जब से बीजेपी ने खुलकर यह घोषणा की है कि वो अपने मूल एजेन्डे पर टिकी रहेगी और आगामी चुनावों में एक दल के रूप में अपने एजेन्डे पर ही चुनाव लड़ेगी तब से बीजेपी के कई नेताओं के स्वर तीखे होते जा रहे हैं।जहां एक तरफ गुजरात के चुनाव की विजय ने भाजपा में नये रक्त का संचार किया है वहीं उसके विरोधी गुजरात को एक खास परिस्थिति मानकर नकार रहे हैं और धर्म निरपेक्ष ताकतों को एकजुट करने की अपील कर रहे हैं। इस माहौल में एक सवाल जो सबके जहन में घूम रहा है वो ये कि क्या भारत हिन्दू राष्ट्र बनेगा ? भाजपा नेतृत्व राजग के दबाव के चलते चाहे जो कहे पर उसके कार्यकर्ता और संघ और विहिप के लोगों में यह विश्वास है कि एक न एक दिन भारत को हिन्दू राष्ट्र बनना ही होगा। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो यह कहे हैं कि भारत तो हिन्दू राष्ट्र है ही क्योकि इसकी बहुसंख्यक आबादी हिन्दू है। दूसरी तरफ मुसलमानों की सोच में भी बदलाव आया है। एक तरफ तो कट्टरपंथी फिलहाल खामोश हो गये हैं क्योंकि उन्हें यह साफ दिख रहा है कि जितना मुस्लिम साम्प्रदायिकता ज्यादा मुखर होती है उतनी ही हिन्दू साम्प्रदायिकता भी तेजी से बढ़ रही है। इसलिये मुसलमानों के समझदार तबके ने इन साम्प्रदायिक नेताओं से अपनी जुबान बंद रखने को कहा है। गनीमत है कि अब मुसलमानों के बीच समझदार लोगों की बात सुनी जा रही है। जहां तक भारत के हिन्दू राष्ट्र बनने या न बनने का सवाल है तो इस विषय पर देश के लोगों को गंभीरता से सोचने की जरूरत है। केवल भावनायें भड़काकर लोगों को गुमराह करने से कुछ नहीं होगा। कुछ बुनियादी बातें समझनी होंगी।
यह सच है कि भारत मंे बहुसंख्यक हिन्दू रहते हैं और वैदिक संस्कृति का पालन करते हैं जिसकी जड़ंे दुनिया के किसी भी धर्म से ज्यादा पुरानी हैं। इतना ही नहीं वैदिक धर्म के कुछ सिद्धांतों को तो अब सारी दुनिया मानने लग है। अंधविश्वास के तौर पर नहीं बल्कि वैज्ञानिक परीक्षणों से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर। मसलन आज सारी दुनिया में आयुर्वेद का हल्ला है। पूरी दुनिया को अब ऐलोपैथी के मुकाबले आयुर्वेद की श्रेष्ठता समझ में आ रही है। आयुर्वेद वैदिक संस्कृति का ही तो अंग है। इसी तरह योग और ध्यान भी आज पूरी दुनिया में स्थापित हो चुका है। इतना ही नहीं भारतीय खान पान, दिनचर्या, संस्कृत भाषा व आध्यात्मिक ज्ञान अपनी श्रेष्ठता के झंडे गाड़ रहा है। इसमें न तो अति उत्साहित होने की बात है और न ही विस्मय की। जो सत्य है वह शाश्वत है। गाय के शरीर से निकले पदार्थ पांच हजार वर्ष पूर्व जो गुण लिये थे वे आज भी वैसे ही हैं। अपनी मूर्खता के कारण अगर पश्चिमी दुनिया ने इस वैदिक ज्ञान का उपहास किया तो उससे वह ज्ञान निरर्थक नहीं हो गया। हां, यह जरूर हुआ कि पश्चिमी मानसिकता से प्रभावित लोगों ने इस स्वयंसिद्ध ज्ञान को आगे फैलने से रोका। इसके पीछे बाजारू शक्तियों की साजिश भी रही। दवा कंपनियां क्यों चाहेंगी कि लोग आयुर्वेद, योग और ध्यान के सिद्धांतों का अनुपालन कर स्वस्थ और सुखी बनें। वे तो बीमार को ठीक करने का दावा करेंगी ताकि अरबों खरबों रुपये की दवाई बेच सकें। इसीलिये उनकी मेडीकल साइंस ‘पैथी’ है यानि निदान की तकनीकी। चाहे ऐलौपैथी हो, चाहे होम्योपैथी या फिर नेचुरोपैथी। जबकि हमारी मेडीकल साइंस आयुर्वेद है। आयु का वेद यानि आयु बढ़ाने का ज्ञान। बीमार को ठीक करने का नहीं। जब व्यक्ति तन और मन से स्वस्थ होगा तभी तो दीर्घायु होगा और तब रोग की जगह कहां बचेगी ? जब रोग ही नहीं होगा तो उसके निदान की पैथी की जरूरत कहां पड़ेगी ? आयुर्वेद, योग