कुछ ऐसे महत्वपूर्ण लोग जो कल तक साम्यवादी, गांधीवादी या आर.एस.एस. की विचारधारा के थे पिछले कुछ वर्षो में धीरे धीरे पूंजीवाद व विदेशी निवेश के समर्थक बन गए हैं। ये लोग भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध करने वालों को दकियानूसी मानते हैं। इनका तर्क है कि पिछलेे पचास वर्षों में भारत जिन नीतियों को लेकर चला उनसे देश की तरक्की नहीं हुई, भ्रष्टाचार बढ़ा और गरीब की हालत जस की तस रही। जबकि एशिया के तमाम देश जिनकी हालत पचास वर्ष पहले भारत के मुकाबले कहीं ज्यादा दयनीय थी आज तरक्की में बहुत आगे निकल गए हैं। क्योंकि इन देशों नें पूंजीवाद को अपनाया और प्रतिभाओं को बढ़ने का मौका दिया। विदेशी निवेश के हिमायती प्रश्न पूछते हैं कि अगर कोई कंपनी भारत में 1,000 कि,मी, ‘एक्सपे्रस हाइवे’ बनवाए तो किसका फायदा होगा ? गांव-गांव में एस.टी.डी. बूथ खुलने से व्यापार व संचार में जो गति आई क्या उसका फायदा आम आदमी को नहीं मिल रहा ? अमरीका की माइक्रोसाॅफ्ट कम्पनी में आज 35 प्रतिशत भारतीय हैं। अब यह कंपनी अमरीका के बाद दुनिया में अपना दूसरा सबसे बड़ा विनियोग भारत के हैदराबाद शहर में करने जा रही है। इससे किसे फायदा मिलेगा। जाहिरन भारत के मेधावी युवाओं को ही मिलेगा फिर मल्टीनेशनल का विरोध क्यों ?
इनका तर्क है कि आजादी बचाओ आन्दोलन चलाने वाले लोग जनता को गुमराह कर रहे हैं। तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर अपने कैसेटों में पेश कर रहे हैं। वे लोगों को सच्चाई से मुंह मोड़ कर अंधेरे में रखना चाहते हैं। अब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था, संचार व व्यापार इतनी तेजी से एक दूसरे से जुड़ते जा रहे हैं कि भारत या कोई देश चाहे भी तो इससे अछूता नहीं रह सकता। वे पूछते हैं कि क्या वजह है कि इनके विरोध करने के बावजूद पेप्सी कोला जैसे पेयों की लोकप्रियता में रत्ती भर भी कमी नहीं आ रही ? आम उपभोक्ता को इससे मतलब नहीं कि वस्तु स्वदेशी है या विदेशी वह तो सिर्फ इस बात पर आश्वस्त होना चाहता है कि वह जो वस्तु खरीद रहा है वह बढि़या है और दाम में दूसरे से कम है। बजाज आटो के स्कूटर अगर बनकर बेकार खड़े हैं और हीरो होंडा की बिक्री तेजी से हो रही है तो इसके लिए भारत का उपभोक्ता क्यों आंसू बहाये ? वह तो कम पेट्रोल में ज्यादा चलने वाला उन्नत तकनीकी का वाहन ही खरीदेगा। क्यों नहीं एम्बेस्डर, फिएट कार बनाने वालों ने पिछले पचास वर्षों में अपने माॅडलों का सुधार किया ? क्यों ये वाहन निर्माता ब्लैक मार्केट को नहीं रोक पाए ? क्यों इन्होंने कभी उपभोक्ता की वैसी परवाह और खुशामद नहीं की जैसी आज कर रहे हैं ? आज जब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के काम का तरीका उपभोक्ता के सामने आ रहा है तो उनको देशी व विदेशी कंपनियों की कार्य संस्कृति में फर्क नज़र आने लगा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां उपभोक्ता