सारे देश में बहस छिडी है कि भारत को पाक अधिकृत कश्मीर पर हमला करना चाहिए या नहीं? दोनों ही पक्षों में अलग-अलग तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। दरअसल संसद पर आतंकवादी हमले के बाद देश का निजाम बुरी तरह हिल गया है। आशंका तो थी पर ये न मालूम था कि हमलावर इतनी आसानी से लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था में घुसे चले आएंगे। अगर उपराष्ट्रपति के काफिले से आतंकवादियों की कार अचानक टकराई न होती तो बहुत बड़ा हादसा हो सकता था। इसीलिए विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर हमला बोल रखा है। उनका कहना है कि जब यह बात मालूम थी कि आंतकवादियों के निशाने पर संसद है तो क्यों नहीं सावधानी बरती गई ? आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई में सरकार का हर तरह से साथ देने को तैयार विपक्ष यह स्वीकारने को तैयार नहीं है कि संसद पर हमले में सरकार ने अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय दिया। भारी दुर्घटना को टाल देने के लिए सभी एकमत से उन सुरक्षाकर्मियों की तारीफ कर रहे हैं जिन्होंने अपनी जान पर खेल कर संसद की रक्षा की। उधर सरकार आतंकवादियों के इस दुस्साहस के लिए पाकिस्तान को जिम्मेदार मानकर उस पर हमला करने का मन बना रही है।
सभी ये मानते हैं कि भारत में आतंकाद फैलने में सबसे बड़ी भूमिका पाकिस्तान की रही है। इस बात के तमाम सबूत भारत सरकार के पास मौजूद हैं। कुछ सबूत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत करके भारत ने अपने प्रति दुनिया भर की सहानुभूति बटोरी है। यह हमारी विदेश नीति की सफलता है। विदेश मंत्री जसवंत सिंह कारगिल युद्ध के समय से ही अपनी भूमिका को बखूबी अंजाम देते आए हैं। 11 सितंबर के हमले के बाद तो अमरीका का रवैया भी बदला है। कश्मीर में फैले आतंकवाद को आज तक आजादी की लड़ाई मानने वाले देश अब यह समझ गए हैं कि कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसमें स्थानीय नागरिकांे की नहीं बल्कि भाड़े के आयातित आतंकवादियों की भूमिका ज्यादा है। जिन्हें पाकिस्तान की संस्था आईएसआई बाकायदा प्रषिक्षण, धन और हथियार देकर भारत भेजती रही है। इसलिए पाकिस्तान के प्रति कड़ा रूख अपनाना जरूरी है। पर देश के रक्षा विशेषज्ञ इस बारे में एकमत नहीं हैं। उनका मानना है कि ऐसा करना अपरिपक्वता का निशानी होगा। क्योंकि 11 सितंबर के बाद अब पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवादियों के शिविर हटा दिए गए हैं। इसलिए हमला करके भी कुछ मिलने वाला नहीं है। अमरीका अफगानिस्तान के विरूद्ध युद्ध में इसलिए कामयाब हो सका क्योंकि उसने इस युद्ध में भारी तादात में संसाधन भेजे, मगर सामने से लड़ने वाले अफगानी संसाधन हीन थे। फिर उसने अफागानियों से लड़वाया भी अफगानियों को ही। जबकि पाक अधिकृत कश्मीर पर अगर भारत हमला करता है तो पाकिस्तान चुप नहीं बैठेगा। वह भी पूरी ताकत लगा कर लड़गा। चीन भी शायद उसकी मदद को कूद पड़े। ऐसे में भारत एक लंबी लड़ाई में उलझ सकता है। जिसका विपरीत असर पहले से लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है। पर इस लड़ाई से भाजपा को उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में