्यवस्था के विरूद्ध उठ खेड़े होंगे तो स्विजबैंकों में जमा अवैध रकम के अपने-अपने देष में वापस लाने के रास्ते खुल जाएंगे।

अब यह दारोमदार तो तीसरी दुनिया के देषों के नागरिकों और उनकी सरकारों पर है। यदि वे स्वीट्जरलैंड में जमा अपने देष का धन वापिस देष में लाना चाहते हैं तो उन्हें सक्रिय होना ही पड़ेगा। स्वीट्जरलैंड के नागरिकों ने अपने संविधान में संषोधन करके यह बता दिया कि वे षेश दुनिया के सारोकार के प्रति उदासीन नहीं हैं। अब तो गेंद बाकी देषों के नागरिकों और सरकारों के पाले में है। फैसला उन्हें ही करना है।

Friday, February 1, 2002

संत चेतावनी यात्रा कितनी सफल ?


अयोध्या में श्री राम मंदिर के निर्माण की मांग को लेकर विश्व हिंदू परिषद की चेतावनी यात्रा उत्तर प्रदेश से जब दिल्ली पहुंची तो जनता में इसे लेकर कहीं भी उत्साह दिखाई नही दिया। यात्रा के मार्ग में पड़ने वाले नगरों और गांवों में आम जनता में यात्रा को कौतुहलवश देख भले ही लिया हो पर किसी के मन में यात्रा के प्रति न तो आकर्षण था और न सम्मान। हर आदमी यही कह रहा था कि ये यात्रा महज स्टंट बाजी है और उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा को मदद करने का विहिप का एक शगूफा। देहात के लोगों ने तो संत चेतावनी यात्रा को ढोंग तक बताया और साफ कहा कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती। लोगों का कहना था कि भाजपा हिंदू धर्म का कार्ड खेलकर अब हिंदुओं को और मूर्ख नहीं बना सकती। हर आदमी को पता चल चुका है कि भाजपा हिंदू धर्म के सवालों को उठाकर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करती आई है। पर सत्ता में आने के बाद उसके तमाम वरिष्ठ नेताओं ने हिंदू धर्म के मुद्दों से पल्ला झाड़ लिया। जय श्रीरामके गगनभेदी नारे लगाने वाले भाजपाइयों ने सत्ता में आते ही इस नारे को भुला दिया। कई वर्ष बाद जब संत चेतावनी यात्रा में ये नारे फिर से लगाए गए तो जनता ने इन्हें नहीं दोहराया। इससे पहले भी विहिप के कई कार्यक्रम असफल हो चुके हैं। श्री कृष्ण जन्मभूमि की मुक्ति के लिए मथुरा में विहिप द्वारा बुलाया गया सम्मेलन और यज्ञ अनुष्ठान का कार्यक्रम फ्लाप ही रहा था।
पिछले दिनों दिल्ली के देहाती इलाकों में आयोजित जनसभाओं में संघ के प्रचारकों को धार्मिक प्रवचनकरते हुए देखा जा सकता था। ये जनसभाएं स्थानीय आबादी को धर्म के नाम पर आकर्षित करके 27 जनवरी के कार्यक्रम में भेजने को प्रेरित करने के लिए थीं। इन जनसभाओं में संघ के प्रचारकों ने जनता को अयोध्या के महत्व, मंदिर निर्माण की आवश्यकता और भक्ति में शक्ति के संकेत दिए। इस सभा में आई हुई साधारण महिलाओं को यह कह कर लुभाने की कोशिश की गई कि वे 27 जनवरी को दिल्ली के रामलीला ग्राउंड में ज्यादा से ज्यादा तादाद में पहुंच कर संतों का आशीर्वाद प्राप्त करें। महिलाएं स्वभाव से ही धार्मिक और भावुक होती हैं। हर किसी को जीवन की समस्याओं ने घेर रखा है। इसीलिए लोग धर्म स्थानों और साधु संतों की शरण में जाते हैं। ताकि उन्हें आशीर्वाद मिल सके और उनके जीवन के कष्ट कुछ कम हो सके। इसलिए संघ के प्रचारकों ने विशेषकर महिलाओं को लुभाने की कोशिश की। पर यहां भी उन्हें कामयाबी नहीं मिली। इस तरह विहिप द्वारा आयोजित संत चेतावनी यात्रा अपने उद्देश्य में असफल रही। मीडिया ने भी इस यात्रा को विशेष तरजीह नहीं दी। यात्रा के दौरान जिन नगरों में इसका स्वागत, सत्कार हुआ भी उनमें भी केवल वहीं लोग शामिल थे जो भाजपा के पदाधिकारी थे या उसके कार्यकर्ता। जिन्हें इस यात्रा से राजनैतिक लाभ कमाने की उम्मीद थी। संत चेतावनी यात्रा की इस असफलता के कारण भाजपा के खेमों में चिंता व्याप्त है। सार्वजनिक रूप से भाजपाई नेता भले ही उत्तर प्रदेश चुनाव में अपनी सफलता की घोषणाएं कर रहे हों पर वे भी जानते हैं कि मंदिर के सवाल पर अब उत्तर प्रदेश के हिंदुओं को बरगलाया नहीं जा सकता। वैसे ंिहंदुओं के मन में अपने धर्म और संस्कृति के प्रति राजनैतिक चेतना जागृत करने में विहिप व भाजपा नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। वैदिक संस्कृति के शाश्वत ज्ञान को समसामयिक संदर्भ में सार्थक उपयोग करने के लिए यह जरूरी है कि सत्ता में बैठे लोग धर्म निरपेक्षता के नाम पर वैदिक संस्कृति के बहुमूल्य खजाने की उपेक्षा न करें। भाजपा से ऐसी उम्मीद थी जो पूरी नहीं हो रही है। इसलिए विहिप और आडवाणी जी को भी इस विषय पर मंथन करना होगा ताकि बहुजनहिताय गाड़ी फिर से ढर्रे पर चल सके।
दरअसल पिछले तीन वर्षों में, जबसे केंद्र में राजग की सरकार बनी है, तब से इसके प्रमुख घटक भाजपा का हिंदुओं के प्रति रवैया बड़ा विचित्र रहा है। भाजपा के जो बड़े नेता अयोध्या आंदोलन के दौरान पूरे देश में घूम-घूम कर जनसभाओं में सिंह गर्जना करते थे कि, ‘सौगंध राम की खाते हैं हम मंदिर वहीं बनाएंगे।या बच्चा बच्चा राम का जन्मभूमि के काम का’, वही नेता सत्ता में आने के बाद यह कहने लगे कि मंदिर हमारा मुद्दा नहीं है। इससे पूरे देश में बहुत गलत संदेश गया। हिंदुओं को लगा कि भाजपा ने उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया। कहां तो राम रथ यात्रा, अयोध्या कार सेवा और शिलान्यास के लिए हर हिंदू के घर से सहयोग लिया गया था। राम राज्य लाने के सपने दिखाए गए थे। हर गांव से शिलापूजन करके अयोध्या भेजी गई थी। कहां अब ये हाल हो गया कि अयोध्या का नाम तक लेने में भाजपा के नेता बचने लगे। जिस समय अयोध्या आंदोलन की शुरूआत हुई उस समय आम जनता में भाजपा के नेताओं की अच्छी छवि थी। भाजपा को अनुशासित, राष्ट्रनिर्माण के लिए समर्पित और भ्रष्टाचार मुक्त राजनैतिक दल माना जाता था। कई दशकों तक भाजपा ने विपक्ष में रह कर सड़कों पर लड़ाई लड़ी थी। इसलिए जनता में उसकी जुझारू छवि भी थी। इसलिए जनता को बड़ी उम्मीद थी कि भाजपा जब सत्ता में आएगी तो एक नए किस्म की शासन व्यवस्था देखने को मिलेगी। पर ऐसा नहीं हुआ। इससे भी लोगों के दिल टूट गए। चूंकी एक एक करके सभी दल सत्ता में आ चुके हैं और किसी ने भी ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे वह दूसरे से बेहतर सिद्ध होता इसलिए अब जनता के मन में किसी भी दल के प्रति आकर्षण या सम्मान नहीं बचा है। बेचारी जनता मजबूरी में ताश के पत्तों की तरह दलों को फंेटती रहती है। इसके चलते जातिवाद और तेजी से बढ़ रहा है। आम लोगों के मन में ये बात बैठ रही है कि फायदा तो उन्हें किसी भी दल से नहीं मिलना तो क्यों न अपने ही जाति वाले को वोट दो ? नतीजतन उत्तर प्रदेश के चुनाव में अलग-अलग जातियों के प्रभुत्व के अनुसार दर्जनों दल सक्रिय हैं। चुनाव के बाद का परिदृश्य बहुत लुभावना नहीं होगा। विधायकों की खरीद-फरोख्त सब्जी मंडी की तरह होगी। जिससे प्रशासन में और भी भ्रष्टाचार और लूट-खसोट बढ़ेगी। इसलिए कुछ चुनाव विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि उत्तर प्रदेश की जनता ऐसी परिस्थिति में किसी एक दल को बहुमत देकर सबको चैंका न दे। वह दल कांग्रेस भी हो सकता है। ठीक वैसे ही जैसे मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में सबने कांग्रेस को साफ कर दिया था और भाजपा की सरकार बनने के दावे बढ़-चढ़ कर टीवी चर्चाओं में किए जा रहे थे। दावा करने वाले भाजपाई नेता नहीं बल्कि टीवी के मशहूर चेहरे थे। पर जब मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणाम आए तो हर आदमी भौचक्का रह गया। वहां की जनता ने दुबारा सत्ता कांग्रेस के हाथ में सौप दी। ऐसा उत्तर प्रदेश में भी अगर होता है तो कोई अजीब बात नहीं होगी अलबत्ता यह जरूर है कि जनता कांग्रेस से आकर्षित होकर कम और दर्जनों दलों कि साझी सरकार बनने की संभावना से डर कर ज्यादा कांग्रेस को वोट दे सकती है। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। प्रियंका के आने पर इसकी संभावना बढ़ जाएगी।
जहां उत्तर प्रदेश में भाजपा को पांच वर्ष के शासन में चार बार मुख्यमंत्री बदले पड़े। गुजरात में केशूभाई पटेल और नरेन्द्र मोदी के बीच लगातार युद्ध होता रहा। आखिरकार केशूभाई पटेल को जाना पड़ा। वहीं केरल में कांग्रेस के मुख्यमंत्री हों या मध्य प्रदेश, दिल्ली या राजस्थान में, बेखटक लगातार राज भी कर रहे हैं और कुछ नया करने की कोशिश भी कर रहे हैं। इससे देश की जनता में यह संदेश जा रहा है कि कांगे्रस ही देश को सुगमता से चला सकती है। जबकि दूसरे सभी दल सत्ता में आते ही सिर फुटव्वल शुरू कर देते हैं। जिससे जनता का भला होना तो दूर  राजनैतिक अनिश्चितता बनी रहती हैं। इसके साथ ही यह बात भी महत्वपूर्ण है कि इंका की प्रांतीय सरकार भी चालू व्यवस्था में कोई बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं ला पा रहीं हैं। इतना जरूर है कि उसके कई मुख्यमंत्रियों की कार्यशैली और छवि भाजपा के मुख्यमंत्रियों के मुकाबले कहीं बेहतर है।
जहां तक भाजपा के हिंदू वोट बैंक के भाजपा से निराश होने का सवाल है तो इस पर भाजपा नेतृत्व का स्पष्टीकरण बड़ा रोचक है। वे कहते हैं कि बहुमत के अभाव में हम संघ और भाजपा के मूल एजेंडा को लागू करने में असमर्थ हैं। फिर भी जो कर सकते हैं कर रहे हैं। इसके लिए वे जनता से पूर्ण बहुमत देने की मांग करते हैं। पर इस बात का भाजपा नेतृत्व के पास कोई उत्तर नहीं कि गोविन्दाचार्या सरीखे समर्पित स्वयं सेवकों को दरकिनार कर  व मल्टीनेशनल्स् के दलालों को अपना नेता बना कर उनका दल क्यों दुनिया के सामने प्रस्तुत कर रहा है? क्या भाजपा के पास इससे बेहतर लोग नहीं हैं ? या फिर भाजपा भी सत्ता के माया जाल में फंस चुकी है और उन लोगों के इशारे पर नाच रही है जो स्वार्थपूर्ति के लिए देश और समाज के हित का बलिदान देने को भी हमेशा तैयार रहते हैं। हो सकता है कि ऐसे लोगों से दल को वित्तीय मदद मिलती हो, पर क्या यह इतनी बड़ी उपलब्धि है कि इसके लिए संघ के लोगों की भावनाओं का भी तिरस्कार कर दिया जाए ? उन लोगों का जो दशकों से त्याग, तपस्या का जीवन जीकर संगठन को खड़ा करते आए हैं। अगर भाजपा का तर्क यह है कि अल्पमत में होने के बाद, सत्ता चलाने के लिए अनेक तरह के दबावों में काम करना पड़ता है तो प्रश्न उठेगा कि फिर भाजपा दूसरे दलों से बेहतर दल कहां रहा ? इस पर अगर भाजपा यह स्वीकार भी कर लेती है कि उसका दल दूसरे दलों से गुणात्मक रूप में बेहतर नहीं तो फिर उसे समर्थन ही क्यों दिया जाए ? फिर तो सभी दल एक से हैं। ऐसे तमाम सवाल आज उत्तर प्रदेश की जनता के मन में उठ रहे हैं। इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनावों को लेकर कोई भी तस्वीर साफ नहीं है।
दलों में आंतरिक लोकतंत्र का लोप होना, एक व्यक्ति का दो पद स्वीकारना, दलों में नैतिक नेतृत्व को दरकिनार करना, बिना आम आदमी को राहत दिए दुनिया विकसित देशों से होड़ करना, कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें सत्ता में आने के बाद हर दल करता है। यही उसके पतन का कारण बनते हैं। चुनाव जीतने और सत्ता पर काबिज होने के लिए कुछ जोड़-तोड़ करना या कुछ अनैतिक काम करना अगर दलों की मजबूरी है, तो उससे बचा नहीं जा सकता। पर इसके साथ यह भी जरूरी है कि दल के समर्पित लोगों को पूरा सम्मान और महत्व दिया जाए और सत्ता का अधिक से अधिक विक्रेंद्रीकरण किया जाए। यदि ऐसा होता है तो पारस्परिक दबाव और अंकुश से कोई भी दल अपनी गरिमा बचाए रख सकता है और जनता को भी फायदा पहुंचा सकता है, चाहे भाजपा हो या इंका या सपा। कहने को तो हमारे यहां लोकतंत्र है पर दुर्भाग्य से हमारे राजनैतिक दल प्राइवेट लि. कंपनी की तरह काम कर रहे हैं। ऐसे में इस देश का लोक और तंत्र दोनों राम भरोसे ही है।