के संतोष को प्राथमिकता देती हैं। इतना ही नहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियां में काम करने वाले देशी मजदूरों, तकनीशियनों और प्रबन्धकों से पूछिए काम की दशा व गुणवत्ता में देशी और विदेशी कंपनियों में कितना अंतर है ? क्या वजह है कि समाज सुधारकों, गांधीवादियों और माक्र्सवादियों के बच्चे भी मल्टीनेशनल में नौकरी के लिए भाग रहे हैं ? जहां अच्छा वेतन और काम करने का बेहतर वातावरण मिलेगा वहां कौन काम करना नहीं चाहेगा? स्वदेशी के समर्थक जब इन लोगों से पूछते हैं कि अफ्रीका और लातिनी अमरीका के देशों को तो इन्हीं मल्टीनेशनल्स ने लूट कर बर्बाद कर दिया, तो उदारीकरण के समर्थक असहमति नहीं जताते। पर तर्क देते हैं कि उन देशों के हालात हमसे भिन्न थे। उनके नागरिक भारतीयों की तरह मेधावी, सक्षम व जागरूक नहीं थे। आज तो भारत के लोग अमरीका के उद्योग धंधों में भी छा गए हैं। पर अफ्रीका व लातिनी अमरीका के लोग ऐसे कुशल नहीं थे। उनके यहां लोकतंत्र नहीं था, सैनिक तानाशाही थी जिसे भ्रष्ट करके अपने कब्जे में लेना सरल था। बाकी दुनिया से उनका संचार व सम्पर्क नगण्य था जबकि आज सूचना क्रांति के चलते सारी दुनिया आपस में जुड़ गई है। इसलिए विदेशी निवेश के हिमायती मानते हैं कि भारत की गति अफ्रीका व लातिनी अमरीका के देशों जैसे नहीं होगी। बल्कि भारतीयों को जैसे ही खुलकर आगे बढ़ने का मौका मिलेगा तो वे पूरी दुनिया पर छा जायेंगे। जैसे आज अमरीका में हो रहा है। वहां रहने वाले अनिवासी भारतीयों ने वहां के उद्योग और व्यापार में अपनी खास जगह बना ली है। अब तक भारतीय मेधा को ढोंगी समाजवाद के नाम पर दबा कर रखा गया।
मल्टीनेशनल्स के समर्थक लोग यह नहीं मानते कि देशी उद्योगपतियों के मुकाबले मल्टीनेशनल्स ज्यादा भ्रष्ट है। वे तो पलट कर प्रश्न करते हैं कि क्या वजह है कि भारत के उद्योगपतियों ने देशी बैंकों का 58 हजार करोड़ रूपया कर्ज ले रखा है और उसे वापिस करने को भी तैयार नहीं हैं। कर्जा लौटाना तो दूर इन उद्योगपतियों के नेता राहुल बजाज सरीखे लोग तो सरकार से 58 हजार करोड़ रूपये का कर्जा माफ करने की अपील करते हैं। ये कैसा मजाक है ? एक तरफ तो देश में दस हजार रूपये का कर्जा न दे पाने वाला मजबूर किसान आत्महत्या कर लेता है और दूसरी तरफ देशी उद्योगपति अपने राजनैतिक दबाव के बूते पर इतना बड़ा भ्रष्टाचार कर रहे हैं। कोई इनके खिलाफ क्यों नहीं बोलता ? जैसे गरीब किसान की सम्पत्ति बैंक वाले कुर्क करा देते हैं वैसे ही इन उद्योगपतियों की सम्पत्ति कुर्क क्यों नहीं करवाते ? दरअसल राजनेताओं को चुनावी चंदा या मोटी रिश्वत देकर ये उद्योगपति उनका मुंह बन्द करवा देते हैं।