फायदा नजर आ रहा है। उसे उम्मीद है कि अगर विहिप राम मंदिर का सवाल उठा ले और भारत पाक के बीच संघर्ष हो जाए तो उसका काम बन जाएगा। लोगों की भावनाएं भड़काने में माहिर भाजपा यह नहीं चाहती कि किसी भी कीमत पर उत्तर प्रदेश की गद्दी उसके हाथ से छिने। अगर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा अच्छा प्रदर्शन नहीं करती तो उसकी केंद्र सरकार को भी भारी खतरा पैदा हो जाएगा। क्याकि तब भाजपा की केंद्र सरकार के सहयोगी दल अपने प्रांतों में होने वाले चुनावों में अपनी स्थिति बचाने के लिए भाजपा से पलड़ा छुड़ाना चाहेंगे। सत्तरूढ दल के लोग यह बात अच्छी तरह से जानते हैं इसलिए पाकिस्तान पर हमले की मांग को सबसे पहले भाजपा सांसदों ने ही हवा दी। उनका यह उत्साह भावनाएं तो भड़का सकता है पर आतंकवाद का समाधान नहीं निकाल सकता। भारत में आतंकवाद की समस्या बड़ी पेचिदा है। आतंकवाद के पनपने में कई चीजें काम करतीं हैं। मसलन धार्मिक स्कूलों या मदरसों में दी जा रही एकतरफा शिक्षा। गरीब युवाओं की बेरोजगारी जो उन्हें आतंकवादियों के सरगनाओं से मदद लेने को प्रेरित करती है। पैसे के लालच में ये युवा अपना सब कुछ गंवाने को तैयार रहते हैं। मजहब के नाम पर इनकी ऐसी दिमागी धुलाई की जाती है कि ये आतंकवाद को जेहाद का हिस्सा मानते हैं और अपने धर्म की रक्षा के लिए अपनी जान तक कुर्बान करने के लिए तैयार रहते हैं। संसद पर हमले में शामिल आतंकवादी युवा खासे पढ़े-लिखे थे। वल्र्डट्रेड सेंटर पर हमले के बाद जब अमरीकी सरकार ने उन हमलों में शामिल आतंकवादियों के अतीत की जांच करवाई तो उसे यह जानकर काफी हैरानी हुई कि ये नौजवान पढ़े-लिख और संपन्न घरों से थे। अमरीका में इस बात पर सघन अध्ययन किया जा रहा है कि पढ़े-लिखे आधुनिक लोग भी इस तरह मजहब के नाम पर अपनी जान कुर्बान करने के लिए कैसे तैयार हो जाते हैं ? यही सवाल भारत के सामने भी है। अगर पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत हमला करके कामयाबी भी हासिल कर ले तो भी आतंकवाद की घटनाओं से बचा नहीं जा सकता। कारण स्पष्ट है- आतंकवादी किसी एक संगठन या इलाके से जुड़े हुए नहीं हैं। सारे देश और विदेशों में फैले हैं। उन्हें आसानी से पकड़ा भी नहीं जा सकता क्योंकि उन्हंे कुछ स्थानीय नागरिकों का संरक्षण भी प्राप्त है। उनकी रणनीति गुरिल्ला है। वे मार कर गायब हो जाते हैं। चूंकि हवाला के जरिए देश में अरबों रूपया रात दिन आकर आतंकवादियों के बीच बंटता रहता है इसलिए वे निश्चिंत होकर अपने नापाक इरादों को अंजाम देने में लगे रहते हैं। संसद पर हमला करने वालों को भी हवाला के जरीए लाखों रूपया बाहर से आया था। इसलिए जब तक देश के भीतर आतंकवादियों के आर्थिक नेटवर्क को नहीं तोड़ा जाता तब तक कुछ खास होने वाला नहीं है। आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में इस बात की खुल कर चर्चा हो रही है कि आतंकवाद को अगर रोकना है तो हवाला नेटवर्क को रोकना होगा। क्योंकि पूरी दुनियां में आतंकवादियों को पैसे हवाला के जरिए ही पहुंच रहे हैं। पर भारत सरकार इस मामले पर खतरनाक चुप्पी साधे बैठी है। बड़े दुख की बात है कि 1991 में सीबीआई को कश्मीर के आतंकवादियों पर मारे गए एक छापे में मिले तमाम