पिछले दिनों विधान सभा चुनावों के लिए टिकटार्थियों का दिल्ली में मेला लगा रहा। इंका, सपा, भाजपा व बसपा के पार्टी मुख्यालय व नेताओं के घर टिकट की हसरत लिए हजारों लोग डेरा डाले बैठे रहे। इसमें कोई नई बात नहीं थी। हमेशा से ऐसा होता आया है। किसी भी पार्टी में आन्तरिक लोकतंत्र तो है नहीं, जो उम्मीदवारों का फैसला स्थानीय स्तर पर हो जाये। हर पार्टी निजी जागीर की तरह चलती है। इसलिए स्थानीय स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं की भावनाओं और उम्मीदवारों की योग्यता का विशेष महत्व नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के प्रति समर्पित, निष्ठावान, विचारधारा से जुड़े और अनुभवी लोगों को दरकिनार करके प्रापर्टी डीलरों, अपराधियों, माफियाओं को आसानी से टिकट मिल जाते हैं। चुनाव जीतने की सम्भावना जिसकी ज्यादा होती है उसे अक्सर वरियता मिलती है बशर्ते वह अन्य शर्तें भी पूरी करता हो। मसलन टिकट बांटने के लिए निर्धारित समिति के सदस्यों को उसनें प्रसन्न रखा हो या फिर उनको मुँह मांगी कीमत देने को तैयार हो। जिसे टिकट मिल जाती है वह कभी नहीं कहता कि पैसे देकर टिकट ली है। पर जिसे नहीं मिलती वह जरूर आरोप लगाता है कि टिकट बेची गई। हकीकत दोनों के बीच में है। चुनाव जीतने की योग्यता, दल के वरिष्ठ नेताओं से व्यक्तिगत सम्बन्ध और धन-बल तीनों ही मिलकर किसी व्यक्ति की उम्मीदवारी पर दल का अधिकृत उम्मीदवार होने की मुहर लगाते हैं। पिछले दिनों सभी दलों को लेकर यही शिकायत मिली। जब धुंआ उठता है तो कहीं आग भी लगी होती है। आगामी विधान सभा चुनावों के लिए टिकट बांटते वक्त हर दल के खेमे में अपने दल के नेताओं के विरुद्ध ऐसे आरोप सुनाई दिए। राष्ट्र और समाज हित को छोड़ भी दें तो भी यह किसी राजनीतिक दल के लिए आत्मघाती स्थिति है।
इस तरह तो पूरी राजनीति का व्यावसायीकरण हो जायेगा। जब कोई उम्मीदवार पैसे देकर पार्टी का टिकट लेगा तो जीतने के बाद उसे पैसे लेकर दल बदलने में कोई संकोच न होगा। क्योंकि उसका उस दल से कोई वैचारिक सम्बन्ध तो होगा नहीं। मौका परस्ती की शादी वक्त से पहले ही टूट जाती है। पिछले वर्षों में देश की विधानसभाओं में यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। जब किसी स्थानीय दल के 10-20 विधायक रातों-रात पाला बदल लेते हैं तो सरकारें बनती बिगड़ती रहती हैं। इससे न सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है बल्कि ब्लैकमेलिंग और भ्रष्टाचार बढ़ जाता है। छोटे-छोटे दल अपने जा-बेजा काम सरकार से करवाते रहते हैं। काम न होने पर रूठ कर सरकार विरोधी गतिविधियों में लग जाते हैं। इतना ही नहीं इस तरह की ब्लैकमेलिंग से घिरे मुख्यमंत्री चाह कर भी कड़े कदम नहीं उठा पाते। क्योंकि उन्हें हरदम अपनी कुर्सी चले जाने का भय रहता है। पारस्परिक आर्थिक हितों से जुड़ा यह समूह समाज के लिए कुछ भी ठोस नहीं करता। इससे निराशा फैलती है। सरकारों के प्रति जनता में नाराजगी फैलती है। इतना ही नहीं जब कोई माफिया बिना योग्यता के टिकट पाने में