Friday, January 25, 2002

सिर्फ कानून बनाने से नहीं मिलेगी सबको शिक्षा

एक तरफ तो दुनिया में आगे बढ़ने की होड़ लगी है। वैश्वीकरण की आंधी चल रही है। हम दुनिया के विकसित देशों से मुकाबला करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि फास्ट ट्रक हाईवे पर जब 140 कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से गाडियां दौड़े तो कोई जाहिल गंवार आदमी रास्ते में न आ जाए। हम चाहते हैं कि हर गांव में कंप्यूटर लगा हो और पूरा देश उस कंप्यूटर के जरिए गांव से जुड़ा हो। हम चाहते हैं कि हमारे देश का आम आदमी अपने कर्तव्यों और अधिकारांे को समझे और दकियानूसी जिंदगी से निकलकर प्रगतिशील बने। हम यह भी चाहते हैं कि महिलाओं के हक, नशाबंदी, एड्स, मतदान के अधिकार जैसी सूचनाओं को हर आदमी समझें। पर ये सब होगा कब और कैसे ? जब देश का हर नागरिक शिक्षित होगा। इसी उद्देश्य से हाल ही में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने शिक्षा को मूलभूत अधिकार बना दिया है। ऐसा संविधान में संशोधन करने के बाद हुआ है। नए कानून के मुताबिक 6 से 14 वर्ष के हर बच्चे को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देना, सरकार की जिम्मेदारी है। साथ ही हर माता-पिता का यह कर्तव्य घोषित कर दिया गया है कि वे अपने बच्चों को मुफ्त शिक्षा के लिए भेजें।



आजादी के 52 वर्ष बाद ही सही पर इस कदम के लिए सत्ता और विपक्ष की तारीफ की जानी चाहिए। दरअसल संयुक्त मोर्चा की सरकार ने 1997 में यह बिल पेश किया था। जिसके तुरंत बाद इन्द्र कुमार गुजराल की सरकार गिर जाने के कारण बिल पास नहीं हो सका। पर जिस रूप में मौजूदा कानून बना है उसमें न सिर्फ बहुत सी खामियां हैं बल्कि इस बात में भी संदेह है कि इस कानून के बाद भारत के करोड़ों बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था हो पाएगी।



सबसे पहली बात तो यह है कि यह कानून सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की अवहेलना करता है। 1993 में दिए गए एक आदेश के तहत सर्वोच्च न्यायालय ने 14 वर्ष तक के हर बच्चे के लिए मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी बताया था। मौजूदा कानून में इस बात की अनदेखी करके केवल 6 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा का ही जिम्मा लेने की बात की गई है। 6 वर्ष तक के बच्चे कहां धक्के खाएंगे इसकी चिंता किसी को नहीं।



