लो मानसून भी आ गया और धड़ल्ले से आया। पहले ही दिन देश की राजधानी दिल्ली में नगर निगम की सारी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो गईं। बाकी शहरों की बात ही क्या करें, जहां की नगर पालिकाएं न तो दिल्ली नगर निगम के मुकाबले आर्थिक रूप से मजबूत हैं और न ही अन्य संसाधनों में। इन शहरों में तो एक ही बारिश ने नारकीय स्थिति पैदा कर दी। प्लास्टिक और दूसरे कचरे के ढेर पानी में तैरकर इन छोटे शहरों की सूरत को और भी बिगाड़ रहे हैं। एक दिन की बारिश मंे दिल्ली मे ंबाढ़ आ गई। पर पिछले दो बरस से प्यासी तड़पती धरती मां ने ऐसी प्यास बुझाई कि कुछ ही घंटों में सारा पानी पी गई। बारिश का क्रम जारी है और जारी रहना चाहिए क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था के लिए बारिश का डटकर होना ही फायदेमंद है। पर सवाल है कि यह जो बेइंतहा पानी हमें अब मिल रहा है क्या इसे संचित करने की कोई व्यवस्था हमने की? जरा दो हफ्ते पहले का उत्तर भारत याद कीजिए। धरती सूखी पड़ी थी। कुंडों और सरोवरों में पानी नहीं था। राजस्थान और गुजरात के कुछ इलाकों में तो किसानों को पानी की तलाश में अपने गांव तक खाली कर देने पड़े और दो हफ्ते बाद हर ओर पानी ही पानी है।
हम बरसों से जल संकट की बात करते आए हैं और यह मानते हैं कि दुनिया में पानी का संकट बहुत तेजी से बढ़ता जा रहा है। कहा तो यह जाता है कि आने वाले वर्षों में लोगों, प्रांतों और राष्ट्रों के बीच झगड़े और युद्ध पानी की कमी को लेकर ही होंगे। पिछले 50 साल के सरकारी दस्तावेजों को देखें। जल संसाधन मंत्रालय की फाइलांे को अगर न देख सकें तो किसी भी पुस्तकालय में जाकर पिछले पचास सालों में बरसात के दिनों में दिए गए भारत सरकार और प्रांत सरकारों के बयानों को पढ़ें, जिनमें जल प्रबंधन करने के लिए तमाम बड़ी योजनाओं की घोषणाएं मिल जाएंगी। इन घोषणाओं में दावे किए गए थे कि देश को अतिवृष्टि और अनावृष्टि के संकट से उबारा जाएगा। वर्षा के पानी को जमा करके सूखे के समय में प्रयोग में लाया जाएगा। इसके लिए अरबों रुपये की तमाम योजनाएं बनीं और कागजों पर ही पूरी हो गईं। साठ से नब्बे फीसदी धन भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। नतीजा यह कि एक बारिश देश की राजधानी तक का हुलिया बिगाड़ देती है जबकि उसी राजधानी दिल्ली में एक महीने पहले पानी का संकट इतना बढ़ गया था कि मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित को आदेश जारी करने पड़े कि लोग अपने बगीचों में पानी न डालें। ऐसा करने वाले पर दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी। ये है हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का विरोधाभास। देश की जनता को बार बार बड़े-बड़े सपने दिखाकर नई योजनाओं के नाम पर मूर्ख बनाया जाता है। योजना के घोषित उद्देश्य गलत नहीं होते, पर उनके पीछे छिपी धनलोलुपता हर योजना का भट्टा बैठा देती है।
अब ताजातरीन योजना को ही लें। पूरे देश को बताया जा रहा है कि नदियों को जोड़ने से देश का जलसंकट दूर हो जाएगा। दिखने में यह बात बहुत तार्किक लगती है। 40 से 50 सालों में पूरी होने वाली इस महती योजना के लिए लगभग पांच लाख साठ हजार करोड़ रुपये की फौरी तौर पर जरूरत पड़ने का अनुमान लगाया गया है। पिछले 16 सालों से सरकार इस महायोजना की रूपरेखा तैयार करने के लिए अध्ययन करवा रही है। जिन नदियों में बारिश का पानी कहर बनकर उमड़ता है, उन सभी को आपस में जोड़कर बाढ़ के पानी को सूखाग्रस्त इलाकों तक पहंुचाना ही इस योजना का उद्देश्य है। सरकारी अनुमान के मुताबिक इस परियोजना के पूरी होने के बाद लगभग 150 मिलियन हैक्टेअर जमीन को सींचा जा सकेगा। 35 हजार मेगावाट बिजली उत्पादित की जा सकेगी तथा सूखे से प्रभावित जगहों पर पानी पहंुचाया जा सकेगा। पर, वास्तव में ऐसा हो सकेगा, इसमें उम्मीद कम, संशय ज्यादा है। भ्रष्टाचार और स्वार्थपूर्ति के साथ साथ राज्यों के व्यक्तिगत हित भी इस परियोजना के पूरी होने में आड़े आएंगे जिनका निपटारा करना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। हालांकि इससे पहले भी इतनी बड़ी तो नहीं, परन्तु अच्छी-खासी योजनाएं बन चुकी हैं जिनमें देश का काफी पैसा लगा। उन पर काम भी हुआ। पर नतीजा ये कि अरबों रुपये खर्च करने के बाद भी हम बरसात का केवल दस फीसदी जल रोक पाते हैं, नब्बे फीसदी जल नदियों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है और खारी हो जाता है।