सफल हो जाता है तो उस दल के स्थानीय कार्यकर्ताओं में कुन्ठा भर जाती है। उन्हें अपने दल के नेताआंे पर विश्वास नहीं रहता। दल में रह कर भी उनमें निरन्तर असुरक्षा की भावना बढ़ती जाती है। ऐसी मानसिकता और खरीद-फरोक्त से टिकट पाये उम्मीदवार से समाज और राष्ट्र का कोई भला नहीं होता। फिर तो ये लोग चाहे चुनाव जीतें या न जीतें। यही कारण है कि अब हर राजनीतिक दल से जनता का मोह भंग हो चुका है। वह मजबूरी में वोट तो देती है पर उसका वोट उसकी भावनाओं के अनुरूप नहीं होता। इसीलिए हर राजनैतिक दल चुनाव के पहले अपने उम्मीदवारों के चयन को लेकर सशंकित रहता है। टिकटों की सौदेबाजी घटने के बजाय और ज्यादा बढ़ रही है। एक-एक टिकट पर टिकट मांगने वालों में हजारों प्रत्याशी तक हो सकते हैं। जाहिर है कि टिकट हजारों में से किसी एक को मिलती है। बाकी के लोग हताशा में अपने क्षेत्र लौट जाते हैं। वहां जाकर वे अपने ही दल के प्रत्याशी के विरुद्ध प्रचार और तोड़-फोड़ की कार्यवाही में लग जाते हैं ताकि अपने ही दल के प्रत्याशी को हराकर हाई कमान को ये संदेश दे सकें कि उनके चयन में दोष था।
किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए यह सब बहुत शर्मनाक बात है। टिकटार्थियों के चयन में सबके लिए एक-सी आवेदन फीस निर्धारित की जा सकती है ताकि जितने ज्यादा उम्मीदवार आवेदन दें उतना ही उस दल के कोष मे धन जमा हो जाये जो बाद में दल के काम आये। पर उम्मीदवारों से पैसे लेकर टिकट देना तो बहुत ही घातक बात है। इससे तो पूरी चुनाव प्रक्रिया की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। अफसोस की बात तो यह है कि हमारे लोकतंत्र में यह प्रवृत्ति घटने के बजाय बढ़ती जा रही है। इससे हर दल का नुकसान हो रहा है। हर दल के वरिष्ठ नेताओं को इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए कारगर कदम उठाने चाहिए। आज तो पैसे देकर आये ये लोग मुख्यमंत्रियों को ही नचाते है। पर इस दुश्प्रवृत्ति पर यहीं रोक न लगाई गई तो आने वाले दिनों में केन्द्रीय स्तर के नेता भी गाँव कस्बे के नेताओं की तरह ऐसे अनुशासनहीन प्रत्याशियों की सार्वजनिक आलोचना और तिरस्कार का शिकार बनेंगे।
आवश्यकता इस बात की है कि हर दल अपनी स्थानीय इकाईयों को न सिर्फ सशक्त करे बल्कि उनमें आन्तरिक लोकतंत्र को बढ़ावा दे। स्थानीय स्तर पर पार्टी का काम करने वालों और पार्टी के लिए उम्मीदवारों का चयन करने वालों के अलग-अलग समूहों की स्थापना करे। हर विधानसभाई और संसदीय क्षेत्र में पार्टी का संगठन कार्य उसके कार्यकर्ता संभालें। लेकिन ये कार्यकर्ता टिकट के लिए अपनी उम्मीदवारी पेश न करें या उसके लिए दिल्ली आकर समर्थन न जुटायें। उम्मीदवारी का आवेदन करना ही आवेदक की कुपात्रता का प्रमाण माना जाए। उम्मीदवार का चयन करने के लिए दल का राष्ट्रीय या प्रान्तीय नेतृत्व स्थानीय स्तर पर संभ्रांत, अनुभवी, प्रतिष्ठित और लोकप्रिय लोगों की समितियाँ बनायें। जिस तरह सरकारी नौकरी में हर कर्मचारी की गोपनीय आख्या केन्द्र को भेजी जाती है, उसी