इस कानून की दूसरी सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें माता-पिता पर बच्चों को शिक्षा दिलाने की जिम्मेदारी को एक अनिवार्य कर्तव्य के रूप में स्थापित कर दिया गया है। इससे स्थानीय प्रशासन के हाथ में एक अतिरिक्त हथियार आ गया है जिसका दुरूपयोग करके वे देहातों में रहने वाले गरीब और निरक्षर लोगों को प्रताडि़त कर सकता है। बच्चों को स्कूल न भेजने के जुर्म में देश भर में 17 हजार गरीब माँ-बाप पर मुकदमें कायम हो चुके हैं। गरीब और बेराजगार माँ-बाप पर इस तरह का कानून थोपना न सिर्फ अमानवीय है बल्कि कानून बनाने वालों के मानसिक दिवालियापन का सूचक है। मुफ्त शिक्षा से सरकार का क्या मतलब ? क्या इतना ही कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की फीस नहीं देनी पड़ेगी ? पर इतने से कैसे काम चलेगा? गरीब माँ-बाप के लिए अपने बच्चों को मुफ्त शिक्षा दिलाना भी सरल नहीं। वो कैसे कपड़े पहन कर स्कूल जाएगा ? उनके बस्ते एवं किताबों की कीमत की भरपाई कहां से होगी ? उसे स्कूल जाने-आने में कितना खर्चा लगेगा ? वो स्कूल में दिनभर क्या खाएगा ? अगर वो स्कूल न जाता तो माँ-बाप की कमाई में कुछ योगदान करता। अब उसकी भरपाई कौन करेगा ? ऐसे तमाम सवालों के जवाब खोजे बिना ही कानून निर्माताओं ने माँ-बाप पर ये भार डाल दिया है। कानून के इस मकड़जाल को खत्म किया जाना चाहिए वरना लाखों गरीब लोग स्थानीय प्रशासन की उदंडता का शिकार बनेंगे।



जिस मुफ्त शिक्षा की बात सरकार कर रही है उसके स्वरूप को लेकर भी तमाम सवाल जनता के मन में हैं। देश में 4 लाख स्कूलों और 40 लाख शिक्षकों की जरूरत हैं। जब तक इनकी व्यवस्था नहीं होती शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाना बेमानी है। जो स्कूल आज हैं भी उनकी दुर्दशा पर पिछले 52 वर्षों में तमाम रपट प्रकाशित हो चुकी है। उन पर फिल्में भी बन चुकी हैं। सैकड़ों किताबें लिखी जा चुकी है। हजारों सेमिनार हो चुके हैं। दर्जनों आयोग अपनी सिफारिशें सरकार को दे चुके हैं। पर गांवों के स्कूलों की दशा सुधरी नहीं। कहीं स्कूल के भवन ही नहीं हैं, तो कहीं शिक्षक नहीं। कहीं जाड़े, गर्मी, और बरसात में पेड़ों के नीचे स्कूल चलते हैं, तो कहीं एक ही कमरे में पांच कक्षाओं के बच्चे बैठते हैं। कहीं एक ही टीचर पूरे स्कूल को संभालता है और कहीं आठवीं फेल टीचर पांचवीं के बच्चों को पढ़ाता है। शिक्षा के आधुनिक साजो-सामान, नई सोच, शिक्षकों का प्रशिक्षण, पुस्तकालय और खेल की सुविधाएं हैं ही नहीं। इन हालातों में देश के गरीब बच्चों को शिक्षा ने नाम पर क्या मिल रहा है उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसी शिक्षा के होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है ?



अक्सर सरकारें साधनों की कमी का रोना रोती आई हैं। जबकि हकीकत में ये है कि अपने शिक्षा बजट में कुल सकल राष्ट्रीय उत्पादन का मात्र 0.7 फीसदी इजाफा करके सरकार अपने फर्ज को पूरा कर सकती है। इतने बड़े राष्ट्र के विकास के लिए पूरे समाज का शिक्षित होना अनिवार्य शर्त है। शिक्षा हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। दूसरी योजनाएं और काम इंतजार कर सकते हैं लेकिन हम दुनिया की सबसे बड़ी अशिक्षित आबादी के भारी बोझ को लेकर विकास के रास्ते पर नहीं बढ़ सकते। यह आश्चर्य की बात है कि साधनों का रोना रोने वाली सरकारें जो करना चाहती हैं उसके लिए साधनों की कमी आड़े नहीं आती। सरकार को लोगों में कंप्यूटर को लोकप्रिय बनाना था तो आज गली-गली कंप्यूटर पहुंच गया। यही हाल एसटीडी बूथ और अब इंटरनेट सर्विस का भी हो रहा है। इसलिए शिक्षाविद्ों को लगता है कि सरकार चाहती ही नहीं कि लोग शिक्षित बनें। शायद उन्हें डर है कि यदि सारा समाज शिक्षित हो गया तो लोग अपना हक मांगने लगेंगे और तब सरकारी ठाट-बाट और फिजूलखर्ची पर उंगलियां उठने लगेंगी। लोगों के जाहिल बने रहते में ही सरकार का फायदा है। जाहिल लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बहका कर चुनाव जीते जा सकते है। उन्हें समझदार बनाकर नहीं। इसीलिए आजादी के 52 वर्ष बाद भी भारत में औपचारिक शिक्षा अभी तक लोगों को नहीं मिली। 



नेशनल एलाइंस फाॅर फंडामेन्टल राईट्स टू एजुकेशनके संयोजक संजीव कौरा फिर भी हताश नहीं हैं। मल्टीनेशलन कंपनी में चार्टेड एकाउंटेन्सी की शानदार नौकरी छोड़कर इस काम में जुटे हैं। उनके युवा मन में उत्साह है। पिछले डेढ वर्षों में इस एलाइन्स के साथ देश भर की 2400 से ज्यादा स्वयं सेवी संस्थाएं जुड़ गई हैं। 28 नवंबर 2001 को जब संसद में शिक्षा को मूलभूत अधिकार बनाए जाने के बिल पर बहस हो रही थी तब दिल्ली की सड़कों पर देश भर से आए 50 हजार माँ-बाप प्रदर्शन कर रहे थे। जिन्हें जागृत और संगठित करने का काम इस एलाइन्स ने किया था। संजीव को इस बात का एहसास है कि 100 करोड के इस देश में सबको शिक्षा दिलाने का लक्ष्य तो शायद 30 वर्ष में भी पूरा न हो पर वे इस कानून के आ जाने को भी एक उपलब्धि मानते हैं। उनका कहना है कि, ‘‘आज 52 वर्ष के बाद कानून तो बना। आने वाले दिनों में इस कानून के लागू करने में हो रही खामियों को भी दूर किया जाएगा।’’ जबकि पिछले 52 वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में अपना जीवन लगा देने वाले अनेक सुप्रसिद्ध शिक्षविद बहुत उत्साही नहीं हैं। ये सब वे लोग हैं जो संजीव की तरह ही देश-विदेशों में उच्च पदों को त्याग कर सबको शिक्षादिलाने के काम में जुटे थे। इन्होंने आम आदमी के लिए सस्ती, सुलभ और वैज्ञानिक शिक्षा प्रदान करने के अनेक प्रयोग भी किए और नए माॅडल भी विकसित किए। ये व्यवस्था से दूर देहातों में भी रहे और व्यवस्था में सलाहकार बनकर उसे सुधारने के प्रयास भी किए। इन्हें सफलता, कीर्ति और प्रोत्साहन भी मिला और विरोध भी। पर तीन-चार दशकों तक त्यागमय जीवन जीने के बाद भी इनका अनुभव यही रहा है कि नौकरशाही और राजनेता देश को जाहिल ही रखना चाहते हैं और साधन और सक्षम लोग होने के बावजूद शिक्षा को सबके लिए सुलभ नहीं करना चाहते।



ऐसे लोग यह मानने को तैयार नहीं है कि कोई भी सरकार इस देश के सौ करोड लोगों को साक्षर और शिक्षित बनाने का काम ईमानदारी से करेगी। इसीलिए ये सब हताश बैठे हैं। इनकी हताशा जायज है। पर जहां चाह वहां राह। हो सकता है कि पिछली सदी इस काम के लिए ठीक न रही हो। पर अब संचार और सूचना के फैलते जाल के बाद लोगों को मुख्य धारा से अलग-थलग रखना सरल न होगा। जनआकांक्षाएं इतनी बढ़जाएंगी कि शिक्षा का महत्व सबकी समझ में आ जाएगा। इसी उम्मीद के साथ व्यवस्था के अंदर और बाहर रहने वाले सभी जागरूक और कर्तव्यनिष्ठ लोगों को शिक्षा के वितरण का पुण्य कार्य यथाशक्ति करना चाहिए। इसमें ही हमारे राष्ट्र का कल्याण निहित है।

Friday, January 18, 2002

दिल्ली में लगी टिकटों की बोली

पिछले दिनों विधान सभा चुनावों के लिए टिकटार्थियों का दिल्ली में मेला लगा रहा। इंका, सपा, भाजपा व बसपा के पार्टी मुख्यालय व नेताओं के घर टिकट की हसरत लिए हजारों लोग डेरा डाले बैठे रहे। इसमें कोई नई बात नहीं थी। हमेशा से ऐसा होता आया है। किसी भी पार्टी में आन्तरिक लोकतंत्र तो है नहीं, जो उम्मीदवारों का फैसला स्थानीय स्तर पर हो जाये। हर पार्टी निजी जागीर की तरह चलती है। इसलिए स्थानीय स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं और उम्मीदवारों की योग्यता का विशेष महत्व नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के प्रति समर्पित, निष्ठावान, विचारधारा से जुड़े और अनुभवी लोगों को दरकिनार करके प्रापर्टी डीलरों, अपराधियों, माफियाओं को आसानी से टिकट मिल जाते हैं। चुनाव जीतने की सम्भावना जिसकी ज्यादा होती है उसे अक्सर वरियता मिलती है बशर्ते वह अन्य शर्तें भी पूरी करता हो। मसलन टिकट बांटने के लिए निर्धारित समिति के सदस्यों को उसनें प्रसन्न रखा हो या फिर उनको मुँह मांगी कीमत देने को तैयार हो। जिसे टिकट मिल जाती है वह कभी नहीं कहता कि पैसे देकर टिकट ली है। पर जिसे नहीं मिलती वह जरूर आरोप लगाता है कि टिकट बेची गई। हकीकत दोनों के बीच में है। चुनाव जीतने की योग्यता, दल के वरिष्ठ नेताओं से व्यक्तिगत सम्बन्ध और धन-बल तीनों ही मिलकर किसी व्यक्ति की उम्मीदवारी पर दल का अधिकृत उम्मीदवार होने की मुहर लगाते हैं। पिछले दिनों सभी दलों को लेकर यही शिकायत मिली। जब धुंआ उठता है तो कहीं आग भी लगी होती है। आगामी विधान सभा चुनावों के लिए टिकट बांटते वक्त हर दल के खेमे में अपने दल के नेताओं के विरुद्ध ऐसे आरोप सुनाई दिए। राष्ट्र और समाज हित को छोड़ भी दें तो भी यह किसी राजनीतिक दल के लिए आत्मघाती स्थिति है।