जल प्रबंधन का तो ये हाल है। अब यमुना को प्रदूषण मुक्त करने वाली योजना को ही लीजिए। यमुना एक गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है। कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं की पहल पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस ओर ध्यान दिया और सरकार को उसके दायित्व का अहसास कराया। हाईकोर्ट के निर्देश पर सरकार ने यमुना को साफ करने की भारी भरकम योजना बनाई। अरबों रुपये की धनराशि अवमुक्त की गई। जोर-शोर से काम चला। यमुना में गिरने वाले गंदे नालों को टेप कर दिया गया। शहर की गंदगी यमुना में न जाए, इसके लिए सीवेज टैंक और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाए गए। लोगों को जागरुक करने पर भी लाखों रुपये फूंक दिए गए। पर, लोगों में न जागरूकता आनी थी और न ही आई। आज भी यमुना में गंदगी की वही स्थिति है जो परियोजना शुरू होने से पहले थी। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा यमुना नदी के किनारे बसे शहरों में बनाए गए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट सफेद हाथी की तरह खड़े होकर लोगों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। प्रोजेक्ट बनाने वाले नीति निर्धारकों ने आपस में तय किया था कि इन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों को बनाकर स्थानीय नगर पालिकाओं के सुपुर्द कर दिया जाएगा। बन जाने के बाद जब सीपीसीबी ने इन्हें नगर पालिकाओं से लेने के लिए कहा तो उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। अपनी सीमित संसाधनों से जैसे तैसे काम चला रहीं बदहाल नगर पालिकाएं इन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों का खर्च कैसे उठाएंगी, यह किसी ने नहीं सोचा था। अब स्थिति यह है कि रखरखाव के अभाव में यह ट्रीटमेंट प्लांट अपनी गंदगी ही साफ नहीं कर पा रहे हैं, शहर की गंदगी को यमुना में जाने से रोकने की बात तो छोड़ दीजिए। गंगा मुक्ति अभियान की कहानी भी इससे फर्क नहीं है।
झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में बहने वाली भारत की एक प्रमुख नदी दामोदर की स्थिति तो और भी ज्यादा भयावह है। छोटा नागपुर पठार के खरमरपेट पहाडि़यों से निकली 563 किमी लम्बी दामोदर नदी का पानी पीने की तो छोडि़ए, अन्य उपयोग के लायक भी नहीं है। नदी के आसपास के इलाके में करीब 183 कोयले की, 28 लौह अयस्क की, 33 चूने की, 5 काॅपर की तथा 84 माइका की खदानें हैं। इसके अलावा देश के जानी-मानी जल विद्युत परियोजनाएं भी इसी क्षेत्र में हैं। बड़ी-बड़ी इन खदानों तथा विद्युत परियोजनाओं में दामोदर नदी का पानी ही इस्तेमाल किया जाता है। अपना काम निकलने के बाद गंदे पानी को नदी में ही छोड़ दिया जाता है। हालत यह है कि कुछ स्थानों पर नदी पूरी तरह कोयले से भरी पड़ी है। नदी में हाथ डालो तो पानी नहीं कोयला निकलता है। नदी संरक्षण के लिए बनाई गई दामोदर वैली कारपोरेशन भी उपाय करते-करते थक गई है, परन्तु नतीजा कुछ नहीं निकल पा रहा है। नदी में प्रदूषण कम होने के बजाए बढ़ता जा रहा है। दामोदर तथा इसकी सहायक नदियों साफी और कोनार के किनारे अकेले झारखंड राज्य में ही करीब दस लाख लोग रहते है। पानी का कोई और सहारा न होने के कारण यह दामोदर नदी के प्रदूषित पानी पर ही निर्भर हैं। मजबूरी में लोग अयस्कों से भरा यह पानी पीते हैं और डायरिया, गेस्ट्रोएंटराइटिस, हैपेटाइटिस तथा गंभीर त्वचा रोगों के चंगुल में फंसे रहते हैं।
भारत मंे प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 1,869 क्यूबिक मीटर है। सन् 1951 में जहां यह 5,177 थी वहीं सन् 2050 में इसके 1,140 क्यूबिक मीटर रह जाने की आशंका जताई जा रही है। यह साबित करता है कि हमारे देश में पानी की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं है। यदि समय रहते पृथ्वी पर अमृत समान मौजूद पानी को बचाने की सकारात्मक और प्रभावी पहल नहीं की गई, तो हम सभी गंदा जहरीला जल पीने पर मजबूर होंगे। इसलिए जरूरत है कि पानी के मामले में हम सब जागें और सरकार पर दबाव डालें ताकि पानी के प्रबंध को लेकर योजनाएं बनाने वाले गैर जिम्मेदाराना तरीके से काम करना बंद कर दें। देश में जल की कमी नहीं है पर भ्रष्टाचार के चलते उसका प्रबंध नाकारा है। नदियों को जोड़ने की योजना की सफलता उसे लागू करने वालों की ईमानदारी पर निर्भर करेगी।