और ध्यान किसी दवा कंपनी के उत्पादन नहीं हैं। यह तो वह ज्ञान है जो जीवन की दृष्टि देता है। इसमें कहीं व्यवसायिक मुनाफे की भावना नहीं है। अब तो ईसाई मिशनरी भी आयुर्वेद का प्रचार करने में लगे हैं। ये वो ही मिशनरी हैं जो सौ बरस पहले सीधे सादे भारतीयों का उनकी गौ भक्ति के लिये मजाक उड़ाते थे। इसी मानसिकता के असर में भारत के सत्ताधीशों ने पारंपरिक ज्ञान की उपेक्षा की। अगर सारी दुनिया आयुर्वेद, योग और ध्यान की श्रेष्ठता को मानने लगी है। पेटेंट तक कराये जा रहे हैं तो भारत के सत्ताधीशों को और भारत के तथाकथित बुद्धिजीवियों को अपनी भूल स्वीकारने में शर्म कैसी ? अगर जीवन जीने की इस पद्धति को सरकार टी वी व जनसंचार के अन्य माध्यमों से प्रोत्साहित करती है और हमारे सत्ताधीश अपने आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करते हैं तो बिना खर्चे के सौ करोड़ भारतीय स्वस्थ और सुखी हो सकते हैं। पर तब कोई दवा घोटाले करने की गुंजाइश नहीं बचेगी। अगर ऐसा होता है तो पूरे देश का कल्याण होगा। फिर उसे चाहे हम हिन्दू राष्ट्र मानें या धर्म निरपेक्ष राष्ट्र मानें। इंका ऐसे फैसले ले या भाजपा ले। असली मकसद तो स्वास्थ्य के प्रति दृष्टि बदलने का है। भाजपा हिन्दू राष्ट्र का नारा तो लगाती रहे पर उसकी स्वास्थ्य नीति में आज भी प्राथमिकता अगर ऐलोपैथी को मिली हुई है तो केवल नारे लगाने से भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं बनेगा। मुश्किल ये है कि हर राजनैतिक दल को पैसे की मदद औद्योगिक घरानों से ही मिलती है। जो औद्योगिक घराने भाजपा को पैसे देते हैं वही इंका को भी देेते हैं। उनमें बहुत से दवाई कंपनियों के निर्माता भी हैं। उन्हें तो अपने मुनाफे से मतलब है। सरकार में जो भी आये उसकी नीति ऐसी बने कि उनका मुनाफा बढ़ता ही जाए। कोई हिन्दू राष्ट्र का नारा देकर सरकार में आना चाहता है तो आ जाए और अगर कोई धर्म निरपेक्षता का नारा देकर सत्ता पाना चाहता है तो बेशक आये पर खबरदार! स्वास्थ्य नीति वही बनेगी जो दवा कंपनियां या बहुराष्ट्रीय कंपनियां चाहेंगी।
इसी तरह शिक्षा की बात है। आधुनिक शिक्षा का कोई विरोध भारत की पारंपरिक शिक्षा से नहीं है। हरेक की अपनी जगह और जरूरत है। पर, शिक्षा के नाम पर जो कुछ पश्चिम में परोसा जा रहा है उससे युवाओं में पैसा कमाने की होड़ तो पैदा हो रही है पर जीवन मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। उनके ही सर्वेक्षण बताते हैं कि उनके यहां युवा और व्यवसाई लोग लगातार बेहद तनाव में जी रहे हैं। छूत की यह बीमारी भारत के नये पनपे एक्जीक्यूटिव वर्ग में भी आ गयी है। पांच लाख रुपया महीना कमाने वाला 33 वर्षीय नौजवान भी सुखी और संतोष में नजर नहीं आता। यह तनाव भरी स्पर्धा परिवारों में भौतिक सुख भले ही ले आये, परिवार का सुख चैन छीन रही है। आज तक हमने भारत की पारंपरिक शिक्षा को महत्व नहीं दिया। ना गांधी के अनुयायियों ने और ना ही हिन्दू धर्म का ढिंढोरा पीटने वालों ने। देश में ऐसे सैकड़ांे लोग हैं जिन्होंने पश्चिमी देशों मंे उच्चतम शिक्षा पाई है फिर भी भारतीय शिक्षा और संस्कृति के प्रति उनके मन में आस्था घटी नहीं बढ़ी है। ऐसे लोगों को अगर भारत की शिक्षा को सजाने संवारने की स्वतंत्रता मिलती है तो समाज का कल्याण होगा, अन्यथा नहीं। निहित स्वार्थों के राजनैतिक दबावों के चलते अगर देश में तेजी से पश्चिमी मूल्यों पर आधारित शिक्षा का प्रचार प्रसार हो रहा है तो काहे का हिन्दू राष्ट्र। उसे चाहे हिन्दू राष्ट्र मानो या मत मानो।