इस तरह तो पूरी राजनीति का व्यावसायीकरण हो जायेगा। जब कोई उम्मीदवार पैसे देकर पार्टी का टिकट लेगा तो जीतने के बाद उसे पैसे लेकर दल बदलने में कोई संकोच न होगा। क्योंकि उसका उस दल से कोई वैचारिक सम्बन्ध तो होगा नहीं। मौका परस्ती की शादी वक्त से पहले ही टूट जाती है। पिछले वर्षों में देश की विधानसभाओं में यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। जब किसी स्थानीय दल के 10-20 विधायक रातों-रात पाला बदल लेते हैं तो सरकारें बनती बिगड़ती रहती हैं। इससे न सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है बल्कि ब्लैकमेलिंग और भ्रष्टाचार बढ़ जाता है। छोटे-छोटे दल अपने जा-बेजा काम सरकार से करवाते रहते हैं। काम न होने पर रूठ कर सरकार विरोधी गतिविधियों में लग जाते हैं। इतना ही नहीं इस तरह की ब्लैकमेलिंग से घिरे मुख्यमंत्री चाह कर भी कड़े कदम नहीं उठा पाते। क्योंकि उन्हें हरदम अपनी कुर्सी चले जाने का भय रहता है। पारस्परिक आर्थिक हितों से जुड़ा यह समूह समाज के लिए कुछ भी ठोस नहीं करता। इससे निराशा फैलती है। सरकारों के प्रति जनता में नाराजगी फैलती है। इतना ही नहीं जब कोई माफिया बिना योग्यता के टिकट पाने में सफल हो जाता है तो उस दल के स्थानीय कार्यकर्ताओं में कुन्ठा भर जाती है। उन्हें अपने दल के नेताआंे पर विश्वास नहीं रहता। दल में रह कर भी उनमें निरन्तर असुरक्षा की भावना बढ़ती जाती है। ऐसी मानसिकता और खरीद-फरोक्त से टिकट पाये उम्मीदवार से समाज और राष्ट्र का कोई भला नहीं होता। फिर तो ये लोग चाहे चुनाव जीतें या न जीतें। यही कारण है कि अब हर राजनीतिक दल से जनता का मोह भंग हो चुका है। वह मजबूरी में वोट तो देती है पर उसका वोट उसकी भावनाओं के अनुरूप नहीं होता। इसीलिए हर राजनैतिक दल चुनाव के पहले अपने उम्मीदवारों के चयन को लेकर सशंकित रहता है। टिकटों की सौदेबाजी घटने के बजाय और ज्यादा बढ़ रही है। एक-एक टिकट पर टिकट मांगने वालों में हजारों प्रत्याशी तक हो सकते हैं। जाहिर है कि टिकट हजारों में से किसी एक को मिलती है। बाकी के लोग हताशा में अपने क्षेत्र लौट जाते हैं। वहां जाकर वे अपने ही दल के प्रत्याशी के विरुद्ध प्रचार और तोड़-फोड़ की कार्यवाही में लग जाते हैं ताकि अपने ही दल के प्रत्याशी को हराकर हाई कमान को ये संदेश दे सकें कि उनके चयन में दोष था।

किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए यह सब बहुत शर्मनाक बात है। टिकटार्थियों के चयन में सबके लिए एक-सी आवेदन फीस निर्धारित की जा सकती है ताकि जितने ज्यादा उम्मीदवार आवेदन दें उतना ही उस दल के कोष मे धन जमा हो जाये जो बाद में दल के काम आये। पर उम्मीदवारों से पैसे लेकर टिकट देना तो बहुत ही घातक बात है। इससे तो पूरी चुनाव प्रक्रिया की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। अफसोस की बात तो यह है कि हमारे लोकतंत्र में यह प्रवृत्ति घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। इससे हर दल का नुकसान हो रहा है। हर दल के वरिष्ठ नेताओं को इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने चाहिए। आज तो पैसे देकर आये ये लोग मुख्यमंत्रियों को ही नचाते है। पर इस दुश्प्रवृत्ति पर यहीं रोक न लगाई गई तो आने वाले दिनों में केन्द्रीय स्तर के नेता भी गाँव कस्बे के नेताओं की तरह ऐसे अनुशासनहीन प्रत्याशियों की सार्वजनिक आलोचना और तिरस्कार का शिकार बनेंगे।

आवश्यकता इस बात की है कि हर दल अपनी स्थानीय इकाईयों को न सिर्फ सशक्त करे बल्कि उनमें आन्तरिक लोकतंत्र को बढ़ावा दे। स्थानीय स्तर पर पार्टी का काम करने वालों और पार्टी के लिए उम्मीदवारों का चयन करने वालों के अलग-अलग समूहों की स्थापना करे। हर विधानसभाई और संसदीय क्षेत्र में पार्टी का संगठन कार्य उसके कार्यकर्ता संभालें। लेकिन ये कार्यकर्ता टिकट के लिए अपनी उम्मीदवारी पेश न करें या उसके लिए दिल्ली आकर समर्थन न जुटायें। उम्मीदवारी का आवेदन करना ही आवेदक की कुपात्रता का प्रमाण माना जाए। उम्मीदवार का चयन करने के लिए दल का राष्ट्रीय या प्रान्तीय नेतृत्व स्थानीय स्तर पर संभ्रांत, अनुभवी, प्रतिष्ठित और लोकप्रिय लोगों की समितियाँ बनायें। जिस तरह सरकारी नौकरी में हर कर्मचारी की गोपनीय आख्या केन्द्र को भेजी जाती है, उसी तरह इस चयन समिति के सदस्य बिना प्रचार किये खामोशी से दल के हर कार्यकर्ता के काम पर नज़र रखें। यह काम केवल चुनाव के पहले नहीं बल्कि एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच के दौर में निरन्तर चलता रहे ताकि चुनाव आने से पहले इस समिति की सिफारिश पर उम्मीदवार का चयन किया जाए। इससे दिल्ली की खामखाह भागदौड़ खत्म होगी। कार्यकर्ता अपना काम मन से करेंगे और दल का उम्मीदवार योग्यता और पात्रता लिए हुए होगा। बाकी के कार्यकर्ताओं के लिए ऐसे उम्मीदवार का चुनाव में सहयोग करना और उसके लिए चुनाव प्रचार करना अनिवार्य और सहज हो जायेगा। शुरू में यह अटपटा जरूर लगेगा पर बाद में इस प्रक्रिया से हर दल की राजनैतिक संस्कृति में व्यापक सुधार आयेगा। आजादी के बाद के सालों में ऐसा ही माहौल हुआ करता था जबकि तब आज के मुकाबले लोगों की जानकारी काफी कम होती थी। पर क्रमशः सब कुछ हाईकमान के नाम पर होता चला गया। चाहे एक नेता का दल हो या सौ बड़े नेताओं वाला दल। सब में हाईकमान के नाम पर ही ये सब होने लगा है।

यहां सवाल उठ सकता है कि जब राजनीति जन-सेवा का माध्यम है तो उम्मीदवार एक-एक टिकट के लिए पचासों लाख रूपये तक खर्च करने को क्यों आतुर रहते हैं ? साफ जाहिर है कि राजनीति अब समाज की सेवा का नहीं बल्कि राजनेताओं के आत्मपोषण का माध्यम बन गई है। न तो इसमें किसी योग्यता की जरूरत बची है न इसमें आने के लिए कोई प्रवेश परीक्षा पास करनी होती है न इसमें सरकारी नौकरी की तरह किसी चरित्र-प्रमाणपत्र की आवश्यकता होती है, न इसमें कोई सेवा-निवृत्ति की अधिकतम आयु सीमा होती है। इसमें तो जो कुछ धन टिकट प्राप्त करने और चुनाव लड़ने में खर्च होता है उसका कई गुना चुनाव जीतने के बाद तमाम तरीकों से लौटकर उम्मीदवार के पास आ जाता है। चाहे वह रिश्वत के तौर पर हो या कमीशन के तौर पर। दरअसल आज राजनीति से अच्छा व्यापार दूसरा नहीं। जिसमें पैसा लगाते ही लाभ सुनिश्चत होता है और पैसा डूबने का तो कोई जोखिम होता ही नहीं। इसलिए टिकट पाने की होड़ में वही लोग भागते हैं जिनके पास धन-साधन काफी हैं, पर वे राजनीति में आकर अपनी धन लिप्सा को पूरी तरह संतुष्ट कर लेना चाहते हैं। ऐसे लोग भला समाज या प्रान्त या फिर राष्ट्र का क्या भला करेंगे ? ये लोग कैसे अपने मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे। यही कारण है कि भारत का मतदाता क्रमशः हर दल से विमुख होता जा रहा है। वोट बैंक की बातें चाहे जितनी हों कोई गारन्टी से नहीं कह सकता कि इतने वोट उसकी मुट्ठी में बंद हैं। लोकतंत्र में ऐसी अनिश्चतता का होना देश के विकास के लिए शुभ लक्षण नहीं हैं। समस्या यह है कि हर दल किसी न किसी तरह सत्ता पर काबिज होना चाहता है। राजनीति में आई गिरावट को सुधारना किसी के भी एजेन्डे में नहीं है। सब मतदाताओं को सुहावने सपने दिखाकर और भ्रमित करके अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। इसीलिए कुछ बदलता नहीं। चुनाव से भी नहीं।