सबूतों के बावजूद हवाला कांड को हर स्तर पर बड़ी बेशर्मी से दबा दिया गया। जिसके तमाम सबूत हमारे पास मौजूद हैं। पर उनका जिक्र भर करने से संन्नाटा छा जाता है। सारे राजनैतिक नाटक बेनकाब हो जाते हैं। इस कोताही का नतीजा यह हुआ कि आतंकवादियों के बीच यह संदेश चला गया कि भारत की सरकार और उसकी जांच एजेंसियां आतंकवाद के हवाला स्रोतों को पकड़ने में रूचि नहीं ले रही हैं। आतंकवादियों को यह भी समझ में आ गया कि हवाला के इस अवैध तंत्र से फायदा उठाने वालों में देश के बड़े राजनैतिक दलों के सबसे सशक्त राजनेता भी शामिल हैं। इसीलिए उन्होंने जैन हवाला कांड जैसे महत्वपूर्ण मामले को दबवा दिया। इससे आतंकवादियों के हौसले और बढ़ गए। अगर 1991 से ही जैन हवाला कांड की ईमानदारी से जांच की गई होती तो आज आतंकवाद इस हद तक न फैल पाता। क्योंकि तब हवाला के पूरे नेटवर्क का पर्दाफाश हो जाता। आश्चर्य की बात है कि देश के बड़े नेता और वकील टीवी चैनलों पर आकर पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात तो कह रहे है पर आज तक किसी ने किसी चैनल पर या संसद में या फिर पत्रकारों के सामने जैन हवाला कांड की जांच में हुई कोताही का जिक्र नहीं किया, क्यों ? उन्होंने भी नहीं जिनके दल के नेताओं का नाम इसमें नहीं आया था। अन्य सभी घोटालों पर शोर मचाने वालों को हवाला कांड पर चुप रह जाना उनकी राजनैतिक मजबूरी है तो फिर वे किसी आधार पर आकर एक-दूसरे को कोसने का नाटक करते रहते हैं ?
इन हालातों में यह जरूरी है कि देश की भावनाओं को भड़काए बिना पूरी स्थिति का ठंड़े दिमाग से मूल्यांकन किया जाए। आतंकवाद से निपटने के लिए श्रीकेपीएस गिल जैसे लोगों को देश का सुरक्षा सलाहकार बनाया जाए और जैन हवाला कांड जैसे कांडों को दबाने के लिए जिम्मेदार पुलिस अफसरों व नेताओं के खिलाफ ईमानदारी से जांच करवा कर अपराधियों को सजा दी जाए। यदि ऐसा होता है तो पूरे देश के पुलिस अधिकारियों के सामने एक आदर्श संदेश जाएगा। वह यह कि अगर किसी ने भी आतंकवादियों या उन्हें संरक्षण और मदद देने वालों को पकड़ने में कोताही की तो उस पुलिसकर्मी को आतंकवादियों से मिला हुआ मानकर सजा दी जाएगी। संत तुलसी दास जी कह गए हैं, ‘भय बिन होय न प्रीत।’ इसलिए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का यह कहना महत्वपूर्ण है कि अब वे आतंकवाद से निपटने में मात्र शब्दों से ही काम नहीं चलाएंगे बल्कि कुछ कर दिखाएंगे। अगर वाकई ऐसा होता है तो निसंदेह उसकी छवि सुधरेगी। पर इसके साथ यह अनिवार्य शर्त होगी कि आतंकवाद को अवैध आर्थिक मदद पहुंचाने के तंत्र का पर्दाफाश करने वाले जैन हवाला कांड जैसे कांडों की भी निष्पक्ष जांच करवाई जाए। इससे भारत सरकार की गरिमा और विश्वसनीयता बढ़ेगी। अगर ऐसा नहीं होता तो यह साफ हो जाएगा कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर सत्तारूढ़ दल केवल राजनैतिक लाभ कमाना चाहता है। उसकी रूचि आतंकवाद को खत्म करने की नहीं है। यह बहुत दुखद स्थिति होगी। इसलिए पाक पर हमले से पहले हम अपने गिरबां में झांकें कि क्या हमने देश के भीतर ही आतंकवाद को रोकने के सभी वांछित कदम उठा लिए है ? अगर नहीं तो क्यों नहीं ?
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