भारत इतना विशाल देश फिर भी करोड़ों लोग भूखे नंगे सोते हैं। क्या मल्टीनेशनल्स की आंधी इन गरीबों को रौंद तो नहीं देगी ? स्वदेशी जागरण मंच से जुड़े भाजपा के महासचिव रहे श्री गोविन्दाचार्य कहते हैं कि आने वाले समय में देश के बहुसंख्यक बदहाल लोगों का आक्रोश भयावह स्थिति का निर्माण करेगा। भारी बेरोजगारी फैलेगी, इसलिए इस दिशा में बहुत काम करने की जरूरत है। दूसरी तरफ विदेशी निवेश के हिमायती ऐसे संदेहों को गम्भीरता से नहीं लेते। उनका कहना है कि जब तकनीकी बदलती है तो रोजगार के पुराने क्षेत्र समाप्त हो जाते हैं और नये क्षेत्र पैदा हो जाते हैं। मसलन सदी के शुरू में अमरीका में जितने क्लर्क थे उसकी तुलना में आज वहां दस फीसदी भी नहीं बचे। तो क्या लोग शोर मचायें कि रोजगार घट गया जबकि कंप्यूटर जैसे नये क्षेत्र के विकसित होने से लाखों रोजगार पैदा हो गये हैं। इस पक्ष के लोगों का विश्वास है कि सूचना और तकनीकी के क्षेत्र में तेजी से आये परिवर्तन के कारण भविष्य में भारत के मध्यमवर्ग का आकार मौजूदा दस करोड़ से बढ़कर पचास करोड़ हो जायेगा। इनकी तरक्की के साथ निर्बल वर्ग की तरक्की स्वतः ही हो जायेगी। ये लोग यह भी पूछते हैं कि समाजवाद का मुखौटा ओढ़कर पिछले पचास वर्षों में रोजगार क्यों नहीं बढ़ पाया ? उधर स्वदेशी के पैरोकारों को उन शेष पचास करोड़ भारतीयों की चिन्ता है जो भूमण्डलीकरण के इस दौर में अनेक कारणों से पिछड़ जायेंगे और पेट की आग बुझाने के लिए हिंसा का रास्ता अपना सकते हैं।
विदेशी निवेश के हिमायती यह दावा करते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां स्वस्थ प्रतियोगिता को बढ़ाती हैं। हर व्यक्ति को अपनी क्षमता अनुसार काम करने के अवसर प्रदान करती है। उसके काम के आधार पर ही उसे तरक्की मिलती है। वही भारतीय जब राष्ट्रीयकृत बैंक में काम करते हैं तो कोताही बरतते हैं, रूखा व्यवहार करते हैं। जब यही लोग बहुराष्ट्रीय बैंक में आ जाते हैं तो उनका आचरण और व्यवहार सब बदल जाता है। इतना ही नहीं देशी उद्योपतियों के मुकाबले विदेशी कंपनियों में कर्मचारियों की प्रबन्ध में हर स्तर पर भागीदारी सुनिश्चित होती है। वहां श्रम कानूनों का कड़ाई से पालन होता है जबकि मौजूदा व्यवस्था में मजदूरों का शोषण होता है।
विदेशी पूंजी के समर्थक यह मानते हैं कि देश में पानी की समस्या या साक्षरता और स्वास्थ्य की समस्या का निदान मल्टीनेशनल्स के पास नहीं है। ऐसे क्षेत्रों में तो स्वयं सेवी संगठनों और धर्मार्थ संस्थाओं को ही सामने आना पड़ेगा। स्थानीय समुदायों की साझी समझ और सहयोग से ही स्थानीय समस्याओं के हल ढूंढे जा सकते हैं। जैसे इस वर्ष गुजरात के लोगों ने छोटे-छोटे बांध बनाकर जल स्तर ऊंचा कर लिया। इसी तरह अन्य क्षेत्रों में भी लोग ऐसी समस्याओं से निपट सकते हैं। एक फार्मूला सब जगह फिट नहीं हो सकता। जहां मल्टीनेशनल्स की जरूरत है वहां उन्हें आने दिया जाए और जहां देशी उद्योग की जरूरत हो वहां वह रहे। इसलिए विदेशी निवेश के पैरोकारों का दावा है कि पूंजीवाद ही भारत की समस्याओं का हल निकाल सकता है। उनके ये तर्क प्रायः अंगे्रजी मीडिया में ही आते हैं। जरूरत है कि भाषाई मीडिया में भी इस गम्भीर प्रश्न पर बहस चले।