Friday, January 11, 2002

ऐसे भी हैं मुख्यमंत्री


आज जबकि ज्यादातर राजनेता जनता के बीच अपनी खराब छवि के कारण अलोकप्रिय हो रहे हैं कुछ ऐसे मुख्यमंत्री भी हैं जो अपनी कार्यकुशलता के कारण जनता में लोकप्रिय हो रहे हैं। इस क्रम में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू, कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.एम. कृष्णा और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम सबसे ऊपर है। इन मुख्यमंत्रियों ने कार्यकुशलता और प्रशासनिक जवाबदेही की अच्छी मिसाल कायम की है। आज से पहले जो लोग हैदराबाद गए होंगे उन्हें यह देखकर आश्यचर्य होगा कि हैदराबाद अब एक सजा-संवरा शहर बन चुका है। शहर की सफाई रात के 10 बजे से सुबह 4 बजे के बीच पूरी हो जाती है। जिस समय महापालिका के कर्मचारी और अधिकारी हैदराबाद की सड़कों पर घूम-घूम कर सफाई के काम को अंजाम देते हैं। इसलिए हैदराबाद शहर में आपको कहीं भी कूडे़ का ढेर नजर नहीं आएगा। इतना ही नहीं हैदराबाद की सड़कों पर से अवैध कब्जे हटा दिए गए हैं। फुटपाथो को रंग-पोत कर साफ कर दिया गया है। अलबत्ता हैदराबाद के ट्रैफिक को अनुशासित करने मेें श्री नायडू के अधिकारी अभी सफल नहीं हुए हैं। हैदराबाद में ट्रैफिक आज भी वाहन चालकों की मनमानी चाल पर ही चलता है। लेकिन सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि हैदराबाद की सड़कों पर भिखारी कहीं भी दिखाई नहीं देते। दीवारों पर नारे और पोस्टर लगाने की भी मनमानी तरीके से छूट नहीं है। जाहिर है कि हैदराबाद की नागरिक सेवाओं की गुणवत्ता में आए इस सुधार के लिए श्री नायडू को काफी प्रयास करना पड़ा होगा। इसके लिए उन पर स्थानीय नेताओं और दबाव समूहों के अनावश्यक दबाव भी आए होंगे। लोगों ने उनके सुधार कार्यक्रमों का विरोध भी किया होगा। अवैध कब्जे हटाते समय उन्हें अपने वोट बैंक के खोने का भय भी रहा होगा। पर लगता है कि श्री नायडू ने इन सब बातों की परवाह किए बगैर नागरिक जीवन को सुधारने का बीड़ा उठाया और उसमें उन्हें भारी कामयाबी मिली।
इतना ही नहीं हैदराबाद के भवन निर्माण क्षेत्रों व अन्य कार्यक्षेत्रों में काम की संस्कृति में भारी सुधार आया है। वहां काम करने वाले मजदूरों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उनका हेल्मेट पहनना अनिवार्य कर दिया गया है। वे इस नियम का पालन भी कर रहे हैं। नतीजतन अब हैदराबाद में हर मजदूर हेल्मेट पहनकर ही काम नहीं करता बल्कि समय पर काम शुरू करता है और कुछ समय के लंच विश्राम के अलावा बाकी सब समय बड़ी तत्परता से काम करता है। पूरे हैदराबाद के माहौल में चुस्ती, फुर्ती व कर्तव्यपरायणता पग-पग पर दिखाई देती है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि श्री नायडू आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ही न होकर सीईओ हैं। इसीलिए वे हर क्षेत्र में कार्यकुशलता और गुणवत्ता लाने के पक्षधर हैं। सब जानते हैं कि चन्द्रबाबू नायडू ने अपना जीवन एक दामाद के तौर पर शुरू किया था। उनकी ख्याति सिर्फ इतनी सी थी कि वे आंध्र प्रदेश के दिवंगत मुख्य मंत्री एन.टी. रामा राव के दामाद थे। पर इतने वर्षों में उन्होंने स्वयं को एक दामाद की जगह एक युगदृष्टा के रूप में विकसित कर लिया है। ऐसा व्यक्ति जो समाज में सही परिवर्तन लाने की दिशा में निरंतर सक्रिय हो। 
जातिगत और क्षेत्रीय स्वार्थों में उलझे भारतीय लोकतंत्र में आज ऐसी परिस्थियां विकसित हो गई हैं कि चुनाव जीतने के लिए राजनेता को अच्दा काम करने की जरूरत नहीं होती बल्कि उसे हर परिस्थिति में राजनैतिक लाभ कमाना आना चाहिए। इसलिए कई बार अच्छा काम करने वाले राजनेता भी चुनाव में वांछित सफलता नहीं पाते, जो कि उन्हें मिलनी चाहिए। जबकि गुंडे और मवाली चुनाव प्रक्रिया का अवैध फायदा उठाकर चुनाव जीतने में कामयाब हो जाते हैं। इसलिए चन्द्रबाबू नायडू का काम उनके मतदाताओं को पसंद आएगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता है पर इतना निश्चित है कि अपनी मेहनत और लगन से चन्द्र बाबू नायडू ने आज के राजनीतिज्ञों के बीच प्रमुख हैसियत बना ली है। ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति में सक्रिय होना चाहिए। दिल्ली पर मात्र रिमोट कंट्रोल से काम नहीं चलेगा।
 जो काम श्री नायडू ने आंध्र प्रदेश में किया है वहीं काम राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत ने भी किया है। राजस्थान के समझदार नागरिकों का कहना है कि श्री गहलोत ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ मुख्य मंत्री हैं। उनकी सादगी और ईमानदारी की पूरे राजस्थान में प्रशंसा हो रही है। जयपुर शहर भी क्रमशः हैदराबाद की तरह ही साफ और सुंदर होता जा रहा है। इस शहर का वायु प्रदूषण लगभग समाप्त हो चुका है। भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ सरकार शिकंजा कसती जा रही है। श्री गहलोत को सबसे बड़ी सफलता तब मिली जब उन्होंने सरकारी कर्मचारियों की लंबी हड़ताल से डरे बिना हड़ताली सैकड़ों कर्मचारियों को बर्खास्त कर दिया। सरकार में बैठकर काम चोरी करने वालों को पहली बार यह एहसास हुआ कि वे सरकार को दबा नहीं पाएंगे। श्री गहलोत के इस एक निर्णय से प्रशासन में उनका डर बैठ गया। दूसरी तरफ बिजली की चोरी रोकने में भी श्री गहलोत को अभूतपूर्व सफलता मिली। प्रदेश में यह आलम था कि छोटे लोग ही नहीं बड़े-बड़े उद्योगपति तक बिजली की भारी चोरी करने में जुटे थे। सरकार को करोड़ों रूपए के राजस्व का घाटा हो रहा था। अब सब बिलबिला रहे हैं। ऐसे ही निहित स्वार्थ श्री गहलोत के खिलाफ दुष्प्रचार में जुटे हैं। पर श्री गहलोत अपनी कर्तव्यनिष्ठा से जनता के बीच लोकप्रिय होते जा रहे हैं। प्रदेश में आर्थिक संकट से निपटने के लिए श्री गहलोत ने कई कदम उठाए। उन्होंने सरकारी फिजूलखर्ची पर काफी हद तक रोक लगाने में सफलता हासिल की। कुछ  लोगों का आरोप है श्री गहलोत के इर्द-गिर्द रहने वाले उनकी शराफत का नाजायज फायदा उठाकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहे हैं। जिनसे श्री गहलोत को सावधान रहना होगा। वरना उनके किए कराए पर पानी फिर जाएगा।
 इसी तरह कर्नाटक के मुख्यमंत्री श्री एसएम कृष्ण की कार्यशैली भी सराही जा रही है। ये तीन मुंख्यमंत्री बाकी मुंख्यमंत्रियों के लिए मिसाल बन गए हैं। इनका काम यह सिद्ध करता है कि अपनी असफलता के लिए व्यवस्था को दोष देने वाले राजनेता दरअसल खुद ही प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारना नहीं चाहते। वरना ऐसी कामयाबी हर राज्य में मिल सकती है। यह इत्त्फाक ही है कि इन तीनों मुख्यमंत्रियों में से भाजपा के एक भी नहीं। दो इंका के हैं और एक तेलगूदेशम का। इन मुख्यमंत्रियों का काम पश्चिमी बंगाल सरकार के लिए भी एक सबक है। क्या वजह है कि पश्चिमी बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार पिछले बीस वर्ष सत्ता में रहने के बाद भी काम के ऐसे मानदंड स्थापित नहीं कर पाई ? इससे एक बार फिर यह सिद्ध हो गया है कि व्यवस्था कोई भी हो अगर उसके चलाने वाले सही नहीं है तो वह व्यवस्था नहीं चल सकती। किंतु यदि चलाने वाले सही हों तो व्यवस्था कैसी भी क्यों न हो काम करने लगती है। हमने लोकतंत्र अपनाया था इसलिए ताकि विविधता में एकता वाले इस विशाल राष्ट्र के हर नागरिक को सत्ता संचालन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भागीदारी रहे। पर दुर्भाग्य से लोकतंत्रिक संस्थाओं का ऐसा पतन हुआ है कि जनप्रतिनिधि अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। राजनैतिक ब्लैकमेलिंग, दलाली, अपराधियों को संरक्षण व समाज में द्वेष फैलाकर अपना फायदा देखने वाले आज राजनीति में ज्यादा हावी हो रहें। ऐसे में श्री नायडू व गहलोत आशा की किरण लेकर सामने आए हैं। इन्हें जरूरत है मजबूत हाथों की जो इनके कामों में इनकी मदद करे। प्रदेश की युवा पीढ़ी, सेवानिवृत्त कुशल अधिकारी और राजनैतिक कार्यकर्ता इनके साथ स्वयं सेवी रूप में जुड़ कर विभिन्न कार्यक्रमों की स्थिति पर निगरानी रख सकते हैं। प्रशासक और प्रजा के पारस्परिक सहयोग से ही भारत के विभिन्न प्रांतों का विकास संभव है।
यह आश्चर्य की बात है कि हमारे टीवी चैनलों पर ऐसा काम करने वाले राजनेताओं को ज्यादा तरजीह नहीं दी जा रही है। या तो ये लोग अपने काम में इतने मशगूल हैं कि इन्हें मीडिया प्रचार से ज्यादा अपने काम को अंजाम देने की चिंता है। या फिर मीडिया की रूचि ऐसे कर्तव्यनिष्ठ लोगों में कम और चटपटी खबरें बनाने वाले लालू यादव जैसे विवादास्पद राजनेताओं में ज्यादा है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि इन लोगों के अच्छे काम को देश भर में प्रचारित किया जाए ताकि दूसरे राजनेता भी इनसे प्रेरणा लें और राजनीति की संस्कृति को टांग घसीटी से निकाल कर रचनात्मक दिशा में ले जाएं ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदलते परिवेश में भारत का लोकतंत्र और भी ज्यादा मजबूती के साथ दुनिया के सामने उभर कर आएं।