हिन्दू संस्कृति में भोजन के पकाने और खाने की बहुत वैज्ञानिक और विस्तृत आचार संहिता है जिसका पालन करने वाली पीढ़ी आज भी अपने उदाहरण से इस पद्धति की श्रेष्ठता सिद्ध कर सकती है। दुर्भाग्य से पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों के ‘जंक फूड संस्कृति’ को भारत में बेलगान फैलने की छूट दे दी गयी। उस जंक फूड को जिसे पश्चिम नकार चुका है। अगर भारतीय सत्ताधीश देश की पारंपरिक भोजन संस्कृति का प्रचार प्रसार नहीं कर सकते तो भारत कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं बन सकता। अपनी परंपरा कहती है जैसा खाओ अन्न वैसा मने मन। इस मामले में पूर्वी दुनिया के सभी देश सहमत हैं कि उनकी पारंपरिक भोजन संस्कृति को जंक फूड संस्कृति ने बुरी तरह प्रभावित कर दिया है। इसमें कोई हिन्दू या मुस्लिम राष्ट्र की बात नहीं है।
आज टेलीविजन चाहे अनचाहे हर घर में घुस गया है। जिस पर नब्बे फीसदी कार्यक्रम निहायत वाहियात, बेसिर पैर के और फूहड़ मनोरंजन लिये होते हैं। अगर भारत के सत्ताधीश टेलीविजन चैनलों के माध्यम से आने वाले इस पश्चिमी कचरे को रोक पाने में नाकाम रहे हैं तो भारत कभी हिन्दू राष्ट्र नहीं बन सकता। जो कुछ हमारी आंखें देखती हैं उसका हमारे दिल और दिमाग पर असर पड़ता है। आज किसी भी घर में जाइये बच्चों का व्यवहार टी वी के विज्ञापनों और सीरियलों से नियंत्रित हो रहा है। इससे हिन्दु ही नहीं मुसलमान भी दुखी हैं। अगर यह रुकता है और पूर्वी देशों की प्राचीन संस्कृति के अनुरूप कार्यक्रम प्रसारित होते हैं तो उससे हिन्दू भी खुश होंगे और मुसलमान भी। पर, ऐसा होगा नहीं क्योंकि आज के सत्ताधीश वैश्वीकरण की दौड़ में अपनी आजादी गिरवी रख चुके हैं। नारे कितने ही लगें, टी वी पर दिखाया वही जाएगा जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां चाहेंगी। उनकी रुचि ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के भारतीय जीवन मूल्य में नहीं है। उनका तो नारा है ‘महंगा जीवन बनो कर्जदार।’ फिर भारत कैसे हिन्दू राष्ट्र बनेगा ?
इसका मतलब ये नहीं कि जो कुछ पुरातन है, पूर्वी संस्कृति का है वह सब सर्वश्रेष्ठ है। जो कुछ पश्चिम से आया वह सब कचरा है। दरअसल संतुलन की जरूरत है। पश्चिम का प्रबंध और पूर्व की दृष्टि अगर मिल जाए तो पूरे विश्व का कल्याण हो सकता है। पर तकलीफ इस बात की है कि पश्चिमी ताकतें खुद को दुनिया का ठेकेदार मान बैठी हैं। इसलिये योग हो या आयुर्वेद, हल्दी हो या नीम सब पर ये ताकतें अपना मालिकाना हक जमाती जा रही हैं। इस घातक प्रवृत्ति को रोकने में नाकाम राजनेता न तो भारत को हिन्दू राष्ट्र बना सकते हैं और ना ही गांधी के सपनों का भारत। यह फैसला तो देश की चिंता करने वाले लोगों को करना है कि वे अपनी आंखों के सामने अपने देश को लुटते और बरबाद होते देखते रहेंगे या पूरे देश में एक सशक्त और साझा मंच बनाकर अपने सत्ताधीशों को मजबूर करेंगे कि वे जो कुछ करें उसमें समाज का हित सर्वोच्च हो। उनकी यह एकजुटता पश्चिमी ताकतों को भी घुटने टेकने पर मजबूर कर सकती है क्योंकि जिन कुंठाओं और नाराजगियों को लेकर मुस्लिम समाज में बिन लादेन पैदा हो गया अगर पश्चिम का पूर्व के प्रति यही रवैया रहा तो कल हिन्दू समाज में भी आतंकवादी पैदा हो सकते हैं। भारत हिन्दू राष्ट्र बनेगा या है, एक बात साफ है कि 15 करोड़ मुसलमान यहीं रहेंगे अपनी तरह से रहेंगे और शेष समाज से मिल जुलकर रहेंगे। पर इस बात में कोई शक नहीं होन चाहिये कि जो कुछ समाज के लिये उपयोगी है उसे केवल धर्मान्धता के कारण नकारना न तो मुसलमानों के हक में है, न हिन्दुओं के और न ही धर्मनिरपेक्षतावादियों के।