तरह इस चयन समिति के सदस्य बिना प्रचार किये खामोशी से दल के हर कार्यकर्ता के काम पर नज़र रखें। यह काम केवल चुनाव के पहले नहीं बल्कि एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच के दौर में निरन्तर चलता रहे ताकि चुनाव आने से पहले इस समिति की सिफारिश पर उम्मीदवार का चयन किया जाए। इससे दिल्ली की खामखाह भागदौड़ खत्म होगी। कार्यकर्ता अपना काम मन से करेंगे और दल का उम्मीदवार योग्यता और पात्रता लिए हुए होगा। बाकी के कार्यकर्ताओं के लिए ऐसे उम्मीदवार का चुनाव में सहयोग करना और उसके लिए चुनाव प्रचार करना अनिवार्य और सहज हो जायेगा। शुरू में यह अटपटा जरूर लगेगा पर बाद में इस प्रक्रिया से हर दल की राजनैतिक संस्कृति में व्यापक सुधार आयेगा। आजादी के बाद के सालों में ऐसा ही माहौल हुआ करता था जबकि तब आज के मुकाबले लोगों की जानकारी काफी कम होती थी। पर क्रमशः सब कुछ हाईकमान के नाम पर होता चला गया। चाहे एक नेता का दल हो या सौ बड़े नेताओं वाला दल। सब में हाईकमान के नाम पर ही ये सब होने लगा है।
यहां सवाल उठ सकता है कि जब राजनीति जन-सेवा का माध्यम है तो उम्मीदवार एक-एक टिकट के लिए पचासों लाख रूपये तक खर्च करने को क्यों आतुर रहते हैं ? साफ जाहिर है कि राजनीति अब समाज की सेवा का नहीं बल्कि राजनेताओं के आत्मपोषण का माध्यम बन गई है। न तो इसमें किसी योग्यता की जरूरत बची है न इसमें आने के लिए कोई प्रवेश परीक्षा पास करनी होती है न इसमें सरकारी नौकरी की तरह किसी चरित्र-प्रमाणपत्र की आवश्यकता होती है, न इसमें कोई सेवा-निवृत्ति की अधिकतम आयु सीमा होती है। इसमें तो जो कुछ धन टिकट प्राप्त करने और चुनाव लड़ने में खर्च होता है उसका कई गुना चुनाव जीतने के बाद तमाम तरीकों से लौटकर उम्मीदवार के पास आ जाता है। चाहे वह रिश्वत के तौर पर हो या कमीशन के तौर पर। दरअसल आज राजनीति से अच्छा व्यापार दूसरा नहीं। जिसमें पैसा लगाते ही लाभ सुनिश्चत होता है और पैसा डूबने का तो कोई जोखिम होता ही नहीं। इसलिए टिकट पाने की होड़ में वही लोग भागते हैं जिनके पास धन-साधन काफी हैं, पर वे राजनीति में आकर अपनी धन लिप्सा को पूरी तरह संतुष्ट कर लेना चाहते हैं। ऐसे लोग भला समाज या प्रान्त या फिर राष्ट्र का क्या भला करेंगे ? ये लोग कैसे अपने मतदाताओं की अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे। यही कारण है कि भारत का मतदाता क्रमशः हर दल से विमुख होता जा रहा है। वोट बैंक की बातें चाहे जितनी हों कोई गारन्टी से नहीं कह सकता कि इतने वोट उसकी मुट्ठी में बंद हैं। लोकतंत्र में ऐसी अनिश्चतता का होना देश के विकास के लिए शुभ लक्षण नहीं हैं। समस्या यह है कि हर दल किसी न किसी तरह सत्ता पर काबिज होना चाहता है। राजनीति में आई गिरावट को सुधारना किसी के भी एजेन्डे में नहीं है। सब मतदाताओं को सुहावने सपने दिखाकर और भ्रमित करके अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। इसीलिए कुछ बदलता नहीं। चुनाव से भी नहीं।
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