Friday, January 4, 2002

युद्ध के लिए चाहिए अमरीका की हरी झंडी

कोई भी देश अपनी सार्वभौमिकता का कितना ही दावा क्यों न करे हकीकत यह है कि अब दुनिया में अमरीका की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हो या न हो इसका फैसला भी शायद अमरीका की मर्जी के बिना नहीं हो पाएगा। यूं युद्ध के हालात बनते जा रहे हैं। दोनों तरफ से तैयारी जोरों से चल रही है। भारतीय फौजों को सीमा तक पहुंचने में अभी तीन हफ्ते और लगेंगे। पर सवाल है कि क्या वाकई युद्ध होगा ? जानकारों का कहना है कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि अमरीका की मंशा क्या है ? अगर अमरीका नहीं चाहता कि युद्ध हो तो युद्ध नहीं होगा। चाहे दोनों तरफ भावनाओं का कितना ही उबाल उठता रहे। आज की तारीख तक पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर अमरीका के विमान तैनात हैं जिन्हें अफगानिस्तान पर हमला बोलने के लिए लगाया गया था। पाकिस्तान के हवाई अड्डों से अमरीकी सैन्य सामग्री को हटाये बिना भारत पाकिस्तान के हवाई अड्डों पर हमले नहीं कर सकता। अमरीका इन्हें तब तक नहीं हटायेगा जब तक यह उसकी सामरिक रणनीति को पूरा करने में काम आ रहे। अमरीकी विदेश नीति विशेषज्ञों का मानना है कि अमरीका आजतक पाकिस्तान को एक सहयोगी के रूप में देखता आया था। पर पिछले कुछ महीनों के घटनाक्रम ने यह साफ कर दिया है कि पाकिस्तान हमेशा से दोगली नीति चलता रहा है। पूरी दुनिया खासकर यूरोप के देश अब इस बात से आश्वस्त हो गये हैं कि दुनिया भर में फैले इस्लामी आतंकवाद को पूरी मदद और संरक्षण पाकिस्तान से ही मिलता रहा है। जब तक इस्लामी आतंकवाद का निशाना भारत जैसे दूसरे देश थे तब तक धनी देशों को कोई चिन्ता न थी। पर वर्ड ट्रेड सेन्टर पर 11 सितम्बर को हुए हमले के बाद अब यह साफ हो गया कि यूरोप और अमरीका के देश इस्लामी आतंकवाद के निशाने पर हैं। आतंकवादी कभी भी कहीं भी हमला करने में सक्षम हैं। फिदाई आतंकवादियों ने यूरोप और अमरीका के लोगों की नींद हराम कर दी है। 11 सितम्बर के बाद अमरीका की अर्थव्यवस्था को अभूतपूर्व झटका लगा है। उसकी वायु सेवाऐं भंवर में फंस गई हैं। बाजारों पर मंदी छा गई है। पर्यटन उद्योग हिल गया है। यूरोप और अमरीका अब यह समझ गये हैं कि अगर आतंकवाद पर काबू न पाया गया तो उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है। इसलिए वे हाथ-धोकर इस्लामी आतंकवादियों के पीछे पड़ गये हैं।

अमरीका को डर यह है कि पाकिस्तान के पास आणविक हथियारों का जो जखीरा है वह कहीं आतंकवादियों के हाथ न पड़ जाए। ऐसा हुआ तो दुनिया को भयावह परिणाम झेलने पड़ेंगे। इसलिए अमरीका हर कीमत पर पाकिस्तान पर अपना नियंत्रण और दबाव बनाये रखना चाहता है। अगर भारत-पाक युद्ध के बाद पाकिस्तान कमजोर होता है, टूटता है, विभाजित होता है तो अब उसके लिए दुनिया में आंसू बहाने वाला कोई नहीं। कहते हैं कि दूसरे के लिए कुआं खोदने वाला खुद खाईं में गिर जाता है। अफगानिस्तान में तालिबान को समर्थन देकर पाकिस्तान ने सोचा था कि वो अफगानिस्तान को ढाल की तरह इस्तेमाल करेगा। इस तरह उसकी आतंकी गतिविधियों पर पर्दा पड़ा रहेगा और अफगानिस्तान ही दुनिया में आतंकी देश के नाम से जाना जायेगा। इस काम के लिए पाकिस्तान ने आर्थिक तंगी के बावजूद सैकड़ों करोड़ रूपया पानी की तरह बहाया। यही काम उसने कश्मीर की घाटी में भी किया। पर उसकी ये नीति आज उसके गले का फंदा बन गई। तालिबान के पतन के बाद ये तमाम पैसा तो बर्बाद हुआ ही दुनिया के सामने उसकी पोल खुल गई। वो आतंकवादी देश के रूप में उभर कर सामने आया। अब पाकिस्तान के शासक बुरी तरह घिर गये हैं। अगर वे अमरीका का साथ छोड़ते हैं तो गृह-युद्ध में मारे जायेंगे और अगर अमरीका का साथ निभाते हैं तो अब भविष्य में आतंकवाद को समर्थन नहीं दे पायेंगे। कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान की विदेश नीति बुरी तरह विफल हुई है। लेकिन अमरीका को मात्र इससे सन्तोष नहीं होगा । जब तक पाकिस्तान के आणविक हथियारों को नष्ट नहीं किया जाता या उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण में नहीं रखा जाता तब अमरीका और यूरोप के देश चैन की नींद नहीं सो सकते। भारत-पाक युद्ध से अगर यह मकसद पूरा होता है तो अमरीका भारत को न सिर्फ युद्ध की अनुमति देगा बल्कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मदद भी करेगा। अगर ऐसा नहीं होता तब शायद उसकी रुचि दक्षिण एशिया में शान्ति बनाये रखने की ही हो।
हर युद्ध का इतिहास बताता है कि युद्ध लड़ने के कई गुप्त कारण भी हुआ करते हैं। हर युद्ध से सबसे ज्यादा लाभ हथियारों के सौदागरों को होता है। चाहे वे घरेलू हों या विदेशी। अगर भारत-पाक युद्ध होता है तो निःसन्देह कमजोर अर्थव्यवस्था की मार झेल रहे भारत पर अनावश्यक आर्थिक बोझ बढ़ेगा। किन्तु इससे भारत में रक्षा उपकरणों और हथियारों की मांग तेजी से बढ़ जायेगी जिसका फायदा उठाने से कोई नहीं चूकेगा। न तो देशी सौदागर न विदेशी। आज की परिस्थितियों में यदि भारत-पाक युद्ध होता है तो उसका सीधा लाभ अमरीका को मिलेगा। क्योंकि भारत उससे हथियार खरीदेगा। जिससे अमरीका की अर्थव्यवस्था में उछाल आयेगा। इधर युद्ध से ध्वस्त हुई दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को पटरी पर आने में कुछ वक़्त लगेगा। इस दौर में घरेलू मांग को पूरा करने के लिए भी इन देशों को भारी मात्रा में आयात करना पड़ेगा। जिसका फायदा अमरीका उठायेगा ही। इतना ही नहीं चीन भी इस मौके पर फायदा उठाने से नहीं चूकेगा। भारत की भौगोलिक सीमाओं से जुड़ा होने के कारण यह स्वाभाविक ही है कि भारत के घरेलू बाजार को अपने माल से पाटना चीन को बहुत सुविधाजनक लगेगा। इसलिए उसकी रुचि इस युद्ध के हो जाने में ही होगी। यह सही है कि चीन दक्षिण एशिया में भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनते हुए नहीं देख सकता। पर भारत-पाक युद्ध से उभर कर भारत कूटनीतिज्ञ सफलता भले ही प्राप्त कर ले, उसकी ताकत ज्यादा नहीं बढ़ेगी। वैसे भी चीन और पाकिस्तान के बीच कोई रक्षा समझौता तो है नहीं जो चीन पाकिस्तान की मदद को दौड़ा आये। चीन अब क्या मदद को आयेगा जब 1971 में ही नहीं आया। तब तो भारत इतना शक्तिशाली भी नहीं था। फिर भी जब भारतीय फौजें पूर्वी क्षेत्र में पूर्वी पाकिस्तान (बंगला देश) के भीतर बढ़ रही थीं तब अगर चीन पूर्वी क्षेत्र में अपनी हलचल बढ़ा देता तो भारत के लिए विकट स्थिति खड़ी हो जाती। उसे अपनी सीमित फौजों को कई मोर्चों पर लड़वाना पड़ता। पर चीन ने ऐसा नहीं किया। इसलिए अब ऐसा नहीं लगता कि चीन पाकिस्तान की मदद को दौड़ा आयेगा । वैसे भी इस्लामी कट्टरवाद पूर्व के सोवियत यूनियन के चेचन्या जैसे इलाकों में फैल रहा है। उससे चीन का सर्तक होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि पश्चिमी चीन के कई प्रान्त मुस्लिम आबादी वाले हैं। अगर इन प्रान्तों में भी इस्लामी कट्टरवाद फैल गया तो चीन के लिए मुश्किल खड़ी हो जायेगी। इसलिए ऊपर से चाहे जितना मीठा बने, चीन इस लड़ाई में पाकिस्तान की ठोस मदद नहीं करेगा।

भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने इजराइल से अपने जो संबंध पिछले वर्षों में विकसित किए हैं वे भी इस युद्ध में काम आ सकते हैं। लेबनान के आतंकवाद से त्रस्त इजराइल ऐसी परिस्थिति में भारत की मदद करने से नहीं चूकेगा। बहुत आश्चर्य नहीं होगा अगर इजराइल अपनी पैट्रीयाट मिसाइल भारत को दे दे। इस तरह भारत-पाक युद्ध में अगर भारत की निर्णायक जीत होती है तो इसमें शक नहीं कि देश में आतंकवाद काफी हद तक घट सकता है। क्योंकि तब उसे पाकिस्तान की सरपरस्ती नहीं मिलेगी। इसलिए गृहमंत्री का ताजा बयान महत्वपूर्ण है कि अगर लड़ाई होती है तो निर्णायक हो। उधर जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां के भाजपाईयों में यह चर्चा चल पड़ी है कि अगर भारत-पाक युद्ध होता है तो इसका पूरा लाभ उन्हें चुनाव में मिलेगा। इसलिए यह माना जाना चाहिए कि सत्तारूढ़ दलों की रुचि इस युद्ध के हो जाने में ही है। कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने पत्रकारों के प्रश्नों के जवाब में यह साफ कहा कि आतंकवाद इस चुनाव में मुद्दा बनेगा। जब उनसे पूछा गया कि क्या अयोध्या में मन्दिर का निर्माण भी उनका चुनावी मुद्दा होगा तो उनका उत्तर था कि मन्दिर कभी चुनावी मुद्दा नहीं रहा। दरअसल भाजपा के नेतृत्व की सोच में आये इस अप्रत्याशित बदलाव की पृष्ठभूमि में यह तथ्य है कि पिछले एक वर्ष में अयोध्या मन्दिर के सवाल को लेकर विहिप के सभी प्रयास जन-भावनाऐं उकसाने में विफल रहे हैं। इसलिए उन्हें यह मुद्दा अब चुनाव के लिए सार्थक नहीं लगता। उत्तर प्रदेश की जनता के बीच विपक्षी दल गुपचुप यह प्रचार करने में जुटे हैं कि भारत-पाक के बीच युद्ध का माहौल चुनावों को ध्यान में रख कर बनाया जा रहा है। शायद यही कारण है कि भाजपा के नेता उत्तर प्रदेश में भीड़ को आकर्षित करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। देश में इस बात की चर्चा है कि अगर इस मौके पर केंद्रीय गृह मंत्री आईएसआई की गतिविधियों पर एक श्वेतपत्र जारी कर दें तो उससे लोगों की भ्रांती काफी दूर होगी और उन्हें मौजूदा हालात में सरकारी कदमों की सार्थकता का औचित्य समझ में आ जाएगा। वैसे जन-भावनाओं का कोई भी आकलन इस समय नहीं किया जा सकता। मूलतः भावावेष में बहने वाली भारतीय जनता का हृदय कब पलट जाये, नहीं कहा जा सकता। युद्ध की मानसिकता राजनैतिक दुश्मनों को भी मित्र बना देती है। फिर जनता तो बिचारी आसानी से भावावेश में आ सकती है।

कुल मिलाकर हालात ऐसे हैं कि युद्ध होगा कि नहीं, साफ नहीं कहा जा सकता। पर इतना तय है कि इसका फैसला वाशिग्टन से हरी झंडी मिलने के बाद ही होगा। अगर युद्ध होता है तो उसमें सबसे ज्यादा तबाही पाकिस्तान की होगी। पाकिस्तान यह बखूबी जानता है, इसलिए वहां युद्ध को लेकर कोई उत्साह नहीं है। जबकि भारत में इस बात पर गंभीर चिंतन चल रहा है कि अगर इस मौके का फायदा उठाकर भारत ने पाकिस्तान की लगाम नहीं कसी तो भविष्य में शायद ऐसा मौका जल्द नहीं आए।

Friday, December 21, 2001

क्या पाक पर हमला जरूरी है ?

सारे देश में बहस छिडी है कि भारत को पाक अधिकृत कश्मीर पर हमला करना चाहिए या नहीं? दोनों ही पक्षों में अलग-अलग तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। दरअसल संसद पर आतंकवादी हमले के बाद देश का निजाम बुरी तरह हिल गया है। आशंका तो थी पर ये न मालूम था कि हमलावर इतनी आसानी से लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था में घुसे चले आएंगे। अगर उपराष्ट्रपति के काफिले से आतंकवादियों की कार अचानक टकराई न होती तो बहुत बड़ा हादसा हो सकता था। इसीलिए विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर हमला बोल रखा है। उनका कहना है कि जब यह बात मालूम थी कि आंतकवादियों के निशाने पर संसद है तो क्यों नहीं सावधानी बरती गई ? आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई में सरकार का हर तरह से साथ देने को तैयार विपक्ष यह स्वीकारने को तैयार नहीं है कि संसद पर हमले में सरकार ने अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय दिया। भारी दुर्घटना को टाल देने के लिए सभी एकमत से उन सुरक्षाकर्मियों की तारीफ कर रहे हैं जिन्होंने अपनी जान पर खेल कर संसद की रक्षा की। उधर सरकार आतंकवादियों के इस दुस्साहस के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार मानकर उस पर हमला करने का मन बना रही है।

सभी ये मानते हैं कि भारत में आतंकाद फैलने में सबसे बड़ी भूमिका पाकिस्तान की रही है। इस बात के तमाम सबूत भारत सरकार के पास मौजूद हैं। कुछ सबूत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करके भारत ने अपने प्रति दुनिया भर की सहानुभूति बटोरी है। यह हमारी विदेश नीति की सफलता है। विदेश मंत्री जसवंत सिंह कारगिल युद्ध के समय से ही अपनी भूमिका को बखूबी अंजाम देते आए हैं। 11 सितंबर के हमले के बाद तो अमरीका का रवैया भी बदला है। कश्मीर में फैले आतंकवाद को आज तक आजादी की लड़ाई मानने वाले देश अब यह समझ गए हैं कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसमें स्थानीय नागरिकांे की नहीं बल्कि भाड़े के आयातित आतंकवादियों की भूमिका ज्यादा है। जिन्हें पाकिस्तान की संस्था आईएसआई बाकायदा प्रषिक्षण, धन और हथियार देकर भारत भेजती रही है। इसलिए पाकिस्तान के प्रति कड़ा रूख अपनाना जरूरी है। पर देश के रक्षा विशेषज्ञ इस बारे में एकमत नहीं हैं। उनका मानना है कि ऐसा करना अपरिपक्वता का निशानी होगा। क्योंकि 11 सितंबर के बाद अब पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादियों के शिविर हटा दिए गए हैं। इसलिए हमला करके भी कुछ मिलने वाला नहीं है। अमरीका अफगानिस्तान के विरूद्ध युद्ध में इसलिए कामयाब हो सका क्योंकि उसने इस युद्ध में भारी तादात में संसाधन भेजे, मगर सामने से लड़ने वाले अफगानी संसाधन हीन थे। फिर उसने अफागानियों से लड़वाया भी अफगानियों को ही। जबकि पाक अधिकृत कश्मीर पर अगर भारत हमला करता है तो पाकिस्तान चुप नहीं बैठेगा। वह भी पूरी ताकत लगा कर लड़गा। चीन भी शायद उसकी मदद को कूद पड़े। ऐसे में भारत एक लंबी लड़ाई में उलझ सकता है। जिसका विपरीत असर पहले से लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है। पर इस लड़ाई से भाजपा को उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में फायदा नजर आ रहा है। उसे उम्मीद है कि अगर विहिप राम मंदिर का सवाल उठा ले और भारत पाक के बीच संघर्ष हो जाए तो उसका काम बन जाएगा। लोगों की भावनाएं भड़काने में माहिर भाजपा यह नहीं चाहती कि किसी भी कीमत पर उत्तर प्रदेश की गद्दी उसके हाथ से छिने। अगर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा अच्छा प्रदर्शन नहीं करती तो उसकी केंद्र सरकार को भी भारी खतरा पैदा हो जाएगा। क्याकि तब भाजपा की केंद्र सरकार के सहयोगी दल अपने प्रांतों में होने वाले चुनावों में अपनी स्थिति बचाने के लिए भाजपा से पलड़ा छुड़ाना चाहेंगे। सत्तरूढ दल के लोग यह बात अच्छी तरह से जानते हैं इसलिए पाकिस्तान पर हमले की मांग को सबसे पहले भाजपा सांसदों ने ही हवा दी। उनका यह उत्साह भावनाएं तो भड़का सकता है पर आतंकवाद का समाधान नहीं निकाल सकता। भारत में आतंकवाद की समस्या बड़ी पेचिदा है। आतंकवाद के पनपने में कई चीजें काम करतीं हैं। मसलन धार्मिक स्कूलों या मदरसों में दी जा रही एकतरफा शिक्षा। गरीब युवाओं की बेरोजगारी जो उन्हें आतंकवादियों के सरगनाओं से मदद लेने को प्रेरित करती है। पैसे के लालच में ये युवा अपना सब कुछ गंवाने को तैयार रहते हैं। मजहब के नाम पर इनकी ऐसी दिमागी धुलाई की जाती है कि ये आतंकवाद को जेहाद का हिस्सा मानते हैं और अपने धर्म की रक्षा के लिए अपनी जान तक कुर्बान करने के लिए तैयार रहते हैं। संसद पर हमले में शामिल आतंकवादी युवा खासे पढ़े-लिखे थे। वल्र्डट्रेड सेंटर पर हमले के बाद जब अमरीकी सरकार ने उन हमलों में शामिल आतंकवादियों के अतीत की जांच करवाई तो उसे यह जानकर काफी हैरानी हुई कि ये नौजवान पढ़े-लिख और संपन्न घरों से थे। अमरीका में इस बात पर सघन अध्ययन किया जा रहा है कि पढ़े-लिखे आधुनिक लोग भी इस तरह मजहब के नाम पर अपनी जान कुर्बान करने के लिए कैसे तैयार हो जाते हैं ? यही सवाल भारत के सामने भी है। अगर पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत हमला करके कामयाबी भी हासिल कर ले तो भी आतंकवाद की घटनाओं से बचा नहीं जा सकता। कारण स्पष्ट है- आतंकवादी किसी एक संगठन या इलाके से जुड़े हुए नहीं हैं। सारे देश और विदेशों में फैले हैं। उन्हें आसानी से पकड़ा भी नहीं जा सकता क्योंकि उन्हंे कुछ स्थानीय नागरिकों का संरक्षण भी प्राप्त है। उनकी रणनीति गुरिल्ला है। वे मार कर गायब हो जाते हैं। चूंकि हवाला के जरिए देश में अरबों रूपया रात दिन आकर आतंकवादियों के बीच बंटता रहता है इसलिए वे निश्चिंत होकर अपने नापाक इरादों को अंजाम देने में लगे रहते हैं। संसद पर हमला करने वालों को भी हवाला के जरीए लाखों रूपया बाहर से आया था। इसलिए जब तक देश के भीतर आतंकवादियों के आर्थिक नेटवर्क को नहीं तोड़ा जाता तब तक कुछ खास होने वाला नहीं है। आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में इस बात की खुल कर चर्चा हो रही है कि आतंकवाद को अगर रोकना है तो हवाला नेटवर्क को रोकना होगा। क्योंकि पूरी दुनियां में आतंकवादियों को पैसे हवाला के जरिए ही पहुंच रहे हैं। पर भारत सरकार इस मामले पर खतरनाक चुप्पी साधे बैठी है। बड़े दुख की बात है कि 1991 में सीबीआई को कश्मीर के आतंकवादियों पर मारे गए एक छापे में मिले तमाम सबूतों के बावजूद हवाला कांड को हर स्तर पर बड़ी बेशर्मी से दबा दिया गया। जिसके तमाम सबूत हमारे पास मौजूद हैं। पर उनका जिक्र भर करने से संन्नाटा छा जाता है। सारे राजनैतिक नाटक बेनकाब हो जाते हैं। इस कोताही का नतीजा यह हुआ कि आतंकवादियों के बीच यह संदेश चला गया कि भारत की सरकार और उसकी जांच एजेंसियां आतंकवाद के हवाला स्रोतों को पकड़ने में रूचि नहीं ले रही हैं। आतंकवादियों को यह भी समझ में आ गया कि हवाला के इस अवैध तंत्र से फायदा उठाने वालों में देश के बड़े राजनैतिक दलों के सबसे सशक्त राजनेता भी शामिल हैं। इसीलिए उन्होंने जैन हवाला कांड जैसे महत्वपूर्ण मामले को दबवा दिया। इससे आतंकवादियों के हौसले और बढ़ गए। अगर 1991 से ही जैन हवाला कांड की ईमानदारी से जांच की गई होती तो आज आतंकवाद इस हद तक न फैल पाता। क्योंकि तब हवाला के पूरे नेटवर्क का पर्दाफाश हो जाता। आश्चर्य की बात है कि देश के बड़े नेता और वकील टीवी चैनलों पर आकर पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात तो कह रहे है पर आज तक किसी ने किसी चैनल पर या संसद में या फिर पत्रकारों के सामने जैन हवाला कांड की जांच में हुई कोताही का जिक्र नहीं किया, क्यों ? उन्होंने भी नहीं जिनके दल के नेताओं का नाम इसमें नहीं आया था। अन्य सभी घोटालों पर शोर मचाने वालों को हवाला कांड पर चुप रह जाना उनकी राजनैतिक मजबूरी है तो फिर वे किसी आधार पर आकर एक-दूसरे को कोसने का नाटक करते रहते हैं ?

इन हालातों में यह जरूरी है कि देश की भावनाओं को भड़काए बिना पूरी स्थिति का ठंड़े दिमाग से मूल्यांकन किया जाए। आतंकवाद से निपटने के लिए श्रीकेपीएस गिल जैसे लोगों को देश का सुरक्षा सलाहकार बनाया जाए और जैन हवाला कांड जैसे कांडों को दबाने के लिए जिम्मेदार पुलिस अफसरों व नेताओं के खिलाफ ईमानदारी से जांच करवा कर अपराधियों को सजा दी जाए। यदि ऐसा होता है तो पूरे देश के पुलिस अधिकारियों के सामने एक आदर्श संदेश जाएगा। वह यह कि अगर किसी ने भी आतंकवादियों या उन्हें संरक्षण और मदद देने वालों को पकड़ने में कोताही की तो उस पुलिसकर्मी को आतंकवादियों से मिला हुआ मानकर सजा दी जाएगी। संत तुलसी दास जी कह गए हैं, ‘भय बिन होय न प्रीत।’ इसलिए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का यह कहना महत्वपूर्ण है कि अब वे आतंकवाद से निपटने में मात्र शब्दों से ही काम नहीं चलाएंगे बल्कि कुछ कर दिखाएंगे। अगर वाकई ऐसा होता है तो निसंदेह उसकी छवि सुधरेगी। पर इसके साथ यह अनिवार्य शर्त होगी कि आतंकवाद को अवैध आर्थिक मदद पहुंचाने के तंत्र का पर्दाफाश करने वाले जैन हवाला कांड जैसे कांडों की भी निष्पक्ष जांच करवाई जाए। इससे भारत सरकार की गरिमा और विश्वसनीयता बढ़ेगी। अगर ऐसा नहीं होता तो यह साफ हो जाएगा कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर सत्तारूढ़ दल केवल राजनैतिक लाभ कमाना चाहता है। उसकी रूचि आतंकवाद को खत्म करने की नहीं है। यह बहुत दुखद स्थिति होगी। इसलिए पाक पर हमले से पहले हम अपने गिरबां में झांकें कि क्या हमने देश के भीतर ही आतंकवाद को रोकने के सभी वांछित कदम उठा लिए है ? अगर नहीं तो क्यों नहीं ?